मैंने नहीं देखी है आज तक कोई बोहेमियन औरत, लेकिन हमेशा से सोचती रही हूं कि काश कि जीवन ऐसा हो कि कल को अपनी आत्मकथा लिखूं तो उसका नाम रख सकूं – एक बोहेमियन औरत की डायरी। लेकिन चूंकि मैं जिस देश और जिस समाज में पैदा हुई, वहां ऐसे बेजा ख्यालों तक की आमद पर बंदिशें हैं तो मैं बोहेमियन की जगह बेदखल की डायरी से ही काम चला रही हूं।
गुजरे रविवार को मैं अपनी एक दोस्त वंदना (मेरे साथ ऑफिस में ही काम करती है) के साथ सांची गई थी। बहुत लोग जाते हैं सांची - रविवार, सोमवार, मंगलवार, सब दिन जाते हैं तो आपने ऐसा क्या तीर मार लिया।
दरअसल बात ये है कि हम दोनों अपनी बाइक (हॉन्डा एक्टिवा) से गए थे। हमें जानने वालों ने चेताया - इतनी दूर बाइक से, हाइवे पर, रिस्की है, दो लड़कियां अकेली, कुछ हो गया, गाड़ी खराब हो गई तो। अरे सीधे रस्ते चलते नहीं बनता। हबीबगंज स्टेशन से Train पकड़ो, विदिशा उतरो, वहां से सांची। नहीं तो मोहतरमा बस से चली जाओ। नहीं तो टैक्सी कर लो। गनीमत है लोगों ने हवाई जहाज से जाने का सुझाव नहीं दिया।
लेकिन हम ठहरे नालायक। कहां मानने वाले थे। ज्यादा दूर पचमढ़ी, महेश्वर, उज्जैन न सही, लेकिन सांची, भीमबेटका या भोजपुर तक कभी अपनी बाइक से जाऊंगी ही, ऐसा सोचा था। जो कोई न हुआ साथ तो अकेले ही सही, के ख्वाब मैं तब से बुनती रही हूं, जब से इस शहर में आई हूं। जिसे शहर की सीमा कहते हैं, कि जहां लोग, मकान, दुकान और भीड़ है, जहां चेहरों की आवाजाही है, शहर की उस सीमा के भीतर तो मैंने खूब गाड़ी दौड़ाई है, अकेले ही इधर-उधर भटकी हूं, लेकिन शहर के भीतर आप कितनी भी गाड़ी दौड़ा लें, मुश्किल से 15-20-25 किलोमीटर की रेंज में घूम-फिरकर अपने घर भी वापस आ जाएंगे। अपनी पेरिफेरी को कितना भी खींचो, इससे ज्यादा बड़ी नहीं होती।
इस पेरिफेरी को खींचने की कोशिश में टू व्हीलर से सांची जाने की बात जब भी कहती, दोस्त कहते, एक्टिवा से मत जाना। मोटरसाइकिल होती तो बात अलग थी। स्कूटी टाइप गाडि़यां लंबी दूरियों के लिए ठीक नहीं होतीं। चार कदम में फुस्स हो जाएगी। फीमेल बाइक का इतना माइलेज नहीं होता। कमाल है। स्कूटी के विज्ञापन में भले प्रियंका चोपड़ा दांत निकाले कितना भी दावा करें कि ‘व्हाय ब्वॉयज शुड हैव ऑल द फन’, लेकिन ये मरगिल्ली स्कूटी बनाने वाली कंपनियों को भी पता होता है कि लड़कियां इस पर सवार होकर ज्यादा से ज्यादा घर से कॉलेज – कॉलेज से घर या घर से दफ्तर और दफ्तर से घर ही जाएंगी। नहीं हुआ तो संडे को बाजार तक जा सकती हैं, करेला, भिंडी और साड़ी का मैचिंग फॉल खरीदने या ब्यूटी पार्लर तक आइब्रो बनवाने। और बहुत हुआ तो ज्योति टॉकीज तक चली जाएंगी, प्यार इमपॉसिबल देखने। प्यार की इमपॉसिबिलिटी का पता नहीं, लेकिन स्कूटी से पचमढ़ी जाने की बात सोचना भी इमपॉसिबल है।
