Wednesday 24 February 2010

देखी है कोई बोहेमियन औरत ?

हम कौन हैं? हम क्‍यों हैं? क्‍या है हमारे होने का मतलब? हम क्‍यों होना चाहते हैं? क्‍यों होना चाहिए हमें? जो न हों तो किसका क्‍या बिगड़ता है? क्‍या आता है, क्‍या चला जाता है? हमारा ये होना हमारे लिए है या कि किसके लिए? इस सृष्टि के एक कण से बनी मैं, मेरे होने का मतलब क्‍या है? क्‍या पता है मुझे? क्‍या चाहती हूं अपनी जिंदगी से? ये जो हम हैं इस सृष्टि में, क्‍यों?

मैं क्‍या होना चाहती हूं? जानती हूं क्‍या? कहने को तो जो यह बीहड़ लड़ाई का मैदान है, ये जिंदगी, इसमें हम सब अपने होने और न होने के साथ होते हैं, बिल्‍कुल अकेले। अकेले जरूर होते हैं, पर अपने में नहीं होते। अपने मन, अपनी आत्‍मा में अवस्थित नहीं होते। अकेले होकर भी हम क्‍या और कैसे होंगे, शायद उसके पहले से बने हुए कुछ तयशुदा रास्‍ते हैं, जिन पर चलना होता है। एक अजीब, अंधेरी सरपट दौड़ है, जिसमें भागे जाते हैं सब। सबको कहीं पहुंचना है। कहां? कोई नहीं जानता, लेकिन सब भागे जाते हैं? शायद ही कभी रुककर, थमकर, ठहरकर सोचते हों कि जा कहां रहे हैं? और इसी राह पर क्‍यों? किसी और राह क्‍यों नहीं? क्‍या किसी ने बताया या कि किसी किताब में पढ़ा कि इसी राह दौड़े जाना है? पर नहीं, दौड़े जाते हैं।

मैं सोचती हूं कभी और पूछती हूं कभी-कभी अपने आपसे कि मैं क्‍या होना चाहती हूं? किसी अखबार की एडीटर या कि कोई बड़ी तोप तुर्रम जंग रिपोर्टर? जिस राह निकल जाऊं तो लोग फलां स्‍टोरी में तो आपने क्‍या कमाल किया था या ढंका रिपोर्ट में क्‍या अद्भुत समझ और गहराई थी का भोंपू उठाए मेरे पीछे-पीछे आएं। क्‍या मैं एक बेहद सजीले, रंगीले, सुरीले और मोहब्‍बत के झूले पर ऊंची-ऊंची पेंगे बढ़ाने वाला नौजवान के इश्‍क में गिरफ्तार होना चाहती हूं? मैं चाहती हूं क्‍या कि दो सुंदर-सुंदर गोल-मटोल मीठे झबरीले बच्‍चे मां-मां करते मेरी साड़ी खींचे और कहीं से दौड़ते हुए आकर मेरे पैरों से लिपट जाएं, जब मैं रसोई में उनके मनपसंद रसगुल्‍ले बना रही होऊं? बड़े लाड़ से मेरी गोदी में चढ़कर कढ़ाही में झांकें कि मां, क्‍या पका रही हो? मैं गोदी से नीचे उतार दूं तो भी साड़ी में मेरे खुले पेट से मुंह चिपकाकर हवा निकालें और अजीब सी आवाजें करें?

एक आधुनिक या तेजी से आधुनिकता की राह पर कदम बढ़ाते शहर में दो कमरों का एक सुंदर, सलोना घर हो? एक अच्‍छी सुखी-सी दिखने वाली गृहस्‍थी? दुनिया ये जाने और हम भी ये मानें कि इस घर में प्‍यार बसता है। एक जॉइंट बैंक एकाउंट हो, जो जिंदगियों के साझे होने का सांसारिक, सामाजिक सर्टिफिकेट हो। रिश्‍तों में प्‍यार और गरमाहट का बोध कराता एक सुकूनदेह बिस्‍तर। आंखों में ढेर सारा लाड़ समोए बांहों में उठा लेता पति, गुल मचाते बच्‍चे? बेशक, किताबों की एक आलमारी भी, जिसमें करीने से सजे हों रिल्‍के, विक्‍टर ह्यूगो, शॉपेरहावर, मिल्‍टन, नेरुदा, वॉल्‍ट व्हिटमैन।

क्‍या जिंदगी की ये इमेजेज मेरे बहुत अपने अंतरतम से उपजी, मेरी अपनी रची, चाही और मांगी हुई ऑरिजनल इमेजेज हैं? या कोई और ताकत बैठी रही है मेरे अवचेतन में, जो बताती है कि एक सुंदर, सुखी जीवन की इमेजेज ऐसी होती हैं? देखो ये सपने, क्‍योंकि ये किसी भी लड़की द्वारा देखे जाने वाले सबसे सुंदर, मोहक सपने हैं?

कौन हूं मैं? क्‍या चाहती हूं?

जारी

Tuesday 23 February 2010

सिनेमाई झरोखों से जिंदगी की झलक

अजय जी के पुरजोर इसरार पर मैंने महीनों टालने के बाद मेरी जिंदगी में सिनेमा के अनुभवों से जुड़ा ये एक पीस लिखा था, जिसे उन्‍होंने अपने ब्‍लॉग चवन्‍नी चैप पर लगाया है। किताबों पर लिखते हुए उसी रौ में मैंने सिनेमा पर भी कलम घसीट डाली। क्‍या है, कैसी है, पढ़ने वाले बताएंगे। फिलहाल इसे मैं उनकी अनुमति के बगैर ही बेदखल की डायरी पर भी चेंपे दे रही हूं।


एक मुख्‍तसर सी जिंदगी में जाने क्‍या-क्‍या ऐसा होता है कि जिनके साथ रिश्‍ता बनते-बनते बनता है और जो बनता है तो ऐसा कि फिर वो आपके होने का ही हिस्‍सा हो जाते हैं। कई बार ये रिश्‍ते जज्‍बाती और जिस्‍मानी रिश्‍तों से भी कहीं ज्‍यादा मजबूत और अपनापे भरे होते हैं, जो जिंदगी के हर उल्‍टे-सीधे टेढ़े-मेढ़े मोड़ों पर पनाह देते रहते हैं।

किताबों के बाद मेरी जिंदगी में फिल्‍मों की भी कुछ ऐसी ही जगह रही है। हालांकि बचपन की गलियों की ओर लौटूं तो हमारे घर में फिल्‍मों से रिश्‍ता इतना सीधा, मीठा और सुकूनदेह नहीं था, जैसाकि किताबों के साथ हुआ करता था। पापा जिला प्रतापगढ़ के जिस पंडिताऊ, सतनारायण की कथा बांचू और ज्‍योतिषधारी ग्रामीण परिवेश से इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के प्रगतिशील इंकलाबी वातावरण में आए थे तो यहां आने के साथ ही उन्‍होंने लेनिन, मार्क्‍स और माओ के दुनिया को बदल देने वाले विचारों से दोस्‍ती तो गांठ ली थी लेकिन सिनेमा और प्‍यार-मुहब्‍बत के मामलों में बिलकुल अनाड़ी थे। लेनिन की संकलित रचनाएं, क्‍या करें और साम्राज्‍यवाद पूंजीवाद की चरम अवस्‍था तक तो मामला दुरुस्‍त था, लेकिन इससे आगे बढ़कर वो ये किसी हाल मानने को तैयार न थे कि लेनिन की कोई फ्रांसीसी प्रेमिका भी थी। उन्‍हें ये बात लेनिन के चरित्र को मटियामेट करने के लिए दक्षिणपंथियों द्वारा रची गई साजिश नजर आती।

