Sunday 28 March 2010

We all shit, we all pee but never talk about it - 2

बंबई में फिल्‍म रिपोर्टिंग करते हुए जब तक मैं खुद इस दिक्‍कत से नहीं गुजरी थी, मेरे जेहन में ये सवाल तक नहीं आया था। पब्लिक टॉयलेट यूज करने की कभी नौबत नहीं आई, इसलिए उस बारे में सोचा भी नहीं। लेकिन अब अपनी दोस्‍त लेडी डॉक्‍टर्स से लेकर अनजान लेडी डॉक्‍टर्स तक से मैं ये सवाल जरूर पूछती हूं कि औरतों के बाथरूम रोकने, दबाने या बाथरूम जाने की फजीहत से बचने के लिए पानी न पीने के क्‍या-क्‍या नतीजे हो सकते हैं? कौन-कौन सी बीमारियां उनके शरीर में अपना घर बनाती हैं और आपके पास ऐसे कितने केसेज आते हैं। मेरे पास कोई ठीक-ठीक आंकड़ा नहीं है कि लेकिन सभी लेडी डॉक्‍टर्स ने यह स्‍वीकारा किया कि औरतों में बहुत सी बीमारियों की वजह यही होती है। उन्‍हें कई इंफेक्‍शन हो जाते हैं और काफी हेल्‍थ संबंधी कॉम्‍प्‍लीकेशंस। कई औरतें प्रेग्‍नेंसी के समय भी अपनी शर्म और पब्लिक टॉयलेट्स की अनुपलब्‍धता की सीमाओं से नहीं निकल पातीं और अपने साथ-साथ बच्‍चे का भी नुकसान करती हैं। यूं नहीं कि ये रेअरली होता है। बहुत ज्‍यादा और बहुत बड़े पैमाने पर होता है। खासकर जब से औरतें घरों से बाहर निकलने लगी हैं, नौ‍करियां करने लगी हैं और खास तौर से ऐसे काम, जिसमें एक एयरकंडीशंड दफ्तर की कुर्सी नहीं है बैठने के लिए। जिसमें दिन भर इधर-उधर भटकते फिरना है।

मुंबई में मेरे लिए ये सचमुच एक बड़ी समस्‍या थी। हमेशा आप किसी सेंसिटिव सी जान पड़ने वाली फीमेल सेलिब्रिटी के घर ही तो नहीं जाते। या कई बार किसी के भी घर नहीं जाना होता, फिर भी भटकना होता है। मैं तो ऐसी भटकू राम थी कि बिना काम के भी भटकती थी। तो ऐसे में मैंने एक तरीका और ईजाद किया था। बॉम्‍बे में वेस्‍टसाइड, ग्‍लोबस, फैब इंडिया और बॉम्‍बे स्‍टोर से लेकर शॉपर्स स्‍टॉप तक जितने भी बड़े स्‍टोर थे, उनका इस्‍तेमाल मैं पब्लिक टॉयलेट की तरह करती थी। जाने कितनी बार मैं इन स्‍टोरों में कुछ खरीदने नहीं, बल्कि इनका टॉयलेट इस्‍तेमाल करने के मकसद से घुसी हूं। काउंटर पर बैग जमा किया, दो-चार कपड़े, सामान इधर-उधर पलटककर देखा और चली गई उनके वॉशरुम में। इससे ज्‍यादा उन स्‍टोर्स की मेरे लिए कोई वखत नहीं थी।

बचपन में मैंने मां, मौसी, ताईजी और घर की औरतों को देखा था कि वो कहीं भी बाहर जाने से पहले बाथरूम जाती थीं और घर वापस आने के बाद भी सबसे पहले बाथरूम ही जाती थीं। गांव में, जहां हाजत के लिए खुले खेतों में जाना पड़ता है, वहां तो सचमुच औरतों के शरीर में (सिर्फ औरतों के) अलार्म फिट था। उन्‍हें सुबह उजाला होने से पहले और शाम को अंधेरा होने के बाद ही हाजत आती और कमाल की बात थी कि पड़ोस, पट्टेदारी की सारी औरतों को एक साथ आती थी। सब ग्रुप बनाकर साथ ही जाती थीं, मानो किसी समारोह में जा रही हों। मैं भाभी, दीदी टाइप महिलाओं से बक्‍क से पूछ भी लेती थी, आप लोगों को घड़ी देखकर टॉयलेट आती है क्‍या?’ कइयों ने कहा, हां और कइयों ने स्‍वीकारा कि दिन में जाने का जोर आए तो दबा देते हैं।

कितनी अजीब है ये दुनिया। टायलेट जाते भी औरतों को शर्म आती है, मानो कोई सीक्रेट पाप कर रही हों। जिस कमरे से होकर बाथरूम के लिए जाना पड़ता है, या जिस कमरे से अटैच बाथरूम है, उस कमरे में अगर जेठ जी, ससुर या कोई भी पुरुष बैठा है तो मेरी दीदियां, भाभियां, मामियां और घर की औरतें रसोई में चुपाई बैठी रहेंगी, लेकिन बाथरूम नहीं जाएंगी। बोलेंगी, नहीं, नहीं, वो जेठजी बैठे हैं। हर दो मिनट पर झांकती रहेंगी, दबाती रहेंगी, लेकिन जाएंगी नहीं। जेठजी तो गेट के बाहर गली खड़े होकर करने के लिए भी दो मिनट नहीं सोचते। बहुएं मरी जाती हैं।

