जयपुर से लौटकर
दूसरा हिस्सा
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में जाने के प्रस्ताव के साथ मैंने जो सबसे पहला काम किया था, वह था उनकी वेबसाइट पर जाकर ये पता करने का कि वहां कौन-कौन आ रहा है और ओरहान पामुक, जेएम कोएत्जी, एडम जगायवस्की, विक्रम सेठ, नाम ली, रस्किन बॉन्ड वगैरह के नाम पढ़ते हुए इतनी उत्तेजित हो गई थी कि मुझे भी ब्लॉग राइटिंग के बारे में वहां कुछ बोलना है, जैसा ख्याल ही बहुत स्टुपिड लग रहा था। यूं नहीं कि ये बात मैं अभी कह रही हूं, बल्कि तब भी मैं ये बहुत साफ-साफ जानती थी कि अगर हिंदी ब्लॉगिंग वाला सेशन नई भाषा नए तेवर पामुक के सेशन आउट ऑफ वेस्ट के पैरलल होता तो मैं निश्चित ही जानती थी कि मेरी प्रिऑरिटी क्या है। मैं ब्लॉग को बाय बाय करती और रवीश और गिरिराज को कह देती कि तुम लोग ब्लॉग के बारे में जो चाहो बात कर लो, मुझे पामुक को सुनने दो। ब्लॉग पर न बोलकर मेरे जीवन का कुछ छूट नहीं जाएगा, लेकिन पामुक को नहीं सुन पाई तो बहुत कुछ छूट जाएगा। ऐसा, जिसकी रिकवरी नहीं हो सकती। वैसे भी हिंदी ब्लॉगिंग पर मैं कोई महान डिसकवरी नहीं करने जा रही। लेकिन ऐसी नौबत नहीं आई। मैंने सुना और पूरी शिद्दत से सुना। सुना भी और ब्लॉगिंग पर कुछ-कुछ बोला भी। क्या, मुझे खुद नहीं पता।
22 तारीख को पामुक का सेशन 5 बजे से था और मैं एक घंटे पहले से फ्रंट लॉन में डटी हुई थी ताकि सबसे आगे वाली सीट पकड़ सकूं। हालांकि वह मुझे बड़ी आसानी से मिल गई। उसके पहले जय अर्जुन सिंह के साथ किरन देसाई की बातचीत मैं सुन चुकी थी, जो बहुत एक्साइटिंग न होते हुए भी इंटरेस्टिंग थी। किरन देसाई को मैंने नहीं पढ़ा, फिर भी उनके लेखन के सफर, अपनी जड़ों से उखड़ने, मां अनिता देसाई के साथ उनके संबंधों की बारीकियां, मां और बेटी की जिंदगी के बुनियादी फर्क, उनके समय और वो हालात, जिसमें दो अलग-अलग स्त्रियों ने लेखन के एकांत को खोजा था, के बारे में जानना रोचक था। किरन देसाई के सेशन के बाद आधे घंटे का अंतराल और फिर ओरहान पामुक, किरन देसाई, नाम ली और चिमामांदा अदीची राना दासगुप्ता के साथ बातचीत में आउट ऑफ वेस्ट सेशन में बोलने वाले थे। नाम ली और चिमामांदा से मैं ज्यादा परिचित नहीं थी। पामुक के तो पूरे लेखन के केंद्र में ही ईस्ट और वेस्ट के सांस्कृतिक अंतविर्रोध और सत्ता संघर्ष है। एक ज्यादा अमीर और विकसित दुनिया तीसरी दुनिया के देशों, उसके सांस्कृतिक विकास, उसके लेखन और कला को कैसे देखती है। पामुक ने कमोबेश वही बातें कहीं, जिसका जिक्र इस्तांबुल: मैमोरीज एंड द सिटी में बार-बार आता है। पामुक ने कहा कि आउट ऑफ वेस्ट का अर्थ है एक ऐसी दुनिया से ताल्लुक रखना, जो वेस्ट की तरह अमीर नहीं है, एक ऐसी भाषा में लिखना, जो अंग्रेजी नहीं है, इसलिए ताकतवर की भाषा नहीं है, एक ऐसे समाज से आना, जो उतना आधुनिक नहीं है, एक ऐसी सांस्कृतिक यात्रा का हिस्सा होना, जो पश्चिम के आधिपत्य से आक्रांत रहा है, जहां रेनेसां और आधुनिक विचार अब तक नहीं पहुंच पाए हैं। और ये सारी बातें इतनी निर्णायक हैं कि ये तय करती हैं। ये तय करती हैं दुनिया के नक्शे में आपकी जगह को, आपके लिखे और रचे को देखे जाने की नजर को, यहां तक कि लिखे जाने को भी । ये इस हद तक तय करती हैं कि जब पामुक प्रेम पर कोई उपन्यास लिखते हैं तो वेस्ट के क्रिटीक कहते हैं : Pamuk writes about Turkish love. ये कहते हुए उनकी आंखों में थोड़ा गुस्सा होता है कि Its not Human Love or Global love but just a Turkish Love.