फिल्‍मों से हजार गज का फासला बनाए रखते। उपन्‍यास और कविताओं से तो उनका छत्‍तीस का आंकड़ा था। वो इस कदर रूखे और गैररूमानी थे कि फिल्‍मों के नाम से ही बरजते थे। ब्‍याहकर इलाहाबाद आने से पहले मां ने बॉम्‍बे में काफी फिल्‍में देखी थीं, लेकिन शादी के बाद पापा ने इलाहाबाद में बस एक फिल्‍म दुलहन वही जो पिया मन भाए दिखाकर ये मान लिया था कि अब जिंदगी भर मां को फिल्‍में दिखाने का कोटा वो पूरा कर चुके हैं। मां पति की बांह से सटकर देखी उस इकलौती फिल्‍म का किस्‍सा आज भी बड़ी मुलायमियत से भरकर सुनातीं। ये बात अलग है कि बड़े होने के बाद मैंने उस फिल्‍म के मुतल्लिक ये फरमान जारी किया कि नई ब्‍याही दुल्‍हन को आते साथ ही इतने रूढ़िवादी टाइटल वाली फिल्‍म दिखाना दरअसल एक सामंती और पितृसत्‍तात्‍मक निर्णय था। मां बेलन मेरी ओर फेंककर गरजतीं, बंद कर अपना ये नारीवाद, लेकिन ऐसा करते हुए उन्‍हें हंसी आ जाती।

***

पता नहीं, पापा को फिल्‍मों और टीवी के नाम से इतनी चिढ़ क्‍यों थी। तीसरी क्‍लास में नाना के एक पोर्टेबल ब्‍लैक एंड व्‍हाइट टीवी खरीदकर लाने तक हमारे घर में कोई टीवी नहीं था और पड़ोस की जया शर्मा के घर चित्रहार देखने जाने के लिए मां से बड़ी चिरौरी करनी पड़ती। मां इस हिदायत के साथ भेजती थीं कि पापा के आने से पहले भागकर चली आना। बगल के घर में मेरा एक कान चित्रहार और दूसरा कान पापा के आने की आहट पर लगा रहता था।

मेरी मुमकिन याददाश्‍त के मुताबिक मैंने कभी मां-पापा को सिनेमा हॉल जाते नहीं देखा। एक बार उनके एक दोस्‍त हमें सपरिवार राजा हिंदुस्‍तानी दिखाने ले गए थे। मैं पूरी फिल्‍म में आंख फाड़-फाड़कर स्‍क्रीन को देखती रही कि कहीं ऐसा न हो कि कोई सीन देखने से रह जाए और पापा पूरी फिल्‍म में तमतमाए बैठे रहे। बाद में दोस्‍त की बारह बजाई। मुझे यकीन था कि ये सारी नाराजगी इस वजह से थी कि एक बड़ी हो रही लड़की भी साथ बैठी थी। अकेले होते तो निश्चित ही इतना न गरजते। पर मैं खुश थी कि मुझे एक फिल्‍म देखने को मिली। गरज लो, बरज लो, चाहे तो कूट भी लो, पर मुझे फिल्‍म देखने दो। फिल्‍में देखना मुझे इस कदर पसंद था कि इसके लिए मैं लात खाने को भी तैयार रहती थी।

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मात्र उन्‍तीस साल की जिंदगी में सिनेमा हॉल के स्‍याह अंधेरों की भी एक बड़ी रूमानी इमेज मेरे दिलोदिमाग पर कायम है। पहली क्‍लास में एक कजिन के साथ पहली दफा मैं सिनेमा हॉल गई थी। विक्रम बेताल टाइप कोई फिल्‍म थी, जिसमें मुकुट लगाए कोई आदमी आसमान में उड़ता था, राजकुमार सांप निगल लेता था, राजकुमारी भिखारी से शादी कर लेती थी और सुराही में से भूत निकल आता था। मैं चकित होकर बार-बार अपनी कुर्सी से उठ जाती, लगता अभी पर्दा फाड़कर अंदर घुस जाऊंगी। आंखें ऐसे बाहर निकली आती थीं कि लगता कि निकलकर अभी टपक जाएंगी। मैं महीनों वो रोमांचक मंजर नहीं भूल पाई। सपने में भी सिनेमा हॉल का नीम स्‍याह अंधेरा और पर्दे पर भागती-दौड़ती तस्‍वीरें आती थीं। कैसी अनोखी चीज थी।

इसके अलावा ज्‍यादातर फिल्‍में मैंने बॉम्‍बे में अपने ननिहाल की बदौलत ही देखी थीं। मां और मौसी के साथ मिथुन चक्रवर्ती और फरहा खान की पति, पत्‍नी और तवायफ देखी। समझ में क्‍या खाक आई होगी, पर पर्दे पर काफी इजहारे मुहब्‍बत था। कुछ अजीब-अजीब से इश्किया जुमले थे, जो सिर के पार जाते। फिल्‍म क्‍या थी पता नहीं, पर सिनेमा हॉल का वह रूमानी अंधेरा मेरे दिल में रौशन था। यूनिवर्सिटी जाने से पहले मैंने ऐसे ही कुछ-कुछ फिल्‍में अपने अमीर मुंबईया रिश्‍तेदारों के रहमो-करम पर देखी थी।

टीवी देखने की हमारे घर में कतई इजाजत नहीं थी, इसलिए घर में फिल्‍में देखने का सवाल ही नहीं उठता था। सिर्फ नौ बजे समाचार से पहले टीवी ऑन होता, एक बूढ़ा और नाजनीना आकर दुनिया का हाल सुनाते और फिर बेचारे बुद्वूबक्‍से का बटन गोल घूमता और वो चुपचाप कोने में पड़ा अपनी किस्‍मत को रोता था। नब्‍बे के दशक के पहले कुछ सीरियल जरूर देखे जाते थे। पर जैसे ही वीपी सिंह की सरकार गई, नरसिम्‍हा राव, डंकल आदि के साथ लोगों की जहनियत में अशांति फैलाने शांति अर्थात मंदिरा बेदी आईं और हर रोज दोपहर में स्‍वाभिमान सीरियल आने लगा तो सीरियलों की आमद पर भी बंदिश लग गई। टीवी चलनी ही नहीं है, बात खत्‍म। पापा से बहस करने का हमारा दीदा नहीं था। उनका निर्णय मां समेत हम सभी को मानना ही होता था।

फिल्‍मों से पापा की इस कदर नाराजगी की वजह‍ जो बड़े होने के बाद मुझे समझ में आई वो ये थी कि दुनिया में चाहे मुहब्‍बत पर जितने ताले लगे हों, लड़का-लड़की को एक-दूसरे से छिपाकर सात घड़ों के अंदर रखा जाता हो, फिल्‍में सभी अमूमन प्‍यार-मुहब्‍बत और आशनाई के इर्द-गिर्द ही घूमती थीं। पापा को यकीन था कि छोटी बच्चियों को इस तरह के बेजा ख्‍यालों से दूर रखना बेहद जरूरी है वरना उनके दिमाग में तमाम ऊटपटांग चीजें आ सकती हैं, वो राह भटक सकती हैं और मुहब्‍बत के चक्‍करों में फंस सकती हैं। इसलिए घर में ऐसी किसी चीज की आमद पर सख्‍त पाबंदी थी। पापा के तमाम इंकलाबी विचार उन्‍हें ये नहीं सिखा पाए कि किसी लड़की की जिंदगी में मुहब्‍बत के बगीचे गुलजार होने के लिए सिनेमा की कोई जरूरत नहीं होती। जब धरती पर सिनेमा का नामोनिशान तक न था और न मुहब्‍बत के बाजार थे, लोग तब भी प्रेम करते थे और ज्‍यादा आजादी से करते थे। ये वाहियात नियम तो हमने बनाए, जलील फसीलें खड़ी कीं और फसीलें जितनी ऊंची होती गईं, मन में चोरी-छिपे मुहब्‍बत का दरिया उतना ही गहरा।