जेठ-बहू को जाने दें तो पढ़ी-लिखी नौकरीपेशा लड़कियों के दिमाग भी कुछ खास रौशनख्‍याल नहीं हैं। इंदौर में वेबदुनिया में लेडीज टॉयलेट का रास्‍ता एक बड़े केबिन से होकर गुजरता था, जहां सब पुरुष काम कर रहे होते थे। वहां भी लड़कियां बाथरूम जाने में संकोच करती थीं। कहतीं,

सब बैठे रहते हैं वहां पर, सबको पता चल जाएगा कि हम कहां जा रहे हैं।

अरे तो चलने दो न पता, कौन सा तुम अभिसार पर जा रही हो।

अभिसार मतलब।

‘अभिसार मतलब रात में छिपकर अपने प्रेमी से मिलने जाना। अभिसार पर जाने वाली अभिसारिका।

तुम बिलकुल बेशर्म हो।

इसमें बेशर्म की क्‍या बात है। अभिसार में शरमाओ तो समझ में भी आता है। लेकिन बाथरूम जाने में कैसी शर्म। जो लोग वहां बैठे हैं, वो नहीं जाते क्‍या।

नहीं यार, अच्‍छा नहीं लगता।

ऐसे ही इस दुनिया को जाने क्‍या-क्‍या अच्‍छा नहीं लगता। आपकी बाकी चीजें तो अच्‍छी नहीं ही लगतीं, लेकिन अब आप पानी पीना, बाथरूम जाना भी छोड़ दीजिए। लोगों को अच्‍छा जो नहीं लगता।

ये इतनी स्‍वाभाविक जरूरत है, लेकिन इसके बारे में हम कभी बात नहीं करते। बच्‍चा पैदा होते साथ ही रोने और दूध पीने के बाद पहला काम यही करता है, लेकिन औरतों के बाथरूम जाने को लेकर समाज ऐसे पिलपिलाने लगता है मानो बेहया औरतें भरे चौराहे आदमी को चूम लेने की बेशर्म जिद पर अड़ आई हों। नहीं, हम तो यहीं चूमेंगे, अभी इसी वक्‍त।

हम कोई अतिरिक्‍त सहूलियत की बात नहीं कर रहे हैं। ऐसा नहीं कि बहुत मानवीय, उदात्‍त, गरिमामय समाज की डिमांड की जा रही है। प्‍लीज, प्‍यार कर सकने लायक खुलापन दीजिए समाज में, इतना कि अपने दीवाने को हम चूम सकें। रात में समंदर किनारे बैठकर बीयर पीना चाहें तो पीने दीजिए। हल्‍द्वानी-नैनीताल की बीच वाली पहाड़ी पर रात में बैठकर सितारों को देखने दीजिए। नदी में तैरने दीजिए, आसमान में उड़ने दीजिए। राहुल सांकृत्‍यायन की तरह पीठ पर एक झोला टांगे बस, Truck, टैंपो, ऑटो, बैलगाड़ी, ठेला जो भी मिले, उस पर सवार होकर दुनिया की सैर करने दीजिए। अपनी बाइक पर हमें मनाली से लेह जाने दीजिए और बीच में अपनी नाक मत घुसाइए, प्‍लीज। प्‍यार की खुली छूट दीजिए या फ्री सेक्‍स कर दीजिए।

ऐसा तो कुछ नहीं मांग रहे हैं ना। बस इतना ही तो कह रहे हैं कि बाथरूम करने दीजिए। घूरिए मत, ऐसी दुनिया मत बनाइए कि बाथरूम जाने में भी हम शर्म से गड़ जाएं। इतने पब्लिक टॉयलेट तो हों कि सेल्‍स गर्ल, एलआईसी एजेंट या हार्डकोर रिपोर्टर बनने वाली लड़कियों को यूरीनरी इंफेक्‍शन होगा ही होगा, ये बहार आने पर फूल खिलने की तरह तय हो।

प्‍लीज, ये बहुत नैचुरल, ह्यूमन नीड है। इसे अपने सड़े हुए बंद दिमागों और कुंठाओं की छिपकलियों से बचाइए। सब रेंग रही हैं और हम अस्‍पतालों के चक्‍कर लगा रहे हैं।

समाप्‍त।

पहली कड़ी - We all shit, we all pee but we never talk about it - 1

43 comments:

Puja Upadhyay said...

दोनों कड़ियाँ पढ़ी अभी. कुछ दिन पहले मैं भी ऐसा ही कुछ सोच रही थी.
हम घर में चार लोग मम्मी पापा मैं और भाई हर चार साल पर एक महीने के लिए घूमने निकलते थे. उस एक महीने में जितनी ट्रेन से जाना हो दिक्कत नहीं होती थी, पर बस से जाना हो तो पूछो मत. टेंशन के मारे हालत खराब रहती थी.
और पूरे हिंदुस्तान का यही अनुभव है कि कहीं भी ढंग के पब्लिक बाथरूम नहीं हैं.
हालाँकि इस मामले में दिल्ली बाकी शहरों से कई गुना बेहतर है. वहां अधिकतर पेड बाथरूम हैं और सफाई का भी ख्याल रखा गया है.

यहाँ बंगलोर में तो बहुत ही बुरा हाल है, मुंबई में भी ऐसी ही परेशानी थी.
एक बहुत जरूरी मुद्दे को उठाया है...ये परेशानी हम लड़कियों को ही होती है...पता नहीं इसका कोई हल हो भी सकता है कि नहीं.

VICHAAR SHOONYA said...

