Friday, 18 January 2008
ड्रम में पानी न हुआ प्रियतम के आंसू हुए
नए साल की पहली पोस्ट
नए साल की ये मेरी पहली पोस्ट है। मेल आता है, दोस्त फोन करके चिल्लाते हैं, लिखती क्यूं नहीं। लिखने की फीस लोगी क्या। क्यूं नहीं लिखा, का कोई कारण नहीं है। बस सुभीता नहीं हुआ, चित्त रमा नहीं तो नहीं लिखा। फिर, लिखा नहीं तो क्या किया। कुछ खास नहीं। हाइबरनेशन में चली गई थी। अब बाहर आई हूं तो दुनिया फिर से दिख रही है, कुछ बदली-बदली....
इतने दिनों बाद एकदम से मुंह उठाकर ये पोस्ट इसलिए लिख रही हूं, क्योंकि मेरे न लिख पाने की एक वजह में मैं इसे भी शुमार करती हूं। हालांकि ये नाच न जाने अंगना टेढ वाली बात भी हो सकती है... लेकिन समस्या तो है, न लिखने का कारण भले न हो...
आप दिन भर ऑफिस में थककर-पककर आठ-नौ बजे घर पहुंचे और सोचें कि अब मेंहदी हसन को सुना जाए, या बर्गमैन की कोई फिल्म देखी जाए या गद्दे पर पसरकर अदर कलर्स के कुछ और चैप्टर पढ़े जाएं या कम्प्यूटर पर बैठकर तसल्ली से कुछ लिखा जाए, तो मैं बता दूं कि इंदौर में रहते हुए ये संभव नहीं है। दिमाग में लिखने के लिए कुछ उथल-पुथल मच रही होती है, तो घर पहुंचते ही पता चलता है कि पीने का पानी नहीं है, एक बाल्टी पानी बाथरूम में पड़ा हुआ है और उसी में जिंदगी बसर करनी है।
किसी दिन आपने हिम्मत करके सुबह की बासी दाल-रोटी न खाकर खिचड़ी बनाने की योजना बनाई हो तो नल में एक बूंद पानी न पाकर सारी योजना धरी रह जाती है और वो रात भी सूखी दाल-रोटी पर गुजर होती है।
लब्बोलुवाब ये है कि मिनी बॉम्बे कहे जाने वाले और करोड़ों के इन्वेस्टर्स मीट वाले इस शहर में, जीवन की बुनियादी जरूरत पानी की सप्लाई का कोई बेसिक इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं है। पानी की किल्लत इंदौर में सर्वव्यापी समस्या है।
आज अखबार में न्यूज है कि रिलायंस मेरे घर के सामने काफी समय से खाली पड़ी जमीन पर 1000 करोड़ रु. में एक बड़ा मॉल खड़ा करने जा रहा है।
अभी भी सिर्फ इंदौर में इतने शॉपिंग मॉल हैं, जितने पूरे बंबई में भी नहीं होंगे। मैं जहां रहती हूं, वो इस शहर का सो कॉल्ड पॉश इलाका है। घर के सामने ताज और शहर का सबसे मंहगा होटल है। ये बिल्कुल वैसा ही है, जैसे मुंबई में आप ताजमहल या ओबेरॉय शेरटन के सामने रहते हों। घर से पांच मिनट की दूरी पर अनिल अंबानी का एडलैब्स खड़ा है, चमचमाता हुआ, जहां वीकेंड में सज-संवरकर पति की बांह थामे और बच्चों की नाक पोंछती औरतें अपना जीवन सफल करने आती हैं। नए जोड़े एलीवेटर के सामने खड़े होकर फोटो खिंचवाते हैं और मैकडोनल्ड्स में बरगर खाते हैं। पांच मिनट और चलें तो दो और शॉपिंग मॉल हैं और दो नए बन रहे हैं। थिस्को थेक हैं, पब हैं, मैकडोनल्ड्स है, पिज्जा हट है, जूते से लेकर परफ्यूम और ज्वेलरी तक के ब्रांड हैं, लेकिन पीने का पानी नहीं है।
आप लेवी की जींस और प्लैटिनम की एसेसरीज पहनकर, बिग बाजार से 3,000 की शॉपिंग करके घर पहुंचिए तो पता चलेगा कि सिंक में पड़ी प्लेट धोने के लिए नल में पानी ही नहीं है। बाल्टी से मग-मग पानी लेकर डेढ़ मिनट में धुलने वाली प्लेट को साढ़े छ: मिनट तक धोओ। ड्रम में संजोया हुआ पानी, मानो पानी न हुआ प्रियतम के आंसू है। खर्च करने में भी डर लगे। बदलते वक्त के साथ गीतों के उपमान बदलेंगे, तो कुछ इस किस्म के गीत लिखे जा सकते हैं -
तेरे आंसू हैं सजनी
ड्रम में भरा हुआ पानी, इन्हें यूं न बहाना.....
