आज पुराने कमरों की सफाई करते हुए हरी जिल्द वाली एक डायरी सुधा के हाथ लगी। 23 साल पुरानी कविताएं थीं, सुंदर-गोल अक्षरों में लिखी हुई। सूती साड़ी को सिर में लपेटे धूल अंटे कमरे में वहीं लोहे के एक ट्रंक पर बैठकर सुधा कविताएं पढ़ने लगी। ये उसी की लिखी हुई हैं, हां, अक्षर तो उसी के हैं। कुछ प्रेम कविताएं थीं, सुकुमार के लिए लिखी गई। सुकुमार, सुधा के पति, जो एक प्रसिद्ध लेखक और कवि थे।
आज कोई नहीं जानता, सुधा कविताएं लिखती थी और बहुत सुंदर कविताएं। खुद सुधा भी यह भूल चुकी थी, अचानक ये डायरी हाथ न लगी होती तो......
पहले-पहल सुकुमार सुधा की कविता पर ही मोहित हुए थे। फिर विवाह के बाद एक मित्र के घर में आयोजित कविता पाठ में दोनों ने कविताएं पढ़ी। सुधा की कविताओं में सुकुमार से कहीं ज्यादा गहराई और परिपक्वता थी। वहां मौजूद एक बूढ़े कवि की आंखें भर आईं, मित्र प्रशंसा में बिछ गए। सुकुमार अलग-थलग।
सुधा उड़ी जा रही थी। उसे उम्मीद थी कि उसकी इस खुशी में, उपलब्धि में सुकुमार उसके साथ थे। रात में सुकुमार चश्मा लगाकर बिस्तर पर लेटे-लेटे एक किताब पढ़ रहे थे। सुधा सुकुमार पर झुकी और मारे लाड़ के चश्मा खींचकर उनके चेहरे को अपने लंबे-खुले बालों से ढंक दिया। सुकुमार खीझ उठे। खींचतान में कुछ बाल नुचे। शादी के बाद वो पहली ऐसी रात थी।
फिर जब भी कविता उन दोनों के बीच आई, सुकुमार कहते, कथ्य ठीक है तुम्हारी कविताओं का, लेकिन शिल्प नहीं। परिपक्व नहीं है। क्यूं सिर खपा रही हो। फिर जब भी सुकुमार के दोस्त सुधा से कविताओं की फरमाइश करते, रात को सुकुमार करवट बदलकर, दूसरी ओर मुंह करके सोते और सुधा पूरी रात जागती रहती।
फिर एक दिन उसने कविताओं की डायरी, कागज सब जला दिए और उस दिन के बाद से न कभी कविता लिखी, न पढ़ी। उस दिन के बाद से उसकी वह तेज, बेलगाम खिलखिलाहट भी कभी नहीं दिखी, न कभी उसने अपने बालों से सुकुमार का चेहरा ही ढंका। सुकुमार ने भी उन डायरियों के बारे में कभी नहीं पूछा।
ये हरी जिल्द वाली डायरी जाने कैसे बची रह गई थी। कूड़ा-कबाड़ अलग करते हुए उस डायरी को पोंछकर सुधा ने किनारे रख दिया। सुकुमार के वापस लौटने से पहले पूरा दिन कविताएं पढ़ती रही और लौट-लौटकर उस दुनिया में जाती रही, जब वो युवा और खूबसूरत थी, ढेरों सपनों और उमंगों से भरी थी।
रात हो रही थी, सुकुमार के आने का वक्त हो चला था। दरवाजे की घंटी बजी। डायरी को कबाड़ के ढेर में फेंककर सुधा ने दरवाजा खोला। सुकुमार आज बड़े प्रसन्न थे। उनकी नया कविता-संग्रह छपकर आया था। सुकुमार सुधा की कमर में हाथ डाले किताब का कवर दिखा रहे थे। हरी जिल्द वाली डायरी मन की किन्हीं गहरी पर्तों में दफन हो चुकी थी।
आज कोई नहीं जानता, सुधा कविताएं लिखती थी और बहुत सुंदर कविताएं। खुद सुधा भी यह भूल चुकी थी, अचानक ये डायरी हाथ न लगी होती तो......