इस भाग दो को पढ़ कर लगा , भाग लो बेटा पता नहीं नया topic क्या होगा। वैसे मैं आपके विचारों से पूरी तरह से सहमत हूँ। मैंने एक और बात भी notice की है की महिलाएं अपने कुछ कपडे भी खुले में सुखाना पसंद नहीं करतीं। यही वो सब बातें हैं जहा समानता की बात होनी चाहिए। मेरी नज़र में go topless day मानाने वाली स्त्रियाँ आधुनिक नहीं है बल्कि आपके जैसी आधुनिक सोच रखने वाली स्त्रियाँ ही सही मायने में आधुनिक व प्रगतिशील महिलाएं हैं। अपने जो मुद्दा उठे वह बिलकुल अछुता व अनूठा था इसके लिए बधाई

Anita kumar said...

बड़िया प्रस्तुति…॥वो शर्माने वाली लड़कियां तुम्हें दुआएं देंगी

شہروز said...

इस मुद्दे को लेकर मैं भी चिंतित रहा हूँ कि महिलाओं के लिए आखिर क्यों नहीं प्रशासन शौचालयों का इन्तिज़ाम करता है.
बेहद धारधार ढंग से आपने अपनी बात रखी है.निसंदेह यह सवाल मौजूं है न जाने कब से.


रचना-संसार पर मेरी कविता 'ज़रुरत है मानसिकता बदलने की' ज़रूर पढ़ें,

شہروز said...

कई पोस्ट पढ़ गया.यूँ ब्लॉग की दुनिया में लिखने वाले तो फ़ौज की शक्ल में रोज़ शामिल हो रहे हैं लेकिन सार्थक लेखन करने वाले आप जैसे चंद ही हैं.मैंने अपने एक ब्लॉग हमज़बान में ऐसे ब्लॉग का लिंक देना शुरू किया है.
आप का भी दे रहा हूँ.

दुआ है, ज़ोर क़लम और ज़्यादा!

Astrologer Sidharth said...

सार्थक चिंतन...

M VERMA said...

प्‍लीज, ये बहुत नैचुरल, ह्यूमन नीड है।'
पर इसे भी नेचुरल कब रहने दिया गया है.
बहुत संतुलित आलेख

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

ओबवियसली ये अधिकार मिलना चाहिये.. कम से कम इस लेख को हिन्दी अखबारो को जन मानस तक पहुचाना चाहिये जिनसे ये आँखें गंडाने वालो को आभास तो हो कि वो कितना बडा अपराध कर रहे है..

मेरी एक colleague जो एक सरकारी प्रोजेक्ट के लिये क्लाईन्ट साईट पर काम करती थी, मैने उससे कई बार सुना था कि उस सरकारी आफ़िस के वाशरूम भी इतने खराब होते थे कि उसको सामने ही बने मैकडोनाल्ड्स की शरण लेनी पडती थी...

अजित गुप्ता का कोना said...

हमारे शास्‍त्रों में लिखा है कि मल-मूत्रादि वेगों को मत रोको। लेकिन हमारे समाज का एक माइण्‍ड सेट हो गया है इन सबके लिए। कई बार तो ऐसा भी होता है कि हम अपने कमरे में है घर या ऑफिस दोनों ही जगह, कुछ लोग बैठे हैं, हम उनके सामने टॉयलेट नहीं जाते। लेकिन धीरे-धीरे लोगों के मन से शर्म का परदा हटने लगेगा और इस मानसिकता से मुक्ति भी पाएंगे। यह सभी के साथ होता है, हमारे साथ भी। बस आवश्‍यकता है अपनी सोच में बदलाव लाने की।

अन्तर सोहिल said...

गला सूख रहा होता है, मगर पानी भी नही पीती ये शर्मदार औरतें
कैसी मानसिकता बना दी है हमने समाज की

प्रणाम

विजयप्रकाश said...

आपने महिलाओं की समस्या पर ध्यानाकर्षण तो किया ही है साथ ही हल भी बताये हैं. हर महिला की सोच आप जैसी बने (कम से कम प्राकृतिक आवश्यकताओं के बारे में) यही कामना है.

mukti said...

मुझे याद है, जब मैं इलाहाबाद पढ़ने आयी थी, तो हॉस्टल न मिलने के कारण एक रिश्तेदार के यहाँ रुकना हुआ. वहाँ मैं अक्सर कहकर जाती थी कि मैं बाथरूम जा रही हूँ, तो दीदी को बहुत बुरा लगता था. एक दिन मुझे उनके भांजे ने ये बात बताई कि "आप ऐसे मत कहा कीजिये"---हद है, बाथरूम जाने में कौन सा अपराध है? मेरी समझ में नहीं आया. फिर तो कुछ भी कहने के पहले दस बार सोचना पड़ता कि कहीं कुछ गलत तो नहीं कह दिया. गाँव की समस्या तो खैर जानती ही थी. पर शहर में भी लोग इस मानसिकता के होते हैं, बाद में पता चला.
बहुत सही माँग रखी है तुमने--हमें बाथरूम जाने का अधिकार चाहिये--बताइये कैसा समाज है हमारा, जहाँ इसकी भी माँग करनी पड़ रही है?

pallavi trivedi said...

जानती हो मनीषा...जब भी मैं कहीं नयी पोस्टिंग पर जाती हूँ तो मेरा पहला काम होता है मेरे औफ़िस से अटैच टॉयलेट बनवाना! लेकिन फिर भी इतनी समस्या है कि बाप रे.....कई बार ठाणे में लम्बे समय तक बैठो तो मुसीबत...किसी वी आई पी ड्यूटी में जाओ तो मुसीबत...अब या तो पानी मत पियो या खुद को दबाये रखो! शुरू शुरू में यही किया पर अब शर्माती नहीं...बिंदास जगह ढूढकर चली जाती हूँ!