राना दासगुप्ता ने जब ग्लोबलाइजेशन का हवाला देते हुए कहा कि ये दीवारें टूट रही हैं, दुनिया एक गांव में तब्दील हो रही है तो लगभग दासगुप्ता को झिड़कते और बीच में ही चुप कराते हुए पामुक ने फिर जोर देकर कहा कि ग्लोबलाइजेशन भी सत्ता और ताकत का ही ग्लोबलाइजेशन है। ग्लोबलाइजेशन का मतलब ये नहीं कि वेस्ट और अमेरिका का आधिपत्य खत्म हो गया है। पामुक बहुत स्पष्ट थे कि ग्लोबलाइजेशन का ये गांव दुनिया के अमीरों का गांव है, हालांकि उस गांव में भी अंग्रेजी और तुर्की का फर्क बड़ा साफ है। राना दासगुप्ता को पामुक ने कई बार टोका। इतना कि सेशन खत्म होते-होते उसके चेहरे पर बेचैनी साफ नजर आ रही थी। किसी को लग सकता है कि पामुक अपने प्रतिउत्तर में बहुत विनम्र नहीं थे, लेकिन मुझे लगता है कि वे जो थे, बिलकुल सही थे। कुछ जवाब कभी विनम्रता से नहीं दिए जा सकते। कुछ बातें ऐसी होती हैं, जो चोट के निशान और ठहरे हुए पानी की सड़न जैसी साफ होती हैं। इतनी स्पष्ट कि अगर वह न दिखें या कोई देखकर भी न देखने का नाटक करे तो उसका जवाब यही हो सकता है, जो पामुक ने दिया।
21 तारीख वाले सेशन में आर्ट ऑफ नॉवेल पर पामुक से बात करते हुए चंद्रहास चौधरी ज्यादा संतुलित और गंभीर थे। माय नेम इज रेड से लेकर म्यूजियम ऑफ इनोसेंस तक फिक्शन राइटिंग पर काफी बातें हुईं। पामुक को इस तरह सबसे सामने वाली कुर्सी पर बैठकर सुनते हुए लगता है कि वह काफी इंपल्सिव हैं। थोड़ा भी अज्ञान या मूर्खता को बर्दाश्त नहीं कर पाते। पट से काउंटर करते हैं या सामने वाले को चुप करा देते हैं। सेशन के अंत में बातचीत में किसी ने पूछा, जो ठीक से अपना सवाल पूछ भी नहीं पा रहा था तो पामुक उससे पहले ही पट से बोल पड़े- Well, more or less, I understood your question as do you think that philosophical aspect of love is more important then its sexual aspect and the answer is “Yes.” और इतना कहने के बाद उन्होंने अपने मुंह को गोल किया और बोले, I was going to say more then penetration और फिर खुद ही ऐसा कहने के लिए माफी मांगने लगे कि क्यों वो ये कहने से खुद को रोक नहीं पाए। चंद्रहास चौधरी ने भी चुटकी ली, You will be deported tomorrow morning (Oh what else can one expect in such puritan, ethical society) और यूं नहीं कि पामुक को अंदाजा नहीं था कि वे क्या कह बैठे हैं, वे भी आगे जोड़ने से नहीं चूके “Tomorrow morning? No, just after this.”