फिल्‍मों के संसार में मेरी ज्‍यादा आजाद घुसपैठ मेरे यूनिवर्सिटी जाने के बाद शुरू हुई। जैसे-जैसे बाहरी दुनिया में मेरी आवाजाही और दखल बढ़ने लगा, मेरी जिंदगी में मां-पापा का दखल कम होने लगा। इलाहाबाद में भी यूनिवर्सिटी के दिनों में मैं अकसर दोस्‍तों के साथ सिनेमा देखने चली जाती। लेकिन ये जाना सिर्फ सिनेमाई संसार में ही मेरा पहला आजाद कदम नहीं था, बल्कि यह एक हिंदी प्रदेश के छोटे शहर के बेहद कस्‍बाई, कटोरे जैसे दिमागों वाले लोगों की दुनिया में भी मेरा शुरुआती कदम था। द लीजेंड ऑफ भगत सिंह जैसी फिल्‍मों पर भी हॉल में धांय-धांय सीटियां बजतीं, कमेंट होते। लड़कियों के लिए इस कदर तरसे, उकताए और पगलाए हुए लोग थे कि पर्दे पर भगत सिंह की मंगेतर भी आ जाए तो सीट पर बैठे-बैठे आहें भरने लगते थे। और रंगीला जैसी फिल्‍म हो तो कहना ही क्‍या। शिल्‍पा शेट्टी यूपी-बिहार हिलातीं और इलाहाबादी मर्दानगी के दिल पर कटार चलती।

हम भी चुपचाप कोने में बैठे उर्मिला और शिल्‍पा की किस्‍मत से रश्‍क करते और फिल्‍म खत्‍म होने के बाद बड़े सलीके से अपने दुपट्टे संभालते सिनेमा हॉल से बाहर आते।

लेकिन फिल्‍मों का संसार सिर्फ शिल्‍पा शेट्टी और उर्मिला मार्तोंडकर तक तो सीमित था नहीं।

जीवन में देखी पहली बहुत गंभीर फिल्‍म जिसने भीतर-बाहर सब रौंद डाला था, वो बैंडिट क्‍वीन थी। यूनिवर्सिटी से एक बार मैं और मेरी एक दोस्‍त क्‍लास बंक करके सिविल लाइंस के राजकरन पैलेस पहुंचे, बैंडिट क्‍वीन देखने। तब मैं शायद सिर्फ साढ़े अठारह साल की थी। गेटकीपर बोला, आपके देखने लायक नहीं है। मैं थोड़ा सा घबराई भी थी। एक बार लगा कि लौट चलें। लेकिन फिर गुस्‍सा भी आया। तुम क्‍या कोई चरित्र निर्धारक समाज के सिपाही हो, जो बताओगे कि किसके देखने लायक है, किसके नहीं। हम बोले, नहीं हमें देखनी है। वो रहस्‍यपूर्ण बेशर्मी से मुस्‍कुराया।

एक सीन बहुत खराब है मैडम।

कोई बात नहीं।

फिलहाल हमें भीतर जाने को मिल गया। भीतर का नजारा तो और भी संगीन और वहशतजदा था। शहर के सारे हरामी, लफंगे जमा हो गए लगते थे। पान चबाते, गुटका थूकते, जांघें खुजाते, पैंट की जिप पर हाथ मलते, एक आंख दबाते, हम दोनों को देखकर अपने साथ के लोगों को कोहनी मारते, इशारे करते हिंदुस्‍तान के इंकलाबी नौजवान किसी बेहद मसालेदार मनोरंजन के लालच में वहां इकट्ठे थे। भीतर जाकर हमें थोड़ा डर लगा था। पर तभी हमरी नजर एक प्रौढ़ कपल पर पड़ी। हमने थोड़ी राहत की सांस ली। भला हो उस फटीचर सिनेमा हॉल का कि जहां नंबर से बैठने का कोई नियम नहीं था। सो हमने कोने की एक सीट पकड़ी और हम दोनो के बगल वाली सीट पर वो आंटी बैठीं और हम फिल्‍म देखने लगे।

मैंने जिंदगी में बहुत सी तकलीफदेह फिल्‍में देखी हैं, पर वो मेरी याद में पहली ऐसी फिल्‍म थी, जिसका हर दृश्‍य हथौड़े की तरह मेरे दिलोदिमाग पर नक्‍श होता जा रहा था। वो दर्द और बदहवासियों का कभी न खत्‍म होने वाला सिलसिला जान पड़ती थी। जैसे-जैसे फिल्‍म आगे बढ़ती जाती, लगता मैं सुलगते अंगार निगल रही हूं। रोते-रोते आंखें सूज आईं। आवाज गले में ही अटकी रही। मैं कांपती, बदहवास और संज्ञाशून्‍य सी उस फिल्‍म को देखती रही। फूलन देवी का दर्द अपनी ही धमनियों में दौड़ता सा लगा था।

हमसे आगे वाली रो में बैठे दो लड़के बीच-बीच में मुड़-मुड़कर हम दो लड़कियों को देखते रहते और बेहयाई से मुस्‍कुराते थे। फिल्‍म के सबसे तकलीफदेह हिस्‍सों पर हॉल में दनादन सीटियां बजीं, गंदे जुमले उछले और मर्दों की बेशर्म सिसकारियों की आवाजें आती रहीं। मेरी उम्र तब सिर्फ साढ़े अठारह साल थी। दुनिया की कमीनगियों से ज्‍यादा वास्‍ता न पड़ा था और न ही लात खाते-खाते मैं पत्‍थर हो गई थी। एक छोटा बच्‍चा जरा सी तेज आवाज से भी हदस जाता है और तीस पार कर हम इतने संगदिल हो चुके होते हैं कि गालियों और लात-जूतों पर भी आंसू नहीं बहाते। तकलीफें हमारे खून में बस जाती हैं, हम उनके साथ रहने-जीने के आदी हो जाते हैं। लेकिन तब तक तकलीफों से मेरी ऐसी आशनाई नहीं हुई थी। वो मेरी तब तक की जिंदगी का सबसे दुखद क्षण था। मैं इतनी ज्‍यादा तकलीफ महसूस कर रही थी कि उसी क्षण मर जाना चाहती थी। मुझे लगा कि मैं खड़ी होकर जोर से चीखूं। सबकी हत्‍या कर दूं। फूलन देवी पर्दे से बाहर निकल आए और उन ठाकुरों के साथ-साथ हॉल में बैठे सब मर्दों को गोली से उड़ा दे। जून, 99 की वो दोपहर मेरे जेहन पर ऐसे टंक गई कि वक्‍त का कोई तूफान उसे मिटा नहीं सका। आज भी आंख बंद करती हूं तो वो दृश्‍य फिल्‍म की रील की तरह घूमने लगता है।

फिल्‍म खत्‍म होने के बाद जब हम बाहर निकले तो मेरी आंखें सूजकर लाल हो गई थीं। मैं अब भी मानो किसी सपने में चल रही थी। चारों ओर लोग ठहाके लगा रहे थे, आपस में भद्दे मजाक कर रहे थे। हमें देखकर आंख दबा रहे थे।

कैसी है ये दु‍निया? कैसा इंसान रचा है हमने? वो फूलन तो एक थी, लेकिन इन सब मर्दों की बीवियां, उनकी बहनें, माएं सबकी जिंदगी फूलन जैसी ही है। सबके हाथ में एक-एक बंदूक होनी चाहिए और उड़ा देना चाहिए इन सब हरामियों को।

***

मैंने जिंदगी में सबसे धुंआधार फिल्‍में बंबई में देखीं। हॉस्‍टल भी किस्‍मत से ऐसी जगह था कि दसों दिशाओं में दस कदम पर इरोज, लिबर्टी, मेट्रो, स्‍टर्लिंग, न्‍यू एंपायर, न्‍यू एक्‍सेलसियर और थोड़ी ज्‍यादा दूर रीगल थिएटर थे। 2001 के बाद से मेरे बॉम्‍बे रहने के दौरान जितनी भी फिल्‍में आईं, लगभग सब मैंने थिएटर में देखीं। वहां रिलीज होने वाली फिल्‍मों का कैनवास जरा ज्‍यादा व्‍यापक था। अंग्रेजी फिल्‍में, ऑस्‍कर विनर फिल्‍में, बंगाली फिल्‍में, समांतर सिनेमा और मल्‍टीलिंग्‍वल मल्‍टीप्‍लेक्‍स फिल्‍में सभी कुछ देख डालीं, यहां तक कि एक्‍सक्‍यूज मी, स्‍टाइल और मस्‍ती टाइप की बेहद थर्ड क्‍लास डबल मीनिंग फिल्‍में भी मेरे देखने से नहीं छूटीं। जिस्‍म, मर्डर, पाप और हवा जैसी मूर्ख फिल्‍में भी। उस समय इस तरह भटक-भटककर फिल्‍में देखना आवारगी की ही एक इंतहा थी। प्रणव को भी फिल्‍मों का शौक था। इसलिए हम साथ कहीं और जाएं न जाएं, पर फिल्‍में जरूर देखते थे। उसके अलावा भी मैं कभी देखने की मौज में, कभी अवसाद और अकेलेपन में तो कभी मुहब्‍बत की रूमानियों में सिनेमा हॉलों के अंधेरों में पनाह लेती थी। धकाधक फिल्‍में देखती थी। आजादी का नया-नया स्‍वाद था, सिनेमाई कल्‍पनाओं की तारीक रौशनियों से पर्दे उठने शुरू ही हुए थे, दफ्तर का जिन्‍न नहीं था, समय की मारामारी नहीं और रुपहले पर्दे का रोमांस तो था ही। इन तमाम कारणों से मैं फिल्‍मों और फिल्‍में मुझसे करीबी हुए।