किसी को मेरी बात मजाक लग सकती है, लेकिन ये सच है कि पूरे इंदौर शहर में भरपूर मात्रा में और सुविधाजनक पानी की सप्लाई का कोई बुनियादी इंफ्रास्ट्रक्चर अब तक नहीं बन पाया है और न ही लोगों को इस बात की कोई फिक्र है। लोग मॉल में घूमकर और पिज्जा खाकर मगन हैं। पानी की किसी को पड़ी नहीं है।
यहां पानी का एकमात्र स्रोत नर्मदा नदी है, जिसका पानी भी एक-एक दिन छोड़कर आता है और गर्मियों में उसके भी लाले पड़े रहते हैं। इंडिविजुअल बोरिंग के चलते शहर भर में इतने बोरिंग हो गए हैं कि जमीन के अंदर भी पानी के लिए हाय-हाय मची है।
मेरी उम्र के तमाम लोग इस देश के और अपने जीवन के विकास को लेकर काफी उत्साहित हैं। शॉपिंग मॉल के नाम से लड़कियों को गुदगुदी होने लगती है, लड़के जोश में भदभदाकर गिरते रहते हैं। आगे बढ़ने के रास्ते इतने रौशन कभी न थे, स्लोगन पर मगन होकर थिरकते हैं, लेकिन पानी कहां से आएगा, ये कोई नहीं सोचता।
अभी नैनो को लेकर एक बार फिर लोगों का जोश उछाल मार रहा है। अच्छी बात है, लोग गाड़ी चढ़ें, जन्म सफल करें, लेकिन इस विकास के पैरलल एक जो दूसरी तस्वीर बन रही है, और जो आने वाले 10-15 सालों में अपने सबसे भयावह रूप में हमारे सामने होगी, कूदा-कादी मचाए लोगों को उसकी कुछ पड़ी नहीं है। वाहनों की संख्या जिस तेजी के साथ बढ़ रही है, अगर आप कहें कि आने वाले 15-20 सालों में इस देश में इतनी गाडि़यां होंगी कि उन्हें चलाने के लिए सड़क भी नहीं होगी, तो लोग आपको जनविरोधी मान लेंगे। जबकि नैनो न भी आई होती, तो भी कुछ सालों में ये नौबत तो आनी ही है।
और ये इसलिए आनी है क्योंकि इस देश में हो रहे विकास में कोई संतुलन नहीं है। विकास की ओर बढ़ते कदम दरअसल कहां लेकर जा रहे हैं, ये हमारी चिंता का विषय नहीं है। मैकडोनल्ड्स के बरगर खाकर लोग सुखी हैं। रैवलॉन की लिप्सटिक लगाने और ग्लोबस की सैंडिल पहनने के बाद भी जीवन के बारे में कुछ सोचने को रह जाता है क्या। नैनो में चढ़ने के बाद कुछ और मगज में सोचने को बचेगा, मुझे डाउट है।
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22 comments:
मनीषा जी, इंदौर के बारे में आपने इतना अच्छे से चित्रण कर दिया है कि लगता है कि वहां घूम ही लिया....बिल्कुल यथार्थ से परिपूर्ण। वहां भी लोग देश के दूसरे हिस्सों की तरह माल में घूम कर और पिज्जा खाने में मगन हैं.....देखते हैं कि पानी के अभाव में यह सब कितने दिन चलता है।
सचमुच पानी का स्थिति बेहद अफसोसनायक है...शायद 10रूपये लिटर बिकने वाली पानी की बोतलें के भी 10-20 प्लांट लग जाएं.....और क्या कहें---मनीषा जी, पता नहीं हम लोग रेस भी लगाए जा रहे हैं, हांफते भी जा रहे हैं लेकिन थमने का नाम नहीं।।।
ye buniyaadi jarooraton ki problem sirf indore ki nahi hai, lagbhag sabhi jegah hai. Waise to jo tan laagi woh tan jaane kehte hain lekin phir bhi lagta hai kam se kam tehan bijli ki problem nahi hai.
