Monday 7 February 2011

एक पोलिश कवि और एक हिंदुस्‍तानी लड़की

जयपुर से लौटकर
तीसरा हिस्‍सा

शायद वो 17 या 18 तारीख की एक बकवास सी दोपहर थी, जब जयपुर जाने का वक्‍त नजदीक आ रहा था और जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की वेबसाइट पर दिए सभी सत्रों की डीटेल पढ़ते हुए मैंने पाया कि उनमें एक नाम एडम जगायवस्‍की का भी है। ओह, ये क्‍या हो रहा है? एक के बाद एक खुशी और उत्‍तेजना से दीवाना कर देने वाले शॉक। मैंने तुरंत गीत का नंबर घुमाया और उसे भी इस खबर से खुश होने और मुझसे थोड़ी सी ईर्ष्‍या करने का मौका दिया। मैं सचमुच बेहद खुश थी कि मैं जयपुर जा रही थी।

24 तारीख को दरबार हॉल में 11 बजे से एडम जगायवस्‍की का सेशन था – सॉलिटरी सॉलीट्यूड। उनसे बात कर रही थीं उर्वशी बुटालिया। एडम को मैं बेशक तस्‍वीरों में देख चुकी थी। लेकिन तस्‍वीर आंखों के कितनी भी करीब क्‍यों न हो, तस्‍वीर के ठीक बगल में एक अदृश्‍य ऊंची दीवार होती है। हाथ उस दीवार के पार नहीं जाते, लेकिन इस वक्‍त वे ठीक मेरे सामने बैठे थे। मैं उन्‍हें बोलते हुए सुन सकती थी, हाथ बढ़ाकर छू सकती थी। मैंने हाथ बढ़ाकर उन्‍हें छुआ भी था। एडम को देखकर ये नहीं लग रहा था कि यह विस्‍साव शिंबोर्स्‍का और चेस्‍वाव मिवोश की धरती से आने वाला एक महान कवि है। वह एक बेहद साधारण सा इंसान था, जिसकी आंखों में बच्‍चों जैसी चमक और भोलापन था। उसकी आवाज धीमी और किसी गहन कंदरा से आती मालूम देती थी। लेकिन उसके शब्‍दों में प्रेम और अवसाद की गहराई थी।

ये जानना अजीब है और सुंदर भी कि संसार की हर महान रचना Melancholic ही क्‍यों होती है और रचनाकार शांत, गहरा और उदास। दुनिया के हर शोर और बेहिसाब आवाजों के बीच वह अपना एक मौन एकांत रच लेता है और उसे उदासी के रंगों से सजाता है। अवसाद के गाढ़े रंगों से। इस अवसाद का रंग जीवन के गहरे दुखों और मर जाने की हद तक तकलीफ देते अन्‍याय और गैरबराबरी का रंग नहीं है। यह अवसाद जीवन की असल उदासियों से भागने या मुंह चुराने का रास्‍ता भी नहीं है। यह उन तकलीफों का अस्‍वीकार है। दुख और अन्‍याय का अस्‍वीकार है। इस Melancholy  का अपना सुख है, अपना स्‍वाद भी।

उस दिन उन्‍होंने वहां जो कविताएं पढ़ीं, उनमें भी वह स्‍वाद था। एडम की समूची मौजूदगी में वह स्‍वाद था। पता नहीं एक गरीब और चोट खाए मुल्‍क की बहुसंख्‍यक आबादी इतनी परिपक्‍व है या नहीं कि Melancholy  के उस स्‍वाद को परख पाए, उसे जी पाए। लेकिन जिन्‍होंने भी इसे खोजा है, वे जानते हैं इसका नशा। इसमें डूब जाने की बेहिसाब दीवानगी को जानते हैं। और वो बार-बार एडम जगायवस्‍की, चेस्‍वाव मिवोश और शिंबोर्स्‍का की Melancholic दुनिया में लौट-लौटकर जाते हैं।