सेक्स एंड एथिक्स की बात चली तो 22 तारीख की शाम याद आ गई। आउट ऑफ वेस्ट सेशन में किरन देसाई भी पामुक के साथ थीं और इस महान एथिकल सोसायटी के वे तमाम लोग, जिन्होंने पामुक की लिखी एक लाइन भी नहीं पढ़ी है, वे भी ये जानते हैं कि पामुक इज इन लव विद किरन देसाई। पूरे फेस्टिवल के दौरान मुझे इस मुहब्बत पर चर्चा करते कई लोग दिखे। पामुक ने क्या कहा से ज्यादा उनकी इस बात में रुचि थी कि कैसे मंच पर बैठे हुए भी वे बीच-बीच में प्यार से मुस्कुराकर किरन देसाई को देख रहे थे या वहां भी दोनों आपस में बात करने की फुरसत ढूंढ ही ले रहे थे। जयपुर से दिल्ली लौटते हुए बस में मेरी बगल वाली सीट पर एक लड़की बैठी थी। पूरे फेस्टिवल से सबसे इंटरेस्टिंग डिसकवरी, जो वो अपने साथ लेकर जा रही थी, वह यही थी कि पामुक हैज अफेयर विद किरन देसाई। मैंने कहा, हां।
But he is so old for her. Kiran is very young.
So what? Doesn’t matter at all. They are in love. That’s the only thing matters.
I think he is seducing her.
What???????????????????????
Yes. He is old and obsessed.
Oh really? Are you a psycho-analyst?
No, I am an aspiring writer. Attempting a novel.
(What the hell are you going to write? All about ethics of love and purity of virginity.)
Great. Best of luck.
(You are perfect for pure, ethical, moral Indian crowd. Go ahead; add your contribution in this huge heap of filth.)
…………..
(Sick.
Fuck off.)
ऐसी बातों का वैसे ही जवाब देने का मन करता है, जैसे पामुक ने मंच से राना दासगुप्ता के सवाल का दिया था। वो तो फिर भी काफी डीसेंट थे। मुझे उतनी भी डीसेंसी बरतने का मन नहीं करता। उस लड़की को लगा होगा कि किरन देसाई बुरहानपुर के चौबेजी की कुंवारी कन्या हैं, जिसे एक बुड़ढा लेखक अपने नेम-फेम के झांसे में फंसा रहा है। जिस समाज के लोग पामुक और किरन देसाई तक को मॉरल जजमेंट से नहीं बख्शते, वहां कोई मनीषा पांडेय कौन सुर्खाब के पर लगाकर आई हैं। चार ओपन अफेयर के बाद वो भी हिंदी समाज के महान नैतिक पथप्रदर्शकों को घोर पतिता नजर आने लगें तो कतई आश्चर्य नहीं। (और आने क्या लगें। आ ही रही हैं।)
फिलहाल मैं सबसे आगे की लाइन में बैठी थी और इंतजार ही कर रही थी कि कब पामुक आएं और मैं एक अदद हिंदुस्तानी पत्रकार का हुनर दिखाते हुए उन्हें पकड़ लूं, दनादन कुछ सवाल दाग दूं या कम से कम एक इंटरव्यू के लिए वक्त तो मांग ही लूं, जो मैं जानती हूं कि हिंदी अखबार में कभी नहीं छपेगा। नहीं छपेगा क्योंकि हिंदी के लोग 20-22 साल की उम्र में अंधेरी रातों में इस्तांबुल की सड़कों पर अकेले भटकने वाले और बॉस्फोरस के किनारे अवसाद में बैठे रहने वाले पामुक का प भी नहीं जानते। वे जानना भी नहीं चाहते क्योंकि कुछ तो वो अपने शहर की दिनोंदिन चमकीली होती जाती रंगीनियों से इतने अभिभूत हैं और कुछ जिंदगी की बेहिसाब तकलीफों से इतने गमजदा कि उन्हें फुरसत ही नहीं कि जानें कि मुन्नी और शीला के आगे दुनिया और भी है, बदनामी और बहुत सारी, जवानी और बहुत सारी।
