इंदौर में पानी की तंगी से जेनुइनली ग्रस्त मैंने कुछ अपना और आने वाले समय का दुखड़ा ब्लॉग पर रोया, तो मेरे लेखकीय शगल और नीयत पर भी कुछ सवाल उठे। पानी का रोना तो रो रही हैं, पानी बचाने के लिए आपने क्या किया। आजे-जाते यायावरों ने टिप्पणी की। एक टिप्पणी कुछ यूं आई है। आई तो रोमन हिंदी में है, लेकिन मैं यूनीकोड में तर्जुमा यहां रख रही हूं :
माफ कीजिएगा, अगर ब्लॉग पर लिखने के लिए ही आप ऐसी बुनियादी समस्याओं तक पहुंचती हैं तो कोई बात नहीं अन्यथा दुनिया में शिकायतों का पुलिंदा तैयार करने वालों की कोई कमी नहीं.... आपके लेख को देखकर लगा कि आप काफी कुछ सोचती हैं और फलस्वरूप लिखती भी हैं... अच्छा है, लेकिन इस समय का क्या.. आप अपने को इस समस्या के मुताल्लिक कितना जिम्मेदार समझती हैं.... समस्या को उठाना बड़ी बात नहीं, समस्या को दूर करने के लिए पहल करना ज्यादा महत्वपूर्ण है... माना कि ये अकेले की बात नहीं, लेकिन शुरुआत तो करनी पड़ेगी... इंदौर में ये पहल आप की क्यों नहीं करती हैं... आप तो तथाकथित बुद्धिजीवी लोग हैं और ऊर्जावान भी... बड़े-बड़े लोगों से आपका संपर्क भी होगा तो ऐसे मामलों में आप जानकार लोगों की मदद भी ले सकती हैं और जबकि राजेंद्र सिंह जैसे पानी के जानकार पुरोधा लोग हमारे बीच हैं... याद रखिए, आज ये समस्या है, कल ये महामारी बनेगी... साहित्यकार केवल मुद्दे उठाते नहीं, उसके लिए पहल भी करते हैं.... माफ कीजिएगा, टिप्पणी कड़वी जरूर है, लेकिन उतनी ही सच भी... आशा है कि आप मेरी टिप्पणी को अन्यथा न लेकर इस दिशा में कुछ पहल भी करेंगी... एक आम आदमी.
उपरोक्त टिप्पणी नि:संदेह कुछ गंभीर सवाल खड़े करती है। मैंने इस बारे में क्यूं लिखा। जरूर मुझे कहीं दिक्कत या जरूरत महसूस हुई होगी, तभी लिखा। लिखने का कीड़ा काटा हो तो लिखने के लिए विषयों की कमी तो है नहीं। फिर पानी के लिए आंसू बहाने की कुछ खास वजह।
और सोचो, तो सिर्फ पानी का अभाव ही क्यों, सुबह से लेकर रात तक की जिंदगी में जाने कितना कुछ ऐसा घटता है, जो आपको दुखी करता है, पस्त करता है। आप खीझते हैं, चिढ़ते हैं, रोते हैं, तिल-तिल मरते हैं। नल में पानी नहीं होता, तो सुबह-सुबह बिजली गायब होती है। ऑफिस के लिए निकलिए तो ऑटो वाले का मीटर पहले-पहले प्यार की हार्ट बीट की तरह बढ़ता है। बस वाला चार लोगों की सीट पर आठ लोगों को ऐसे ठूंसता है, जैसे बोरे में आलू भर रहा हो। सड़क पर पैदल चलिए तो पान वाले, दुकान वाले सारा काम-धाम छोड़कर आपके स्वागत में पलक-पांवड़े बिछाते हैं। टैंपो में मुश्किल से जगह मिले भी तो बगल की सीट पर बैठा आदमी खिसकने की गुंजाइश होने पर भी ऐसे सटकर बैठेगा कि लगता है कि बस आकर गोद में बैठ जाने भर की देर है। सड़क चलते शोहदे लड़कियों को अपने घर के दुआरे बंधी बकरी समझते हैं कि जब जी आया, जो भी बोलकर, कोहनी मारकर चलते बने।
मां बेचारी पिछले 29 सालों से पापा की गंदी बनियान धो रही हैं और पुदीने की चटनी बना रही हैं। बहन मुंबई की भागमभाग भरी जिंदगी में दो छोटे-छोटे बच्चों के साथ घर, नौकरी, लोकल ट्रेन की ट्रैवलिंग सबकुछ संभाल रही है और पतिदेव अपना अंडरवियर तक बाथरूम में छोड़कर आते हैं कि बीवी धोएगी, नहीं तो बाई से धुलवाएगी।