वो सेशन जिंदगी के एक दिन को खूबसूरत बना देने के लिए काफी था। उसके बाद मैं बिना कुछ किए भी इधर-उधर भटक सकती थी और एक अज्ञात खुशी की चौंध अपने भीतर महसूस कर सकती थी। एक Melancholic खुशी। 24 तारीख की रात  तक मैं बेहद खुश रही। उसी रात होटल के कमरे की बालकनी में खड़ी जब मैं उस  कवि के बारे में सोच रही थी, जो कहता है कि अपने पड़ोसियों के लिए वो कोई वर्ल्‍ड पोएट नहीं है, बल्कि एक आम आदमी है, जो सुबह के नाश्‍ते के लिए ब्रेड खरीदने जाता है तो मैं कतई ये नहीं जानती थी कि अगले दिन इसी वक्‍त मैं उससे कह रही होंगी कि मैं आपसे बहुत प्‍यार करती हूं। मैं उसे धरती के उस कोने के बारे में बताऊंगी, जहां मेरा जन्‍म हुआ। इस देश के उस हिस्‍से के बारे में, जहां मैं बड़ी हुई हूं। मैं तब ये भी नहीं जानती थी कि अपनी उन्‍हीं ईमानदार आंखों से वो मुझसे पूछेंगे, Manisha, tell me about your country. और फिर मैं बताऊंगी एक देश में बसने वाले उन असंख्‍य देशों के बारे में।

25 तारीख की रात जयपुर से दूर आमेर के किले में राइटर्स बॉल था। वहां कुछ चुनिंदा लोग ही आमंत्रित थे। यह किला शहर से इतना दूर था कि शहर की चमकीली बत्तियों के आखिरी निशान तक वहां नहीं पहुंचते थे। दूर तक काला आसमान था और किले की भव्‍य दीवारें। एक हाथ में वाइन का ग्‍लास और दूसरे में सिगरेट लिए मैं दूर अकेली खड़ी खुश होती, बातें करती, नाचती और संगीत में डूबी हुई भीड़ को देख रही थी। भीड़ में मैं अकसर ऐसा ही करती हूं। खुद को खोया हुआ सा पाती हूं और फिर एक कोना ढूंढकर अपना एक सुरक्षा घेरा बना लेती हूं। इस घेरे में मैं खुश होती हूं और उदास। एक Melancholic खुशी।

मैं और एडम जगायवस्‍की : तस्‍वीर जो उनकी पत्‍नी ने खींची थी
मैं खड़ी थी कि तभी मेरी नजर एडम और उन दो लड़कियों मोनिका और मारीया पर पड़ी, जिन्‍होंने उनकी कविताओं का हिंदी में अनुवाद किया है। वो दोनों मुझे एक दिन पहले एडम के सेशन में मिल चुकी थीं और उन्‍होंने बताया था कि हिंदी ब्‍लॉग वाले सेशन में उन्‍होंने मुझे बोलते हुए सुना था और ये भी कि मैंने सबसे अच्‍छा बोला। (ऐसा उनका कहना था।) उन्‍होंने मुझे एडम की हिंदी में अनूदित किताब पराई सुंदरता में कि एक कॉपी भेंट की।

अब तक वो भी मुझे देख चुकी थीं। उन्‍होंने आंखों से स्‍वागत किया और मैं उनके पास गई। मौसम बहुत मीठा और खुशगवार था। एडम हाथ में वाइन का एक गिलास लिए मुस्‍कुरा रहे थे। मुझे लगा अब मैं उनसे वो कह सकती हूं, जो कल नहीं कह पाई। मैंने उनसे वो सब कहा, जो पिछली रात होटल के कमरे की बालकनी में खड़ी मैं सोच रही थी। 

Adam, I like you and your poems so much that I am almost in love with you.
एडम बड़े प्‍यार से मुस्‍कुराए। 
Thank you dear.
फिर मैंने अपने पर्स से एक कैमरा निकाला और मोनिका के बगल में ही बैठी हुई एक बेहद खूबसूरत सी स्‍त्री से पूछा, Can you please take a picture of us?
Sure.
और कैमरा मैं उनके हाथों में थमाकर एडम के बगल में बैठ गई। मेरा हाथ उनके कंधों पर था। मेरी आंखों में बेहिसाब खुशी की चमक थी। अचानक वह बोल पड़ीं,
Surely I will but please mind, I am his wife.
Oops :(
Well, Its ok. But still you can take one picture.
:)
उन्‍होंने हमारी तस्‍वीर ली। हम चारों आपस में काफी हंसी-मजाक कर रहे थे। तभी मोनिका ने पूछा, Manisha, tell me one thing? Why did you say that you are almost in love? Why not completely?
Well (I looked at his wife, gave her a smile and said) because of her.

एडम अपनी पत्‍नी के साथ
एडम, उनकी पत्‍नी, मोनिका, मारीया और मैं, सभी ठठाकर हंस पड़े और मैंने आगे जोड़ा- Because of her and because of my boyfriend.