डॉ .अनुराग said...

सही बात है वैसे एक ओर सच बतायूं...कॉलेज में पढ़ते वक़्त हमारे प्रोफ़ेसर बताते थे ...... कुछ पढ़ी लिखी महिलाओ में...टी बी के फैलने के एक कारण में से एक है .थूक न फेकना...शायद इसे सभ्य नहीं माना जाता .वे बलगम निगल जाती है .....

सुशीला पुरी said...

मै छुपाना जानती तो जग मुझे साधु समझता ,
शत्रु मेरा बन गया है छल रहित व्यवहार मेरा .

March 29, 2010 3:21 PM

ghughutibasuti said...

मनीषा, जानती हो आज तुम्हारे ब्लॉग पर कैसे पहुँची? एक ब्लॉगर को पिछले शनिवार को मुम्बई में अकेले की गई तफरी के बारे में बता रही थी और कह रही थी कि मैं यह बार बार करना चाहती हूँ। सप्ताह में कम से कम एक बार। बस यह प्रसाधन वाली समस्या हल हो जाए। मैरीन लाइन्स, नारीमन पॉइन्ट, चौपाटी, फोर्ट व आसपास के इलाके में यह सुविधा कहाँ मिलेगी बस यह पता चल जाए। सोचती हूँ कि किसी लाइब्रेरी की सदस्य बन जाऊँ, वातानुकूलित है या नहीं, कोई बात नहीं, बस साफ पखाने हों। मैंने कहा था कि अपने ब्लॉग पर लोगों से साफ सुथरे लू के पते माँगती हूँ।
तो उन्होंने बताया कि मनीषा ने इसी विषय पर लिखा है।
जिस देश में घर से बाहर निकलने से एक रात पहले से ही पानी पीना बन्द कर दिया जाए और सुबह एक गोली लोमोटिल की खाकर निकलना पड़े उस देश में मुलायम व लालू भाइयों को लगता है कि पँखकटियों को कुछ अधिक ही सुविधाएँ मिल रही हैं।
मैं तो कहती हूँ कि ये ३० प्रतिशत यदि मिल भी जाए तो क्या है?
जिस देश में स्त्रियों को प्रकृति के प्रतिकूल हर समय बस स्वयं पर नियन्त्रण रखना ही सिखाया जाए और बड़ी माँगें नहीं केवल और केवल निपटने की सुविधा से भी वंचित रखा जाए तो उस देश व समाज से स्त्री क्या आशा रख सकती है?
घुघूती बासूती

संध्या आर्य said...

बिल्कुल सही कहा...........यह समस्या किसी एक जगह का नही है बल्कि पूरे हिंदूस्तान का है................बढिया!

मनीषा पांडे said...

@ Ghughuti Basuti ji - इस मामले में मैं आपकी कुछ मदद कर सकती हूं। चर्चगेट में एसएनडीटी यूनिवर्सिटी है, जो संडे छोड़ बाकी दिन खुली रहती है। वहां जाया जा सकता है। इसके अलावा अमेरिकन सेंटल लाइब्रेरी और फ्रेंच कल्‍चरल सेंटर भी यूनिवर्सिटी की ही लाइन में हैं। आप अमेरिकन लाइब्रेरी के जनरल सेक्‍शन में विजिट करने की बात कहकर भीतर जा सकती हैं। फ्रेंच कल्‍चरल सेंटर में फोर्थ फ्लोर पर जनरल लाइब्रेरी है, जहां कोई भी जाकर बैठ, सुस्‍ता और अखबार-मैगजीन वगैरह पढ़ सकता है। मेंबरशिप की भी जरूरत नहीं है। नरीमन पॉइंट में टाटा थिएटर और चव्‍हाण सेंटर है। आराम से जा सकती हैं। कोई रोकेगा नहीं। हां, वहीं पर ब्रिटिश सेंटल लाइब्रेरी भी है। काला घोड़ा में जहांगीर आर्ट गैलरी, मैक्‍समूलर भवन, नगमा और प्रिंस वेल्‍स म्‍यूजियम में भी आप आराम से लू यूज करने के बहाने जा सकती हैं। कोलाबा में मेरी याद से इकलौता सहारा ताज होटल है। ताज के अंदर ज्‍वेलरी, कपड़ों और किताबों के शोरुम हैं। आप तो पूरे कॉन्फिडेंस से यह कहकर घुस जाइए कि आपको तनिश्‍क का शोरुम देखना है। मरीन Drive पर ओबेरॉय शेरटन में भी घुस जाइए, No Problem। गिरगांव चौपाटी के सामने विल्‍सन कॉलेज है। आप अंदर जाना चाहेंगी तो कोई रोकेगा नहीं और वहीं पर उसके ठीक पीछे भारतीय विद्या भवन है। वहां भी जनरल लाइब्रेरी है। लाइब्रेरी देखने के बहाने घुस जाइए। इसके अलावा काला घोड़ा में ग्‍लोबस, फैब इंडिया, वेस्‍ट साइड और वीटी में बॉम्‍बे स्‍टोर का मेरी तरह सदुपयोग करिए। वीटी में ही रिजर्व बैंक के पास एशियाटिक लाइब्रेरी है, वहां चली जाइए। In fact साउथ बॉम्‍बे में दिन भर भटकना इतना मुश्किल नहीं है, लेकिन जुहू या चौपाटी की तरफ जाएंगी तो वहां का मुझे बहुत आइडिया नहीं। वैसे वहां भी पृथ्‍वी थिएटर, सेंटॉर होटल और जेडल्‍ब्‍यू मैरिऑट है। बस पूरे कॉन्फिडेंस से घुस जाइए, मानो आप वहां रोज आती-जाती रहती हैं। वैसे भी अपनी तरह जीने के लिए सबको ठेंगे पर रखना ही पड़ता है। सबकी ऐसी की तैसी। आप तो बस घुस लो। देखिए, कितना सारा गाइड कर दिया।

Yashwant Mehta "Yash" said...