कोई किताब खरीदनी हो तो बहुत दूर जाना पड़ता है, क्योंकि कई करोड़ की आबादी वाले इस शहर में हिंदी किताबों की सिर्फ एक दुकान है। एक और हुआ करती थी कभी, अब वहां ऑल्टो और मारुति सुजुकी के पार्ट्स मिलते हैं।
कोई एक ऐसा दोस्त नहीं, जिसे घर और गाड़ी की ईएमआई और शेयर मार्केट में डूबते इन्वेस्टमेंट की चिंता न हो। सहेलियाँ बच्चों की बहती नाक और पति के कभी न भरने वाले पेट की फरमाइशों से ही त्रस्त रहती हैं।
कितनी तो परेशानियां हैं। और फिर सिर्फ पानी की समस्या ही क्यों, मैं इनमें से किसी भी समस्या को दूर करने के लिए कुछ नहीं करती। ब्लॉग है तो कम-से-कम ब्लॉग पर कुछ लिख लेती हूं। न होता तो ये भी न करती।
क्या करूं। भावुकता में नाक बहाकर रोऊं। हाय पानी, हाय बिजली, हाय मम्मी, हाय दीदी। दीदी पति से लड़ती क्यों नहीं। जीजाजी के सामने साफ-साफ कह क्यूं नहीं देती कि मैं नए जमाने की आजाद, आधुनिक औरत हूं, इस धरती पर मेरा जन्म तुम्हारा अंडरवियर धोने के लिए नहीं हुआ है। कहेगी तो क्या होगा। जीजाजी, अगले दिन से अपनी गलती का एहसास कर सुधर जाएंगे क्या। नहीं, बल्कि दीदी की जिंदगी अगर आज बकरी की लेड़ जितनी नरक है तो कल घोड़े की लीद हो जाएगी, और परसों उससे भी बदतर...
शहर में पेड़ लगाओ आंदोलन और पानी बचाओ आंदोलन में दुनिया को बदल देने के भावुकतापूर्ण भाषणों से इस देश की एक अरब जनता को स्वच्छ पानी और हवा की गारंटी हो जाएगी, अगर ऐसा मैं गलती से भी सोच पाती तो शायद ज्यादा सुखी रहती।
लेकिन मेरा दुख यही है कि ऐसी कोई भोली भावुकता मेरी आत्मा को शांति नहीं पहुंचाती। मियां यायावर, चीजें ऐसे बदलती भी नहीं हैं। ये सारा सुधारवाद फटे हुए कुर्ते में पैबंद है, जिससे फटेहाल गरीबी थोड़ी ढंकती तो मालूम होती है, लेकिन न तो ठीक से ढंकती है और न ही दूर होती है।
मुझे मेरी औकात भी पता है। अपने मन, अपने विचारों की सीमा कि जितना मैं कर सकती हूं। भविष्य में भी ऐसे तमाम प्रश्नों पर सिवाय लिखने के कुछ और ठोस करूंगी, ऐसा कोई दावा नहीं है।
लेकिन मुझे यकीन है कि मैं उस नई ग्लोबलाइज्ड पीढ़ी का हिस्सा नहीं हूं, जो बहुत निरापद भाव से बाजार के कोरस पर डिस्को कर रही है, बिना किसी सवाल, बिना किसी उलझन के। मैं उस पीढ़ी का भी हिस्सा नहीं हूं, अखबारों के सिटी एडीशन में जिनकी दांत निपोरे फोटो छपती है, कि फलाने एडलैब्स और ढिकाने मॉल ने अच्छी चीजों को सस्ता और सर्वसुलभ बना दिया है। अब सबकुछ सबके लिए है।
मैं चमचमाते मॉलों के बीच कभी-कभी होने वाले पेड़ बचाओ, पानी बचाओ आंदोलन के फुस्स-फुस्स नारों का भी हिस्सा नहीं हूं। ये बड़े सवाल हैं और बड़े परिवर्तनों सके बदलेंगे। परिवर्तन किसी व्यक्ति विशेष का नहीं, समूची पीढ़ी का, समूचे युग का, समूचे राष्ट्रों का परिवर्तन। बाकी मैं क्या हूं और मुझे क्या करना चाहिए, तलाश अभी जारी है।
Monday, 21 January 2008
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27 comments:
manishajee, maine indore men apne yuva ke sin khub bitaye hain. har chhutee vaheen bit tee thee. aaj bhee har mauke aur be mauke par jana chahta hun aur jata hun
panee ke samsya to hai, lekin use bachane ke nuskhe sikhna ho to LIG tiraha ke aaspas ke colony me rahne valon ke yaha deken, panee ka mulya pata chalega.
