Friday 2 April 2010

अजनबी भाषा का वह शहर और तीन लड़कियां

हॉस्‍टल के कमरे में वो तीन लड़कियां साथ रहती थीं। सदफ, शिएन और अपराजिता। सदफ हमेशा चहकती, मटकती सारी दुनिया से बेपरवाह अपनी रंगीन खुशियों में खोयी रहती थी। ज्‍यादातर समय दोस्‍तों के साथ घूमती-फिरती और रात होने से पहले ही कमरे में नमूदार होती। लौटकर भी पूरे समय मोबाइल पर लगी रहती।

शिएन कमरे के एक कोने में ऐसे रहती थी जैसे घर के किसी कोने में धूल और जालों से अटी कोई सुराही पड़ी रहती है। कोई उधर झांकने भी नहीं जाता, कोई उसके पड़े होने की परवाह भी नहीं करता। वो हो, न हो, किसी को क्‍या फर्क पड़ता है। उसकी आंखें पुराने जंग खाए कनस्‍तर सी खाली थीं, त्‍वचा महीनों अकेले धूप में पड़े हुए बैंगन की त्‍वचा जैसी झुलसी और बेजान, छातियां बिलकुल सपाट क्‍योंकि शरीर पर जरा भी मांस नहीं था। वो इतनी पतली थी कि उसकी एक-एक हड्डी गिनी जा सकती थी। लेकिन उसके पास जीजस क्राइस्‍ट थे। चर्च का अकेला कोना और प्रेयर की एक किताब।

अपराजिता न सदफ थी, न शिएन। उसके पास न दोस्‍तों की एक लंबी फेहरिस्‍त थी, न हर शाम समंदर के किनारे उसका हाथ थामकर चूमने की हड़बड़ाहट दिखाने वाला कोई प्रेमी और न ही जीजस क्राइस्‍ट का सहारा। उसके भीतर बजबजाती रौशनियों का एक शहर था, जिसकी सीली सूनसान गलियों से होकर कोई नहीं गुजरता था। जहां पूरी रात आवारा कुत्‍ते भौंकते, दीवार चाटते, लैंपपोस्‍ट से टिककर अपनी पीठ रगड़ते और आपस में लड़ते रहते थे। हर दिन उसका मन करता कि बस हुआ, अब तो मर ही जाना चाहिए।

शिएन के मन की गलियां तो और भी ज्‍यादा खतरनाक थीं। ऐसे बंद थे सारे खिड़की-दरवाजे कि धूप की एक पतली लकीर या हवा का एक मामूली सा टुकड़ा भी भीतर नहीं जा सकता था। वो दुनिया में ऐसे अजनबियों की तरह रहती थी मानो किसी को जानती-पहचानती ही नहीं। उसके मन की अंधेरी गलियों में आवारा कुत्‍ते भी नहीं भटकते थे। आवारगी भी होती तो कम-से-कम जिंदगी की कुछ तो हलचल होती। लेकिन नहीं, मजाल था कि एक तिनका भी हिल जाए। लेकिन कभी वहां से होकर सब गुजरे थे, शराबी, जुआरी, औरतबाज, हाथ थामते ही सीधे बिस्‍तर पर सुलाने वाले और फिर वापस लौटते हुए पान की पीक जैसे सीढि़यों के कोने पर थूककर कट लेने वाले। कभी लौटकर न आने वाले। रात के अंधेरों में कपड़े उतारने को बेताब और दिन के उजाले में पहचानने से भी इनकार करने वाले। कौन जानता था उसके मन की गलियों के किस्‍से? यकीनन उसने ठीक-ठीक खुलकर कभी नहीं बताया, किसी को नहीं, लेकिन हर बात को ठीक-ठीक खुले शब्‍दों की जरूरत होती भी नहीं। वो ऐसे ही अपना अर्थ जाहिर कर देती हैं।

बयालीस की उम्र पार कर दुनिया के प्रति जैसा वैराग और अजनबियत उसकी आंखों में रहती थी, जिस तरह वो किसी को भी जरा भी करीब आते देख फट से अपने खोल में दुबक जाती, हाथ मिलाने या मुस्‍कुराने तक को तैयार न होती, पता नहीं क्‍यों कभी-कभी अपराजिता उसकी आंखों में अपना भविष्‍य देखती। शिएन जहां जा चुकी थी, अपराजिता उस ओर बढ़ रही थी। वो कुछ ज्‍यादा ही पैसिमिस्टिक थी। उन दुखों को भी अपना समझ लेती, जो उसके होते ही नहीं। जितना बतंगड़ मचाती दिखती, भीतर उतनी ही डूब रही होती।