India me vikas sirf unhi cheecho me ho reha hai jehan kuch return hai.
Aaj reliance power aya hai kya pata dusra bhai Reliance Water le aaye aap ki katha sunkar.
मनीषा तुम्हारी चिंताएं जायज़ हैं, इंदौर के बहाने ये सारे देश की चिंताएं हैं, तुमको पता है सारे संसार से पीने का पानी बुरी तरह घट रहा है, हमारे देश से तो कुछ ज्यादा ही । मुंबई को तो जानती समझती हो, इन्फ्रास्ट्रक्चर का ये हाल है कि अभी इसके बारे में सोचने लगें तो मारे टेन्शन के नींद ही हराम हो जाएगी,
इन सब चिंताओं को लेकर तुम्हारा हाइबरनेशन से बाहर आना भी अच्छा लगा ।
चलिए नए साल में आपकी लेखनी ब्लॉग पर तो दिखी, अखबार मे तो पहले ही दिख गई है नए साल में आपकी लेखनी।
नाम भले ही आपने सिर्फ़ इंदौर शहर का लिखा पर देश के तकरीबन सभी शहरों में यही हाल है।
पानी को लेकर पूरी दुनिया में जो कुछ चल रहा है, वह भयावह है. "वौव" कह कर कंधे उचकाने वाली हमारी पीढ़ी फिलहाल तो इस चिंता से दूर है. दुखद है कि ऐसी और इस तरह की चिंताओं का कोई हल भी नहीं निकलने वाला नहीं है. हम जहां आ चुके हैं, वहां से लौटना संभव नहीं है. हमारे जीवन में रिवर्स का कोई बटन नहीं होता कि गलतियां सुधार ली जाएं. और भविष्य में तो इन गलतियों के सुधारे जाने की कोई संभावना दूर-दूर तक नहीं नजर आती. मैं कोई निराशा की बात नहीं कह रही हूं, यह केवल सच है.
इंदौर में रहते हुए ये संभव नहीं है।
...इ त कतहूं संभव नइखैं। आपके पढ़िके बड़ा अच्छा लगल। लिखत रहीं बरोबर। हम सबन तक पढ़ै के खातिर खलिहर बैठलै बानी। रउआ के लेखनी में बड़ा दम बा। बहुतै नीक लिखति हईं रउआ. बधाई-बधाई
बहुत अच्छा लिखा मनीषा..यही हाल सब जगह है.. बुनियादी ज़रूरतों की ज़बरदस्त अनदेखी हो रही है!
ये तो बहुत कष्टदायक बातें लिखीं आपने मनीषा जी ..पानी के बगैर ग्रहस्थी की गाडी बोखिल हो जाती है ..आशा है, ये परेशानी जल्द से जल्द दूर हो जायेगी ...
