Saturday, 23 August 2014

बाजार और उदासी



शॉपिंग - 1
दिल्‍ली का सरोजनी नगर मार्केट लड़कियों की सोशियोलॉजिकल स्‍टडी के लिए सबसे मुफीद जगह है। संसार के किसी कोने में एक साथ, एक जगह इतनी खुश, उत्‍साहित और चमकीली आंखों वाली लड़कियां नहीं होंगी, जितनी यहां दिखती हैं। सस्‍ते दाम में अपनी पसंद का एक सेक्‍सी टॉप पा लेने की खुशी यहां देखी जा सकती है। टॉप, जो मॉल में 3000 रुपए में बिकने वाले टॉप जैसा ही दिखता है। 100-100 रुपए में बिक रहे पुराने कपड़ों के ढेर में बेचैन आंखें अपनी पसंद की ड्रेस ढूंढ रही हैं। वो कुछ ऐसे ढूंढ रही हैं, जैसे प्‍यार ढूंढ रही हों। लड़कियों को लगता है कि सुंदर ड्रेस पहनने से लड़का मिलता है। लड़का प्‍यार करता है। प्‍यार से खुशी आती है। इस तरह लड़कियां सरोजनी नगर में ड्रेस के बहाने दरअसल खुशी ढूंढ रही हैं।
पूरे दिल्‍ली शहर की लड़कियां खुशी ढूंढ रही हैं।

शॉपिंग - 2
दो घंटे से मॉल में इधर-उधर घूम रही हूं, लेकिन खरीदा कुछ नहीं। ऐसा नहीं है कपड़े नहीं हैं मेरे पास। कबर्ड भरा पड़ा है। फिर और क्‍यों चाहिए। सिर्फ जरूरत भर का रखने वाला संयम न भी मानें तो जरूरत से काफी ज्‍यादा है। फिर भी अलग-अलग शोरूम में जाकर हैंगर में टंगे स्‍कर्ट, फ्रॉक, ट्राउजर्स और टॉप को इस तरह क्‍यों स्‍कैन कर रही हूं। ऐसा बार-बार क्‍यों लगता है कि बाकी सब तो ठीक है मेरे साथ। बस ये वाली ड्रेस और पहन लूं तो दुनिया की सबसे डिजायरेबल औरत हो जाऊंगी। मार्क्‍स एंड स्‍पेंसर में एक व्‍हाइट स्‍कर्ट लगी है। घुटनों तक की। मेरे पैर सुंदर हैं। वैक्‍स और स्‍क्रब करके सिल्‍वर सैंडल के साथ ये स्‍कर्ट पहनी जाए तो हर कोई पलटकर एक बार देखेगा तो जरूर। पैर खुले हों तो क्‍या चाल में ज्‍यादा कॉन्फिडेंस आ जाता है।
जब चारों ओर सबकुछ चीख-चीखकर कह रहा हो कि इस मॉल के शोरूम्‍स में जिंदगी की सब खुशियों की चाभी है तो भी मन अपराजेय ढंग से बिना किसी शुबहा के इस बात पर यकीन क्‍यों नहीं कर पाता। क्‍यों मॉल में घूम भी रही हूं और कुछ खरीद भी नहीं पा रही।

शॉपिंग - 3
आज वेस्‍टसाइड से काफी शॉपिंग की। ट्राउजर, टॉप, स्‍कर्ट और एक और कुर्ता। बिलिंग करवाकर हाथ में पैकेट उठाए बाहर आई हूं और खुश हूं। खुशी कितनी आसान चीज है। कितने सुंदर कपड़े हैं न। साथ में एक लड़की भी है। स्‍टूडेंट है। मैं कहती हूं मेरी दोस्‍त है। वो भी मानती है कि मैं दोस्‍त हूं। हम अच्‍छे दोस्‍त हैं भी। एक समझदार, संवेदनशील लड़की, जिससे दिमाग से बात की जा सके और मन में उतरकर भी। उसने कुछ नहीं खरीदा। ज्‍यादा पलटकर कुछ देखा भी नहीं। शायद उसे पता था कि जब कुछ खरीदना नहीं तो देखना क्‍या। हालांकि ट्रायल रूम के बाहर खड़ी वो काफी उत्‍साह से बताती रही कि "यू आर लुकिंग सेक्‍सी बेब। ये वाला नहीं। नो, इट्स नॉट गुड। ये स्‍कर्ट बढिया है।"
मैं खरीद रही हूं क्‍योंकि मेरी जेब में पैसे हैं। उसके नहीं हैं। क्‍या ये बात उसे खल नहीं रही होगी? क्‍या ये बात मुझे खल रही है? ये डिसपैरिटी। डिसपैरिटी कैसी भी हो, दुख देती है। क्‍या वो इस वक्‍त वैसा ही महसूस कर रही होगी, जैसा मुंबई में उस कॉमरेड महिला को फैब इंडिया से शॉपिंग करते देख मुझे महसूस हुआ था। ऐसे मौकों पर विचार हवा हो जाते हैं। जिसकी जेब भारी हो, उसके चेहरे और चाल में ज्‍यादा भरोसा होता है। पर्स में सिर्फ 300 रुपए लेकर मॉल आया व्‍यक्ति वैसे ही खुद में सिमटा और आत्‍मविश्‍वासहीन होता है। तब मार्क्‍सवाद भी  कॉन्फिडेंस नहीं देता।
कॉन्फिडेंस तो अब वेस्‍टसाइड के बाद शॉपर्स स्‍टॉप से मैक की एक लिप्‍सटिक खरीदने के बाद ही आएगा।  