सदफ की दुनिया बिलकुल अलग थी। उसे उन दोनों के मन की गलियों की कोई भनक तक नहीं थी। उसके मन में खुली चौड़ी राहें थीं, राहों पर बिछा आसमान। हाथ थामे साथ-साथ उड़ता हुआ प्‍यार। उसके मन की पटरियों से तयशुदा टाइमटेबल और मंजिल वाली टेनें गुजरती थीं, जिनके गुजरने के रास्‍ते तय थे और मंजिल तो सफर की शुरुआत से पहले ही तय होती थी।

अपराजिता शिएन की आंखों में देखती और डर जाती। नहीं, मैं शिएन जैसी नहीं हो सकती। मैं कभी शिएन जैसी नहीं होऊंगी। ये वहशत, ये अजनबियत, बिलकुल नहीं। न सही खुला आसमान, आवारा फिरते कुत्‍ते ही सही। वैराग नहीं, आवारगी ही सही।

गुजरी सदी के उत्‍तरार्द्ध में इसी देश के एक महानगर, जो न कभी रुकता था, न कभी सोता था, के किसी कमरे में वो तीनों लड़कियां साथ रहती थीं। यूं देखो तो कुछ खास फर्क नहीं था, पर दरअसल इतना फर्क था कि जिनके किस्‍से कहते-कहते पूरी एक उम्र गुजर जाए। एक हमेशा बात करती थी, दूसरी के पास न शब्‍द थे, न भाषा। एक के लिए चारों ओर अपने लोग, अपने संगी थे, दूसरी का कोई दोस्‍त नहीं था।

ये उसी सदी में उसी देश में घट रहा था, जहां के तमाम नियम-संविधान हर किसी के लिए एक जैसे सुखों और दुखों की गारंटी करते थे, पर जिस देश में एक के लिए राजधानी के संगमरमरी कालीन थे और दूसरा मां के पेट से बाहर आते ही जान लेता था कि वो एक ऐसे अजनबी संसार में आ गया है, जहां सब एक विचित्र, अजनबी भाषा बोलते हैं। वो कभी उस दुनिया का हिस्‍सा नहीं हो सकेगा। जहां कोई उसका अपना नहीं, जहां कभी कोई उसका अपना नहीं होगा।

Thursday 1 April 2010

जीवन की छोटी मामूली बातें

ये प्‍यार जताना, पकड़ना किसी का हाथ, कहना I love you, ये क्‍यों इतना जरूरी है? जो न कहो तो कुछ फर्क पड़ता है क्‍या? जो मैं ये न कहूं किसी से या कि कोई मुझसे तो क्‍या बिगड़ता है? कितनी मामूली बातें? जीवन की ये बहुत छोटी, मामूली बातें, इनसे सचमुच कुछ बदलता है क्‍या? पता नहीं। लेकिन शायद ये बेहद मामूली सी दिखने वाली बातें ही कई बार बहुत मुश्किल ऊबड़-खाबड़ सी जिंदगी को जीने लायक बनाती हैं।

ऐसी जाने कितनी छोटी, मामूली बातें हैं, जो मुझे बार-बार जिंदगी की ओर लौटा लाती हैं। दुख और थकन के सबसे अंधेरे दिनों में आकर मेरा हाथ थाम लेती हैं। मेरे उलझे बाल सुलझाती हैं, गालों को छूती हैं। मेरे तकिए पर सो जाती हैं। मेरे बगल में लेटकर एक पैर मेरे ऊपर रख लगभग जकड़ सी लेती हैं। ऐसे कि मैं हिल भी न सकूं और कहती हैं, चुप, अब लात खाएगी, ज्‍यादा भैं-भैं किया तो। मेरी हथेली को अपनी हथेलियों में थामे देर तक बस यूं ही बैठी रहती हैं। कुछ कहती नहीं, बस बता देती हैं कि मैं हूं।

बेहद छोटी, मामूली बातें।

सोचो तो कितना मुश्किल है ये जीवन। हम सब अपने भीतर उदास बदरंग रौशनियों का एक शहर लिए फिरते हैं। बेमतलब भटकता है मन उस शहर की अंधेरी, संकरी गलियों में। पूरी रात भटकता है, बिना ये जाने कि जाना कहां है। मैं भी अपने भीतर के उस बदरंग रौशनियों वाले शहर में बेमतलब, उदास भटका करती थी। मुंबई के वे दिन जिंदगी के सबसे अकेले दिन थे। हालांकि समूची जिंदगी के बहुत सारे दिन अकेले दिन ही होते हैं। लेकिन वो अकेलापन इतनी भारी थी कि उसका बोझ मैं अकेले नहीं उठा सकती थी। वो छोटी, मामूली बातें ही अपना हाथ आगे बढ़ातीं और बोझ बांट लेतीं।