लेकिन मुझे यकीन है कि मैं उस नई ग्लोबलाइज्ड पीढ़ी का हिस्सा नहीं हूं, जो बहुत निरापद भाव से बाजार के कोरस पर डिस्को कर रही है, बिना किसी सवाल, बिना किसी उलझन के। मैं उस पीढ़ी का भी हिस्सा नहीं हूं, अखबारों के सिटी एडीशन में जिनकी दांत निपोरे फोटो छपती है, कि फलाने एडलैब्स और ढिकाने मॉल ने अच्छी चीजों को सस्ता और सर्वसुलभ बना दिया है। अब सबकुछ सबके लिए है।
इन पंक्तियों ने सबसे अधिक प्रभावित किया है, और पूरे आलेख ने कुछ सोचने पर मजबूर भी किया है । लेकिन सोचने के बाद मन में आपस में गुंथे हुये से परस्पर विरोधी विचारों का एक गुल्ला स तैयार हुआ है, शायद इसका भी कभी छोर मिलेगा और कुछ सुलझने सा लगेगा ।
जिसे लोग बौद्धिक जुगाली कहते हैं, उसका विष्लेषण भी तो मात्र बौद्धिक जुगाली ही है । कैसे इस जुगाली से ऊपर उठ, मेरी शर्ट तेरी शर्ट से सफ़ेद के दम्भ को छोड, आगे बढें ।
कुछ कर गुजरने का जज्बा अब मन को आंदोलित नहीं करता । कम से कम आज तो शायद यही नियति है । कल कुछ दिशा मिले तो बात बने ।
"नहीं, बल्कि दीदी की जिंदगी अगर आज बकरी की लेड़ जितनी नरक है तो कल घोड़े की लीद हो जाएगी, और परसों उससे भी बदतर..."
कटखनी बिल्ली के गूँ जैसी ना लीपने की ना पोतने की जिंदगी से अच्छा की वो भोली गैया के गोबर सी हो - उपलों पर किसी का भोजन तो बने!
आंखे सुंदर हैं सपनें भी सुंदर देखो!
मनीषा आपने ये नही लिखा कि पानी बचाने के लिये आप कुछ तो तभी करेंगी जब पानी आयेगा। जब पानी आयेगा ही नही तो बचाने की जुगत कैसे लगाईयेगा। पहला रोना तो पानी ना आने का है, बचाने का नंबर तो बाद में ही आता है।
wow...इतना गुस्सा!! लेकिन किस बात पर? कि किसी ने आपके ब्लॉग पर एक टिप्पणी कर दी इसलिए? न.. बात कुछ समझ नहीं आई. अपनी उर्जा ऐसी टिप्पणियों का जवाब देने में व्यर्थ मत कीजिए. वह एक शानदार लेख था. मुझे बहुत पसंद आया .... शुभकामनाएं.
बहुत अच्छा, बहुत सुंदर, बहुत सादा, बहुत सच्चा और बिल्कुल उबलता हुआ. इसी तेवर की तो ज़रूरत है.
जिन्होंने कहा है
वे लिखते भी नही होंगे
करना तो दूर की बात है
लेखक तो लिखेगा ही
उसे लिखना ही चाहिये
किसी के भी कुछ कहने
से लेखन रुक सकता नहीं
आपने भी सही किया
दोबारा लिख दिया
यही लेखक का धर्म है
बधाई आपने
लेखन धर्म का
पालन किया
रुकना कभी मत
सच कहते रहना
मत अपना देते
रहना सर्वदा
hawa-hawai lekh achha hai. time pass karne ke liye likhte rahiye.
मनीषा जी, मेरे ख्याल से मसला सामाजिक सक्रियता का है। क्या हम छोटे स्तर पर ही सही सक्रिय नहीं हो सकते, अपनी सारी सीमाओं को ध्यान में रखते हुए। वैसे बातें आपने बड़ी तल्ख उठाई हैं। बीवियों ने भी मान रखा है कि पतियों का अंडरवियर धोना उन्ही का काम है।
बाकी सब कुछ सही है, पर दूसरे लोगो का एक सामान्यकरण करके आप उन्हे कट्घ्ररे मे भी खडा करती है, जैसे बाकी सब नालायक है, बस आप को ही एक चिंता है.