लेकिन फिर भी मैं ये मौका चूकना नहीं चाहती थी। वो कब आएंगे के इंतजार में बैठे हुए मैंने मंच के किनारे बैठे कुछ लोगों की आंखों में एक अजीब रहस्यमय चमक देखी और मेरी तीसरी आंख ने कहा कि जरूर मंच के पीछे कुछ है। मैं तुरंत उठी और पीछे गई। वही थे। नेवी ब्लू शर्ट और ब्लैक कोट में किरन देसाई के साथ कोने में खड़े बतियाते हुए। मैंने तुरंत हाथ मिलाया, अपना परिचय दिया और इंटरव्यू की इच्छा जाहिर की। जितनी मुहब्बत से मैंने पूछा, उतनी ही मुहब्बत से उन्होंने मना कर दिया। बोले, I am so sorry. I cannot. I am slave of my publisher. If you want to interview me, please contact my publisher. मैंने जयपुर जाने से पहले बड़ी मेहनत से सवाल तैयार किए थे। कितने तो सवाल थे, जो मैं पूछना चाहती थी। कितनी तो बातें थीं, जो मैं जानना चाहती थी, जो मैं नहीं जान सकी। फैमिली कार में ठुंसकर बॉस्फोरस की शरण में जाने वाले दुखी परिवारों के बारे में, उस इस्तांबुल इनसाइक्लोपीडिया के बारे में, जो उन्हें दादी की आलमारी में मिली थी। उस रात के बारे में, जब पिता मां को बताए बगैर पेरिस चले गए थे और उस दोपहर के बारे में भी, जब मां खिड़की से कूदकर मर जाना चाहती थी। अवसाद के उस गाढ़े रंग के बारे में, जो मैं पामुक के साथ साझा करती हूं। वही रंग, जो मैंने भी अपने बचपन के शहर में देखा है। वही रंग, जो शायद इस देश के नब्बे फीसदी शहरों का रंग है, सत्तर फीसदी चेहरों का रंग है। मुमकिन है, मैं ये सवाल नहीं पूछ पाती। बस इतना ही पूछ पाती कि बोर्हेस आपको क्यों इतने पसंद हैं या आपकी राइटिंग मैजिकल रिअलिज्म से अछूती कैसे रह गई।
जो नहीं जान सकी, उसका गम तो है लेकिन जो जान पाई, उसकी खुशी कहीं ज्यादा। जयपुर से लौटकर मैं बहुत खुश हूं।
PS : लौटने के बाद मैंने इस्तांबुल फिर से पढ़नी शुरू की। मेरी किताब पर लिखा है- फरवरी, 2007। इंदौर।
इस्तांबुल : मैमोरीज एंड द सिटी मैंने इंदौर में खरीदी थी और तभी पहली बार पढ़ी थी। अब फिर से पढ़ते हुए महसूस हो रहा है कि अरे, ये बातें पहले कहां थीं। ये गाढ़ा काला रंग पहले नहीं था शायद। या था शायद। बस उस रंग को पढ़ने की नजर नहीं थी।
तीसरा हिस्सा
एक पोलिश कवि और एक हिंदुस्तानी लड़की
पहला हिस्सा
Why loneliness matters so much?
दूसरा हिस्सा
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में जाने के प्रस्ताव के साथ मैंने जो सबसे पहला काम किया था, वह था उनकी वेबसाइट पर जाकर ये पता करने का कि वहां कौन-कौन आ रहा है और ओरहान पामुक, जेएम कोएत्जी, एडम जगायवस्की, विक्रम सेठ, नाम ली, रस्किन बॉन्ड वगैरह के नाम पढ़ते हुए इतनी उत्तेजित हो गई थी कि मुझे भी ब्लॉग राइटिंग के बारे में वहां कुछ बोलना है, जैसा ख्याल ही बहुत स्टुपिड लग रहा था। यूं नहीं कि ये बात मैं अभी कह रही हूं, बल्कि