बॉम्‍बे में हॉस्‍टल की लड़कियों के साथ भी मैंने कई बार फिल्‍में देखीं, लेकिन बहुत कम। फिल्‍म देखते समय मेरे रोने से वो हैरतजदा होतीं और मेरा मजाक उड़ाती थीं। इसलिए मैं ज्‍यादातर अकेले ही फिल्‍म देखती थी। हां, किसी फिल्‍म में प्‍यार-मुहब्‍बत का इजहार अगर खासे इरॉटिक अंदाज में हो तो हॉस्‍टल में उस फिल्‍म की अच्‍छी माउथ पब्लिसिटी हो जाती थी और सब मरती-मराती फिल्‍म देखने पहुंच जातीं। रोमांटिक फिल्‍मों की खासी मांग थी, जिनमें सच्‍चा प्‍यार दिखाया जाता, हीरो हिरोइन के लिए जान देने को तैयार हो जाता। बरसों गुजर जाते, वे मिल न पाते तब भी मन ही मन प्‍यार करते रहते थे। हम लड़कियां ऐसी फिल्‍में देखकर आंसू बहातीं। हम ये मान लेते कि पर्दे पर प्रीती जिंटा नहीं हम ही हैं और शाहरुख खान ने हमारे लिए ही इतने बरस गुजार दिए। असल जिंदगियों में प्‍यार कहीं नहीं था। सिर्फ कुछ टाइम पास था, कैलकुलेशन था, बहुत पेटी इंटरेस्‍ट थे, मूर्खतापूर्ण मुहब्‍बती भंगिमाएं थीं, भावुक, कुंदजेहन इमोशंस थे। सब था पर प्‍यार नहीं था। और ऐसे में साथिया, देवदास और वीर जारा देखकर हम अपनी जिंदगी के अभाव भरते थे। हर दृश्‍य के साथ हमारे चेहरे की बदलती भंगिमाएं बताती थीं कि हमने उस फिल्‍म को कितना आत्‍मसात कर लिया था। सभी का ये हाल था। फिल्‍में हमारे अभावों और कुंठाओं पर मरहम लगाती थीं। हम प्रीती जिंटा के साथ खुश और दुखी होते और फिर उसी बेरहम चिरकुट कैलकुलेशनों वाली दुनिया में लौट आते।

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तब फिल्‍में देखने का एक अजीब सा नशा था। आज भी है। सिनेमा हॉल के रूमानी अंधेरे में बैठने का। पर अब उस तरह नहीं देखती। अब तो किसी फिल्‍म के आजू-बाजू, दाएं-बाएं, ऊपर-नीचे कहीं भी बी एच ए डबल टी लिखा हो तो गधे के सिर से सींग की तरह गायब हो लेती हूं। वो फिल्‍म नहीं देखनी, चाहे धरती सूरज को छोड़ चंद्रमा का ही चक्‍कर क्‍यों न लगाने लगे।

इतने सालों में सिनेमा की टूटी-फूटी जो भी समझ बनी, उसके साथ फिल्‍में देखने का दायरा बढ़ा है और सलीका भी। अब मैं थिएटर में जाकर बहुत कम फिल्‍में देखती हूं। रॉक ऑन, माय नेम इज खान, वेक अप सिड एंड फिड, यहां तक कि थ्री इडियट्स टाइप मध्‍यवर्गीय चेतना संसार में सुनामी ला देने वाली फिल्‍में भी मैं भूलकर भी थिएटर में देखने नहीं जाती। गलती से पा देख ली थी और पूरे समय यही सोचती रही कि ये फिल्‍म बनाने वाले दर्शक को मूर्ख, गधा, आखिर क्‍या समझते हैं। वो कुछ भी उड़ेलते रहेंगे और हम भावुक होकर लोट लगाएंगे।

थ्री इडियट्स के युग परिवर्तनकारी विचारों से लहालोट होने वाले, पा देखते हुए भावुक होकर आंसू बहाने वाले और वेक अप सिड की जेंडर सेंसिबिलिटी को कोट करने वाले हिंदी सिनेमाई दर्शकों की सेंसिबिलिटी के बारे में जरा थमकर, रुककर सोचने की जरूरत महसूस होती है। ये फिल्‍में अब मुझे छूती नहीं, उल्‍टे इरीटेशन होता है, गुस्‍सा आता है कि सौ रुपए फूंक दिए। बीच-बीच में कुछ फिल्‍में ऐसी भी आती हैं कि आपका ज्‍यादा मूड खराब न हो, जैसे पिछले साल जोया अख्‍तर की लक बाय चांस थी या इस साल इश्‍किया। ये फिल्‍में ऐसी खराब नहीं हैं, पर बर्गमैन, कुरोसावा, बहमन घोबादी, मखमलबाफ, मजीदी, वांग कारवाई, त्रूफो, फेलिनी, बुनुएल, स्‍पीलबर्ग, फासबाइंडर, त्रोएसी और अभी एक नए इस्राइली निर्देशक इरान कोलिरिन की फिल्‍में देखने के बाद सिनेमा से आपकी उम्‍मीदें बढ़ जाती हैं।

सिनेमा की थोड़ी समझ और तमीज आने और इस माध्‍यम की ऐसी अनोखी कलाकारी, इतना ताकतवर इस्‍तेमाल देखने के बाद लगता है कि सिनेमा सिर्फ एक चोट खाए, पिछड़े, दुखी मुल्‍क के लोगों के अभावों, कुंठाओं को बेचने और भुनाने का माध्‍यम भर नहीं है। ये अपने भीतर इतनी ताकत समेटे है कि किसी इंसान का जमीन-आसमानी बदलाव कर सकता है, दिल में छेद कर सकता है, हिला सकता है, बना और मिटा सकता है। ये मन और सोच की दुनिया बदल सकता है।

इसलिए अब मैं उस सिनेमा की तलाश में रहती हूं कि जो मन में छेद करे और पहले के छेदों को भर सके। जो अभावों पर मरहम न लगाए, पर उसे समझने और उसके साथ गरिमा से जीने का सलीका सिखाए। जो संसार की एक ठीक-ठीक, भावुक नहीं, पर संवेदनशील समझ पैदा करे।

निश्चित तौर पर हिंदी फिल्‍में ये काम नहीं करतीं।



Sunday 21 February 2010

एक बेचैन पत्‍नी का आत्‍म विलाप

जब से सुहासिनी आई है, आभा बेचैन रसोई से कमरे और कमरे से रसोई में फिरकी सी डोल रही है। रसोई में होती है तो भी कान लगाए रहती है कि आशु इसे गुपचुप क्‍या पढ़ा रहा है। कहीं मेरे बारे में तो बात नहीं कर रहे हैं। सब्‍जी काटते, दाल छौंकते, चावल बीनते उसके कान इधर ही जमे रहते हैं। पता नहीं, दोनों आपस में क्‍या गलचौर करते रहते हैं। बीथोवेन-सिथोवेन, राशिद खां, फासिद खां, अरे वही रोतड़ा, जो कभी तो ऐसे जोर-जोर गाने लगता है कि लगे दारू पीकर मतवाला हुआ है और कभी ऐसे रेंकता है, मानो बीवी दिनदहाड़े मर गई हो। नहीं, नहीं, बीवी नहीं, जैसे डायन महबूबा मरी हो। बीवी के मरने पर ये मुए हरामी मर्द आंसू थोड़े न बहाएंगे। तब तो उठाए तानपूरा और रेंकेगे। अच्‍छा हुआ, पिंड छूटा।