चर्नी रोड में ऑफिस से बाहर निकलते ही सड़क पार करके समंदर था। दो बस स्‍टॉप ऑफिस से समान दूरी पर थे। एक हॉस्‍टल की तरफ और दूसरा समंदर की तरफ। मैं बस का इंतजार करने हमेशा समंदर की तरफ वाले बस स्‍टॉप पर जाती। वो स्‍टॉप बहुत प्‍यारा लगता था, सिर्फ इसलिए क्‍योंकि वहां से समंदर को देखा जा सकता था। वहां खड़े होकर घंटों इंतजार करना भी नहीं खलता। ऑफिस बहुत उदास सा था और जीवन बेहद अकेला। बस का इंतजार करते हुए सिर्फ कुछ क्षण समंदर का साथ मेरे चेहरे पर एक मुस्‍कान ला सकता था।

भारतीय विद्या भवन में ही नीचे सितार की क्‍लासेज होती थीं। दफ्तर में बैठी दोपहरी बहुत बोझिल होती। लगता था कहीं भाग जाऊं। बस कहीं भी निकल जाऊं। दिन भर फोन की घंटी का इंतजार होता। किसी की आवाज का, एक मेल का। दफ्तर में आने वाली डाक का। घंटी नहीं बजती थी क्‍योंकि उसे बजना नहीं होता था। चिट्ठी नहीं आती, क्‍योंकि उसे आना नहीं होता था। शाम तक उदासी दोहरी हो जाती। मैं हॉस्‍टल लौटने के बजाय सेकेंड फ्लोर पर सितार की क्‍लास में जाकर बैठ जाती। घंटों चुपचाप बैठी रहती। वहां कई लड़के-लड़कियां एक साथ रियाज कर रहे होते थे। सितार के तारों पर दौड़ती-फिसलती उंगलियों से ऐसे सुर उठते, हवाओं में ऐसा रंग बहता कि उदासी के सब धुंधलके उसमें धुल जाते। लगता कि सितार के तारों से बहकर कोई नदी मेरी ओर चली आती थी। उसका एक-एक सुर मेरी उंगलियां थामकर कहता था, क्‍यों हो इतनी उदास। देखो न, दुनिया कितनी सुंदर है।

ऑफिस से लौटते हुए बस की खिड़की पर टिकी हुई उदास आंखों में कोई भी मामूली सी चीज एकाएक चमक पैदा कर सकती थी। मोहम्‍मद अली रोड से बस गुजरती तो शाम को एक मस्जिद के खुले मैदान में अजान की नमाज पढ़ी जा रही होती। सैकड़ों सिर एक साथ झुकते और उठते। वो दृश्‍य देखकर मेरा झुका हुआ सिर एकाएक उठ जाता था। जब तक बस गुजर न जाती, मैं वह दृश्‍य देखती रहती। बड़ी मामूली सी बात थी, पर पता नहीं क्‍यों सुंदर लगती थी। रास्‍ते में कोई 6-7 बरस की बच्‍ची ढा़ई मीटर का लंबा दुपट्टा ऐसे नजाकत से संभालने की कोशिश करती, मानो कह रही हो, मैं बड़ी लड़की हूं। मुझे बच्‍ची मत समझना। उसके पीछे-पीछे एक कुत्‍ता दुम दबाए चला जाता। वो छोटी बच्‍ची भी मेरी आंखों में रोशनी ला सकती थी।

बस में कोई 16-17 बरस की चहकती हुई सी लड़की चढ़ती। खुशी और उमंग से भरी, किसी परी‍कथा कि फिरनी जैसी, मोबाइल पर बेसिर-पैर की बातें करती। उसे देखकर मैं खुश हो जाती थी। कोई प्रेमी जोड़ा, जो बस में बैठे सहयात्रियों की तनिक भी परवाह किए बगैर अपनी बेख्‍याली में गुम होता, मेरे भीतर उम्‍मीद जगाता था। दुनिया सचमुच सुंदर है।

हॉस्‍टल लौटती तो मेरे कमरे के नीचे सीढि़यों पर जानू मेरा इंतजार करती मिलती। जानू एक नन्‍ही सी बिल्‍ली थी। उसका ये नाम मैंने ही रखा था। कमरे का ताला खोलने से पहले उसे गोदी में लेकर प्‍यार करना होता था, वरना वो नाराज हो जाती। मेरी गोदी में बैठकर मेरे कुर्ते को दांत से पकड़ती, हथेलियां चाटती, मैं फ्रेश होने बाथरूम में जाती तो पीछे-पीछे चली आती। जब तक बाहर न निकलूं, दरवाजे पर ही बैठी रहती। इतनी शिद्दत से कोई मेरा इंतजार नहीं करता था। इस इतने बड़े शहर में, जहां हर जगह लोग किसी न किसी का इंतजार करते दिखते थे, मेरा इंतजार कोई नहीं करता था, जानू के अलावा। उससे दोस्‍ती होने के बाद मुझे हॉस्‍टल लौटने की जल्‍दी रहने लगी थी। वहां कोई था, जिसे मेरा इंतजार था।