तब भी मैं ये बहुत साफ-साफ जानती थी कि अगर हिंदी ब्लॉगिंग वाला सेशन नई भाषा नए तेवर पामुक के सेशन आउट ऑफ वेस्ट के पैरलल होता तो मैं निश्चित ही जानती थी कि मेरी प्रिऑरिटी क्या है। मैं ब्लॉग को बाय बाय करती और रवीश और गिरिराज को कह देती कि तुम लोग ब्लॉग के बारे में जो चाहो बात कर लो, मुझे पामुक को सुनने दो। ब्लॉग पर न बोलकर मेरे जीवन का कुछ छूट नहीं जाएगा, लेकिन पामुक को नहीं सुन पाई तो बहुत कुछ छूट जाएगा। ऐसा, जिसकी रिकवरी नहीं हो सकती। वैसे भी हिंदी ब्लॉगिंग पर मैं कोई महान डिसकवरी नहीं करने जा रही। लेकिन ऐसी नौबत नहीं आई। मैंने सुना और पूरी शिद्दत से सुना। सुना भी और ब्लॉगिंग पर कुछ-कुछ बोला भी। क्या, मुझे खुद नहीं पता।
22 तारीख को पामुक का सेशन 5 बजे से था और मैं एक घंटे पहले से फ्रंट लॉन में डटी हुई थी ताकि सबसे आगे वाली सीट पकड़ सकूं। हालांकि वह मुझे बड़ी आसानी से मिल गई। उसके पहले जय अर्जुन सिंह के साथ किरन देसाई की बातचीत मैं सुन चुकी थी, जो बहुत एक्साइटिंग न होते हुए भी इंटरेस्टिंग थी। किरन देसाई को मैंने नहीं पढ़ा, फिर भी उनके लेखन के सफर, अपनी जड़ों से उखड़ने, मां अनिता देसाई के साथ उनके संबंधों की बारीकियां, मां और बेटी की जिंदगी के बुनियादी फर्क, उनके समय और वो हालात, जिसमें दो अलग-अलग स्त्रियों ने लेखन के एकांत को खोजा था, के बारे में जानना रोचक था। किरन देसाई के सेशन के बाद आधे घंटे का अंतराल और फिर ओरहान पामुक, किरन देसाई, नाम ली और चिमामांदा अदीची राना दासगुप्ता के साथ बातचीत में आउट ऑफ वेस्ट सेशन में बोलने वाले थे। नाम ली और चिमामांदा से मैं ज्यादा परिचित नहीं थी। पामुक के तो पूरे लेखन के केंद्र में ही ईस्ट और वेस्ट के सांस्कृतिक अंतविर्रोध और सत्ता संघर्ष है। एक ज्यादा अमीर और विकसित दुनिया तीसरी दुनिया के देशों, उसके सांस्कृतिक विकास, उसके लेखन और कला को कैसे देखती है। पामुक ने कमोबेश वही बातें कहीं, जिसका जिक्र इस्तांबुल: मैमोरीज एंड द सिटी में बार-बार आता है। पामुक ने कहा कि आउट ऑफ वेस्ट का अर्थ है एक ऐसी दुनिया से ताल्लुक रखना, जो वेस्ट की तरह अमीर नहीं है, एक ऐसी भाषा में लिखना, जो अंग्रेजी नहीं है, इसलिए ताकतवर की भाषा नहीं है, एक ऐसे समाज से आना, जो उतना आधुनिक नहीं है, एक ऐसी सांस्कृतिक यात्रा का हिस्सा होना, जो पश्चिम के आधिपत्य से आक्रांत रहा है, जहां रेनेसां और आधुनिक विचार अब तक नहीं पहुंच पाए हैं। और ये सारी बातें इतनी निर्णायक हैं कि ये तय करती हैं। ये तय करती हैं दुनिया के नक्शे में आपकी जगह को, आपके लिखे और रचे को देखे जाने की नजर को, यहां तक कि लिखे जाने को भी । ये इस हद तक तय करती हैं कि जब पामुक प्रेम पर कोई उपन्यास लिखते हैं तो वेस्ट के क्रिटीक कहते हैं : Pamuk writes about Turkish love. ये कहते हुए उनकी आंखों में थोड़ा गुस्सा होता है कि Its not Human Love or Global love but just a Turkish Love.