शॉपिंग - 4
कल इस तरह काम के बीच जल्‍दबाजी में लाजपत नगर जाने का कोई लॉजिक नहीं था। बहुत सारे कपड़े हैं और उनमें से कोई उसने नहीं देखे। कोई भी पहना जा सकता है। लेकिन उसने नहीं देखे तो क्‍या हुआ। मैंने तो देखे हैं। पहने हैं। मेरे लिए सब पुराने हैं। कल शाम हैबिटैट में उससे मिलना है और मैं नया कुर्ता पहनकर जाना चाहती हूं। जल्‍दबाजी में मैंने नीले रंग का एक चिकन का कुर्ता खरीदा। सुंदर है, महंगा भी। कल मोतियों के सेट के साथ इसे पहनकर मैं बिलकुल नई लगूंगी। लेकिन ऐसी बेवकूफानी तैयारी किसके लिए। होल्‍ड ऑन। ब्‍वॉयफ्रेंड नहीं है वो। प्रेमी भी नहीं है। न कभी होगा। नॉर्मल रहो न। लेकिन उम्र बढ़ते जाने के साथ ये हो नहीं पा रहा। ढलती देह और सफेद होते बालों के साथ सुंदर दिखना क्‍यों इतना जरूरी लगने लगा है। जो भी हो। फिलहाल ये सोचना नहीं चाहती। बस कल नए नीले कुर्ते में उससे मिलना चाहती हूं। प्रेमी न भी हो तो भी चाहती हूं कि मैं उसे अच्‍छी लगूं। वो सोचे कि लड़की इंटैलीजेंट ही नहीं, ब्‍यूटीफुल भी है। डिजायरेबल है।
मुलाकात हो गई। ठीक रही। पहले जाड़े की धूप सा उत्‍साह था, अब कोहरा गिर रहा है। कमरे में एक पीली रौशनी वाला बल्‍ब है। नीला कुर्ता कुर्सी पर बेतरतीब, लापरवाह सा पड़ा है। कल तक बहुत दुलार से रखा गया था। आज जल जाए, फट जाए, कीचड़ में जाए, मुझे परवाह नहीं। कुर्ते से मेरा कनेक्‍ट खत्‍म हो गया है। मैं उसे अब सहेजना नहीं चाहती।
लेकिन मेड कल सुबह खुद ही धोकर सुखा देगी। अपनी उम्र तो मेरे कबर्ड में वो पूरी करेगा ही।

शॉपिंग - 5
बोर्डिंग शुरू होने में अभी एक घंटा है। एयरपोर्ट से रेवलॉन का काजल खरीदा। एक काजल 1200 रुपए का। बहुत सॉफ्ट है। इसे आंखों पर घिसना नहीं पड़ता। अपने आप फिसलकर लग जाता है। आंखों पर मोटे से आइलाइनर की तरह। बड़ी आंखें और भी बड़ी लगने लगती हैं। लगता है सुंदर दिख रही हैं। बहुत रूमानी मूड में होता तो वो भी कहता था। मैं आंखों को सुंदर दिखाने के लिए मरी जा रही हूं। बूढ़ी होती आंखें सुंदर दिखने के लिए बेचैन हैं। लेकिन इस सच को कैसे झुठलाऊं कि कितना भी आइलाइनर लगा लो, आंखों की उदासी जाती नहीं। आंखों के दुख 1200 खर्च कर सकने की औकात से नहीं कम होते।
आंखों के दुख आंखों को देख सकने और पढ़ सकने की ताकत से कम होते हैं और इस बात से कि आंखों ने दूसरे की आंखों में अपने लिए क्‍या देखा।