लेकिन हमने इस इमपॉसिबल को पॉसिबल करने की सोची और अकेले ही निकल गए। कड़ी दोपहरी में मुंह पर कपड़ा बांधे और गॉगेल्स लगाए हर बेहद टुच्चे नियम को तोड़ने पर आमादा दो लड़कियां इतने में ही ऐसा अनोखा गर्व और खुशी महसूस कर रही थीं, मानो हिमालय पार कर आई हों। शहर क्रॉस खत्म होने के बाद जैसे ही भोपाल-सांची हाइवे शुरू हुआ, हम एक पेटोल पंप पर रुके और वहां मौजूद धोती और मैले-कुचैले पायजामों से लेकर लेवी की जींस वालों तक के लिए हम कौतुक का सबब बने। सब हमें बड़े ध्यान से देख रहे थे। शहर के भीड़-भड़क्के में Petrole पंप पर खड़ी लड़कियां अजीब नहीं लगतीं, लेकिन यहां शहर से इतनी दूर हाइवे पर ये नमूनियां कहां से नमूदार हुईं। हम Petrole भराकर आगे बढ़े तो भी सब पलट-पलटकर देख रहे थे।
‘वंदना बोली, दीदी, सब देख रहे हैं।’
‘देखने दे न। नयन सुख ही तो ले रहे हैं। दूसरों के नयनों को सुख देने में कोई बुराई है। समाज सेवा है ये। लो भईया, और देख लो आंख फाड़कर। सुखी रहो।’
हाइवे पर मैंने 30 से लेकर 70 तक की स्पीड में गाड़ी दौड़ाई। बगल से गुजरने वाले बाइक सवार लड़कों ने पलट-पलटकर देखने का कार्यक्रम पूरे रास्ते जारी रखा। कभी वे जूंजूंजूंजूंजूंजूंजूं की आवाज करते तेजी से अगल से गुजर जाते और आगे जाकर स्पीड धीमी कर लेते। फिर जब हम आगे निकल जाते तो फिर ऐसे ही तेजी से बाइक दनदनाते हमें पीछे छोड़ते हुए वो हमें क्रॉस करते। दो लड़कियां हाइवे पर अकेली। बेचारे बड़े समाज सेवी थे। पूरे रास्ते सुरक्षा गार्ड की तरह साथ लगे रहे।
कुछ तो स्त्री के सम्मान के प्रति इतने सजग थे कि बगल से गुजरते हुए हमें चेताया, मैडम अपना कुर्ता तो सही कर लीजिए। वंदना पीछे बैठी थी और तेज हवा में उसका कुर्ता अपनी सही जगह छोड़कर लोगों के दर्शनार्थ पीठ को उपलब्ध कराते हुए उड़ रहा था।
तीन-चार लोगों ने गुजरते हुए टोका।
‘मैडम, आपका कुर्ता?’
‘मैडम, कपड़े तो सही कर लो।’
कमीने, हरामी की औलाद सब के सब। मैंने खुले दिल से गालियों की बौछार की। साले, खुद टी शर्ट उतारकर भी चलाएंगे तो किसी की नानी नहीं मरेगी। जरा कुर्ता उड़ गया तो उनकी आंतें उतरने लगीं। मैंने कहा, मरने दे उन्हें। तू आराम से बैठ। पीठ को हाइवे की हवा लग रही है न। लगने दे। पसीने में हवाओं की ठंडी छुअन। मस्त है यार। टेंशन मत ले। ससुरों के दिमागों तक को हवा नहीं लगने पाती। हमारी तो पीठ तक को लग रही है। पता नहीं क्या था कि हम किसी बात की परवाह करने को तैयार नहीं थे। हमने सचमुच किसी बात की परवाह नहीं की।
हम रास्ते भर तरह-तरह के ऊटपटांग गाने पूरे बेसुरे सुर में गाते जा रहे थे। गाना कोई भी हो सकता था, बस शर्त ये थी कि वो चीप होना चाहिए। अचानक वंदना तेरे मेरे सपने अब एक रंग हैं गाती तो मैं गुस्सा होकर टोक देती। अबे, Track मत बदल यार। चीप गाने गा, चीप। और हम शुरू हो जाते।
आजा न छू ले मेरी चुनरी सनम
कुछ ना मैं बोलूं तुझे मेरी कसम
आई जवानी सिर पे मेरे……………
और तभी बगल से कोई बाइक सवार गुजरता और हम एकदम से पॉज का बटन दबा देते…….
बाइक गुजर गई और हम शुरू
ऐसे में क्या करूं जवानी पे रहम……….. हायययय आजा न……….
हालांकि चीप गाने ढूंढने में हमें काफी मेहनत करनी पड़ी़, तब भी हम राह से भटके नहीं। अल्लाह कसम, हमने एक भी अच्छा गाना नहीं गाया। चीपनेस की टेक बनाए रखी।
मैं तो रस्ते से जा रहा था…….
नीचे फूलों की दुकान ऊपर गोरी का मकान........
तब तक रहेगा समोसे में आलू……..
आजा मेरी गाड़ी में बैठ जा……..