आपका नव वर्ष २००८ अच्छा गुजरे ये चाहती हूँ ~
बिल्कुल ठीक. जो लोग भाषण में कहते है/थे कि ये वो देश है जहाँ खाने को रोटी नहीं है और पीने को पानी नहीं है वे कभी नहीं समझ सकते कि पानी की समस्या क्या होती है.
Maaf kijiyega agar blog par likhne ke liye hi aap aisi buniyadon samasyayon tak pahunchati hain to koi baat nahin anyatha duniya mein shikayaton ka pulinda taiyar karne walon ki koi kami nahin....aapke lekh ko dekhkar laga aap kafi kuchh sochti hain aur falswaroop likhti bhi hain....achchha hai lekin is samsya ka kya....aap apne ko is samasya ke mutallic kitna jimmedar samajhti hain?....samasya ko uthana badi baat nahin, samasya ko door karne ke liye pahal karna jyada mahatwapurna hai....mana ki ye akele ki baat nahin....lekin shuruaat to karni padegi....Indore mein ye pahal aap hi kyon nahin karti hain....aap to tathakathit budhhijivi log hain aur urjavaan bhi....bade-bade logon se aapka sampark bhi hoga to aise mamlon mein aap jankar logon ki madad bhi le sakti hain aur tab jab ki Rajendra Singh ji jaise Pani ke jankar purodha hamare bich hain....yaad rakhiye aaj ye samasya hai kal ye mahamari banegi....sahityakar keval mudde uthata hi nahin hai uske liye pahal bhi karta hai....maaf kijiyega tippani kadwi jaroor hai lekin utni sach bhi....aasha hai ki aap meri tippani ko anyatha na lekar is disha mein kuchh pahal bhi karengi....ek aam aadmi
शीत निष्क्रियता के बाद की अच्छी स्फूर्ति है ,इसे बनाए रखिये .आपके भेजे लिंक से ब्लॉग तक नही पाया तो गूगलिंग का सहारा लिया और लीजिये सिमसिम खुल गया ,अब जल्दी से निकल लूँ वरना कहीं कैद न हो जाऊं -यह है ही इतना चुम्बकीय .
प्रिय आम आदमी, मुझे समझ में नहीं आया कि आप मुद्दे को उठाने पर इतना भडक क्यों उठे! क्या बुद्धिजीवी के लिये ज़रूरी है कि वह पानी का एनजीओ बनाए? क्या बुद्धिजीवी भी एक साधारण पानीआकांक्षी की तरह यह शिकायत नहीं कर सकता कि जिस टैक्स के पैसे से उसे जीवनयापन की बुनियादी ज़रूरतें देने का वादा किया गया है वे पूरी नहीं हो रही हैं. क्या यह कहना अपनी ज़िम्मेदारी निभाना नहीं है कि सजावटी फ़व्वारों में बरबाद किया जानेवाला पीनेयोग्य पानी प्यासों तक नहीं पहुंच रहा है? जहाँ तक राजेंद्र सिंह का सवाल है, वे भी बंग्लादेशी ग़रीबों के बैंकर पुरस्कार विजेता यूनुस से कम नहीं हैं. पानी के संरक्षण में उनकी तथाकथित भूमिका की परीक्षाएँ होनी बाक़ी हैं ...फिलहाल मैं ज़्यादा कुछ कहकर आपकी भोली आस्थाओं को ठेस नहीं पहुँचाना चाहता.
tum kalam se mai jis cheez ki umeed karta hu, is baar bhi wahi padhnay ko mili. pata hai tumhara likha agar ek baar padhna koi suru kar de to khatam kar hi likhayga. phir se acha likha hai. acha laga.