आपकी पिछली पोस्ट पढ़ी पर कमेन्ट नहीं किया. इस पोस्ट का इंतजार कर रहा था. सबसे पहले तो इस मुद्दे पर लिखने के लिए आपको शाबासी.

पहली बात तो कार्यरत महिलाओ के लिए जो कार्यस्थल पर शौचालय का प्रयोग करने से पहले यह सोचने लग जाती हैं कि लोग क्या कहेंगे. उनको ये समझना होगा कि यह एक बहुत ही बेसिक जरुरत हैं और दुसरो के चिंतन की फ़िक्र छोड़ के अपने शरीर की फ़िक्र करें. अगर महिला इस मामले में बोल्ड नहीं बनेगी तो उसकी सहायता कोई नहीं करेगा.

अगर आपके ऑफिस में महिलाओं का शौचालय नहीं हैं अथवा उसकी हालत ख़राब हैं तो महिला शौचालय निर्माण के लिए अधिकारियो को कहें. अपने बेसिक अधिकार के लिए हर स्तर पर संघर्ष करे. कुछ वर्ष पहले मेरे को एक रोमांचक किस्सा सुनने को मिला था. एक ऑफिस में महिला शौचालय की हालत बदतर थी, शिकायत करने के बावजूद हालत में सुधर न हुआ. हारकर महिला कर्मचारियों ने एक आन्दोलन शुरू किया. जब भी किसी महिला कर्मचारी को शौचालय जाना होता तो वो अपने साथ दूसरी महिला कर्मचारी को लेकर जाती और पुरुष शौचालय का उपयोग करती, तब तक दूसरी महिला बाहर खड़े होकर पहरा देती और किसी भी पुरुष को अन्दर न जाने देती. आखिर में उनकी जीत हुई और महिला शौचालय की हालत को सुधारा गया.

लोगो को शौचालय का उपयोग करने के बाद उसकी सफाई पर ध्यान देना चाहिए. महिलाओ के शौचालयों की हालत तो पुरुष शौचालयों से भी बदतर होती हैं.शौचालय में पेड्स को फर्श पर ही छोड़ दिया जाता हैं ,पोट्स में मल पड़ा सड़ता रहता हैं . पुरुषो का तो किसी भी हालत में काम चल जाता हैं परन्तु महिला अगर गंदे शौचालयों का उपयोग करेगी तो उसके स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर होता हैं. आधुनिक महिला को शौचालय की सफाई के प्रति सचेत रहना चाहिए, ये न सिर्फ उसके लिए बल्कि उसके साथ की अन्य महिलाओ के हित में ही होगा. पुरुष भी कम नहीं हैं, शौचालयों में पान की पीके, इधर-उधर मूत्र विशर्जन, पोट्स में मल छोड़ जाना इन आदतों से उन्हें बाज आना चाहिए


घरेलु औरतो और गाँव की औरतो को इस बारे में जागरूक करने का काम समाज का हैं. आखिर बेसिक जरूरत का पूरा करने में किस बात की शर्म. भारत सरकार का स्वछता अभियान इस दिशा में अच्छा कार्य कर रहा हैं. घर में शौचालय की उपलब्धता गाँव की औरतो के लिए किसी वरदान से कम नहीं. मैं तो गाँव की औरतो से यही कहूँगा की ये आपकी बेसिक जरुरत हैं इसको शर्म के गहने में न गुथे, शरीर की जरुरत पर ध्यान दे. देशके विकास की डोर आपके स्वास्थ्य से जुडी हैं.

Yashwant Mehta "Yash" said...

घुघूती बासूती जी की बात ने सोचने पर मजबूर कर दिया. मैंने अपने आसपास नजर दौड़ा कर देखा तो पाया दिल्ली में ही महिला शौचालयों की इतनी कमी हैं तो और जगहों का क्या हाल होगा. संसद में तो ३३% प्रतिशत आरक्षण दे रही हैं सरकार, अगर कुल सार्वजानिक शौचालयों में से ३३% भी महिलाओं के लिए बना दे तो बहुत अच्छा रहेगा. हर महिला तो मॉल्स, होटल्स के वाशरूम नहीं उपयोंग कर सकती.

شہروز said...

आप बेहतर लिख रहे/रहीं हैं .आपकी हर पोस्ट यह निशानदेही करती है कि आप एक जागरूक और प्रतिबद्ध रचनाकार हैं जिसे रोज़ रोज़ क्षरित होती इंसानियत उद्वेलित कर देती है.वरना ब्लॉग-जगत में आज हर कहीं फ़ासीवाद परवरिश पाता दिखाई देता है.
हम साथी दिनों से ऐसे अग्रीग्रटर की तलाश में थे.जहां सिर्फ हमख्याल और हमज़बाँ लोग शामिल हों.तो आज यह मंच बन गया.इसका पता है http://hamzabaan.feedcluster.com/

Deepak Tiruwa said...