और……
मैं तुझको भगा लाया हूं तेरे घर से……. ससुर बाप के डर से
गाने के शब्दों में हम सुविधानुसार फेरबदल भी कर देते थे।
दिबाकर की नई फिल्म का गाना भी हमने ऑरिजिनल फॉर्म में गाया, सेंसर बोर्ड के एक शब्द को बदलकर कोई दूसरा उससे भी ज्यादा चीप शब्द दे देने के पहले वाले फॉर्म में। लेकिन हमारे गाने में बहुत सारे पॉज थे। हम अपनी अदृभुत गायन प्रतिभा से आने-जाने वालों की हैरानी और हसरतों में और घी नहीं डालना चाहते थे।
रास्ते भर हम रुक-रुककर तस्वीरें भी खींचते रहे। अपनी तो अपनी, सड़क पर गाय, गधा, कुत्ता, बकरी, भैंस जो भी दिख जाए, सबकी तस्वीरें ले लीं। एक तालाब के किनारे हम भैंसों की फोटो खींच रहे थे तो दो बाइक सवार, जो आगे निकल चुके थे, पलटकर आए और बोले,
‘मैडम हमरा भी फोटू खींच लीजिए।’
मेरे जी में आया, बोलूं, जाकर उसी भैंस की पीठ पर बैठ जाओ। अभी खींचे लेती हूं। लेकिन हमारी तीसरी आंख सचेत थी। सड़क सूनसान थी। दोनों ओर फैले खेत। आदमी का नामोनिशान नहीं। मैं तुरंत हरकत में आई और अंग्रेजी बोलनी शुरू कर दी।
What? What did you say?
We have come from Mumbai.
Both of us are journalist in Times of India. Not from this place. Just going to see Sanchi for a reporting project.
What do you want ?
गाड़ी पर Press लिखा हुआ था। मैंने लाल रंग के अक्षरों में लिखे Press की ओर इशारा किया और इस तरह उसे समझा दिया कि देखो, लपुझन्ने, हम तुम्हारी दुनिया का हिस्सा नहीं हैं। इस गांव-देहात के नहीं, इस शहर के भी नहीं।
हमने उन दोनों गांवटियों को ये सोचाया कि हम अमीर, अंग्रेजीदां, फैशनपरस्त लड़कियां हैं। यहां के चाल-चलन नहीं जानतीं, इसलिए ठुमकती फिर रही हैं। दोनों थोड़े प्रभावित, अवाक् और कुछ हक्का-बक्का होकर चले गए।
‘आप कैसे सबको हैंडल कर लेती हो,’ वंदना हंस रही थी और मैं सोच रही थी।
हम जो कर रहे थे, वो जिला इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश या जिला मोतीहारी, बिहार की हिंदी बोलने वाली किसी मामूली सी लड़की को करते शोभा नहीं देता। उनके वर्ग की लड़कियां ऐसे दिन-दहाड़े हाइवे पर अकेली गाड़ी नहीं दौड़ातीं। ऐसे खुलेआम सड़क पर हंसती, गाना गाती, फोटू खींचती तो बिलकुल भी नहीं। वे लोग अपने समाज और अपने वर्ग की लड़कियों को इस रूप में देखने के आदी नहीं हैं। ऐसी मामूली लड़कियां उन्हें कमेंट करने से लेकर छेड़ने तक के लिए एक्सेसबल जान पड़ती हैं। हम नहीं। हम मुंबई, दिल्ली वाली, अंग्रेजीदां, फैशनपरस्त, साथ में सिगरेट और बीयर के केन वाली लड़कियों का दर्जा अपने आप निचले वर्ग के मर्दों से ऊंचा हो जाता है।
आज भी चमकीली दुकानों और रौशनियों वाले शहर को पार करते ही जैसे ही हम ठेठ देहाती दुनिया में घुसते हैं, अकेली लड़कियों के लिए No Entry का बोर्ड हर कहीं टंगा होता है। न वो दुनिया आपके साथ कॅम्फर्टेबल है और न ही आप उस दुनिया के साथ। वहां के सेट नियमों को तोड़ने वाली लड़कियों के लिए जगह नहीं है। वो दुनिया आपको स्वीकार नहीं करेगी, unless and until आप अंग्रेजी न बोलती हों और उन्हें ये यकीन न हो कि आप दूसरे ग्रह की वासी हैं।
शहरों में चौके-बर्तन की दुनिया से बाहर निकलती, नौकरी करती, कॉलेज जाती, सड़कों पर गाडि़यां दौड़ाती, गोलगप्पे खाती और सिनेमा हॉलों में प्यार इमपॉसिबल देखती लड़कियों को देखकर हमने ये गलतफहमी पाल ली है कि लड़कियों के लिए दुनिया बदल रही है, मर्दों की सोच और उनका दिमाग भी। जबकि हकीकत ये है कि जो स्पेस नजर आता है, वो भी बाजार का दिया स्पेस है। अमरीका, कनाडा की सीमाएं तोड़कर जो कंपनियां हिंदुस्तान के शहरों तक आ रही हैं, अपने घरों की सीमाएं तोड़कर लड़कियां उन कंपनियों की इंटीपेंडेंट, कॅरियर कॉन्शस आधुनिकाएं बन गई हैं। यह सीमा बाजार ने तोड़ी है, पूरी दुनिया में फैल रहे पूंजी के सीमा तोड़ खेल ने। बाजार न होते तो औरतों के लिए आज भी रसोई और पति के बेडरुम के बाहर कोई खास दुनिया होती, यकीन करना मुश्किल है।
40 comments:
Just one word...amazing...amazing write up...ना ना हम तो हिंदीवाले ही हैं...क्या खूब तफरीह की है..