If he will come to know that you are here, expressing your affection for Adam, will leave all his work and run for Jaipur right away. यह मारीया थीं। उन्‍होंने एक पंजाबी से विवाह किया है और पिछले तीस सालों से हिंदुस्‍तान में रह रही हैं।

यह सवाल मारीया और मोनिका दोनों का ही था शायद कि जिस तरह उस दिन ब्‍लॉग वाले सेशन में मैंने बेहिसाब, बेखौफ बातें कीं और जिस तरह सिगरेट और वाइन के साथ वहां खड़ी थी, एक इंडियन लड़की होकर मैं ऐसे जीना कैसे अफोर्ड कर पाती हूं।

मोनिका पोलैंड में हिंदी पढ़ाती हैं और मारीया तीस साल से हिंदुस्तान में रह रही हैं। वह जानती हैं इस देश को और इस देश की लड़कियों को भी। अच्‍छी इंडियन लड़कियां ऐसी नहीं होतीं। तुम इंडियन तो हो, तो क्‍या अच्‍छी नहीं हो।

बेशक मेरे लिए ये अफोर्ड कर पाना आसान नहीं है क्‍योंकि मैं हिंदुस्‍तान के उस मुट्ठी भर अमीर, अपर क्‍लास एलीट वर्ग से भी नहीं आती, जिसके लिए तथाकथित परंपराएं, नैतिकता ज्‍यादा मायने नहीं रखते। वे आधुनिक हैं, जिसे पामुक बार-बार कहते हैं – Modern. A writer must should be first of all a Modern. वे अंग्रेजीदां हैं और अंग्रेजी तमाम गुलामी और अंतर्विरोधों के बावजूद एक हद तक लिबरेट तो करती ही है। मैं हिंदी प्रदेश के एक निम्‍न मध्‍यवर्गीय परिवार की लड़की हूं और बहुत छोटे नैतिक दायरे में ही बड़ी हुई हूं। मुझे बहुत लड़ना पड़ा है और आज भी हर दिन लड़ती हूं। अपने आसपास की दुनिया से और अपने आप से भी।
लेकिन मेरा जवाब बहुत साफ था - 

Monika, I am always considered as a bad girl.
You should have proud to be a bad girl.
Tell me Manisha, what bad things you do? यह सवाल एडम की पत्‍नी पूछ रही थीं। 
I said, I live my life the way I want to live.
Oh, that’s the hell, just not bad.

शायद वो भी जानती होंगी हिंदुस्‍तान को। तभी तो उन्‍हें अपनी मर्जी से अपनी तरह की जिंदगी जीने का निर्णय सिर्फ बुरा नहीं, बल्कि नरक बराबर लगा था।

एडम और उनकी पत्‍नी। साथ मैं है मोनिका ब्रोवार्चिक।
मारीया हिंदुस्‍तान के अपने अनुभव बताने लगीं। उन्‍होंने कहा, अब तो स्थितियां फिर भी काफी बदल गई हैं। 25 साल पहले अगर मैं आधे घंटे के लिए भी घर से कहीं बाहर जा रही होती तो मुझे अपनी सास को बताकर जाना पड़ता था कि मैं कहां जा रही हूं और कब लौटूंगी।

इंडिया के बारे में जानना कितना इंटरेस्टिंग है न ?

मामूली इंसानी आजादी के प्रति दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का जितना अलोकतांत्रिक रवैया है, क्‍या हम कभी सोचते हैं कि ज्‍यादा आधुनिक विचारों वाली धरती से आने वाले लोग इस झूठ के बारे में क्‍या सोचते होंगे। कितने मक्‍कार हैं हम। हर चीज में दोहरापन। गरीबी और गुलामी का कितना लंबा इतिहास है। कैसे बेतरतीब बिखरे अंधेरे हैं और उस पर रोशनी की चमकदार पर्तें सजाने की कितनी मुस्‍तैद परंपरा। हमारी बार-बार टूटी रीढ़ ने, दुख और गुलामी ने हमें इतनी भी समझ नहीं दी, इतना भी परिपक्‍व नहीं बनाया कि हम इन दुखों को समझ पाते या कम से कम ठीक से देख ही पाते। इतने तो बड़े हो पाते कि Melancholy में एक बार उतर पाते। हमने गैरबराबरी और अन्‍याय को जितनी इज्‍जत से स्‍वीकार किया है और कभी सवाल भी नहीं किया, ये ख्‍याल भी डराता है।

एडम ने मुझसे पूछा था, Manisha, tell me about your country. What India is?
मैं क्‍या कहती। कोई एक हिंदुस्‍तान हो तो बताऊं। 
यहां एक देश में कई देश बसते हैं। 
फिर भी मैंने उन्‍हें बताया अपने देश के बारे में। 

जारी……..