बात करने से बात बनती है/ रोज़ बातें किया करो हमसे //
.........इस मुद्दे पर बात करने के लिए साधुवाद..

raviprakash said...

Read the concluding part of the blog , indeed very impressive , but the only part which is not understandable is to link it with the woman reservation (which some commentators have done) its a natural need and mindsEt has to be changed . Probably first time I have realized that this problem is so critical . Mumbai apart from places already mentioned some well maintained 'SULAB SHOUCHALAY " are quite good. While woman are exhibiting their boldness in clothes , fashion , profession, attitude then why not in this activity BE BOLD ASK FOR A LOO.....

सतीश पंचम said...

ये हुई न बात। एकदम धांसू पोस्ट है। बेधडक।

गांवों में अक्सर देखता हूँ कि घर से थोडा हटकर बाहर की तरफ बाथरूम बना है और महिलाएं जब जाएंगी तो साथ में कोई बच्चे का कपडा लेकर जाएंगी मानो कि बच्चे ने कपडा गंदा कर दिया है उसे धोने जा रही हैं।

कपडे धोने का बहाना लेकर बाथरूम जाना भारत में ही संभव लगता है।

Anonymous said...

मैं शायद पहले भी आपके निर्भीक लेखन के लिए कह चुका हूँ, पुन: कहना चाहूँगा

शाबाश

वीरेन्द्र जैन said...

कैसी शैतानी है मनीषाजी कि मुम्बई में तुमने ज्यादातर कालेज विश्वविद्यालयों, पुस्तकालयों, आदि को किस लायक समझा, वैसे गलत भी नहीं है पर कह सकने की ताकत हर एक में नहीं होती। वेणु गोपाल की एक कविता थी-
यहाँ बुद्धिजीवी बहस कर रहे हैं
यहाँ पेशाब करना मना है

PD said...

चलो तुमने महिलाओं कि समस्या के बारे में बता दिया.. और यह भी निर्णय हो चुका कि चाहे कुछ भी भारत सर्कार या राज्य सरकार एक अदद साफ़ सुथरे बाथरूम नहीं बनवा सकती.. और अगर भूल से बनवा भी दे तो हम भारतीय उसे साफ़ नहीं रहने दे सकते हैं..

अब बताते हैं अपने अनुभव.. नौकरी में आने के बाद मेरे जितने भी मित्र(पुरुष एवं महिला) हैं सभी अभी तक बैचलर हैं, और सभी एक-एक फ्लैट लेकर रहना शुरू कर दिए हैं.. अब ऐसे में किसी महिला मित्र के घर जाना पड़े और उस समय लघुशंका आये तो मैंने कई पुरुष मित्रों को भी लजाते देखा है.. घंटो दबा कर बैठे भी देखा है उन्हें.. हाँ यह बात तो है कि महिलाओं के साथ यह समस्या अधिक है क्योंकि पुरुषों के लिए तो पूरा भारत ही ट्वायलेट बना हुआ है..

रही बात मेरी, तो हम जनम से ही निर्लज्ज हैं.. किसी महिला मित्र के घर भी जाते हैं और लघुशंका आई हो तो निवारण करने में संकोच नहीं करते हैं..

मुनीश ( munish ) said...

ohh.. thats really -really very painful to know about this reality 'cos as a man i can pee almost anywhere. I thank u for being straightforward and blunt.
I think this is the best ever post u've written so far and u must raise the issue further.

देवेन्द्र पाण्डेय said...

एक गंभीर समस्या के प्रति ध्यान दिलाने और जरूरी मांग रखने के लिए इस पोस्ट की जितनी भी प्रशंसा की जाय कम है।

--यह समस्या पूरे देश की है. छोटे-छोटे शहरों में तो यह समस्या और भी गंभीर है ऐसे भी स्कूल हैं जहाँ सह शिक्षा तो है लेकिन क्षात्राओं के लिए अलग से व्यवस्था नहीं है।--यह तो संसद में महिला आरक्षण विधेयक पास कराने से भी जरूरी काम है।

Anonymous said...

मेरी साथी स्वाति कहती हैं , ’ भारतीय मर्दों के गुर्दे इतने कमजोर क्यों हैं ? ’

Unknown said...

बेहतरीन लेख... मैं भी कभी कभी बाथरूम जाने से बचने के लिए पानी को खुद से दूर कर देती थी. मगर अब ऐसा नहीं करती. मैं अपने ऑफिस में अकेली लड़की हूँ. पहले शर्मा जाती थी, हाए किसी को पता चल गया तो? लेकिन अब खूब पानी पीती हूँ, और बिना किसी शर्म के बाथरूम जाती हूँ. आखिर ये नेचुरल हैभाई

Unknown said...

बेहतरीन लेख... मैं भी कभी कभी बाथरूम जाने से बचने के लिए पानी को खुद से दूर कर देती थी. मगर अब ऐसा नहीं करती. मैं अपने ऑफिस में अकेली लड़की हूँ. पहले शर्मा जाती थी, हाए किसी को पता चल गया तो? लेकिन अब खूब पानी पीती हूँ, और बिना किसी शर्म के बाथरूम जाती हूँ. आखिर ये नेचुरल हैभाई

Manvinder said...

मै छुपाना जानता तो जग मुझे साधु समझता ,
शत्रु मेरा बन गया है छल रहित व्यवहार मेरा .
एक कमेन्ट में बच्चन जी की ये लाइन सटीक है लेकिन तसलीमा की एक पात्र की भी याद आ गयी.....

संध्या आर्य said...