इंग्लिश का रौब कित्ता होता है ना.....ओर प्रेस का भी ...पर खुदा के वास्ते टुच्चा हिंदी प्रदेश मत बोलो भाई.....अपुन भी इतराते थे एक वक़्त के साले यू पी में वापस नहीं आयेगे ये कोई बात है के गुजरात से सारे रस्ते किसी ने कोई सवाल नहीं पुछा बस में बैठते ही बराबर वाला चाहे कितनी बदबू दर शर्त पहने बैठा हो ...या उसकी लुगाई बीडी का धुंया मुंह पर छोड़ रही हो ....छूटे ही पूछेगे ..कौन जात हो भाई .हमने घोषणा कर दी थी हम भी विदेस जायेगे अपने दोस्तों की तरह ......पर आना यही था .जहाँ सड़क के बीच रास्ते कभी भी भैंस ट्रेफिक जम कर देती है .आप भले ही मेक्दोनल का बर्गर खाए .....या कोई क्लासिक मूवी देखे या अपनी गाडी में सोनी का स्टीरियो लगवाये .....कोई बैलगाड़ी वाला ....आपके बम्पर की......
खैर ये बात तो तय है के" गाँव में लड़की होती ही छिड़ने के लिए है "इससे पहले के किसी का देश या गाँव प्रेम जागे ये डाइलोग भी किसी गाँव वाले ने कभी हमारे ज्ञानवर्धन के वास्ते सुनाया था ठीक वैसे ही जैसे करीना जब वी मेट में कहती है लड़की खुली तिजोरी की तरह होती है ......
कल ही एक दोस्त गुस्से में मिली थी ........कहने को डॉ है पर खूब गलिया दे रही थी ...हमने पूछा काहे ...बोली "साले स्लीव लेस देखकर ऐसा बौरा रहे है .....रेप करने को तैयार .ऊपर से कह देगे .ऐसे पहनोगी तो यही हाल होगा ......
खैर एक्टिवा वाले शायद इसे प्रचार में इस्तेमाल करे ......
भास्कर का नमक खाकर भी आप दि टाइम्स ऑफ इंडिया के लिए अच्छा व्यंजन बना लेती हैं आप। और हां,आगे से कभी चीप गानों की किल्लत पड़े जाए तो हमें कॉल कीजिएगा,हमें तो क्लासिकल और समाज के बीच गुनगुनाने वाले गाने याद करने में पत्थर पड़ जाते हैं। वैसे सरकार से लेकर स्वयंसेवी संस्थाएं स्त्री-सुरक्षा को लेकर भले ही टांय-टांय करती रहे लेकिन उऩकी सही सुरक्षा अंग्रेजी सीखकर है।
इस पोस्ट से हमें यही शिक्षा मिलती है।..
एक्टिवा से सांची का सफर। जब मैं भोपाल आई थी तो हां नीलिमा चलेंगे घूमने, क्या गोलियां दी थीं आपने मुझे। आय एक जैलेस आफ यू टू। एंड वंदना इवन शी डीड इट टू मी। एत तू वंदना (एत तू ब्रूत की तर्ज पर) ।
...चलो और कुछ हो न हो मुझे खुशी है आप वो कर रही हैं जो आपको खुशी देता है ट्रेवल करना एंड कीप इट अप। हमारे लिए हाईवे के ट्रक न सही, एक्टिवा तो है ही और मुंबई के लिए प्लेन न सही ट्रेन तो है ही। मुझे इस बात का पक्का यकीन है कि एक दिन मैं आपकी यायावरी के संस्मरण जरूर पढूंगी।
किन भकुओं ने कह दिया कि एक्टिवा से आप लंबे ड्राइव नहीं कर सकते? एक्टिवा के पूर्व-अवतार काइनेटिक होंडा से हमने अनेकों हीरो होंडा सवारों के छक्के छुड़ाए हैं. हाथ छोड़कर 80 किमीप्रघं की रफ़्तार से हाइवे पर चलाते हुए. और छ: घंटे में 300 किमी का सफर (राजनांदगांव-जगदलपुर) किया है. उसी से रतलाम-उज्जैन-इंदौर के सफर की तो गिनती नहीं है. एक्टिवा तो उससे एक कदम और आगे है रिलायबिलिटी, स्टेबिलिटी और कम्फ़र्ट में.
