tag:blogger.com,1999:blog-4012272906206136067.post5296341553023377783..comments2023-06-07T05:50:29.305-07:00Comments on बेदखल की डायरी: कितना जानता है एक शहर हमें और हम शहर कोमनीषा पांडेhttp://www.blogger.com/profile/01771275949371202944noreply@blogger.comBlogger14125tag:blogger.com,1999:blog-4012272906206136067.post-11828882759466512592009-11-06T09:20:02.633-08:002009-11-06T09:20:02.633-08:00मनीषाजी, इस पोस्ट से आपका इलाहाबाद प्रेम झलकता है...मनीषाजी, इस पोस्ट से आपका इलाहाबाद प्रेम झलकता है। मुझे लगता है कि अकसर शहर, मौसम, महीनों को लेकर हमारे दिल में उसकी एक रोमैन्टिक तस्वीर छप जाती है, जिसे हम कभी बदल नहीं पाते। इनको लेकर हमारी स्थिति उस प्रेमी की तरह हो जाती है जो अपनी प्रेमिका को हमेशा जवान और खूबसूरत देखना चाहता है लेकिन समय के साथ जब चीजों में बदलाव आता है तो जेहन में बसी यह तस्वीर हमें स्तब्ध तक कर देती है। यह सहज वत्ति है। <br /><br />दरअसल, जब आप यहां थी तो उस दौर में भी पुराने लोग बदलते इलाहाबाद को देखकर कुढ रहे थे। आज हम खुद उस दौर में पहुंच गये हैं जब आज से दस साल पहले का इलाहाबाद हमें बेहद सुहाना लगता था। और यह भी निश्श्चित है कि पांच साल बाद लोग आज को याद करके ठण्डी सासें भरा करेंगें। समय बदल रहा है तो शहरों के चेहरे भी कुछ धूल-पूंछ जरूर रहे हैं लेकिन वास्तव में इलाहाबाद की नब्ज अभी भी पुरानी तरीके से ही चल रही है। आपने भी अपनी पोस्ट में लिखा कि, लोग इतने खाली हैं कि सडकों पर चलने वाली लडकियों को तब तक घूरते रहते हैं जब तक वह ओझल नहीं हो जाती। शहर का कलेवर बदला लेकिन अंदाज मेरे नजरिये से अभी भी आपके समय का ही है और अभी भी दारागंज में पचास पैसे में चाय और पचास पैसे का समोसा मिल रहा है। अगली बार आईयेगा तो साथ खायेंगे। <br /><br />आपने पोस्ट बेहद सुन्दर लिखी है, इसे एक बार और दुहराने की जरूरत नहीं लगती।इलाहाबादी अडडाhttps://www.blogger.com/profile/08857919109866370465noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4012272906206136067.post-48542158045775986972009-11-03T05:00:40.154-08:002009-11-03T05:00:40.154-08:00न जाने क्यूँ आपका लेखन हमें अपनी जिन्दगी सोचने को ...न जाने क्यूँ आपका लेखन हमें अपनी जिन्दगी सोचने को ढकेलता है...सब आप बीती सी. उत्कृष्ट लेखन, बधाई.Udan Tashtarihttps://www.blogger.com/profile/06057252073193171933noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4012272906206136067.post-34672187302573962952009-11-02T20:34:34.435-08:002009-11-02T20:34:34.435-08:00पता नहीं क्यों मनीषा लेकिन मुझे लगता है कि हमें उन...पता नहीं क्यों मनीषा लेकिन मुझे लगता है कि हमें उन शहरों, उन जगहों पर लौट कर नहीं जाना चाहिए जिन्हें हम कभी छोड चुके हैंसंदीप कुमारhttps://www.blogger.com/profile/01263206934797267503noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4012272906206136067.post-28024497760373575272009-11-02T19:02:40.930-08:002009-11-02T19:02:40.930-08:00हर किसी का अपना अनुभव होता है अपने शहर के लिये।मुझ...हर किसी का अपना अनुभव होता है अपने शहर के लिये।मुझे मेरा शहर बहुत प्यारा है,इसने मुझे क्या दिया क्या नही इस पर मैने कभी विचार भी नही किया कभी घूमने भी निकले तो रोज़ सोते समय शहर फ़िल्म की तरह आंखो के सामने आता रहा है।इसे छोडकर जाने के एक नही कई मौके आये मगर मैने शहर छोड़ने की बजाय तरक्की के मौके ही छोड़ दिये।इसके बावज़ूद कि शहर अब अचानक़ बड़ा हो गया है।छोटे सा शहर राजधानी बन गया है,पता नही कंहा-कंहा से लोग आ गये हैं,भीड़ बेतहाशा बढती जा रही है,उसमे जाने-पहचाने चेहरे अब ढूंढना पड़ता है,उसी शहर मे जब स्कूल से भाग कर सिनेमा जाते थे तो पूरे समय यही प्रार्थना करते रह्ते थे हे भगवान कोई पहचान का न मिल जाये।बाद मे तो ऐसा समय भी आया कि जिधर जाओ कोई न कोई पहचान का मिलता ही ता।