तृतीय विश्व युद्ध पानी के लिए ही लड़ा जाएगा। वैसे, शायद जल्द ही बाहर खाने की सुविधा की तरह ही बाहर नहाने की सुविधा भी शायद मॉलों में उपलब्ध होने लगे।
Irfan ji yahan baat agar premi-premika ke komal bhavnaon ko ukerati char line ki kavita ya shero-shayari ki hoti to main bhi shabdon ki bazigari jaisa kuchh tippani karke chalta banta aur shayad nahin bhi karta lekin jab aisi buniyadi jarooraton par aadharit mudde uthate hain to mujhe usmein shabdon ki jadugari dikhane ke bajaya samasya ka hal dhoondhne ki bechaini jyada mahsoos hoti hai to dosh ismein mera hi hai....Vishwas ji ke shabdon mein kahoon to aap jivan ke us daur mein hain jab aap vishisht hain, saari suvidhayen sarva-sulabh hain, kabhi aam banke sochiyega to aap bhi bhadke bina nahin rah paiyega....aur sahi kahoon samasya ki jad yahi soch hai ki tax pay karke ham apni jimmedariyon ki itishree samajh kar uplabdha suvidhaon ka durupyog karne ka license haasil kar lete hain....yaad rakhiye aaj ye aamjan ki samasya kahlate hue Manisha ji tak pahunchi hai kal aap tak bhi pahunch sakti hai....agar aap kahte hain budhhijivi hone ke naate aap samasya ko utha kyon nahin sakte, Irfan bhai jaroor utha sakte hain, lekin phir is samasya ka kya jise aapne apang sarkar aur bhrasta NGOs ke bharose chhod rakha hai....aur jaroorat pade to NGOs bhi banaiye phir ismein galat hi kya hai....aur rahi baat Rajendra Singh ji aur Yunus ji ke baare mein to main aapse ittefaq nahin rakhta....kabhi Alwar aaiye aapko pata chalega ki kaise teen dashko se mari Ruparel nadi ko jivit kar diya gaya hai aur ilake mein logon ko sukhe ki samasya se rahat mili hai....aalochana karna kuchh kathin baat nahin hai Irfan bhai, koi bhi kar sakta hai....baat hai sahi chij ke liye pahal karne ki....aur sahi kahoon to ye samaya bahas ka nahin, aisi samasyayon ko door karne mein apni bhagidari sunischit karne ka hai....aasha hai ki aap meri kisi bhi baat ko anyatha na lete hue ek swastha vichar ki tarah lenge....aur jahan tak meri baat hai to itna kahunga....sukhiya sab sansar hai khave aru sove, dukhiya das kabir hai jage aru rove....aam aadmi
पानी की समस्या तो सभी जगह भयावह रूप ले रही है. मुझे याद आती है हमारे पूर्व राष्ट्रपति कलाम की बात जो उन्होंने अपने एक भाषण के दौरान कही थी- हमारे देश में पानी की कमी समस्या नहीं है समस्या है उसे सहेजने की और जल व जलस्रोतों के सही प्रबंधन की. पर ऐसे दूरदर्शी महापुरुषों की बातें अक्सर इतिहास के कूड़ों में ही फेंक दी जाती हैं.
यायावर भाई, आप जिस राजेंद्र यादव की बात कर रहें हैं उनकी पोल न खुलवाएं तो ही अच्छा है, मैग्सेसे की राजनीति को मैने बड़े करीब से देखा है खासतौर पर जब राजेंद्र जी का नाम इस अवार्ड के लिए आया था, और मनीषा जी लिखना जारी रखें, इस देश में ऐसे लोग भी हैं जो कि भूख से मरने वाले लोगों के लिए कहते हैं कि रोटी नहीं मिली तो क्या हुआ ब्रेड तो खा सकते थे,
श्री आम आदमी,
आपको अपनी तुलना कबीर से करते हुए थोडा संकोच तो ज़रूर हुआ होगा. लगता है आपकी प्रेरणाएँ युग निर्माण योजना की पंचलाइन "हम सुधरेंगे, जग सुधरेगा" से आती हैं. इस स्थिति में अभी आपको थोडी टक्करें और खाने की ज़रूरत है. अलवर प्रयोग पर मेरी अपनी समझ है जो राजेंद्र सिंह को असाधारण कार्य का प्रणेता नहीं बताती. यूनुस को भी नई प्रस्थापनाएँ बडे बैंकों का पिष्ठपेषक बताती हैं.