बाकी आपके इस लेख को पढ़कर बड़ा मजा आया. हर मुलायम-नुमा सीटी बजाऊ मर्द को इसे पढ़ना चाहिए.
आपकी अगली यात्रा-वृत्तांत का इंतजार रहेगा :)
सारी पोस्ट पढ़ते चेहरे पे मुस्कान रही.एक्टिवा पे तीन लोग नहीं बैठ सकते न?फिर भी मैं ऐसे सफ़र में जाना चाहती हूँ,यह तो दुनिया की सैर हो गयी.जैसे around the world in eight dollors .जलन होती है आपसे..इक तो इतनी अच्छी सैर करके आई गाने गाते गाते ऊपर से लिखती भी इतना अच्छा है.यह तो गलत बात है.कभी आपसे जलन होती है कि आपके पास इतनी किताबे है.और अब यह सफ़र!!
अभी कल ही कि बात है.. दफ्तर में एक मित्र से मेरी बात हो रही थी.. तभी एक खूबसूरत लड़की सामने से गुजरी.. उसने मुझे टोका कि उधर देखो.. मैंने देखा और गर्दन घुमा लिया.. जब तक वह चली नहीं गई तब तक वह उसे देखता रहा.. उसके जाने के बाद उसने पूछा कि देखने में इतनी अच्छी तो थी फिर भी तुम्हे पसंद नहीं आई, आखिर कैसी लड़की तुम्हे अच्छी लगती है? मैंने कहा, जिसमे कांफिडेंस कूट-कूट कर भरा हो और जो दुनिया कि परवाह किये बिना अपनी राह चलती जाए.. अब इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह सुन्दर है या नहीं..
वह आँखे गोल-गोल किये मुझे देखने लगा.. कुछ बोला नहीं.. मगर उसका चेहरा बता रहा था कि वह सोच रहा है कि ऐसी लड़कियां भी अच्छी लगने लायक होती है क्या? मैं भी अपने ख्यालों कि अच्छी लड़कियों कि तरह उसकी परवाह किये बिना वहां से चला गया..
वैसे एक्टिव कि अधिकतम स्पीड हाइवे पर 87KM कि होती है.. फूल एक्सीलेरेटर देकर 10-15 मिनट चलाओगी तब यह स्पीड मिलेगा.. अगली बार उसे छूना मनीषा.. :)
जबरदस्त संस्मरण, क्या छक्के छुडाये आपने मजा आ गया और हमने तो लूना से उज्जैन से इंदौर कई बार सफ़र किया है ये तो नए युग की नई गाडी है|
Wah maza aa gaya dil khush hua Is tarah ka attitude bada rare (duniya hamaare thege pe ) dekhne ko milta hai . Is speed se lagta hai ACTIVA waale aapko apna brand amabassador na banaa lein
RAVI SRIVASTAVA
ससुर, तुम कभी अपनी हरकतों से बाज़ आओगी या नहीं, इसी चिरकुटई में पड़ी रहना, और खुश रहना अपने दो टके के जहान में....इंतज़ार करो कुछ-कुछ ऐसा आता ही होगा। तब तक मेरी तरफ से वेलडन और हां टुच्चई को हेल तक पहुंचाने के लिए अगली पोस्ट जल्दी।
शायदा, ये कमेंट (शुरू की पंक्ति)प्रमोद की तरफ से एडवांस में है ना। समझ गई। उनको बता देते हैं कि उनका मैसेज मिल गया। आजकल उन्होंने शायदा को अपना सेक्रेटरी नियुक्त किया हुआ है। उनके बिहाव पर तुम ही कमेंट कर दिया करो। :) हें-हें-हें।
BLOODY HELL............
पुरे लेख पढ़ते हुए शुरू से आखिर तक होटों से मुस्कान जाती ही नहीं....चिपक ही गई है कमबख्त .