ऐसा लगता था कि शहर शहर न हो कर कोई खूब बड़ा सा मुहल्ला हो,अब लेकिन लगता है कि मुहल्ला कालोनी मे बदल गया है।अड़ोस-पड़ोस मे रहने वालों मे भी जाने पहचाने चेहरे को ढूंढते-ढूंडते थकान हो जाती है इसके बावज़ूद शहर से प्यार कम नही हुआ।ऐसा लगता है कि यादों के विशाल महासागर की छाती पर तैर रहा कोई जहाज और मैं उस पर बैठा कोई परिंदा।ये मेरे अपने विचार हैं,आपसे असहमति नहीं।Anil Pusadkarhttps://www.blogger.com/profile/02001201296763365195noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4012272906206136067.post-47942024712855417722009-11-02T18:28:45.420-08:002009-11-02T18:28:45.420-08:00आप के चिठ्ठे पर आकर आज ऐसा लगा कि वास्तव में आपकी ...आप के चिठ्ठे पर आकर आज ऐसा लगा कि वास्तव में आपकी पोस्ट में आपकी इलाहाबाद को लेकर बैचनी परिलक्षित होती हैं...अजीब सा अहसास...जो शायद पाठकों के मन में भी असहजता की छाप छोड़ जाता है.. सही मायने में लगा कि बेदखल की डायरी पढ़ रहा हूँSudhir (सुधीर)https://www.blogger.com/profile/13164970698292132764noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4012272906206136067.post-28947993548907483072009-11-02T10:42:10.805-08:002009-11-02T10:42:10.805-08:00मनीशा जी,
शायद अपने पूर्वाग्रहों को आपने आपने आप प...मनीशा जी,<br />शायद अपने पूर्वाग्रहों को आपने आपने आप पर हावी हो जाने दिया इसलिए इलाहाबाद ने आपको इतना बैचेन कर दिया। बहरहाल हम प्रतीक्षा कर रहे हैं ब्लाॅगर सम्मेलन के बारे में आपकी सम्पादकीय प्रतिक्रिया का जो अब तक नहीं आई है।<br /><br />प्रमोद ताम्बट<br />भोपाल<br />www.vyangya.blog.co.inप्रमोद ताम्बटhttps://www.blogger.com/profile/03951685009971991305noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4012272906206136067.post-4502470037079498422009-11-02T10:01:48.214-08:002009-11-02T10:01:48.214-08:00asal me jaisa hm chodkarkar aate hai salo bad vais...asal me jaisa hm chodkarkar aate hai salo bad vaisa hi pane ki tamnna rkhte hai kintuham apne aap ko dekhe kya ham vaise hi rah paye hai .insano ki ki badlti prvrti se shahr bhi achuta nhi rhta kyoki insano se hi shhar basta hai .शोभना चौरेhttps://www.blogger.com/profile/03043712108344046108noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4012272906206136067.post-84530479468573814752009-11-02T09:55:32.561-08:002009-11-02T09:55:32.561-08:00मनीषा जी जो शहर हम पीछे छोड आते है उन शहरों मे जब ...मनीषा जी जो शहर हम पीछे छोड आते है उन शहरों मे जब भी जायें दोबारा तो हर बार वे अलग अलग नज़र आते हैं । जिस शहर मे बचपन बीता हो हम उस शहर मे वही चित्र ढूंढते है लेकिन वह हमे नहीं मिलता फिर भी एक नॉस्टेल्जिया होता है जो हमे इसमे भी सुख देता है .. और जिस शहर मे हम आकर बस जाते है उस शहर में भी दिल नही लगता .. मैने शहर को कुछ इस तरह देखा है अपनी इस कविता मे ...<br /> 213 <b>शहर <br /><br />शहर में खड़ी हैं उदास इमारतें<br />जिनकी आँखों से टपकते हैं ईट पत्थर <br />सड़्कों के गढ्ढे <br />पाँवों के जाने पहचाने हैं <br />कूड़े के ढेरों पर मौज़ूद है <br />कचरा बीनने वालो की नई पीढ़ी <br />दुखी से दुखी आदमी <br />हालचाल पूछने पर <br />सब ठीक कहता है <br />पहचान का भाव गायब है <br />जवान होते बच्चों की आँखों में <br />दोस्तों के बीच <br />बस बीमारियों की बातें बची हैं <br />वीरान है गपबाज़ी के तमाम अड्डे <br />जिनका कहना था <br />कि शहर उन्होने बसाया था <br />वे खुदा हो गये हैं <br />हद तो यह है कि <br />शहर के लोग <br />मुझे ज़िम्मेदार नागरिक मानने लगे हैं ।<br /><br />शरद कोकास</b>शरद कोकासhttps://www.blogger.com/profile/09435360513561915427noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4012272906206136067.post-59308963160737089542009-11-02T05:28:50.599-08:002009-11-02T05:28:50.599-08:00"shahr ka mizaz kab badlta he,