पहला हिस्‍सा

दूसरा हिस्‍सा

Sunday 6 February 2011

अवसाद का काला रंग और ओरहान पामुक

जयपुर से लौटकर
दूसरा हिस्‍सा

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में जाने के प्रस्‍ताव के साथ मैंने जो सबसे पहला काम किया था, वह था उनकी वेबसाइट पर जाकर ये पता करने का कि वहां कौन-कौन आ रहा है और ओरहान पामुक, जेएम कोएत्‍जी, एडम जगायवस्‍की, विक्रम सेठ, नाम ली, रस्किन बॉन्‍ड वगैरह के नाम पढ़ते हुए इतनी उत्‍तेजित हो गई थी कि मुझे भी ब्‍लॉग राइटिंग के बारे में वहां कुछ बोलना है, जैसा ख्‍याल ही बहुत स्‍टुपिड लग रहा था। यूं नहीं कि ये बात मैं अभी कह रही हूं, बल्कि तब भी मैं ये बहुत साफ-साफ जानती थी कि अगर हिंदी ब्‍लॉगिंग वाला सेशन नई भाषा नए तेवर पामुक के सेशन आउट ऑफ वेस्‍ट के पैरलल होता तो मैं निश्चित ही जानती थी कि मेरी प्रिऑरिटी क्‍या है। मैं ब्‍लॉग को बाय बाय करती और रवीश और गिरिराज को कह देती कि तुम लोग ब्‍लॉग के बारे में जो चाहो बात कर लो, मुझे पामुक को सुनने दो। ब्‍लॉग पर न बोलकर मेरे जीवन का कुछ छूट नहीं जाएगा, लेकिन पामुक को नहीं सुन पाई तो बहुत कुछ छूट जाएगा। ऐसा, जिसकी रिकवरी नहीं हो सकती। वैसे भी हिंदी ब्‍लॉगिंग पर मैं कोई महान डिसकवरी नहीं करने जा रही। लेकिन ऐसी नौबत नहीं आई। मैंने सुना और पूरी शिद्दत से सुना। सुना भी और ब्‍लॉगिंग पर कुछ-कुछ बोला भी। क्‍या, मुझे खुद नहीं पता।


22 तारीख को पामुक का सेशन 5 बजे से था और मैं एक घंटे पहले से फ्रंट लॉन में डटी हुई थी ताकि सबसे आगे वाली सीट पकड़ सकूं। हालांकि वह मुझे बड़ी आसानी से मिल गई। उसके पहले जय अर्जुन सिंह के साथ किरन देसाई की बातचीत मैं सुन चुकी थी, जो बहुत एक्‍साइटिंग न होते हुए भी इंटरेस्टिंग थी। किरन देसाई को मैंने नहीं पढ़ा, फिर भी उनके लेखन के सफर, अपनी जड़ों से उखड़ने, मां अनिता देसाई के साथ उनके संबंधों की बारीकियां, मां और बेटी की जिंदगी के बुनियादी फर्क, उनके समय और वो हालात, जिसमें दो अलग-अलग स्त्रियों ने लेखन के एकांत को खोजा था, के बारे में जानना रोचक था। किरन देसाई के सेशन के बाद आधे घंटे का अंतराल और फिर ओरहान पामुक, किरन देसाई, नाम ली और चिमामांदा अदीची राना दासगुप्‍ता के साथ बातचीत में आउट ऑफ वेस्‍ट सेशन में बोलने वाले थे। नाम ली और चिमामांदा से मैं ज्‍यादा परिचित नहीं थी। पामुक के तो पूरे लेखन के केंद्र में ही ईस्‍ट और वेस्‍ट के सांस्‍कृतिक अंतविर्रोध और सत्‍ता संघर्ष है। एक ज्‍यादा अमीर और विकसित दुनिया तीसरी दुनिया के देशों, उसके सांस्‍कृतिक विकास, उसके लेखन और कला को कैसे देखती है। पामुक ने कमोबेश वही बातें कहीं, जिसका जिक्र इस्‍तांबुल: मैमोरीज एंड द सिटी में बार-बार आता है। पामुक ने कहा कि आउट ऑफ वेस्‍ट का अर्थ है एक ऐसी दुनिया से ताल्‍लुक रखना, जो वेस्‍ट की तरह अमीर नहीं है, एक ऐसी भाषा में लिखना, जो अंग्रेजी नहीं है, इसलिए ताकतवर की भाषा नहीं है, एक ऐसे समाज से आना, जो उतना आधुनिक नहीं है, एक ऐसी सांस्‍कृतिक यात्रा का हिस्‍सा होना, जो पश्चिम के आधिपत्‍य से आक्रांत रहा है, जहां रेनेसां और आधुनिक विचार अब तक नहीं पहुंच पाए हैं। और ये सारी बातें इतनी निर्णायक हैं कि ये तय करती हैं। ये तय करती हैं दुनिया के नक्‍शे में आपकी जगह को, आपके लिखे और रचे को देखे जाने की नजर को, यहां तक कि लिखे जाने को भी । ये इस हद तक तय करती हैं कि जब पामुक प्रेम पर कोई उपन्‍यास लिखते हैं तो वेस्‍ट के क्रिटीक कहते हैं : Pamuk writes about Turkish love. ये कहते हुए उनकी आंखों में थोड़ा गुस्‍सा होता है कि Its not Human Love or Global love but just a Turkish Love.