सचमुच मनीषा तुम नहीं सुधरोगी। यूं ही किसी का नाम बीच में लाना गलत बात है। प्रमोद जी का कहीं तक कोई जिक्र नहीं है, मैं तो कहीं और की ही बात सोच रही थी लेकिन क्या करें, तुम्हारी बोहेमियन नासमझी का, ससुर कोई इलाज नहीं हो सकता। मैं तो अपने बिहाफ पर ही कमेंट करने में इतनी आलसी हूं तो क्या किसी की से्क्रेट्रीशिप संभाई सकूंगी। बख्शो बोहेमियन माता और चुपचाप अगली पोस्ट लिखो।
टुच्चई का भरपूर नमूना-
--वंदना पीछे बैठी थी और तेज हवा में उसका कुर्ता अपनी सही जगह छोड़कर लोगों के दर्शनार्थ पीठ को उपलब्ध कराते हुए उड़ रहा था
--कमीने, हरामी की औलाद सब के सब।
और ये है कड़वा सच--
--गाड़ी पर Press लिखा हुआ था। मैंने लाल रंग के अक्षरों में लिखे Press की ओर इशारा किया और इस तरह उसे समझा दिया कि देखो, लपुझन्ने, हम तुम्हारी दुनिया का हिस्सा नहीं हैं। इस गांव-देहात के नहीं, इस शहर के भी नहीं.
--हम मुंबई, दिल्ली वाली, अंग्रेजीदां, फैशनपरस्त, साथ में सिगरेट और बीयर के केन वाली लड़कियों का दर्जा अपने आप निचले वर्ग के मर्दों से ऊंचा हो जाता है
--वो दुनिया आपको स्वीकार नहीं करेगी, unless and until आप अंग्रेजी न बोलती हों और उन्हें ये यकीन न हो कि आप दूसरे ग्रह की वासी हैं.
पिताजी के रिटायरमेंट के बाद जब हम गाँव में शिफ़्ट हो गये थे और आज़मगढ़ के एक छोटे से गाँव से अकेले इलाहाबाद आना-जाना होता था. एक-दो बार जींस पहनकर चली गयी, तो रास्ते में इतने चीप कंमेंट सुनने को मिले कि पूछो मत. कस्बों में लोग विचित्र नज़रों से घूरते थे. मुझे अभी भी याद है कि मैंने भी कई बार अंग्रेजी मैया का दामन थामकर अपने आपको दूसरी दुनिया का घोषित कर दिया था.
तभी तो मुलायम सिंह जी को डर लग रहा है। ससुरी संसद में भी ऐसे ही गाने गाने लगी तो क्या होगा? मनीषा जी आज मजे आ गए अब दुख हो रहा है कि पहले आपकी पोस्ट मुझे दिखायी क्यों नहीं दी? खैर देर आए दुरस्त आए। अब तो भोपाल आने पर भी मिलना ही पडेगा। ज्यादा नहीं लिखूंगी बस पोस्ट का आनन्द ही लूंगी। एक बार और पढ़कर।
सिर्फ़ इतना कहने आया कि ..वर्ष की कुछ बेहतरीन पोस्टों के लिए सहेजी गई ये पोस्ट ..और अगली का इंतज़ार है ...कुछ फ़ोटो शोटो हो जातीं तो जाने क्या जुलम होता ....
अजय कुमार झा
सबसे पहले तो मनीषा जी "बोहेमियन औरत" का मतलब बता दीजिए। मैंने ढूढा पर नही मिला शब्दकोश में। और सांची यात्रा पर लिखा यह लेख पसंद आया। और अगर दूसरे शब्दों में कहूँ तो इस नालायकी पर नाज सा होता है। हाँ ये सच है अग्रेंजी और प्रेस में वाकई दम होता है। वैसे आप जब भी लिखती है जुदा लिखती है। और हाँ आपकी इस पोस्ट को पढकर अपनी एक तुकबंदी भी याद आ गई।
इस यात्रा संस्मरण ने सच सामने रख दिया है...अंग्रेजी से सब रौब में आ जाते हैं....और टुच्ची मानसिकता पर भी खूब प्रहार किया है...
मेरी टिप्पणी कहाँ गई? :(
घुघूती बासूती
हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले...
बेहतरीन पोस्ट ।
शायद इस ब्लॉगर कमेंट के साथ कुछ प्राब्लम है। आपकी टिप्पणी तो मुझे मिली ही नहीं।
जबरदस्त! लेखन तो बाद में लेकिन पहले जो आपने किया वह।
ये बताइये, आपसे मिलने के लिए पहले किनसे मिलना पड़ेगा आपके घर में?
भाई-भाभी या किनसे?