और ये सुहासिनी की बच्‍ची, कैसी बेशर्म औरत है। मेरे पति के सामने भकाभक सिगरेट फूंक रही है। कोई लिहाज नहीं है। ऐसे गला फाड़कर हंसती है कि पड़ोसियों की नींद खुल जाए। बात करते हुए क्‍या मुझे, क्‍या आशु को, पीठ पर धौल जमाती रहती है। चुड़ैल है। उसे तो बस मेरे पति को छूने का बहाना चाहिए। दिखाती तो ऐसे है कि कुछ फर्क नहीं पड़ता। लेकिन मैं जानती नहीं हूं क्‍या। खूब समझती हूं उसके जैसी डायनों को। अपना घर तो बसाया नहीं, दूसरों का घर उजाड़ने की फिराक में रहती है।

अड़तीस पार हो गई, पर अभी भी कैसी झाडू की सींक है। और मैं, उससे दो-तीन बरस छोटी ही होऊंगी पर फैलकर चबूतरा हो गई हूं। इसी आदमी की वजह से। क्‍या मेरा मन नहीं करता कि मैं भी 26 कमर वाली जींस पहनकर बाजार तक हो आऊं। कमसिन हसीनाएं कैसे कमर मटकाकर चलती हैं। बेहया लड़कियां। लगता है हिप पर एक बेलन लगाऊं कसकर। कभी इनसे कहूं भी कि मुझे जिम जाना है, स्लिम-ि‍ट्रम होना है तो कूदकर मेरे ऊपर चढ़ जाएंगे। क्‍या जरूरत है मेरी जान, तुम ऐसी गोल-मटोल ही अच्‍छी लगती हो मुझे। कितनी भरी-भरी, मोटी-ताजी। सूखड़ी हो जाओगी तो तुम्‍हें खाने में मजा नहीं आएगा। अभी लगता है जैसे गुलगुले गद्दे पर सवार हूं। मैं तो कैसे शर्म और खुशी से मर जाती हूं, जब ये मेरे मोटापे पर भी इतने कसीदे पढ़ने लगते हैं।

लेकिन फिर क्‍यों अभी इस पतरकी सींक के पीछे लगे हुए हैं। हिप डोलाती घूम रही है घर में इधर-उधर। रसोई में आकर झांककर चली जाती है। चुड़ैल कह रही है, आभा तुम भी यहां आकर बैठो हमारे साथ। क्‍या कर रही हो वहां। बेहया की जबान भी नहीं कटती बोलते हुए। मैं वहां आकर बैठ जाऊं तो खाना कौन बनाएगा उस हिरोइनी के लिए। वैसे भी दियासलाई जितनी तो है। क्‍या खाती होगी। उसकी तरह जिंदगी भर मर्दों को रिझाने के लिए कोई खाना-पीना थोड़े न छोड़ सकता है।

आशु भी कम नहीं है। उसे पता नहीं इस सड़े प्याज के छिल्के सी बदबूदार लड़की में क्या दिख गया है। सुहासिनी देखो ये वाला रिकॉर्ड, ये कलकत्ता कॉन्सर्ट की रिकॉर्डिंग है। तुम्हारा खजुराहो वाला प्रोग्राम कैसा रहा? हूं, बड़ी आई गाने वाली। ये कलछी फंसा दूंगी उस फटही बांस के गले में। फिर देखती हूं कैसे गाती है।

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Saturday 20 February 2010

मेरी जिंदगी में किताबें - 3

ज्‍यादातर दोस्‍तों ने किताबें खरीदना छोड़ दिया है और किताबों के बारे में बात करना भी। गलती उनकी भी नहीं है। जीवन ही ऐसा है। तंख्‍वाह के अंकों में जीरो बढ़ाते जाने और कॅरियर में एक आला मुकाम हासिल करने के लिए लोग मुंह अंधेरे दफ्तरों के लिए निकलते हैं और रात गए वापस लौटते हैं। बचा वक्‍त फेसबुक सरखी तमाम बुकों के नाम अलॉट है पर किसी और बुक की जगह नहीं है। लड़कियां तो और भी रिकॉर्ड तोड़ काम कर रही हैं किताबें न खरीदने और न पढ़ने के मामले में वो तो मर्दों से भी चार कदम आगे हैं। हिंदुस्‍तान में चायनीज और कॉन्‍टीनेंटल का मार्केट बढ़ते ही वो बड़े गर्व से घरों में भी इसे बनाने की कला सीख रही हैं। बाकी समय बच्‍चों की नाक पोंछती हैं, पति का पेट भरती हैं और बिल्डिंग की औरतों के साथ इस गॉसिप में मुब्तिला रहती हैं कि कौन कहां किसके साथ फंसा हुआ है। किसके यहां कौन आया और गया। किसका चक्‍कर किसके साथ, किसकी बीवी किसके हाथ।

बॉम्‍बे में तकरीबन आठ साल इस हॉस्‍टल से उस हॉस्‍टल के बीच फिरते हुए जहां-जहां मैंने ठिकाना बनाया, वहां सिर्फ दो लड़कियां मुझे मिलीं, जिनकी किताबों से कुछ जमती थी। एमए में मेरी रुममेट शहला भी बैंड स्‍टैंड और फैशन स्‍ट्रीट का चक्‍कर लगाने वाली शोख हसीनाओं को लानत भेजती और दिन भर अपनी किताबों में सिर गोड़े रहती थी। वह अंग्रेजी से एमए कर रही थी और उसी से मैंने एलिस वॉकर, टोनी मॉरीसन, एन्नी सेक्सटन, नादिन गॉर्डिमर, मारर्ग्रेट एटवुड वगैरह के बारे में जाना और उनकी किताबें पढ़ीं। वरना इलाहाबाद में तो हम गोदान को साहित्‍य का दरवाजा और प्रगति प्रकाशन की किताबों को आखिरी दीवार मानकर मगन रहते थे।

लेकिन कुछ तो वो उम्र ही ऐसी थी और कुछ हम ज्‍यादा नालायक भी थे, कि अंग्रेजी की किताबों से ढूंढ-ढूंढकर इरॉटिक हिस्‍से पढ़ते और कंबल में मुंह छिपाकर हंसते। वो लाइब्रेरी से लेडी चैटर्लीज लवर खासतौर से इसलिए लेकर आई थी कि उसके कुछ विशेष हिस्‍सों पर गौर फरमाया जा सके। ऐसे हिस्‍सों का ऊंचे स्‍वर में पाठ होता था। हम मुंह दबाकर हंसते थे। ऊऊऊ……. सो सैड, सो स्‍वीट, सो किलिंग, सो पथेटिक। टैंपल ऑव माय फैमिलिअर पढ़ते हुए शहला बीच-बीच में कहती जाती, ये तो हर चार पन्‍ने के बाद चूमा-चाटी पर उतर आते हैं।

मैं निराशा से भरकर कहती, ‘बस इतना ही।’

‘अरे नहीं, और इसके आगे और भी है मेरी जान।’ शहला आंखें मटकाती।

पढ़-पढ़-पढ़।’ और फिर एक सेशन चलता ऐसे हिस्‍सों का। लेकिन यूं नहीं कि बस काम भर का पढ़कर हम किताब को रवाना कर देते। हम गंभीरता से भी पढ़ते थे। उसने मुझे एन्नी सेक्सटन पढ़ाया और मैंने उसे हिंदी कविताएं। दूसरी पढ़ने वाली लड़की थी, डॉकयार्ड रोड के हॉस्‍टल में केरल की रहने वाली बिंदु, जिसने मुझे वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलीट्यूड पढ़ता देखकर कहा था कि वो ये किताब मलयालम अनुवाद में चार साल पहले ही पढ़ चुकी है। उसे न ठीक से हिंदी आती थी और न अंग्रेजी। मलयालम मेरे लिए डिब्‍बे में कंकड़ भरकर हिलाने जैसी ध्‍वनि थी। फिर भी पता नहीं कैसे हम एक-दूसरे की बातें समझ लेते थे और दुनिया भर की किताबों और कविताओं के बारे में बात करते थे।
इसके अलावा लड़कियों की दुनिया बहुत पथेटिक थी और वहां किताबों के लिए ढेला भर जगह नहीं थी। वो बहत्‍तर रंग और डिजाइन के चप्‍पल और अंडर गारमेंट्स जमा करतीं, तेईस प्रकार की लिप्‍सटिक और ईयर रिंग्‍स और इन सबके बावजूद अगर उनका ब्‍वॉय फ्रेंड पटने के बजाय इधर-उधर मुंह मारता दिखे तो उस दूसरी लड़की को कोसते हुए उसके खिलाफ प्‍लानिंग करती थीं। उन्‍हें मर्द कमीने और दुनिया धोखेबाज नजर आती। लेकिन कमीने मर्दों के बगैर काम भी नहीं चलता। चप्‍पलों का खर्चा कौन उठाएगा? लब्‍बेलुआव ये कि मोहतरमाएं दुनिया के हर करम कर लें, पर मिल्‍स एंड बून्‍स और फेमिना छोड़ किताब नहीं पढ़ती थीं और मुझे और शहला को थोड़ा कमजेहन समझती थीं।