राना दासगुप्‍ता ने जब ग्‍लोबलाइजेशन का हवाला देते हुए कहा कि ये दीवारें टूट रही हैं, दुनिया एक गांव में तब्‍दील हो रही है तो लगभग दासगुप्‍ता को झिड़कते और बीच में ही चुप कराते हुए पामुक ने फिर जोर देकर कहा कि ग्‍लोबलाइजेशन भी सत्‍ता और ताकत का ही ग्‍लोबलाइजेशन है। ग्‍लोबलाइजेशन का मतलब ये नहीं कि वेस्‍ट और अमेरिका का आधिपत्‍य खत्‍म हो गया है। पामुक बहुत स्‍पष्‍ट थे कि ग्‍लोबलाइजेशन का ये गांव दुनिया के अमीरों का गांव है, हालांकि उस गांव में भी अंग्रेजी और तुर्की का फर्क बड़ा साफ है। राना दासगुप्‍ता को पामुक ने कई बार टोका। इतना कि सेशन खत्‍म होते-होते उसके चेहरे पर बेचैनी साफ नजर आ रही थी। किसी को लग सकता है कि पामुक अपने प्रतिउत्‍तर में बहुत विनम्र नहीं थे, लेकिन मुझे लगता है कि वे जो थे, बिलकुल सही थे। कुछ जवाब कभी विनम्रता से नहीं दिए जा सकते। कुछ बातें ऐसी होती हैं, जो चोट के निशान और ठहरे हुए पानी की सड़न जैसी साफ होती हैं। इतनी स्‍पष्‍ट कि अगर वह न दिखें या कोई देखकर भी न देखने का नाटक करे तो उसका जवाब यही हो सकता है, जो पामुक ने दिया।

21 तारीख वाले सेशन में आर्ट ऑफ नॉवेल पर पामुक से बात करते हुए चंद्रहास चौधरी ज्‍यादा संतुलित और गंभीर थे। माय नेम इज रेड से लेकर म्‍यूजियम ऑफ इनोसेंस तक फिक्‍शन राइटिंग पर काफी बातें हुईं। पामुक को इस तरह सबसे सामने वाली कुर्सी पर बैठकर सुनते हुए लगता है कि वह काफी इंपल्सिव हैं। थोड़ा भी अज्ञान या मूर्खता को बर्दाश्‍त नहीं कर पाते। पट से काउंटर करते हैं या सामने वाले को चुप करा देते हैं। सेशन के अंत में बातचीत में किसी ने पूछा, जो ठीक से अपना सवाल पूछ भी नहीं पा रहा था तो पामुक उससे पहले ही पट से बोल पड़े- Well, more or less, I understood your question as  do you think that philosophical aspect of love is more important then its sexual aspect and the answer is “Yes.” और इतना कहने के बाद उन्‍होंने अपने मुंह को गोल किया और बोले, I was going to say more then penetration और फिर खुद ही ऐसा कहने के लिए माफी मांगने लगे कि क्‍यों‍ वो ये कहने से खुद को रोक नहीं पाए। चंद्रहास चौधरी ने भी चुटकी ली, You will be deported tomorrow morning  (Oh what else can one expect in such puritan, ethical society) और यूं नहीं कि पामुक को अंदाजा नहीं था कि वे क्‍या कह बैठे हैं, वे भी आगे जोड़ने से नहीं चूके “Tomorrow morning? No, just after this.”