;)
विनीत के कमेंट को पढ़ने के बाद ऐसा लगा कि जैसे उसने काफी कुछ मेरे मन की बात कह दी हो।
एक महीने पहले आपका ब्लॉग मैने तीन-चार अपनी मित्राणियों को रेकमंड किया था कि इनके ब्लॉग को पढ़ो,
इन्होंने जो संस्मरणात्मक मोड में जा कर लिखे हैं, हॉस्टल लाइफ से लेकर बाकी सब।
और आज दोपहर में एक सरसरी नज़र में आपका लिखा, तुरंत अपनी मित्राणियों को फॉरवर्ड किया लिंक कि देखो
लिखना और लिखने से पहले उसे जीना इसे कहते हैं। इनमें से एक तो पहले एनडीटीवी और
फिर द पायोनियर में ट्रेनी रही है। इब देखो जी ये अंग्रजीदां मित्र कब पढ़ती है आपका लिखा।
लेकिन अपन तो पंखे हैं आपके……
@ Shayda - शायदा की बच्ची। प्रमोद के बिहाव पर कमेंट नहीं था? डरती है क्या उनसे? मैं तो नहीं डरती। इसलिए सच सच लिख दिया। वैसे झूठ क्यों बोलूं। डर तो लगता है यार। प्रमोद से कौन न डरे? अभी चार बार चिरकुट बोलकर सब मिट्टी पलीद कर देंगे। फिर बैठो सिर धुनते।
@ Sanjeet - संजीत जी, मुझे मिलने के लिए किसी और से नहीं, सीधे मुझसे ही मिलना पड़ेगा। मेरा कोई भाई-भाभी नहीं है। मां-पापा हैं, लेकिन वो मेरे पीए नहीं हैं। सो Direct contact to me। वैसे पंखे के लिए शुक्रिया। हवा यहां तक चली आई।
@ Shusheel - बोहेमियन औरत का मतलब मैं अलग से एक पोस्ट लिखकर समझाऊंगी। वैसे भी देखी है कोई बोहेमियन औरत वाली सीरीज तो अधूरी ही पड़ी है ना।
@ Shikha - शिखा जी, मुस्कान को चिपका ही रहने दीजिए। वैसे भी आती भी कितनी मुश्किल से है।
@ PD - प्रशांत, अगली बार चलाऊंगी इस स्पीड से गाड़ी। बॉम्बे-पूना हाइवे पर। एक बार उस हाइवे पर एक्टिवा से चलने का मन है।
@ Dimple - डिंपल, पता है पहले मुझे भी बहुत जलन होती है उन लोगों से जो जीवन में वो सब कर पाते थे, जो करना चाहते थे। जबकि मेरी जिंदगी बहुत बंधी हुई थी। एक हजार नियम, किसी ने थोपे नहीं, शायद मैंने खुद ही थोप लिए थे अपने ऊपर।
@ Vineet - तुम्हें तो अपनी सुरक्षा के लिए अंग्रेजी सीखने की भी जरूरत नहीं। तुम वैसे ही सुरक्षित हो। ये टिटम्मे तो हमें करने पड़ते हैं।
@ All - बाकी सबका बहुत-बहुत शुक्रिया। ऐसे जाने कितनी यादें हैं जो रह रहकर कहती हैं कि हम पर भी कलम चलाओ ना।
ह्म्म, तो सीधे आपसे ही मिलना पड़ेगा……
डर लगता है ……… ;) लेकिन आपकी लाईब्रेरी ने पहले ही मन मोहा हुआ है।
वैसे जे बात जानकर खुशी हुई कि कोई पीए नहीं है, मतलब कि गुंजाईश है आपका पीए बनने की
;)
वैसे गर्मी इतनी है कि पंखे की हवा भी बेअसर लग रही होगी
;)
उफ़्फ़, सच है और बहुत तीखा सच है...
मेरे एक दोस्त का बाईक गैन्ग है.. कुछ लड्किया भी है और हर वीकेन्ड वो निकल जाते है बाम्बे के आसपास बोहेमियन खोजो पर... ऐसा ही एक गैन्ग तुम भी बना लो.. वैसे भी इस पोस्ट पर महिलाओ के कमेन्ट ज्यादा अच्छे है... ऐसा लगता है कि सबके भीतर ये इच्छा है बस पूरी नही हो रही है..