Hi MANISHA
bahut hi achhi tarah se guide kari hai .....iname se kai jagaho ka maine bhi istemal kari hai .......jaha tak confidance dikhane ki jo bat kari hai .....ek dam sahi kaha agar aap confidence dikhane me chuk gaye to aapko kai jagaho par entry nahi milegi ......waise charani road me Mahatma Gandhi liberary bhi hai ...........jaankari bahut hi achhi di hai ........

Unknown said...

जो बात स्‍वनामधन्‍य, तेजी से बढते अखबारों में होनी चाहिए थी, तुमने वह बात अपने ब्‍लॉग के सीमित पाठकों के बीच उठाई है। पुरूष आमतौर पर भगवानजी की तरह स्त्रियों को भी रोग, निद्रा, भय जैसी रोजमर्रा की आमफहम जरूरतों से परे मानता है। वे भी कभी-कभार शौचालय जाती हैं, ऐसा उसके दिमाग में ही नहीं आता। लेकिन जैसे बेचारे भगवानजी हाड-मांस के अवतारों की बजाए सिर्फ पत्‍थर में तब्‍दील हो गए हैं, औरतें भी अपने इंसानी वजूद के बावजूद काठ की बना दी गई हैं।
मजा यह है कि जिन्‍हें हम पढे-लिखे ज्ञानी पिछडा, निरक्षर, गंवार और न जाने क्‍या-क्‍या मानते हैं, वे आदिवासी अपने ईश्‍वर को भी घर के पुरखों से बडी कोई आसमानी-सुल्‍तानी हैसियत नहीं देते। संसार की रचना को लेकर भील-भिलालों में रात-रात भर गाया जाने वाला गायणा ऐसे प्रसंगों से भरा पडा है जिनमें उनके देवता बाकायदा शौच करते हैं। समुद्र के प्रेम में आकंठ डूबी नर्मदा उससे मिलने जाते हुए जलसिंधी गांव के पास शौच के लिए बैठती हैं और वहां परेशान करने के दंड में एक मेंढक को पत्‍थर का बना देती हैं।
अलबत्‍ता, शहरी, सुसभ्‍य कहलाने वाले हम, यात्रा में अपने संग जा रही स्त्रियों से भूल कर भी यह नहीं पूछते कि उन्‍हें भी किसी ओट की जरूरत है। आखिर उन्‍हें तो इसकी भी जरूरत नहीं होती। वे तो 'रागदरबारी' की तर्ज पर शर्मदार बनकर सींक की आड में अपने ठोस, तरल और वायु का विसर्जन कर लेते हैं।
ऐसी लंबी यात्राओं के दौरान महिला मित्रों से लघु या दीर्घ शंकाओं के बारे में पूछ लेने और जरूरत पडने पर उनके साथ चले जाने पर मुझे अपने पुरूष मित्रों से न-जाने कैसी-कैसी बेहूदी टिप्‍पणियां सुनने को मिली हैं।
पुरूष का कमाल है कि वह स्‍त्री के शरीर से प्रेम करने का दावा तो करता है, लेकिन उस शरीर को कभी जानने की कोशिश नहीं करता। मैं ऐसे अनेक पुरूषों को जानता हूं जिन्‍हें स्‍त्री शरीर की पेचीदी संरचना का रत्‍ती भर भी ज्ञान नहीं है। अलबत्‍ता, वे उसे लेकर तरह-तरह की बातें, किस्‍सागोइयां और यहां तक कि गालियों की नई से नई व्‍याख्‍याएं बनाने के लिए हमेशा हुलफुलाते रहते हैं।
तुम्‍हारे ब्‍लॉग को पढकर टिप्‍पणियां करने वाले मित्र अपने आसपास की स्त्रियों की इस प्राक़तिक जरूरत के बारे में पूछने भर लगें, तो मैं तुम्‍हारे लिखे को सफल मान लूंगा। स्‍त्री के शरीर की संरचना समझना जरा दूर की कौडी है और इसके लिए सचमुच प्रेम में डूबना भी पडता है। है।

Anonymous said...

अपनी बीवी के साथ जब भी बाहर जाता हूँ, इस तरह की समस्या से उन्हें भी दो चार होते देखा है. कितना समझाता हूँ की इस तरह रोकना सही नहीं होता..... लगता है उनको आपसे मिलवाना पड़ेगा... तभी तो ऐसी बेकार की शर्म छोड़ पायेंगी.... :)

सुलभ शौचालय के रूप में एक बहुत अच्छा इनिशिएटिव लिया गया था. पर वो भी गन्दगी की भेंट चढ़ गया. वहां जाने से अच्छा इन्तजार करना लगता है.

शेफाली पाण्डे said...

aapkee fan hun....aap mere blog me aaee, dhanyavaad

Unknown said...

WHY CANT ALL THE COMMENTS COME ON YOUR BLOG? Is there any technical problem?? Or the blog author is not interested???

मनीषा पांडे said...

All the comments get published. Whats the problem ?

शरद कोकास said...