सेक्‍स एंड एथिक्‍स की बात चली तो 22 तारीख की शाम याद आ गई। आउट ऑफ वेस्‍ट सेशन में किरन देसाई भी पामुक के साथ थीं और इस महान एथिकल सोसायटी के वे तमाम लोग, जिन्‍होंने पामुक की लिखी एक लाइन भी नहीं पढ़ी है, वे भी ये जानते हैं कि पामुक इज इन लव विद किरन देसाई। पूरे फेस्टिवल के दौरान मुझे इस मुहब्‍बत पर चर्चा करते कई लोग दिखे। पामुक ने क्‍या कहा से ज्‍यादा उनकी इस बात में रुचि थी कि कैसे मंच पर बैठे हुए भी वे बीच-बीच में प्‍यार से मुस्‍कुराकर किरन देसाई को देख रहे थे या वहां भी दोनों आपस में बात करने की फुरसत ढूंढ ही ले रहे थे। जयपुर से दिल्‍ली लौटते हुए बस में मेरी बगल वाली सीट पर एक लड़की बैठी थी। पूरे फेस्टिवल से सबसे इंटरेस्टिंग डिसकवरी, जो वो अपने साथ लेकर जा रही थी, वह यही थी कि पामुक हैज अफेयर विद किरन देसाई। मैंने कहा, हां।

But he is so old for her. Kiran is very young.

So what? Doesn’t matter at all. They are in love. That’s the only thing matters.

I think he is seducing her.

What???????????????????????

Yes. He is old and obsessed.

Oh really? Are you a psycho-analyst?

No, I am an aspiring writer. Attempting a novel.

(What the hell are you going to write? All about ethics of love and purity of virginity.)

Great. Best of luck.

(You are perfect for pure, ethical, moral Indian crowd. Go ahead; add your contribution in this huge heap of filth.)

 …………..

(Sick.

Fuck off.)

ऐसी बातों का वैसे ही जवाब देने का मन करता है, जैसे पामुक ने मंच से राना दासगुप्‍ता के सवाल का दिया था। वो तो फिर भी काफी डीसेंट थे। मुझे उतनी भी डीसेंसी बरतने का मन नहीं करता। उस लड़की को लगा होगा कि किरन देसाई बुरहानपुर के चौबेजी की कुंवारी कन्‍या हैं, जिसे एक बुड़ढा लेखक अपने नेम-फेम के झांसे में फंसा रहा है। जिस समाज के लोग पामुक और किरन देसाई तक को मॉरल जजमेंट से नहीं बख्‍शते, वहां कोई मनीषा पांडेय कौन सुर्खाब के पर लगाकर आई हैं। चार ओपन अफेयर के बाद वो भी हिंदी समाज के महान नैतिक पथप्रदर्शकों को घोर पतिता नजर आने लगें तो कतई आश्‍चर्य नहीं। (और आने क्‍या लगें। आ ही रही हैं।)

फिलहाल मैं सबसे आगे की लाइन में बैठी थी और इंतजार ही कर रही थी कि कब पामुक आएं और मैं एक अदद हिंदुस्‍तानी पत्रकार का हुनर दिखाते हुए उन्‍हें पकड़ लूं, दनादन कुछ सवाल दाग दूं या कम से कम एक इंटरव्‍यू के लिए वक्‍त तो मांग ही लूं, जो मैं जानती हूं कि हिंदी अखबार में कभी नहीं छपेगा। नहीं छपेगा क्‍योंकि हिंदी के लोग 20-22 साल की उम्र में अंधेरी रातों में इस्‍तांबुल की सड़कों पर अकेले भटकने वाले और बॉस्‍फोरस के किनारे अवसाद में बैठे रहने वाले पामुक का प भी नहीं जानते। वे जानना भी नहीं चाहते क्‍योंकि कुछ तो वो अपने शहर की दिनोंदिन चमकीली होती जाती रंगीनियों से इतने अभिभूत हैं और कुछ जिंदगी की बेहिसाब तकलीफों से इतने गमजदा कि उन्‍हें फुरसत ही नहीं कि जानें कि मुन्‍नी और शीला के आगे दुनिया और भी है, बदनामी और बहुत सारी, जवानी और बहुत सारी।