ऐसा नहीं कि मैं लिप्‍स‍टिक नहीं लगाती या सजती नहीं, फुरसत में होती हूं तो मेहनत से संवरती हूं, लेकिन अगर काफ्का को पढ़ने लगूं तो लिप्‍सटिक लगाने का होश नहीं रहता। हॉस्‍टल के दिनों में नाइट सूट पहने-पहने ही क्‍लास करने चली जाती थी और आज भी अगर मैं कोई इंटरेस्टिंग किताब पढ़ रही हूं तो ऑफिस के समय से पांच मिनट पहले किताब छोड़ जो भी मुड़ा-कुचड़ा सामने दिखे, पहनकर चली जाती हूं। होश नहीं रहता कि बालों में ठीक से कंघी है या नहीं। यूं नहीं कि मैं चाहती नहीं कि लिप्‍स्‍टिक-काजल लगा लूं पर इजाबेला एलेंदे के आगे लिप्‍सटिक जाए तेल लेने। लिप्‍सटिक बुरी नहीं है, लेकिन उसे उसकी औकात बतानी जरूरी है। मैं सजूं, सुंदर भी दिखूं, पर इस सजावट के भूत को अपनी खोपड़ी पर सवार न होने दूं। सज ली तो वाह-वाह, नहीं सजी तो भी वाह-वाह।

और कभी महीने में एक-दो बार मजे से संवरती भी हूं। ऑफिस में सब कहते हैं, आज शाम का कुछ प्रोग्राम लगता है। मैं कहती हूं हां, मुराकामी के साथ डेट पर जा रही हूं।
कौन मुराकामी?
एक जापानी ब्‍वॉयफ्रेंड है।
अल्‍लाह, हमें हिंदुस्‍तानी तक तो मिलते नहीं, इसने तो जापानी पटा रखा है।

***

जीवन की रौशनियों और तारीकियों से आंख-मिचौली खेलते मेरी राह में ऐसे ठहराव आए कि कभी तो मैंने किताबों से नाता तोड़ लिया तो कभी किताबों में ही ठौर मांगी। बॉम्‍बे में आठ साल प्रणव के साथ के दौरान मैंने किताबें नहीं खरीदीं क्‍योंकि उसके पास हजारों किताबें थीं। लगता था, वो सब मेरी भी तो हैं। हमारे जीवन साझे हैं तो किताबें भी हुईं। उसके घर की आधी किताबें हॉस्‍टल के मेरे कमरे में गंजी रहती थीं। फिर जब प्रणव दूर चला गया तो उसके साथ सारी किताबें भी चली गईं। फिर बॉम्‍बे छोड़ने के बाद मैं कूरियर से एक-एक करके उसकी किताबें वापस भेजती रही। एक दिन सारी किताबें वापस हो गईं और इसी के साथ उसकी किताबों से भी नाता जाता रहा। चार साल हुए, अब मैं फिर से थोक में किताबें खरीदने लगी हूं। अब जेब भी इजाजत देती है कि कुछ अच्‍छा लग जाए तो पट से खरीद लूं। नौकरी पढ़ने की इजाजत जितनी भी देती है, सुबह-रात मौका मिलते ही पढ़ती हूं। कभी दो-चार दिन की छुट्टी हाथ लगे तो किताबों के साथ सेलि‍ब्रेट करती हूं।

पापा के पास सैकड़ों किताबें हैं और ताऊजी के पास हजारों। लेकिन घर में अब कोई किताब नहीं पढ़ता। ताऊजी से कहती हूं कि उनकी सारी किताबें मेरी होंगी। पहले ताईजी जब भी मेरी शादी के बाबत बात करतीं तो मैं कहती थी कि दहेज में ये सारी किताबें दे देना। ताईजी कहतीं, तेरी सास किताबों समेत उल्‍टे बांस बरेली भेज देगी। मैं कहती, बुढ़िया की ऐसी की तैसी। उसे मैं आगरा भेज दूंगी। ऐसे ही हम सब खचर-पचर करते गुल्‍लम-पुल्‍लम मचाए रहते हैं, पर किताबों से मुहब्‍बत कम नहीं होती।

जब मां पास नहीं होती तो किताबें मां हो जाती हैं। जब कोई प्रेमी नहीं होता दुलराने के लिए तो किताबें प्रेमी बन जाती हैं। जब सहेली नहीं होती खुसुर-पुसुर करने और खिलखिलाने के लिए तो किताबें सहेली हो जाती हैं। किताबें सब होती हैं। वो अदब होती हैं और जिंदगी का सबब होती हैं।

समाप्‍त।

पिछली कड़ियां - मेरी जिंदगी में किताबें - 1
मेरी जिंदगी में किताबें - 2

Thursday 18 February 2010

मेरी जिंदगी में किताबें - 2

छुटपन से ही पापा तरह-तरह की किताबें लाकर मुझे देते थे। उनमें लिखी कहानियां मैंने सैकड़ों बार पढ़ी थीं। रोम का वह दास, जिसे भूखे शेर के सामने छोड़ दिया गया था और शेर उसे खाने के बजाय उसके पैरों के पास बैठकर उसके तलवे चाटने लगा था, क्‍योंकि बहुत साल पहले जब वो शेर घायल था, एंड्रोक्‍लीज ने उसके पैरों में से कांटा निकाला था। शेर ने उसे नहीं खाया। वो कहानी मैं रोज एक बार जरूर पढ़ती थी।

पापा के पास रूसी कहानियों की एक किताब थी। एक किताब धरती और आकाश के बारे में थी, जिसमें जर्दानो ब्रूनो, कोपरनिकस और गैलीलियो की कहानियां थीं। जर्दानो ब्रूनो को लंबे-लंबे चोगे पहने और हाथों में क्रॉस लिए पादरियों ने इसलिए जिंदा जला दिया था क्‍योंकि वो कहता था कि अंतरिक्ष का केंद्र पृथ्‍वी नहीं सूर्य है। किताब में लिखा था कि ब्रूनो बाइबिल के खिलाफ बोलता था। मैंने बाइबिल नहीं पढ़ी थी, लेकिन दस साल की उमर में ब्रूनो की कहानी पढ़ने के बाद ही मैंने जाना कि धर्म और मुल्‍कों की सत्‍ताओं पर बैठे लोगों के साथ कितने बेगुनाहों के खून से रंगे थे। उन्‍हीं के कारण कोपरनिकस ने कभी वो नहीं कहा, जो उसे लगता था कि सच है और गैलीलियो ने डरकर माफी मांग ली थी, लेकिन फिर भी उन लोगों ने उसे जेल में डाल दिया था। पापा के पास और भी बहुत सारी कहानियां थीं।


मैं उन कहानियों के साथ बड़ी हुई, जिनमें लिखी हुई हर बात जिंदगी की असल किताब में गलत साबित होने वाली थी, फिर भी उन कहानियों पर मेरा विश्‍वास आज भी कायम है। असल जिंदगी में कॉरपोरेटों में बैठा शेर एंड्रोक्‍लीजों को भी खा जाता है। फिर भी मैं चाहूंगी कि मेरा बच्‍चा एंड्रोक्‍लीज की कहानी पढ़कर बड़ा हो और वो एंड्रोक्‍लीज पर भरोसा करे।