पहले-पहल सुकुमार सुधा की कविता पर ही मोहित हुए थे। फिर विवाह के बाद एक मित्र के घर में आयोजित कविता पाठ में दोनों ने कविताएं पढ़ी। सुधा की कविताओं में सुकुमार से कहीं ज्यादा गहराई और परिपक्वता थी। वहां मौजूद एक बूढ़े कवि की आंखें भर आईं, मित्र प्रशंसा में बिछ गए। सुकुमार अलग-थलग।
सुधा उड़ी जा रही थी। उसे उम्मीद थी कि उसकी इस खुशी में, उपलब्धि में सुकुमार उसके साथ थे। रात में सुकुमार चश्मा लगाकर बिस्तर पर लेटे-लेटे एक किताब पढ़ रहे थे। सुधा सुकुमार पर झुकी और मारे लाड़ के चश्मा खींचकर उनके चेहरे को अपने लंबे-खुले बालों से ढंक दिया। सुकुमार खीझ उठे। खींचतान में कुछ बाल नुचे। शादी के बाद वो पहली ऐसी रात थी।
फिर जब भी कविता उन दोनों के बीच आई, सुकुमार कहते, कथ्य ठीक है तुम्हारी कविताओं का, लेकिन शिल्प नहीं। परिपक्व नहीं है। क्यूं सिर खपा रही हो। फिर जब भी सुकुमार के दोस्त सुधा से कविताओं की फरमाइश करते, रात को सुकुमार करवट बदलकर, दूसरी ओर मुंह करके सोते और सुधा पूरी रात जागती रहती।
फिर एक दिन उसने कविताओं की डायरी, कागज सब जला दिए और उस दिन के बाद से न कभी कविता लिखी, न पढ़ी। उस दिन के बाद से उसकी वह तेज, बेलगाम खिलखिलाहट भी कभी नहीं दिखी, न कभी उसने अपने बालों से सुकुमार का चेहरा ही ढंका। सुकुमार ने भी उन डायरियों के बारे में कभी नहीं पूछा।
ये हरी जिल्द वाली डायरी जाने कैसे बची रह गई थी। कूड़ा-कबाड़ अलग करते हुए उस डायरी को पोंछकर सुधा ने किनारे रख दिया। सुकुमार के वापस लौटने से पहले पूरा दिन कविताएं पढ़ती रही और लौट-लौटकर उस दुनिया में जाती रही, जब वो युवा और खूबसूरत थी, ढेरों सपनों और उमंगों से भरी थी।
रात हो रही थी, सुकुमार के आने का वक्त हो चला था। दरवाजे की घंटी बजी। डायरी को कबाड़ के ढेर में फेंककर सुधा ने दरवाजा खोला। सुकुमार आज बड़े प्रसन्न थे। उनकी नया कविता-संग्रह छपकर आया था। सुकुमार सुधा की कमर में हाथ डाले किताब का कवर दिखा रहे थे। हरी जिल्द वाली डायरी मन की किन्हीं गहरी पर्तों में दफन हो चुकी थी।
16 comments:
शुरु हुई तो अनायास ही अमिताभ और जया की अभिमान याद आ गई...एक वजह यह भी है कि आपके शब्दों ने भावों को खूबसूरती से चित्रांकित किया है।
पुरुष स्त्री से पीछे कैसे रह सकता है?
घुघूती बासूती
डायरी पढ़ना अच्छा रहा।
यह लगती तो कहानी है पर है यह एक सच्चाई ..और ऎसा होता है ..मैं पुरुष हूँ शायद मैं भी ऎसा ही करता हूँ...