शॉपिंग - 6
हमें लगता है कि रंगीन ड्रेस से दिल की बेरंग उदासी खत्‍म हो जाएगी। मुलायम मखमली छुअन वाला एक बहुत सेक्‍सी गाउन और उसे पहने जाने की कल्‍पना जीवन के विद्रूप मिटा देगी। कि एक खूबसूरत महंगी ब्रा खरीदने के बाद उस रात सुकून भरी नींद आएगी। ढेर सारे सेक्‍सी जूतों में मुझे इस सवाल का जवाब मिल जाएगा कि इस दुनिया में मेरे होने के मायने क्‍या हैं। कि एक डियो जीवन में खुशी लेकर आएगा। बाजार हर चीज प्रेम और रिश्‍तों का लेबल लगाकर बेच रहा है और हम खरीद रहे हैं। हम खरीद रहे हैं और खुद से कह रहे हैं कि ये खरीदना दरअसल प्‍यार करना है। और इस तरह हम खरीद नहीं रहे, हम प्‍यार कर रहे हैं।
मैं भी प्‍यार कर रही हूं सबकी तरह। लेकिन ये प्‍यार ही घर में कहीं नहीं है, जबकि सब सामान खरीदे जा चुके हैं।

9 comments:

विवेक रस्तोगी said...

सही कहा, हम कपड़े नहीं खुशियाँ खरीदने निकलते हैं, और केवल इसी बहाने थोङा चहक लेना ही जिंदगी हो गई है, जैसे मैं हमेशा ही डेविडऑफ कूल वाटर में जिंदकी की सारी सुगंध लेना चाहता हूँ ।

मसिजीवी said...

खरीदारी में भी इतने शेड्स ? सबके होते हैं क्‍या, मतलब सबके। पुरुषों के भी ?

कितना कुछ जानना है अभी। शुक्रिया

Manisha Jhalaan said...

बहुत खूब लिखा है ओर में मेह्सूस कर पाई किउकि हम सभी यही तो कर रहे है बजड़ प्यार के नाम पर बेच रहा है हम खरीद रहे है लेकिन जिसके लिए खरीद रहे है बस वही किसी दुसरे प्लैनेट का लगता है. लेकिन अगर ये सब हमे खुशी दे रहा है तो चलो बटोर लेते है सोच समझ कर. शुक्रिया

Charvi said...

hey manisha itne saalo baad aapka blog pad k bht hi acha laga

aapke writeups hamesha se padti aa ri hu par ye write up bht diffrent sa lag ra haii

banwati aur sajawati cheezo me aap kabse khushi dhoondne lagii...

beharhaal apke is write up me thodsi si udasi mixed haii....par fir b aapki lekhni ki khoosoorti ko kam nahi kar sakii

yakinan aapki writing aur aap hamesha bina kisi sajo saman ke bhi behad sundar ho aur hamesha rahoge..

रचना त्रिपाठी said...

"जिसकी जेब भारी हो उसके चेहरे और चाल में ज्यादा भरोसा होता है"
पते की बात!

falsafa said...

ढलती देह और सफेद होते बालों के साथ सुंदर दिखना क्यों इतना जरूरी लगने लगा है।
वास्तव में यह एक डर ही है जो समय बीतने के साथ और मजबूती से हम पर हावी होता जाता है। और हम बढ़ती उम्र के बीच सुंदर दिखने की खुशफहमी पालते हुए इस डर को कुछ कम करने की कोशिश करते हैं।

pankaj said...

आज ही कही पढ़ा
हम मंगल पे जीवन खोज रहे है
जीवन में मंगल नहीं...
वो तो न जाने कहाँ गुम होता जा रहा है

फ़िरदौस ख़ान said...

आपके बलॊग पर आकर अच्छा लगा... कुछ पल ठहरना अच्छा लगा... वैसे ठहरने की फ़ितरत नहीं है हमारी... बस चलते जाना ही सुहाता है...शायद ज़िन्दगी ने ठहरने का मौक़ा नहीं दिया...इसलिये...

Pooja Priyamvada said...

these are such beautiful snippets of the consumer culture fused with the basic human needs that haven't altered much.