लेकिन फिर भी मैं ये मौका चूकना नहीं चाहती थी। वो कब आएंगे के इंतजार में बैठे हुए मैंने मंच के किनारे बैठे कुछ लोगों की आंखों में एक अजीब रहस्‍यमय चमक देखी और मेरी तीसरी आंख ने कहा कि जरूर मंच के पीछे कुछ है। मैं तुरंत उठी और पीछे गई। वही थे। नेवी ब्‍लू शर्ट और ब्‍लैक कोट में किरन देसाई के साथ कोने में खड़े बतियाते हुए। मैंने तुरंत हाथ मिलाया, अपना परिचय दिया और इंटरव्‍यू की इच्‍छा जाहिर की। जितनी मुहब्‍बत से मैंने पूछा, उतनी ही मुहब्‍बत से उन्‍होंने मना कर दिया। बोले, I am so sorry. I cannot. I am slave of my publisher. If you want to interview me, please contact my publisher. मैंने जयपुर जाने से पहले बड़ी मेहनत से सवाल तैयार किए थे। कितने तो सवाल थे, जो मैं पूछना चाहती थी। कितनी तो बातें थीं, जो मैं जानना चाहती थी, जो मैं नहीं जान सकी। फैमिली कार में ठुंसकर बॉस्‍फोरस की शरण में जाने वाले दुखी परिवारों के बारे में, उस इस्‍तांबुल इनसाइक्‍लोपीडिया के बारे में, जो उन्‍हें दादी की आलमारी में मिली थी। उस रात के बारे में, जब पिता मां को बताए बगैर पेरिस चले गए थे और उस दोपहर के बारे में भी, जब मां खिड़की से कूदकर मर जाना चाहती थी। अवसाद के उस गाढ़े रंग के बारे में, जो मैं पामुक के साथ साझा करती हूं। वही रंग, जो मैंने भी अपने बचपन के शहर में देखा है। वही रंग, जो शायद इस देश के नब्‍बे फीसदी शहरों का रंग है, सत्‍तर फीसदी चेहरों का रंग है। मुमकिन है, मैं ये सवाल नहीं पूछ पाती। बस इतना ही पूछ पाती कि बोर्हेस आपको क्‍यों इतने पसंद हैं या आपकी राइटिंग मैजिकल रिअलिज्‍म से अछूती कैसे रह गई।

जो नहीं जान सकी, उसका गम तो है लेकिन जो जान पाई, उसकी खुशी कहीं ज्‍यादा। जयपुर से लौटकर मैं बहुत खुश हूं।

PS : लौटने के बाद मैंने इस्‍तांबुल फिर से पढ़नी शुरू की। मेरी किताब पर लिखा है- फरवरी, 2007। इंदौर।

इस्‍तांबुल : मैमोरीज एंड द सिटी मैंने इंदौर में खरीदी थी और तभी पहली बार पढ़ी थी। अब फिर से पढ़ते हुए महसूस हो रहा है कि अरे, ये बातें पहले कहां थीं। ये गाढ़ा काला रंग पहले नहीं था शायद। या था शायद। बस उस रंग को पढ़ने की नजर नहीं थी।

तीसरा हिस्‍सा
एक पोलिश कवि और एक हिंदुस्‍तानी लड़की

पहला हिस्‍सा
Why loneliness matters so much?
 

Saturday 5 February 2011

Why loneliness matters so much?


जयपुर से लौटकर
पहला हिस्‍सा

अखबार के लिए लिखना कितना आसान है और अपने लिए लिखना कितना मुश्किल। जब पता हो कि आठ बजे पेज छूटना है तो उसके पहले ऑटोमैटिकली आइडियाज बरसने लगते हैं, एक से दूसरी पंक्ति जुड़ती जाती है और लो हो गई स्‍टोरी तैयार। लेकिन अपने दिल के लिए, अपनी खुशी और अपने एकांत के लिए लिखना उतना ही उलझाने वाला होता है। एकांत में इतनी सारी बातें, इतने विचार और स्‍मृतियां आपस में गुंथे होते हैं कि उनका सिरा खोजने में ही वक्‍त गुजर जाता है। ऐसे ही जयपुर से लौटकर कितना सारा वक्‍त गुजर चुका है, लेकिन ये वक्‍त जितना गुजरा है, उतना ही ठहर भी गया है। वक्‍त गुजरा है, क्‍योंकि हर दिन ऑफिस में नया एडिट पेज बनाया है, हर दिन नए आर्टिकल के साथ खुद को ज्‍यादा दुखी और उदास महसूस किया है, हर दिन घर के रोजमर्रा के काम कभी न रुकने और बदलने वाली गति से चलते रहे हैं। रोज दूधवाले ने नीचे से आवाज लगाई है, रोज किताबों पर धूल जमी है। रोज ऑफिस के गेट पर आई कार्ड चेक हुआ है और रोज कंप्‍यूटर शट डाउन करके मैं तकरीबन उन्‍हीं रास्‍तों से होती घर लौटी हूं। रोज टेलीविजन पर अमिताभ बच्‍चन ने पूछा है, जीने का लाइसेंस लिया क्‍या और रोज घर में आने वाले अखबार ने बताया है कि फलां कंपनी के 50 पर्सेंट ऑफ सेल में जिंदगी की सब खुशियों की चाभी है।