जीवन का संघर्ष किसी के लिये आसान नही है, न नयी ग्लोबल पीढी के लिये, न ही पुरानी के लिये, और ना ही हम जो बीच मे है.
कुछ न करने से जितना भी बस मे हो उतना करना अच्छा है.
इसको कहते हैं नहले पे दहला. आपसे सहमति.
लिखना जारी रखें और विरोधियों को कान न दें और हां जो अपनी पहचान तक न दें उसे शायद कुछ भी नहीं माना जाए तो ही अच्छा है, ऐसे लोगों का कोई वजूद नहीं होता
सहमत!!
चलिए उस टिप्पणी के बहाने आपके अंदर उमड़ते-घुमड़ते आक्रोश के दर्शन तो हुए जो आसपास से आज की मॉल संस्कृति वाली पीढ़ी से व्यथित है।
यह लेख पढ़ने के बाद वह लेख और टिप्पणी पढ़ीं।
हमारे विचार से ऐसा है।
एक बार श्रीकृष्ण विरही राधा से मिलने रात के अंधेरे में पहुँचे और द्वार खटखटाया; पर राधा तो विरह में मतिभ्रमित थीं पूंछा - कौन?
कृष्ण - घनश्याम राधे!
राधा- बरसो सूखे विपिन में!
कृष्ण- नहीं मैं गोपाल राधे!
राधा- गाय ले जाओ विपिन में!
इतने में ही दिन निकल आया और कृष्ण जो छिपकर आए थे बिना मिले ही वापिस चले गए।
आपके वह लेख और यह लेख दोनों ही बहुत अच्छे हैं। ज़रुरी नहीं लेखक और पाठक की समझ और दृष्टिकोण एकसमान हो। इंडिविजुल डिफ़्रेंनसिज़ भी होते हैं। - प्रेमलता पांडे
Manisha ji, aapne bahut safai pesh ki hai ki main is pidhi ya us samuh ka hissa nahin hoon(jo ki aajkal fashion mein hai khaskar unke liye jinhen khud ko budhdhijiviyon ki jamat mein shumar karwana hai) lekin kabhi aapne socha hai ki aap kis samuh ka hissa hain, us tathakathit loktantra ke chauthe stambha ka jiske paharue aaj ki blog sanskriti mein apne career ko naya aayam dene ke liye apne naye articles ka kachchha maal taiyar karte dikhte hain aur mauka milte hi kisi channel samuh se judkar aur samay aane par samvedanshunya ki saari haden paar karte hue dange mein buri tarah ghayal vyakti ke upar video focus karte hue(is nirdesh ke saath ki jahan jyada bada ghav hai aur jyada khoon bah raha hai wo focus mein aana chahiye) poochhte hain ki kaisa lag raha hai....to phir aap ya aapke samuh ke log mere sudharvaad ko nira bhavuktavaad kah kar hansi mein udayen to aashcharya kaisa....mana ki main aapke jaisa peshewar likhne wala nahin hoon lekin main bhi hindi patti se hoon aur likhna mujhe bhi pasand hai....meri ek tippani ne aapko dubara itna achchha lekh likhne ke liye prerit kiya ismein main apni khushkismati samajhta hoon...bas dukh is baat ka hai ki bahas ko galat disha mil gayi....talkh tippani ke liye phir se maafi chahta hoon....Yayavar
चलिये कोई बात नहीं एक टिप्पणी ने आपको अन्य कितनी ही नागवार समस्या से रुबरु करा दिया । शायद अगली पोस्ट में कुछ समाधान भी मिल जायें.