मनीषा जी , दोनों किश्तें पढ़ीं । सार्वजनिक शौचालयों का न होना मुझे लगता है एक विश्वव्यापी समस्या है। आप यह अव्श्य कह रही हैं कि पुरुषों के लिये यह कोई समस्या नहीं है लेकिन बहुत सारे पुरुष भी इस समस्या से जूझते हैं । मुम्बई की लोकल ट्रेन की तर्ज़ पर यहाँ भी दुर्ग रायपुर के बीच उसी तर्ह की लोकल शुरू हुई है । इसमे भी टोयलेट नही है । पिछले दिनो एक अभिनव आन्दोलन इस बात के लिये शुरू किया गया था और कुछ लोगों ने ट्रेनो मे पोस्टर लगाये " पेशाब कहाँ करें ?"हालाँकि उसका कोई असर नहीं हुआ । लेकिन स्त्रियों के लिये तो सचमुच यह समस्या है क्योंकि पुरुष तो बाज़ार में किसी पुरुष दुकानदार से पूछ सकते हैं " आप कहाँ जाते हैं ? लेकिन स्त्रियाँ किससे पूछें ?
अंत में एक बात और प्रिंस ऑफ वेल्स या छ.शिवाजी महाराज म्यूज़ियम में इसके लिये 25 रुपये का टिकट लेकर भीतर जाना पड़ता है .. यह थोड़ा महंगा नहीं लगता ?

मीनाक्षी said...

दोनों कड़ियाँ पढ़ने के बाद सोच रही हूँ कि हज़ारों मील तक फैले रेगिस्तान में कहीँ कोई ओट नहीं...रोक रोक कर कितना दर्द झेलते थे, बता नही सकते.. किसी ब्रिज की ओट में कार के दरवाज़े के किनारे बैठना ..काम शुरु करते ही साऊदी की कार या ट्रेलर का गुज़रना ग़ज़ब ढा देता था..अब तो काफी सुधार आ गया है....

Krishna Nand Gupta said...

superb.. I completely agree with you..

Jitendra Jaiswal said...

मनीषा,
लेखनी बहुत अच्छी है तुम्हारी इसमें कोई दो राय नहीं लेकिन मैं पूरी तरह सहमत नहीं हूँ (हमेशा की तरह)। स्थिति का जितना विकट वर्णन तुमने किया है वैसी है नहीं। कुछ केसेज अपवाद हो सकते हैं। साथ ही यह भी जोड़ दूँ कि पूरा महिला वर्ग मेरे लिए बहुत ही सम्माननीय है और टिप्पणी को अन्यथा न लें।
WD के जिस बड़े केबिन की बात तुम कर रही हो, वहाँ मेरी ही टीम बैठा करती थी और उसमें लगभग पचास प्रतिशत महिलाएँ थीं। जो पचास प्रतिशत पुरुष थे, वे कभी इस तरह नहीं सोचते थे जैसा वर्णन किया है तुमने। कितने लोग तुम्हें घूरकर देखते थे उस वक्त? मेरा दावा है कि एक भी नहीं। केवल वे ही नहीं, मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि पढ़े-लिखे सभ्य समाज में कहीं भी कोई ऐसा नहीं सोचता होगा। क्या तुम एक भी ऐसा उदाहरण बता सकती हो जहाँ किसी महिला को वॉशरूम में जाते देख पुरुष वर्ग मजाक बना रहा हो? मैं भी एक बहुत छोटे से गाँव के कम शिक्षित परिवार से हूँ, पर वहाँ भी मैंने कभी महिलाओं को ऐसी शर्म करते तो नहीं देखा। न ही पुरुषों को ऐसी प्राकृतिक आवश्यकताओं पर लगाम लगाते। मैंने ये जरूर सुना है कि फला आदमी ने अपनी बीवी या बहन को नौकरी नहीं करने दी, शहर नहीं जाने दिया, फिल्म नहीं देखने दी लेकिन यह कभी नहीं सुना कि वॉशरूम नहीं जाने दिया या वह वॉशरूम जाती थी तो घूरकर देखता था।
हवाई जहाज में जहाँ पूरे यात्री वर्ग के ठीक सामने वॉशरूम होता है और महिलाएँ कंधे से कंधा मिलाकर लाइन में खड़ी रहती हैं, वहाँ तो ऐसी शर्म नहीं आती? या फिर वॉशरूम वाले हॉल में पचास लोग बैंठे हैं और किसी महिला की प्राकृतिक आवश्यकता नियंत्रण से बाहर है, तो भी क्या वह वॉशरूम का इस्तेमाल करने में संकोच करती है?
मैं इस बात से जरूर इत्तेफाक रखता हूँ कि महिलाओं के लिए जिस तरह के पब्लिक वॉशरूम होने चाहिए, उनका अभाव है और इस अभाव के कारण सार्वजनिक स्थानों पर उन्हें बहुत दिक्कतें आती हैं। उन्हें घर से निकलने से पहले या मंजिल पर पहुँचने पर ही ये मिलते हैं। लेकिन ये एक अलग विषय है और इसको पुरुषों की मानसिकता से जोड़ना बिल्कुल भी सही नहीं है। समाज में तो खुलापन है, दिमागों में आना बाकी है। अगर कोई ऐसी शर्म होती है, तो वह हर जगह होती है, स्थितियों के अनुसार बदल नहीं जाती। इसलिए नहीं कि मैं पुरुष हूँ, अगर मैं लड़की भी होता तो भी मेरा यही विचार होता।
तीस साल पहले तुम्हारी ये बातें जरूर प्रासंगिक होतीं, आज नहीं हैं...या शायद उन लोगों के लिए प्रासंगिक होंगी जो समय से तीस साल पीछे चलते हैं। आज तुम किसी पुरुष से भी May I use your washroom please. पूछोगी, तो उसका जवाब yes. Off course. ही होगा।

उस बड़े केबिन में तुमसे हमेशा होने वाली चर्चाओं की तरह ही यह भी एक मित्रतापूर्ण टिप्पणी है। मेरी बीवी को तुम्हारी लेमन टी बहुत याद आती है, कब पिलाओगी?