राना दासगुप्ता ने जब ग्लोबलाइजेशन का हवाला देते हुए कहा कि ये दीवारें टूट रही हैं, दुनिया एक गांव में तब्दील हो रही है तो लगभग दासगुप्ता को झिड़कते और बीच में ही चुप कराते हुए पामुक ने फिर जोर देकर कहा कि ग्लोबलाइजेशन भी सत्ता और ताकत का ही ग्लोबलाइजेशन है। ग्लोबलाइजेशन का मतलब ये नहीं कि वेस्ट और अमेरिका का आधिपत्य खत्म हो गया है। पामुक बहुत स्पष्ट थे कि ग्लोबलाइजेशन का ये गांव दुनिया के अमीरों का गांव है, हालांकि उस गांव में भी अंग्रेजी और तुर्की का फर्क बड़ा साफ है। राना दासगुप्ता को पामुक ने कई बार टोका। इतना कि सेशन खत्म होते-होते उसके चेहरे पर बेचैनी साफ नजर आ रही थी। किसी को लग सकता है कि पामुक अपने प्रतिउत्तर में बहुत विनम्र नहीं थे, लेकिन मुझे लगता है कि वे जो थे, बिलकुल सही थे। कुछ जवाब कभी विनम्रता से नहीं दिए जा सकते। कुछ बातें ऐसी होती हैं, जो चोट के निशान और ठहरे हुए पानी की सड़न जैसी साफ होती हैं। इतनी स्पष्ट कि अगर वह न दिखें या कोई देखकर भी न देखने का नाटक करे तो उसका जवाब यही हो सकता है, जो पामुक ने दिया।
21 तारीख वाले सेशन में आर्ट ऑफ नॉवेल पर पामुक से बात करते हुए चंद्रहास चौधरी ज्यादा संतुलित और गंभीर थे। माय नेम इज रेड से लेकर म्यूजियम ऑफ इनोसेंस तक फिक्शन राइटिंग पर काफी बातें हुईं। पामुक को इस तरह सबसे सामने वाली कुर्सी पर बैठकर सुनते हुए लगता है कि वह काफी इंपल्सिव हैं। थोड़ा भी अज्ञान या मूर्खता को बर्दाश्त नहीं कर पाते। पट से काउंटर करते हैं या सामने वाले को चुप करा देते हैं। सेशन के अंत में बातचीत में किसी ने पूछा, जो ठीक से अपना सवाल पूछ भी नहीं पा रहा था तो पामुक उससे पहले ही पट से बोल पड़े- Well, more or less, I understood your question as do you think that philosophical aspect of love is more important then its sexual aspect and the answer is “Yes.” और इतना कहने के बाद उन्होंने अपने मुंह को गोल किया और बोले, I was going to say more then penetration और फिर खुद ही ऐसा कहने के लिए माफी मांगने लगे कि क्यों वो ये कहने से खुद को रोक नहीं पाए। चंद्रहास चौधरी ने भी चुटकी ली, You will be deported tomorrow morning (Oh what else can one expect in such puritan, ethical society) और यूं नहीं कि पामुक को अंदाजा नहीं था कि वे क्या कह बैठे हैं, वे भी आगे जोड़ने से नहीं चूके “Tomorrow morning? No, just after this.”
सेक्स एंड एथिक्स की बात चली तो 22 तारीख की शाम याद आ गई। आउट ऑफ वेस्ट सेशन में किरन देसाई भी पामुक के साथ थीं और इस महान एथिकल सोसायटी के वे तमाम लोग, जिन्होंने पामुक की लिखी एक लाइन भी नहीं पढ़ी है, वे भी ये जानते हैं कि पामुक इज इन लव विद किरन देसाई। पूरे फेस्टिवल के दौरान मुझे इस मुहब्बत पर चर्चा करते कई लोग दिखे। पामुक ने क्या कहा से ज्यादा उनकी इस बात में रुचि थी कि कैसे मंच पर बैठे हुए भी वे बीच-बीच में प्यार से मुस्कुराकर किरन देसाई को देख रहे थे या वहां भी दोनों आपस में बात करने की फुरसत ढूंढ ही ले रहे थे। जयपुर से दिल्ली लौटते हुए बस में मेरी बगल वाली सीट पर एक लड़की बैठी थी। पूरे फेस्टिवल से सबसे इंटरेस्टिंग डिसकवरी, जो वो अपने साथ लेकर जा रही थी, वह यही थी कि पामुक हैज अफेयर विद किरन देसाई। मैंने कहा, हां।
But he is so old for her. Kiran is very young.
So what? Doesn’t matter at all. They are in love. That’s the only thing matters.
I think he is seducing her.
What???????????????????????
Yes. He is old and obsessed.
Oh really? Are you a psycho-analyst?
No, I am an aspiring writer. Attempting a novel.
(What the hell are you going to write? All about ethics of love and purity of virginity.)
Great. Best of luck.
(You are perfect for pure, ethical, moral Indian crowd. Go ahead; add your contribution in this huge heap of filth.)
…………..
(Sick.
Fuck off.)