इतना मर्मस्पर्शी लिखने की क्या जरूरत थी? मैं चुप चाप अपनी कंपनी में काम करता हूँ, पर जब तब मित्र कोंचते रहते हैं, कि यह शेयर क्यों नहीं ले लेते, वह क्यों नहीं ले लेते | दरअशल कभी कभी मित्रता ही इन्ही बातो पर टिकी होती है | समस्या तो खैर रहते ही हैं, लेकिन आजीविका के लिए संघर्षरत व्यक्ति के लिए, अपने छोटे छोटे काम को ही करना, प्रथम लक्ष्य होना चाहिए| जैसे कि आपके पिछले दो लेख आपका एक कर्म हो, लेकिन हमारे जैसे लोगो को विचार, स्वस्थ सोच देता है | पानी कि समस्या तो है ही, साथ ही साथ स्त्री समस्या, आधुनिकरण का असर, ग्लोबलाइजेशन कि विपदा भी है; लेकिन अच्छे लेख जैसा कि आपने लिखा वो भी अपने आप में कई समस्याओं के निवारण के लिए जरूरी है |अक्सर समस्याओं को दूर करने के कई आयाम होते हैं| अपनी विवशता के मध्य आप इन बातों को भी सोचियेगा |
रीतेश मुकुल
जब छोटी थी तो इमारतों को बनते देखती थी। सोचती थी ना जाने यह सीमेन्ट इमारत के ऊपर तक कैसे पहुँचेगा। फिर जब देखती की सीढ़ी में खड़ी मज़दूर औरतें नीचे से एक कदम ऊपर तगारी पहुँचा रही हैं....बहुत खुश होती। नीचे खड़ी मजदूर औरत से लेकर सबसे ऊपर खड़ी तक सभी की सिमेन्ट ऊपर पहुँचाने में अहम भूमिका है।
पहले सही सवाल ढूँढ लें...फिर जवाब भी मिल जायेंगे। जरूरी नहीं की सभी काम एक ही करे।
बहुत खूब लिखा आपने
मनीषा
तुम्हारा उबलना जायज़ है, लेकिन मुझे लगता है कि अनाम टिप्पणियों को नज़रअंदाज़ कर देना ही उचित है । एनोनिमिटी के परदे में रहकर उकसाने में लोगों को शायद बड़ा मज़ा आता है, ना पानी पर लिखकर तुमने कुछ ग़लत किया और ना ही उस टिप्पणी का इत्ता तीखा-सा जवाब देकर । पर just try ti move ahead. अब फिर एक टिप्पणी है तो क्या हर दिया यही किया जाएगा कि कटघरे में खड़े होकर सफ़ाई पेश की जाए । अपने आप को जस्टीफाई करना बुरा नहीं है पर पहले ये देखो कि सारी दुनिया के सामने तो खुद को जस्टीफाई नहीं किया जा सकता ना ।
पहली बार इस धाम आना हुआ। अच्छा लगा । ये तल्खी, ये गुस्सा सब जायज़ है । अपनी राह चलें और मनमर्जी की करें।
शुभकामनाएं।
सामाजिक बदलाव में हर व्यक्ति की अलग-अलग भूमिका होती है। सब के अपने-अपने माध्यम होते हैं। सारा समाज न तो लेखक हो सकता है और न ही एक्टिविस्ट। कुछ लोग लेखक-एक्टिविस्ट या एक्टिविस्ट-लेखक भी हो सकते हैं। वे निशित ही महान हैं, लेकिन जो सिर्फ लेखक हैं, समाज को बदलने में उनका भी योगदान है। लड़ाइयां तलवार से भी लड़ी जाती हैं और कलम से भी। सो , डटे रहो।
लिखा तो बढ़िया है, लेकिन लंबा होने के चलते थकाऊ हो गया है।
यह वर्ष सिमोन का जन्मशताब्दी वर्ष है
http://parisar.wordpress.com/
बढिया ब्लॊग है जी !
kathya aur karma mein samanjasya baithe, thabhi lekhani mein talwar si dhaar aati hai..... aapki lekhani mein wo baat hai.... samaj ko aapse umeedein hai
interesting hai. pehla writeup or comment to nahi dekehy hain... par ye sawal, jo aksar kayi jagah alag alag tareeqe se sunney ko milta hai, ke lekhak sirf likhtey kyoon hain, kuch kartey kyoon nahin... apney aap mey ek bharam hai.
har insaan ka is samajh se joojhney ka apna tarreqa hota hai... koi ismey mil jaata hai, koi sadhu sant ban jaata hai to koi kuch aur. ek achcha lekhak zaroori nahi ki achcha bhashan de sakey ya koi poloitical morcha khol de aur sadak par hungama kar sakey. par woh un muddon ko zaroor utha sakta hai jo shayad har koi aaj bhi nahi jaanta... ya phir jaantey huey bhi uski 'politics' nahi samajh paata hai kyoonki wo samajh ke taaney baaney mey buri tarah se atka hua hai.
ek achcha lekh, hazaron morchon aur protest ko janam de sakta hai, aur ye hi ek ACHCHEY writer ka asli kaam hai... kum sey kum jab tak wo apney aap ko imaandari se ek lekhak maanta ho.
liked this peice.
best
parvez
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