यह तो सत्य है | पर इसमें कुछ नयापन नहीं है | पुरूष का अहम् हमेशा से उसका निहित गुण हो ऐसा जरूरी नहीं है |
बेजी जी,
मैंने अभिमान फिल्म के बारे में सुना जरूर है, लेकिन हिंदी फिल्मों की बहुत सीमित दुनिया से वाकिफ होने के कारण देखा नहीं है। अभिमान मेरी मां की पसंदीदा फिल्म थी और वो अक्सर उसके गाने गाती थीं। अब आपने जिक्र किया, तो जरूर देखूंगी, कही से भी जुटाकर।
मुकुल जी
पुरुष के निहित गुण से आपका क्या तात्पर्य है। बायलॉजिकल (जैविक) गुण या सोशलाइजेशन की एक प्रक्रिया में परिवार और समाज द्वारा अर्जित किए गए गुण।
दरअसल दोनों | हालांकि मुझे याद नहीं की MATT Ridley ( http://www.amazon.com/Genome-Matt-Ridley/dp/0060932902) ने अपनी किताब Genome में ऐसी कुछ चर्चा की है | फिर भी अगर माना जाए की ऐसे गुण पुरूष में Naturally विद्यमान रहते हैं, तो भी यह प्रतित होता है की समाज उसे निम्न स्तर तक भी तुष्ट नहीं करता है| पुरूष का अतुष्ट अभिमान उसे यह कहता है कि वह स्थिति का स्वामी बने | माफ़ कीजिये मैं "Software world" का एक कीड़ा हूँ, विशलेषण के कई और आयाम होंगे |
मुकुल जी, इस विषय में मेरा अध्ययन भी ऐसा नहीं है कि मैं बहुत आत्मविश्वास के साथ कोई प्रस्थापना दे सकूं। सिमोन द बोवुआर की 'द सेकेंड सेक्स' छोड़कर मैंने इस बारे में और कोई किताब नहीं पढी। लेकिन जहां तक मुझे लगता है, पुरुष और स्त्री की जैविक संरचना में भिन्नता होने के कारण जरूर उनमें काफी फर्क होता है, लेकिन जहां तक पुरुष के अहम या खुद को सर्वश्रेष्ठ और स्त्री को खुद से कमतर समझने का सवाल है, यह जैविक से ज्यादा सामाजिक गुण है, जो हर पुरष बचपन से लेकर बड़े होने तक अपने सोशलाइजेशन की पूरी प्रक्रिया में हासिल करता है, अर्जित करता है। ढेरों आर्थिक और सामाजिक कारण इसमें अपनी भूमिका निभा रहे होते हैं। यह एक लंबी, बड़ी डिबेट है, चार लाइनों में क्या कहा जा सकता है भला।
सुकुमार सिर्फ़ सुधा की कविताओं पर ऐसा हो जाता है, वरना किसी और कवियित्री की कविता पर भी उतना ही "वाह वाह" करता है, जितना उसके दोस्त सुधा की कविता पर करते हैं और वंस मोर की फ़रमाइशें करते हैं। क्योंकि यह बात सही भी तो हो सकती है : "कथ्य ठीक है तुम्हारी कविताओं का, लेकिन शिल्प नहीं। परिपक्व नहीं है।"
आपकी कहानी बड़ी जबरदस्त और असरदार है।
मनीषा जी, लिखिये, और कितना इंतजार करना परेगा !
कबाड़ी का सलाम, मनीषा! बनी रहो!!
naye saal kee nayee diary kab parhane ko milegee.
पहली बार आप का ब्लॉग विजिट किया बड़ा अच्छा लगा।
न्व्यवेश नवराही
ultimate ...superb .....ek sach kah dala aapne
यह अपरिपक्व मन के पुरुष की स्वाभाविक इर्ष्या है, इसे दूसरी कोई सकारात्मक दिशा देनी होगी. यह दिशा उसे स्वयं विश्लेषण से खोजनी होगी, स्त्री इसमे रचनात्मक स्नेहिल सहयोग दे सकती है.....................बड़ी ही सुन्दर शैली.....
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