badlta he jab ..."shahr ka mizaz kab badlta he,<br />badlta he jab kuch to vaqt badlta he..<br />kab ham mohabbat kar kurbaan hue he,<br />insaan khud ki chahto me bahut kuchh badlta he..."<br />kher.., yah peeda, pah dard..us shahr ke bahut nazdeek rakhe hue he aapko....अमिताभ श्रीवास्तवhttps://www.blogger.com/profile/12224535816596336049noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4012272906206136067.post-71234437545762643242009-11-02T02:57:52.811-08:002009-11-02T02:57:52.811-08:00हम कही पर भी जाएं लेकिन हमारी कुछ जड़े वही छूट जाती...हम कही पर भी जाएं लेकिन हमारी कुछ जड़े वही छूट जाती है यादे बन कर......शायद वही बैचेन करती रहती हैं हमें.....परमजीत सिहँ बालीhttps://www.blogger.com/profile/01811121663402170102noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4012272906206136067.post-58211161524975100412009-11-01T23:36:01.825-08:002009-11-01T23:36:01.825-08:00हो सकता है शहर ने ये महसूस कर लिया हो कि अब वो अपन...हो सकता है शहर ने ये महसूस कर लिया हो कि अब वो अपनापन नहीं है हम दोनों के दरमियान या शायद कभी वो या आप बना ही नहीं पाए वो अपनापन <br /><br />या शायद ठीक उस अपनेपन के जैसा हो जिसे हम पुकार सकते हैं अपनापन कहकर लेकिन उसका एहसास न होता हो <br /><br />या कभी कभी हम खुद से इतने भागते से लगते हैं कि हर कोई हमें हमसे भागता सा लगता है <br />हो सकता है वो शहर भी उनमें हो <br /><br />या यही सब आपके साथ उस शहर के लिए भी हो सकता हैअनिल कान्तhttps://www.blogger.com/profile/12193317881098358725noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4012272906206136067.post-47285865168093782752009-11-01T22:44:07.483-08:002009-11-01T22:44:07.483-08:00इलाहाबाद की गोष्ठी में जब आपने यह कहा की आज भी इला...इलाहाबाद की गोष्ठी में जब आपने यह कहा की आज भी इलाहाबाद वहीं है जहाँ अपने इसे छोडा था तो एक साथ ही कई अर्थ ध्वनित हो गए ! श्रोताओं में भी भनभनाहट हुयी -लोगों ने अपने तरीके से अर्थ लगाये -इस शहर ने बदलाव को धता बता दिया है ,यहाँ का पिछडापन नहीं जाने वाला है ,अपनी सांस्क्रतिक -सांस्कारिक धरोहरों को बचाए हुए हैं आदि आदि ! एक ने तो यह तक कहा की यह भारद्वाज के समय से यही है आखिर शहर कोई चलायमान थोड़े ही होते हैं ! अब इनमें से कौन सा जवाब आपका है? क्या बतायेगीं ?Arvind Mishrahttps://www.blogger.com/profile/02231261732951391013noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4012272906206136067.post-89872787831060375522009-11-01T22:14:14.530-08:002009-11-01T22:14:14.530-08:00मनीषा, शहर हमें एक साथ कई चीजें देता है, इसका मतलब...मनीषा, शहर हमें एक साथ कई चीजें देता है, इसका मतलब यह नहीं कि हम उससे अलग हो जाएं। यह कोई मामूली बात नहीं है कि आप एक शहर में अपने यादगार बीस साल गुजारें हों। आप खुद कहती हैं कि इस शहर में निजी और सामाजिक करुणा और अपमान की और पहले प्यार की सादगी और बेचारगियों की ढेरों स्मृतियां गुंथी हुई हैं। चलिए इतने लंबे अंतराल क बाद आप अपने शहर गईं तो..वैसे यह तो सच है कि हम कभी भी आसानी से शहर को नहीं समझ पाते हैं.मैंने कहीं पढ़ा था कि शहर की आंखें सांप की तरह होती है..Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झाhttps://www.blogger.com/profile/12599893252831001833noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4012272906206136067.post-12652735487436229932009-11-01T22:09:03.114-08:002009-11-01T22:09:03.114-08:00शहर ने दौड़कर मुझे गले से नहीं लगाया।'
यही हो...शहर ने दौड़कर मुझे गले से नहीं लगाया।' <br />यही होता है :<br />मिलते रहो ताके मिलने की ललक रहे<br />सामने ना हो फिर भी मन में झलक रहेM VERMAhttps://www.blogger.com/profile/10122855925525653850noreply@blogger.com