ये लड़कियां अमरीकी चुनाव में बुश की विजय, बिहार से लालू के रफा-दफा होने या ग्लोबलाइजेशन की समस्याओं से व्यथित नहीं होती थीं। पेप्सी में पेस्टीसाइड मिले चाहे गोबर, उनकी बला से। नस्लवाद, सांप्रदायिकता, आतंकवाद या ग्लोबल वार्मिंग उन लड़कियों की चिंता के सवाल नहीं थे। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले या गोधरा कांड के बारे में थोड़ी-बहुत बातें जरूर कर ली जाती थीं, लेकिन फिर लड़कियां अपनी मूल चिंताओं पर लौट आतीं और इस बात पर मगन होने लगतीं कि अब ग्लोबस से शॉपिंग करने के लिए बांद्रा नहीं जाना पड़ेगा, क्योंकि यहीं काला-घोड़ा में ग्लोबस का नया स्टोर खुल गया है।
न हाउसिंग लोन की चिंता थी, और न करियर के ही बड़े पचड़े थे। एक चीज मुझे आश्चर्यजनक रूप से याद है कि कोई भी लड़की बहुत ज्यादा करियरिस्ट टाइप की भी नहीं थी। हो सकता है, मैनेजमेंट या साइंस इंस्टीट्यूट्स की या कुछ प्रोफेशनल कोर्स करने वाली लड़कियां ऐसी होती भी हों, लेकिन फिलहाल एस.एन.डी.टी. यूनीवर्सिटी की ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन की लड़कियों में वो फैकल्टी बिल्कुल नदारद थी। पिताओं के बैंक अकाउंट में भविष्य सुरक्षित था। बहुत तेजी से बदल रही दुनिया में उनकी सारी चिंताएँ वेस्टसाइड के कुर्तों और लिंकिंग रोड की चप्पलों तक ही सीमित थीं। प्रीती जिंटा और ऐश्वर्या राय के बाद बरखा दत्त उनकी आदर्श थीं। पढ़ने के नाम पर एम.कॉम की लड़कियां इकोनॉमिक टाइम्स पढ़ती थीं और फैशन डिजाइनिंग वाली फेमिना। फिल्म फेयर कॉमनली पढ़ी जाती थी।
ये बातें तब की हैं, जब मैं एम।ए. में पढ़ रही थी। हॉस्टल और यूनीवर्सिटी की फीस खासी थी। यहां पढ़ने वाली लड़कियां पंजाब, गुजरात, बंगाल और दक्षिण भारत के समृद्ध परिवारों से आती थीं। सब जींस पहनती और अँग्रेजी में बात करती थीं। किसी मामूली निम्न-मध्यवर्गीय व्यक्ति के लिए वहां अपनी लड़की को पढ़ाना और वहां के खर्चे उठाना संभव ही नहीं था। मैं अकेली थी, उन लोगों के बीच, जो सरकारी हिंदी मीडियम स्कूल से पढ़कर हिंदी लिटरेचर में एम.ए. करने इतनी दूर मुंबई आई थी और अपना खर्चा उठाने के लिए वॉर्डन और लड़कियों से छिपाकर ट्रांसलेशन का काम करती थी। जिसने जींस पहनना, अँग्रेजी बोलना, क्रिसमस पार्टी में हाथ-पैर फेंक-फेंककर डिस्को करना और कांटे से नूडल्स खाना वहां उन लोगों के बीच रहकर सीखा।
स्टूडेंट हॉस्टल की लड़कियों के बीच एक किस्म की सांस्कृतिक एकरूपता थी। सभी कमोबेश एक वर्ग विशेष से ताल्लुक रखती थीं और उस वर्ग की खासियतों से लबरेज थीं। उनका जीवन, दुख-सुख, चिंताएं और सवाल कमोबेश एक से थे। बाद के वर्किंग वीमेन हॉस्टल की लड़कियों की तरह उनमें गहरे वर्गीय, सांस्कृतिक और जीवनगत विभेद नहीं थे। इतनी गहरी खाई नहीं कि जिसे पाट सकना नामुमकिन होता।
9 comments:
अब कुछ तो ये उम्र का भी तकाजा हो सकता है जी. और मानव मन तो हमेशा से ही interesting के पीछे भागता है. तो इसमे उन लड़कियों का क्या दोष.
मनीषा सही कहती हो । ज़्यादातर लडकियों को मैने भी इन्ही बातों मे उलझे देखा-तब भी अब भी । कोई शिकायत नही हैक्योंकि ऐसे बेखबर लडके भी बहुत देखे हैं कॉलेज के । पर लडकियों के साथ ऐसा होना बाकि लडकियों के लिए जो चेतन हैं ,जागरूक हैं अपनी अस्मिता को लेकर ,खतरनाक वातावरण बनाता है ।
मैंने उन लड़कियों को बहुत करीब से देखा है जिनकी तस्वीर आपने अपने ब्लाग के मास्ट में लगाई है. कभी उनके जीवन पर भी आपकी कलम चले तो कुछ बोझ घटे.
सुजाता की बात से सहमत हूँ.. हो सकता है लड़कों के मुकाबले लड़कियों में ये बेखबरी ज़्यादा हो मगर धीरे-धीरे ये अन्तर घट रहा है..
आशुतोष जी, वो तस्वीर मैंने अपने ब्लॉग के मास्ट हेड में इसलिए लगाई, क्योंकि वो श्रम करती और कामों के बोझ से झुकी दो स्त्रियों का चित्र था। वह प्रतीकात्मक और प्रतिनिधि चित्र भी था, देश के विभिन्न हिस्सों में ऐसे ही श्रमरत, दबी हुई स्त्रियों का।
लेकिन आशुतोष जी, ईमानदारी की बात तो ये है कि मैं उ.प्र. के इलाहाबाद शहर से आती हूं और हिंदी प्रदेशों में अपर कास्ट घरों की औरतों की जिंदगी को मैंने करीब से देखा है। फिर मुंबई के हॉस्टलों में 6 साल नई ग्लोबलाइज्ड जेनरेशन को। आप जिस चीज के बारे में लिखने के लिए कह रहे हैं, उस दुनिया का मेरा कोई एक्सपोजर नहीं है। जो मैंने खुद करीब से देखा नहीं, उसके बारे में क्या और कैसे लिखूं। आपने देखा है, तो क्या अच्छा न होगा कि आप ही हमें वह दुनिया करीब से दिखाएं। मुझे खुद भी अच्छा लगेगा जानना।
hey manisha...i really miss those days....ofcourse i miss u also..love u..take care ....Fatima
Achha likha hai Manisha ji....lekin boriyat ki vajah nahi samajh aayi
तुम्हारे ये सभी पोस्ट उन्ही दिनों में पढ़े थे जब यह लिखा गया था.. आज फिर इधर से गुजर रहा था तो सोचा की एहसान जताते चलूँ की देखो इसे फिर से पढ़ रहा हूँ.. :P
व्ऐसे बीच में लंबा गैप जो तुमने मारा था और उसके बाद फिर जो लिखना शुरू किया तब उस समय के पोस्ट नहीं पढ़ पाया था.. :( अभी ही पढ़ रहा हूँ वह सब.. :)
बिंदास चित्रण
यहाँ तक आना हुआ यहाँ से
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