हॉस्‍टल की बालकनी में आम के पेड़ का घना झुरमुट था। बालकनी की रेलिंग पर अक्‍सर एक गिलहरी आती-जाती। किसी अकेली सुबह को वो पेड़ और वो गिलहरी मुझे अपने होने के एहसास से भर सकते थे।

वो शहर बहुत चमकीला था, लेकिन उसकी हर चमक से लोगों के दिलों के अंधेरे और गाढ़े हो जाते थे। एक अजीब सी आइरनी है। मैं मुंबई से अथाह प्रेम और उससे भी ज्‍यादा घृणा एक साथ करती रही हूं। रात के समय Marine Drive पर बैठी होती तो एक ओर अछोर समंदर और उस पर उतरती घनी रात होती तो दूरी ओर आलीशान पांच सितारा होटलों और इमारतों से बह-बहकर आती रौशनी। मैं रौशनी की ओर पीठ करके समंदर पर उतरते अंधेरे को देखती। वो अंधेरा उम्‍मीद जगाता था। मैं समंदर ही लहरों से कहती, दूर क्षितिज पर टंके सितारों से कहती, समंदर में कहीं चले जा रहे जहाज से कहती और दरअसल अपने आप से कहती, इन रंगीनियों के फेर में मत पड़ना। तुम हो तो सब सुंदर है, ये जहां सुंदर है। घंटों इस तरह अपने आप से बातें करने के बाद जब मैं हॉस्‍टल वापस लौटती तो एक नई पहाड़ी नदी मेरे भीतर बह रही होती थी। मैं शब्‍दों की छोटी-छोटी नाव उस नदी में तैराती, हॉस्‍टल लौटकर कविताएं लिखती।

हॉस्‍टल के कमरे में भी ऐसी कई छोटी, मामूली चीजें थीं, जो बुझते हुए मन को दुनिया की हवाओं से आड़ देती थीं। किसी दोस्‍त का इलाहाबाद से आया कोई खत, पद्मा दीदी का भेजा बर्थडे कार्ड, मेरी डायरी के वो पन्‍ने, जो मैंने चहक वाले दिनों में लिखे थे, नेरूदा की प्रेम कविताएं (न मेरी जिंदगी में प्रेम था और न नेरुदा ने वो कविताएं मेरे लिए लिखी थीं, फिर भी उन्‍हें पढ़ना प्रेम की उम्‍मीद जगाता था), एक पुरानी टेलीफोन डायरी, जिसमें इलाहाबाद के वे पुराने नंबर और पते थे, जो अब बदल चुके थे, जिन पर भेजा कोई खत अब अपने ठिकाने तक नहीं पहुंच सकता था, पुरानी चिट्ठियां जो मैंने लिखीं और जो मुझे लिखी गईं। अजीब शौक है। जब भी मैं उदास होती हूं तो वो पुरानी चिट्ठियां पढ़ती हूं। यकीन नहीं होता, मेरी ही जिंदगी के चित्र हैं। ये पंक्तियां मुझे ही लिखी गई थीं क्‍या ? पुराने फोटो एलबम। मां-पापा के बचपन की तस्‍वीरें। मेरे बचपन की तस्‍वीरें। एक पुराना बेढ़ब कटिंग और तुरपाई वाला कुर्ता, जो मैने अपने हाथों से सिला था। जर्मेन ग्रियर की वो किताब, जो मैंने बीए फर्स्‍ट इयर में ट्यूशन की अपनी पहली कमाई से खरीदी थी।

एक पेन और भूरी जिल्‍द वाली वो डायरी, जो मैं उसके घर से उठा लाई थी और क्‍योंकि उसे छूकर मुझे लगता कि वो है मेरे पास। ये सिर्फ दिल के बहलाने का एक ख्‍याल था, जबकि जानती तो मैं भी थी कि दूर-दूर तक कहीं नहीं था वो। वो तमाम लोग, जो जा चुके थे, लेकिन उनसे जुड़ी कुछ चीजें बची रह गई थीं। बेहद छोटी, मामूली चीजें, लेकिन उन्‍हीं मामूली चीजों से मिलकर मैं बनती थी, मेरा जीवन बनता था।

ये छोटी, मामूली चीजें हमेशा कहतीं, ना जीवन अब भी संभावना है, प्रेम अब भी संभावना है और हमेशा रहेगी। दुख और टूटन के सबसे बीहड़ दिनों में भी हम सब तुम्‍हारे कमरे में ऐसे ही रहेंगे तुम्‍हारे साथ।

प्रेम की उम्‍मीद र‍हेगी तुम्‍हारे साथ।

जारी........