किताबें पापा की सबसे अच्‍छी दोस्‍त थीं। वो कहते थे कि उत्‍तर प्रदेश के जिला प्रतापगढ़ के जिस छोटे से गांव में वो पैदा हुए थे, वहां से होकर उनके बेहतर इंसान बनने का सारा सफर इन्‍हीं किताबों से होकर गुजरा था। मुझे भी एक बेहतर इंसान बनना था, इसलिए मैंने उन किताबों को हमेशा अपने पास संभालकर रखा, जिन्‍होंने सबसे कमजोर और अवसाद के क्षणों में हमेशा मेरा साथ निभाया। उन किताबों को हमेशा ऐसे सहलाया, दुलराया और अपनी छाती से लगाया, मानो वही मेरी प्रेमी हों। वही मुझे संसार के सब गूढ़, अजाने इलाकों तक लेकर जाएंगी, सृष्टि के अभेद्य रहस्‍यों का भेद खोलेंगी। वो मुझे ऐसे प्रेम करेंगी, जैसा प्रेम के बारे में मैंने सिर्फ किताबों में पढ़ा था।

कभी साहित्‍य और राजनीति का गढ़ कहे जाने वाले शहर इलाहाबाद के ऑक्‍सफोर्ड में जहां मैंने बीए तक पढ़ाई की, वहां तब तक पढ़ने-लिखने का कुछ संस्‍कार बाकी था। जिनके भी साथ मेरी दांत कटी यारी थी, वो सब किताबों से वैसे ही मुहब्‍बत करते थे। कोई अंबानी नहीं था और न शहर में कॉरपोरेट का व्‍यापार था। हमारी जेबें खाली होती थीं, लेकिन ट्यूशन, आकाशवाणी या अखबार में कोई छोटा-मोटा लेख लिख देने से जो भी मामूली सी रकम हाथ में आती, उसे बचा-बचाकर हम किताबें खरीदते थे। दस लोग मिलकर एक छोटी सी लाइब्रेरी बना लेते और आपस में मिल-बांटकर किताबें पढ़ते। हालांकि उस पढ़ने का संसार भी बहुत सीमित था। ज्‍यादातर पार्टियों की बुकलेट्स, प्रगति और रादुगा प्रकाशन के भीमकाय उपन्‍यास और मार्क्‍सवाद क्‍या है, दर्शन क्‍या है, भौतिकवाद क्‍या है, आदि-आदि के बारे में छोटी-छोटी पुस्तिकाएं होती थीं। तब पढ़ने का ऐसा भूत था कि हाथ लगा कोई लिखा शब्‍द अनपढ़ा नहीं रहता था। और तो और, आज जिस अखबार को मुंह उठाकर भी नहीं देखती, तब अमर उजाला के एडीटोरियल तक छान जाया करती थी। आज जब पढ़ने को इतना अथाह मेरे अपने घर में है और पढ़ने का वक्‍त नहीं है, सोचती हूं ये किताबें उस उम्र में मिली होतीं तो?


लेकिन वक्‍त इस तेजी से गुजरा है और उसने ऐसे मेरे हमसफरों की शक्‍लें बदल दी हैं कि दस साल पहले का उनका ही रूप उनके सामने रख दिया जाए तो शायद उन्‍हें यकीन न हो कि ये वही हैं। जब हम पढ़ रहे थे, किसी को आभास तक नहीं था कि अचानक इस देश की इकोनॉमी का चेहरा इतने वीभत्‍स अनुरागी ढंग से बदल जाएगा। पत्रकारिता तब कोई ऐसा ग्‍लैमरस पेशा नहीं था, और न ही उसमें यूं नोटों की बरसात होती थी। तब इलाहाबाद शहर में 10-10 रुपए जोड़कर सतह से उठता आदमी और कितनी नावों में कितनी बार खरीदने वालों को पता नहीं था कि सिर्फ दस साल के भीतर वो देश की राजधानी में ऐसी अकल्‍पनीय तंख्‍वाहों पर ऐसी आलीशान जिंदगियां जी रहे होंगे, जो उनके छोटे से शहर और घर में दूर की कौड़ी थी।


कितनी आसानी से किसी को सबकुछ देकर उसका सबकुछ छीना जा सकता है और वो उफ तक नहीं करेगा, उल्‍टे इस छीन जाने के बदले आपका एहसानमंद होगा। इलाहाबाद के वो साथी आज भी दिल्‍ली के पुस्‍तक मेलों में परिवार के साथ घूमते हुए मिल जाते हैं और आज जब किताबें न खरीद पाने की कोई मुनासिब वजह नहीं है, कोई किताब नहीं खरीदता। मोटी तंख्‍वाहें घर और गाड़ी के लिए लोन देने वाले बैंक उठा ले जाते हैं और जो बचता है, वो मॉलों और गाड़ी के पेट्रोल में खत्‍म हो जाता है। बचता आज भी कुछ नहीं। आज भी व़ो वैसे ही फोकटिया हैं, जैसे इलाहाबाद में हुआ करते थे। ये पैसा बस अपर क्‍लास हो जाने के एहसास की तरह उनके दिलों में बसता है। पहले वे जानते थे, अब नहीं जानते कि वे किस वर्ग के हिस्‍से हैं।

जारी

पहली किस्‍त - मेरी जिंदगी में किताबें

Wednesday 17 February 2010

अपने दीवाने को तू चूम सके

उसने अपनी बेटी के लिए एक कविता लिखी थी। उसने कामना की थी कि उसकी बेटी हरसिंगार सी खिले और हर ओर छा जाए। बेले सी उसकी खुशबू संसार की वादियों में बिखर जाए। वह पहाड़ी बर्फ सी निर्मल हो। उसकी चमक के आगे शर्मसार हों सितारे। वह अलकनंदा सी बहे और राह की हर चट्टान को निर्मल कर दे। वह हवाओं सी उन्‍मुक्‍त हो और हिमालय सी उदात्‍त।

पिता ने चाहा कि वह संसार के हर बंधन से ऊपर उठ सके। वह अपनी अंतरात्‍मा में अवस्थित हो। हवाएं उसका रूप गढ़ें और प्रकृति उसका मन। उस कविता में बेटी के लिए प्रेम, गरिमा, उदात्‍तता और स्‍वतंत्रता की सम्‍मोहक पुकार थी।

तू निर्बंध सारी धरती पर घूम सके

अपने दीवाने को तू चूम सके।

इसी सदी के पूर्वार्द्व में पहाड़ों की गोद में बैठा एक पिता कह रहा था अपनी बेटी से कि अपने दीवाने को तू चूम सके।

बेटी तब महज दो साल की थी।

मां ने सुनी कविता। आखिरी पंक्ति पर अटक गई। ये क्‍या दीवानों सी बातें करते हो तुम। मैं कभी अपनी बेटी को यह कविता पढ़ने नहीं दूंगी, मां ने बनावटी गुस्‍से में कहा।

उस रात जब सोई थी मां और दो साल की बच्‍ची उसके सीने से लिपटी, मां सोच रही थी। उस रात मां को पहली बार थोड़ा रश्‍क हुआ अपनी बेटी से। कैसा पिता मिला है इसे? मां ने अपने पिता से तुलना की अपनी बेटी के पिता की। भीतर कुछ टूटा। फिर मां ने धीरे से झुककर बेटी को चूम लिया और बोली,

तू निर्बंध सारी धरती पर घूम सके

अपने दीवाने को तू चूम सके।

(मेरे एक दोस्‍त ने अपनी बेटी के लिए एक लंबी कविता लिखी थी और उसी कविता की एक पंक्ति थी यह अपने दीवाने को तू चूम सके।)