Irfan bhai, agar aap is panchline se prerit hain ki "ham nahin sudharenge, phir bhi jag sudharega" to filhaal kam-se-kam aapse mujhe kuchh kahne-sunane ki jaroorat nahin hai....aur haan ek baat jaroor kahana chahunga ki agar ham, Rajendra Singh ji aur Yunus ji ne kya kiya hai aur unko mile awards ke pichhe ki kya politics hai, is par bahas karne ke bajaye aisi samasyayon ko hal karne ke liye hamane kya kiya hai aur kya karna chahiye ye sochen to shayad is bahas ko sahi disha milegi....Irfan bhai, kisi bhi galati ke liye aapse maafi chahunga....Manisha ji aapko aisi buniyadi jarooraton se jude mudde uthane ke liye saadhuvaad aur aasha hai ki bhavishya mein bhi aap aise mudde lati rahengin aur meri tippani post karne ka bhi bahut-bahut shukriya....aam aadmi
भाई आम आदमी,
मेरा ख़याल है कि आप उसी पंचलाइन के आदमी हैं जिससे आपने इनकार नहीं किया है.व्यक्ति के सुधरने या कहें कि न सुधरने से ही समस्याएं पैदा होती हैं आप यह मानते हैं. अब मुझे यह बताइये कि क्या उदाहरण के लिये दिल्ली से जो प्रदूषण कम हुआ है और रिहायशी कालोनियों से फैक्ट्रियों और कारोबार का जो हटना हुआ है वो व्यक्ति के सुधरने से हुआ है या इसमें तंत्र का जादू है? यानी तंत्र चाहे तो मंत्र कर सकता है, सहमत? इसी तरह जिस गंगा की सफाई पर सैकडों-हज़ारों करोड रुपये बरबाद किये जाते हैं और फिर भी वह साफ नहीं हो पाती तो क्या वह इसलिये कि आम आदमी(आपको छोडकर)गंगा में टट्टी करता है और कूडा फेंकता है? अब आप इस पर कुछ विचार व्यक्त कीजिये तो मैं गंगा सफ़ाई का एक वैकल्पिक मंत्र आपको बताता हूँ.
हालांकि बहस को इरफान भाई और यायावर जी ने नितांत व्यक्तिगत और अलग सा मोड़ दे दिया है फ़िर भी मनीषा जी मैं आप की पोस्ट पर आता हूँ. इंदौर थोड़ा बहुत मैंने भी घूमा है, वहाँ ट्राफिक है पर ट्राफिक पुलिस नही है, सड़कें हैं लेकिन रस्ते नही हैं... मकान हैं मगर घर नही हैं. आप को भी इतना बड़ा सोचने के लिए एक बाल्टी पानी का मोहताज होना पड़ता है, तब बताइये हमें पानी का शुक्रगुजार होना चाहिए की नही. आप बताइये की पानी की समस्या न होती तो आप इन चीजों पर इतनी गहन वैचारिकता से अपने विचार रखतीं, शायद नही. पानी की समस्या इंदौर की बड़ी समस्या है लेकिन इकलौती नही ज़रा आस पास नजर तो मारिए. और बिना नाम लिए कहूंगा की बातचीत में राजेंद्र सिंह से चलते चलते राजेंद्र यादव कहाँ से आ गए? उनसे लोगों की अपनी असहमतियां हो सकती हैं लेकिन उन्हें चालू टिप्पणियों से न निबटाया जाए? उनके कृतित्व से कोई समझदार आदमी इनकार नही कर सकता.
संदीप जी शुक्रिया गलती की ओर ध्यान दिलाने के लिए, मैने राजेंद्र सिंह को राजेंद्र यादव बना दिया, खैर एक बार फिर से आपका मैं अभारी हूं
आशीष
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