ऐसी बातों का वैसे ही जवाब देने का मन करता है, जैसे पामुक ने मंच से राना दासगुप्ता के सवाल का दिया था। वो तो फिर भी काफी डीसेंट थे। मुझे उतनी भी डीसेंसी बरतने का मन नहीं करता। उस लड़की को लगा होगा कि किरन देसाई बुरहानपुर के चौबेजी की कुंवारी कन्या हैं, जिसे एक बुड़ढा लेखक अपने नेम-फेम के झांसे में फंसा रहा है। जिस समाज के लोग पामुक और किरन देसाई तक को मॉरल जजमेंट से नहीं बख्शते, वहां कोई मनीषा पांडेय कौन सुर्खाब के पर लगाकर आई हैं। चार ओपन अफेयर के बाद वो भी हिंदी समाज के महान नैतिक पथप्रदर्शकों को घोर पतिता नजर आने लगें तो कतई आश्चर्य नहीं। (और आने क्या लगें। आ ही रही हैं।)
फिलहाल मैं सबसे आगे की लाइन में बैठी थी और इंतजार ही कर रही थी कि कब पामुक आएं और मैं एक अदद हिंदुस्तानी पत्रकार का हुनर दिखाते हुए उन्हें पकड़ लूं, दनादन कुछ सवाल दाग दूं या कम से कम एक इंटरव्यू के लिए वक्त तो मांग ही लूं, जो मैं जानती हूं कि हिंदी अखबार में कभी नहीं छपेगा। नहीं छपेगा क्योंकि हिंदी के लोग 20-22 साल की उम्र में अंधेरी रातों में इस्तांबुल की सड़कों पर अकेले भटकने वाले और बॉस्फोरस के किनारे अवसाद में बैठे रहने वाले पामुक का प भी नहीं जानते। वे जानना भी नहीं चाहते क्योंकि कुछ तो वो अपने शहर की दिनोंदिन चमकीली होती जाती रंगीनियों से इतने अभिभूत हैं और कुछ जिंदगी की बेहिसाब तकलीफों से इतने गमजदा कि उन्हें फुरसत ही नहीं कि जानें कि मुन्नी और शीला के आगे दुनिया और भी है, बदनामी और बहुत सारी, जवानी और बहुत सारी।
लेकिन फिर भी मैं ये मौका चूकना नहीं चाहती थी। वो कब आएंगे के इंतजार में बैठे हुए मैंने मंच के किनारे बैठे कुछ लोगों की आंखों में एक अजीब रहस्यमय चमक देखी और मेरी तीसरी आंख ने कहा कि जरूर मंच के पीछे कुछ है। मैं तुरंत उठी और पीछे गई। वही थे। नेवी ब्लू शर्ट और ब्लैक कोट में किरन देसाई के साथ कोने में खड़े बतियाते हुए। मैंने तुरंत हाथ मिलाया, अपना परिचय दिया और इंटरव्यू की इच्छा जाहिर की। जितनी मुहब्बत से मैंने पूछा, उतनी ही मुहब्बत से उन्होंने मना कर दिया। बोले, I am so sorry. I cannot. I am slave of my publisher. If you want to interview me, please contact my publisher. मैंने जयपुर जाने से पहले बड़ी मेहनत से सवाल तैयार किए थे। कितने तो सवाल थे, जो मैं पूछना चाहती थी। कितनी तो बातें थीं, जो मैं जानना चाहती थी, जो मैं नहीं जान सकी। फैमिली कार में ठुंसकर बॉस्फोरस की शरण में जाने वाले दुखी परिवारों के बारे में, उस इस्तांबुल इनसाइक्लोपीडिया के बारे में, जो उन्हें दादी की आलमारी में मिली थी। उस रात के बारे में, जब पिता मां को बताए बगैर पेरिस चले गए थे और उस दोपहर के बारे में भी, जब मां खिड़की से कूदकर मर जाना चाहती थी। अवसाद के उस गाढ़े रंग के बारे में, जो मैं पामुक के साथ साझा करती हूं। वही रंग, जो मैंने भी अपने बचपन के शहर में देखा है। वही रंग, जो शायद इस देश के नब्बे फीसदी शहरों का रंग है, सत्तर फीसदी चेहरों का रंग है। मुमकिन है, मैं ये सवाल नहीं पूछ पाती। बस इतना ही पूछ पाती कि बोर्हेस आपको क्यों इतने पसंद हैं या आपकी राइटिंग मैजिकल रिअलिज्म से अछूती कैसे रह गई।
जो नहीं जान सकी, उसका गम तो है लेकिन जो जान पाई, उसकी खुशी कहीं ज्यादा। जयपुर से लौटकर मैं बहुत खुश हूं।
PS : लौटने के बाद मैंने इस्तांबुल फिर से पढ़नी शुरू की। मेरी किताब पर लिखा है- फरवरी, 2007। इंदौर।
इस्तांबुल : मैमोरीज एंड द सिटी मैंने इंदौर में खरीदी थी और तभी पहली बार पढ़ी थी। अब फिर से पढ़ते हुए महसूस हो रहा है कि अरे, ये बातें पहले कहां थीं। ये गाढ़ा काला रंग पहले नहीं था शायद। या था शायद। बस उस रंग को पढ़ने की नजर नहीं थी।
तीसरा हिस्सा
एक पोलिश कवि और एक हिंदुस्तानी लड़की
पहला हिस्सा
Why loneliness matters so much?