Friday 12 February 2010

मेरी जिंदगी में किताबें

कुछ दिन हुए किताबों के महामेले से लौटी हूं। पुस्‍तक मेले में जाना मेरे लिए किसी उत्‍सव की तरह होता है, हालांकि जानती हूं कि वहां से मनों निराशा और टनों उदासी के साथ वापस लौटूंगी। हिंदी किताबों का संसार हजार-हजार फांस बनकर आंखों में चुभता रहता है। छुटपन से इसी सपने के साथ बड़ी हुई थी कि बड़ी होकर लेखक बनूंगी, पर जैसे-जैसे बड़ी होती जाती हूं, लेखक बनने का सपना किसी बीहड़ बियाबान में गुम होता जाता है। पत्रकार बनूंगी, सोचा भी नहीं था, पर वक्‍त के साथ पत्रकारिता की दुनिया में तथाकथित नाम कमाने और पैसा पीट लेने के सपने न सिर्फ सिर उगाते हैं, बल्कि थोड़ी सी तिकड़मों के साथ उन्‍हें पूरा करने की राहें भी हर दिन खुलती नजर आती हैं।

पर मुझे अखबार से ज्‍यादा किताबों से प्‍यार है।

होश संभालने के साथ ही मैंने पाया था कि किताबें झाडू और कलछी की तरह ही एक कमरे के हमारे मामूली से घर का हिस्‍सा थीं। मुश्किल से 12 बाई 12 के एक कमरे में मेरे मां-पापा की समूची गृहस्‍थी थी, जिसका एक बड़ा हिस्‍सा किताबों से पटा हुआ था। ऊपर टाण पर, मेज पर, कमरे के कोने में ईंटों पर लकड़ी के पटरे रखकर बनाई हुई शेल्‍फ पर किताबें सजी रहती थीं। लकड़ी पर अखबार बिछाकर पापा करीने से मार्क्‍सवाद, दर्शन और इतिहास की किताबें रखते थे। जब भी वो घर पर होते तो या किताब पढ़ रहे होते थे या किसी दोस्‍त के साथ उन किताबों पर कुछ ऐसी उलझी बहसें कर रहे होते, जिसका सिर-पैर भी मेरी समझ में नहीं आता था। मां चुपचाप उसी कमरे के एक कोने में, जहां रखा एक स्‍टोव, कुछ डिब्‍बे और बर्तन उसे रसोई जैसा आभास देते थे, में सिर झुकाए चाय बनाती या सब्‍जी छौंक रही होतीं। मां को वो बातें कितनी समझ में आती थीं, पता नहीं। लेकिन उन्‍हीं में से कुछ किताबों के अंदर पिता से छिपाकर वक्‍त-जरूरत के लिए कुछ पैसे रखने के सिवा मां के लिए उनकी कोई खास सार्थकता थी, पता नहीं। वो अकसर किताबों के इस कबाड़ को लेकर नाराज होती रहती थीं, जिसे दिल्‍ली, खुर्जा, गाजियाबाद से लेकर अब इलाहाबाद तक पापा साथ-साथ ढोते रहे थे। पापा जिस भी दिन कोई नई किताब खरीद लाते, मां बहुत चिक-चिक करतीं। एक ढंग का पंखा भी नहीं है, सड़ी गर्मियों में भी इस टुटहे टेबल फैन से काम चलाना पड़ता है। ये नहीं कि एक तखत खरीद लें, एक गैस का चूल्‍हा। स्‍टोव के धुएं में आंखें फोड़ती हूं। पर इन्‍हें अपनी किताबों में आंखें फोड़ने से फुरसत नहीं। मां झींकती, पर उन किताबों की देखभाल वही करती थीं। एक-एक किताब कपड़े से साफ करके करीने से रखतीं, उनकी धूल झाड़ती, दीमक और फफूंद से बचाने के लिए धूप दिखातीं। लेकिन शाम को पापा फ़िर कोई नई किताब ले आते और मां की झकबक शुरू हो जाती।

ऐसे आदमी से ब्‍याह करके उनकी किस्‍मत फूट गई है, जिसे इन मरी किताबों के अलावा जीती-जागती मां की कोई परवाह नहीं है। शादी के दस सालों में पापा ने उन्‍हें एक साड़ी भी नहीं दिलाई। जो कुछ भी है, उनकी मां का दिया हुआ है वरना पापा तो निरे फो‍कटिया ठहरे। मैं सचमुच इस बात पर यकीन ेर लेती कि मां पापा को फोकटिया ही समझती हैं, अगर एक बार मैंने मुंबई में नानी के यहां, नानी के ये कहने पर कि तुम्‍हारा पति तो बिलकुल निठल्‍ला है, खास कमाता नहीं और जो कमाता है, सब किताबों पर फूंक देता है, मां को जवाब में ये कहते न सुना होता कि उन्‍हें अपने पति पर बहुत गर्व है। मां ने उनमें से कुछ किताबें पढ़ी हैं और वो सचमुच ज्ञान का भंडार हैं। तब मेरी उम्र कुछ पांच बरस रही होगी। मैंने बाद में चुपके से पापा से कहा था कि मां नानी से कह रही थीं कि उन्‍हें आप पर बड़ा गर्व है।

गर्व तो मुझे भी था। बड़ी मामूली सी उम्र में ही मैंने जिंदगी में किताबों की जरूरत और उसकी कीमत को समझ लिया था। उनमें लिखी बातें मैंने बहुत बाद में पढ़ीं, लेकिन ये हमेशा से जानती थी कि ये किताबें हमारे घर और हमारे होने का निहायत जरूरी हिस्‍सा थीं। आस-पड़ोस और मुंबई में हमारे रिश्‍तेदारों में से किसी के यहां गीता प्रेस, गोरखपुर वाला गुटका रामायण, हनुमान चालीसा, तुलसी उवाच या कबीर के दोहे छोड़कर कुछ खास किताबें नहीं थीं। कोर्स की किताब भी अगली क्‍लास में जाने के साथ ही बेच दी जाती और अगले क्‍लास की सेकेंड हैंड किताबें खरीद ली जातीं। सभी रिश्‍तेदार आपस में सामानों और गहनों की तुलना करते हुए एक-दूसरे से आगे निकल जाने के लिए होड़ मचाए रहते थे। मौसी की नींद इसी बात से तबाह हो सकती थी कि मामी ने पांच तोले का सोने का हार बनवा लिया है और वो अभी तक ब्‍याह की पतरकी चेन से ही गुजरा कर रही हैं।

लेकिन पापा उस दुनिया का हिस्‍सा नहीं थे। वो अपने तख्‍ते, लकड़ी के पटरे वाली शेल्‍फ, टुटहे टेबल फैन और किताबों में संतुष्‍ट रहने वाले जीव थे। मैं भी मुंबईया खचर-पचर वाली दुनिया को देखकर चकित-भ्रमित होती थी, लेकिन फिर इलाहाबाद लौटकर पापा की किताबें देखकर खुश भी हो जाया करती थी।

लेकिन जब वक्‍त गुजरने और आर्थिक तंगियां बढ़ते जाने के बाद भी पापा के किताबें खरीदने पर लगाम नहीं लगी तो मां की जबान पर भी लगाम नहीं रही। वो नाराज होतीं और दुखी भी। जब बोलने पर आतीं तो बोलती चली जातीं। अपनी नहीं तो कम से कम दो-दो लड़कियों की तो सोचो। उनके ब्‍याह के लिए कुछ जोड़ो। लड़कियां कुंवारी बैठी रहेंगी और ये किताबों में सिर गोड़े रहेंगे।

मुझे समझ में नहीं आया कि पापा के किताब पढ़ने की वजह से कैसे हमारी शादी नहीं हो पाएगी। जो भी हो, शादी से मुझे वैसे भी चिढ़ थी। बैहराना में महिला सेवा सदन इंटर कॉलेज वाली जिस गली में हमारा एक कमरे का घर था, उसके मुहाने पर एक लॉरी वाला रोज दारू पीकर अपनी बीवी की कुटम्‍मस करता था। मकान मालिक चौरसिया बात-बात पर अपनी बीवी पर चिल्‍लाता रहता था, कुतिया के कान में खूंट पड़ी है। हरामजादन सुनती ही नहीं। बगल के कमरे का किराएदार पूर्णमासी यादव बीवी के घर से जाते ही मुझे बुलाकर गोदी में बिठाने के लिए चुमकारने लगता था। इसलिए मुझे शादी और आदमी के नाम से ही घिन आती थी। अच्‍छा ही है शादी न हो। इन किताबों के बहाने ही सही।

जारी