तो मिल जाओ सब और शुरु कर दो अपनी खोजी यात्राये.. शायद ये समाज अपनी परिभाषाये बदले तब.. :)
कभी ऐसे ही एक व्यंग्य कविता लिखी थी-
भौतिक शास्त्र के अध्यापक ने छात्र से पूछा
विरोधी ध्रुव आकर्षित होते हैं,
इस बात का उदाहरण बताएं
छात्र ने उत्तर दिया
बंधे हुये पुरुष और
स्वतंत्र महिलाएं
असल में 'दुनिया का मेला
मेले में लड़की
लड़की अकेली शन्नो
नाम जिसका'
जैसा गीत कभी बहुत बेहूदा लगा था किंतु अनुभव ने बताया कि लड़की के अकेले होने का भी एक सौन्दर्य है। यह बात लगता है कि आप लोगों की समझ में भी आ गई है। हर दौर के अपने अपने फैशन होते हैं। कौन किस् गहने और किस शेम्पू क्रीम से सामने वाले को आकर्षित कर सकता है,यह अपनी अपनी पसन्द की बात है। आप लोग गयी हों या नहीं गयी हों किंतु कहानी भावोत्तेजक है।
वीरेंद्र जी, ये कहानी नहीं, सचमुच का यात्रा वृतांत है। गुजरे रविवार को ही ये कारनामा घटित हुआ।
मनिषा जी मेरी सीटी की आवाज सु्नाई दे रही है न? बहुत मजा आया आप की पोस्ट पढ़ के। वो गाने जो आप ने गाये वो चीप नहीं थे वो उस एनर्जाइसिंग थे उस समय के लिए एक दम फ़िट्।
लेकिन एक राज की बात बतायें…बम्बई में भी नयी नयी सीखी हुई लड़की को मर्दों की छेड़ाखानी का शिकार बनना पड़ता है, सब कुछ आत्मविश्वास पर निर्भर करता है। खास कर बेस्ट बस वाले(पब्लिक ट्रांस्पोर्ट) और ट्रक वाले नौसिखिया महिला को रोड से उतारने के लिए पूरी लगन से हूल देते निकलते हैं। और जब महिला डर जाती है तो खीसे निपोरते नजर आते हैं। हां जब वही महिला ड्राविंग में परांगत हो जाती है तो फ़िर बेफ़ि्क्री…।वैसे आप जब बम्बई-पूना के हाइवे का आनंद उठाने जाएं तो हम भी साथ हो लेगें अगर आप की इजाजत हो तो। आप कहें तो चीपो गानों का पिटारा साथ ले आयेगें…।:)
भय का एक नमूना यह भी है...
इंसान कहीं से भी अपने बचाव के लिए पर्याप्त ऑथिरिटी निकाल लेता है.. चाहे अंग्रेजी भाषा हो या लाल रंग का प्रेस का निशान..
कुछ लोगों की लेखन शैली में एक खासियत होती है जो पाठक को बांध कर रख देती है, ऐसा ही आभास आपकी इस पोस्ट से हुआ।
एक लम्बे अर्से के बाद आपके ब्लॉग पर फेसबुक के रास्ते आपकी इस पोस्ट तक पहुंचा। एक साँस में पूरा पढ़ गया। अब इस पोस्ट के अगले भाग का बेसब्री से इन्तजार है।
कमाल का लेखन ,एक मिनट के लिए भी मन नहीं भटकता ..पूरी तरह अटक गई आपके लेखन में ...
बोहेमियन स्त्री..एक विरोधाभास!!..ऐसी प्रजाति कही होती है क्या इस मुल्क मे..अगर ऐसा कुछ है तो किसी धर्मस्थल के पीछे आराम फ़रमाते उस श्वान को पता नही चला क्या..जिसे समाज कहते हैं..कि ऐसा कुछ सूँघते ही जिसके बदन पर तमाम आँखें उग आती हैं..दरअस्ल ऐसी स्त्री हमारे मर्दवादी समाज के लिये एक चुनौती होती है..अपनी मर्दानगी साबित करने का एक आमंत्रण..और स्त्रियाँ भी कितनी भोली होती हैं..सिर्फ़ सांची फ़तेह कर के खुश होने वाली..मगर इतना कर के भी वह दूसरे ग्रह की प्राणी बन जाती है..अलग जुबान बोलने वाली..अलग गानों को गाने वाली..मगर इतनी सी आजादी की कीमत कितनी बड़ी है..कि आधी आबादी के अस्सी प्रतिशत को सपनों मे भी किसी राजकुमार के घोड़े पर ही जाना होता है ऐसी ट्रिप पर..
Simply superb...
I have come here on Anita Kumar aunty's recommendation.. n feeling that if I had ignored this post, really I was going to miss smthng.
seems I need to reserve a room fr u in my blog's blogrole :)
Thanks Manisha
अद्भुत नारी चेतना और स्वतन्त्रता का उदघोष.
हम तो बीच सड़क शूटिंग करते वक़्त मर्दों से भी छिड़ चुके है.. अच्छा होता अंग्रेजी बोल देता..
वैसे ये अपूर्व क्या कह रहा है..
mujhe aapani yayavari yad aagyee.
हमारे पुराने लेखकों ने बोहेमियन शब्द का बहुत इस्तेमाल किया है । अब नई पीढ़ी के लेखक यह इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं । लेकिन इस शब्द का अर्थ इस पोस्ट में अपने विस्तार के साथ उपस्थित है । शाब्बास मनीषा ।
सटीक वर्णन और एहसास
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