13 comments:
गुड है। पोलिश कवि से हिन्दुस्तानी लड़की की मुलाक़ात का इंतज़ार है। तुमसे उम्मीद करता हूँ कि उत्सव के नामुराद अनुभवों, साहित्य की दिखावा संस्कृति, खासतौर पर हिन्दी साहित्य-संस्कृतिकर्मियों का तथाकथित-दिखावटी चरित्र आदि पर भी लिखोगी। यह सब वहाँ भी नहीं दिखा होगा, मान नहीं सकता। पर हिन्दीवाले इन पर लिखते नहीं हैं। तथाकथित एलिटिज़्म-कुलीनता हावी रहती है।
शब्दों और अर्थों की अपना अलग विश्व है और प्रेम उस विश्व का उन्मुक्त पंछी, उड़ानें बाधित न की जायें।
आपने बहुत डूब कर और मन से लिखा है मनीषा. अच्छा लगा.
agli kadi kaa intezaar
Interesting and insightful- you have opened the world that is within you and out there very well.
मनीषा, बहुत ही अच्छा लिखती हो....शानदार.... पर मुझे हरदम यही लगता है कि अच्छी कहानी के लिए जिन चीजों की जरूरत है, वो ़ तुम्हारी लेखनी में हरदम देखने को मिलती है, पर फिर लेकिन, किंतु, परंतु..... पता नहीं.... एक बार प्रयोग करकर ही देखो... एक बार सिगरेट वाली थीम पर बात हुई थी, वो कहानी लिखी क्या ??
खुद कों rediscover करना , अपने आप में एक अनोखी अनुभूति है । माध्यम चाहे कोई भी क्यूँ न हो। बधाई।
बहुत समय के बाद मनीषा के जयपुर प्रवास और पामुक से आपका एन्कोउन्टर भी पढ़ा लिखती रहिये दम है आपकी लेखनी में
रवि श्रीवास्तव
A salute from my side
एक चीज़ अखर गयी...
अपने हिंदुस्तान में कई देश का होना, हर चीज़ के लिए लड़ना, ७० फीसदी लोगों के एक ही रंग का होना अगर इसका इल्म आपको है तो २०-२२ की उम्र में युवाओं का पामुक का 'प' क्यों नहीं जान्ने का इल्म भी होगा ही. जाहिर है सिर्फ रंगों में भी कई रंग होते हैं... और शीला और मुन्नी तक ही तो यह सीमित नहीं होगा ना.
शब्दों के साथ बहता गया। काफी कुछ जानने मिला।
मुझे लगता है कि खुद को फिर से जानने के मौके हमारी जिंदगी में मिलते रहना चाहिए लेकिन ऐसा बहुत कम होता है।
बढियां ....लेकिन सागर के सवालों से सहमती/.......
मनीषा जी ...आप जिस सच्चाई के साथ अपने विचारों को व्यक्त करती हैं वो भारत जैसे मुल्क में आज भी प्रतिबंधित हैं .... हमारे यहाँ सच्चाई को स्वीकार आज भी नहीं किया जाता है ..... आप बाइसवी शताब्दी की लेखिका हैं ......
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