लेकिन वक्‍त ठहर भी गया है क्‍योंकि मन अभी भी डिग्‍गी पैलेस के फ्रंट लॉन, दरबार हॉल और मुगल टेंट में ही है। अभी भी ओरहान पामुक आउट ऑफ वेस्‍ट पर बात करते हुए राना दासगुप्‍ता के मूर्खतापूर्ण सवालों का थोड़ी तल्‍खी और बेचैनी से जवाब दे रहे हैं, इस अंदाज में कि दूसरे स्‍टुपिड सवाल का स्‍पेस ही न बचे। कोएत्‍जी पचास हजार लोगों की भीड़ में भी चुपचाप नजरें झुकाए हुए ऐसे हैं, मानो अपने किसी एकांत कमरे में जिंदगी और अवसाद की दूसरी दुनिया रच रहे हों। नाम ली अपने भोले और पवित्र सौंदर्य से बार-बार अपनी ओर खींच रहा है। एडम के चेहरे पर वही बच्‍चों जैसी प्‍यारी मुस्‍कुराहट है, जो दरबार हॉल में कविता पढ़ते वक्‍त उनकी आंखों में थी और उनकी कविता सुनते हुए जेएम कोएट्जी की आंखों में भी। (एडम के सेशन में कोएट्जी भी मौजूद थे।) इंपीरियल इंग्लिश पर हो रही बातचीत को सुनने के लिए नाटे कद का औसत सा दिखने वाला वह लेखक घास और मिट्टी की परवाह किए बगैर वहीं एक कोने में बैठ गया है, तकरीबन छह साल पहले तिब्‍बत और नेपाल होते हुए चीन से हिंदुस्‍तान तक के जिसके सफर को मैंने डिक्‍शनरी में एक-एक शब्‍द का अर्थ खोजते हुए फटी आंखों, कुलबुलाए दिमाग और अवसाद से भरी आत्‍मा के साथ पढ़ा था और चकित हुई थी। 25 तारीख की शाम, जब यह मेला खत्‍म होने को है, वह अपनी बुलंद आवाज में इक्‍वल म्‍यूजिक के हिस्‍से पढ़ रहा है, बातें कर रहा है। फ्रंट लॉन के एक कोने में किसी तरह जगह बनाकर खड़ी हुई मैं और शायद वहां मौजूद सभी लोग ये सोच रहे हैं कि इस सुटेबल बॉय का सेशन इतनी जल्‍दी खत्‍म हो गया। विक्रम सेठ इतना शानदार बोलते हैं कि उन्‍हें अभी और बोलते रहना चाहिए। वक्‍त सचमुच ठहर गया है। एडम जगायवस्‍की के साथ डांस करते हुए मैं भी ठहर गई हूं। मैं लौटकर अखबार के दफ्तर में नहीं जाना चाहती। 
फेस्टिवल से लौटकर होटल के कमरे के जिस एकांत में मैं गुजरे हुए दिन के साथ रातों को भी जीती हूं, ये एकांत युगों बाद नसीब हुआ है। यहां कोई नहीं। बस एक गुजर गया दिन है। बगल के कमरे में नॉर्वे से अपने ब्‍वॉय फ्रेंड के साथ आई एक लड़की है। 20 साल की उम्र में प्‍यार में है। अपने प्रेमी के साथ हिंदुस्‍तान घूमने आई है। कल सुबह अपनी बालकनी में धूप में बैठी मुराकामी की काफ्का ऑन द शोर पढ़ रही थी। किस देश से आती है ये लड़की ? कैसा होगा वह देश, वहां के लोग? कैसे ये लड़की पीठ पर एक बैग लटकाए अनंत महासागर और पहाड़ों की दूरी लांघती दूर देश के एक शहर को देखने आई है। वो हवामहल देखने, जो उसने तस्‍वीरों में देखा होगा। क्‍या वो जानती है कि इस शहर की लड़कियां और औरतें अपने कमरों से सटकर गुजरती सड़क को भी हवामहल की रंगीन शीशों वाली झिर्रियों से देखा करती थीं।  कि इस शहर की जाने कितनी  लड़कियां आज भी उन्‍हीं झिर्रियों से आसमान देखती हैं।

नॉर्वे की वो लड़की कैसे देखती है इस गुलाबी नगरी को? पता नहीं, लेकिन मैं उसे देखती हूं और इस शहर को।

मेरे कमरे में कोई नहीं है। इस कमरे में कोई और होना भी नहीं चाहिए। बस मैं और ये अकेलापन। मेरे सपने, मेरे ख्‍याल, मेरे दुख, मेरी किताबें। दिन भर की गुजरी हुई बातें। आउट ऑफ वेस्‍ट, इंपीरियल इंग्लिश। व्‍हाय बुक्‍स मैटर। 

व्‍हाय दिस लोनलीनेस मैटर्स सो मच।

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दूसरा हिस्‍सा

अवसाद का काला रंग और ओरहान पामुक