Tuesday 19 February 2008

‘पतनशीलता’ क्‍या कोई मूल्‍य है

प्रत्‍यक्षा जी, पतनशीलता क्‍या कोई मूल्‍य है। पतन मूल्‍य कैसे हो सकता है। अच्‍छे और बुरे की, सत्‍य और असत्‍य की, उदात्‍त और पतित की सारी परिभाषाएं हर देश, काल और विचारधारा में कमोबेश समान होंगी। जो बात वस्‍तुत: पतित है, स्‍त्री मुक्ति के विमर्श में वह उन्‍नत कैसे हो जाएगी। नहीं होगी। ऐसा सोचना समझदारी की बुनियादी जमीन से ही विचलन है।

माया एंजिलो अपनी ऑटोबायोग्राफिकल राइटिंग, 'आई नो, व्‍हाय द केज्‍ड बर्ड सिंग्‍स' में ऐसी ही बैड वुमेन होने की बात कहती हैं। रंग के आधार पर बंटे समाज में वह काली है, अमीर और गरीब के खांचों में बंटे समाज में वह गरीब है और औरत और मर्द के शक्ति समीकरणों में बंटे समाज में वह एक औरत है। वह गरीब, काली और औरत, तीनों एक साथ है, जिसके नियमों को मानने के बजाय वो एक बुरी औरत होना चाहती है। 'ए रुम ऑफ वंस ओन' में वर्जीनिया वुल्‍फ ने भी एक मुक्‍त और बुरी औरत के बारे में लिखा है।

सिमोन, माया एंजिलो, वर्जीनिया सबके यहां ये बुरी औरत एक सटायर है, एक व्‍यंग्‍य। मुझे सांस लेने के लिए बुरी औरत बनना पड़ेगा तो ठीक है, बुरी ही सही, लेकिन सांस तो मैं लूंगी। लेकिन ये बुरी औरतें बुरे होने से शुरुआत करके न सिर्फ स्‍त्री समुदाय, बल्कि पूरी मनुष्‍यता को उदात्‍त करने की दिशा में जाती हैं। वो विचार, जीवन, कर्म सबमें एक वास्‍तविक मनुष्‍य की मुक्ति का लक्ष्‍य हासिल करती हैं। कर्म, रचनात्‍मकता और आत्‍म-सम्‍मान से भरा जीवन जीती हैं। उनकी पतनशीलता इस दुनिया के प्रति एक व्‍यक्तिवादी रिएक्‍शन और सिर्फ अपने लिए स्‍पेस पा लेने भर की लड़ाई नहीं है।


यह पतनशीलता का सटायर एक चीप किस्‍म की निजी आजादी में बदल जाएगा, अगर उसके साथ विचार, कर्म और रचनात्‍मकता का व्‍यापक फलक न हो। वह स्‍त्री मुक्ति के साथ समूची मानवता और मनुष्‍य मात्र की मुक्ति के स्‍वप्‍नों से जुड़ा न हो। अपने अंतिम अर्थों में वह एक बेहतर मनुष्‍य समाज के निर्माण के स्‍वप्‍न और कर्मों से संचालित न हो। यह अपनी कुछ खास वर्गीय और सामाजिक सुविधाओं का लाभ उठाते हुए दारू-सिगरेट पी लेने, रात में घूम लेने, एक सुविधा और सेटिंग से मिली नौकरी को अपनी आजाद जीवन की उपलब्धि की माला समझकर गले में टांगकर मस्‍त होने की बात नहीं है। ऐसा तो बहुत सारी औरतें कर लेती हैं, लेकिन वह मुक्‍त तो नहीं होतीं। वह पतित भी नहीं होतीं, क्‍योंकि जिस वर्गीय परिवेश से वो आती हैं, वहां वह पतनशील मूल्‍य नहीं है। दारू पीना मेरे घर में पतित मूल्‍य है, लेकिन सुष्मिता सेन के घर में तो नहीं होगा। रात 12 बजे दफ्तर से घर लौटना मेरे घर में पतनशील मूल्‍य नहीं है, लेकिन बेगूसराय के सरकारी स्‍कूल मास्‍टर चौबे जी के लिए बहुत बड़ा पतनशील मूल्‍य है। हंडिया, बस्‍तर, लखनऊ, मुंबई और पेरिस के समाजों में स्‍त्री के लिए पतनशील मूल्‍य अलग-अलग हैं। एक जगह जो पतित है, वह दूसरी जगह बड़ी सामान्‍य बात है।

‘पतनशील’ - इस शब्‍द की प्रतीकात्‍मकता को समझना और अपने विचारों को बड़े फलक पर देखना बहुत जरूरी है। और मुक्ति भी तो ऐसी कि ‘मैं ये होना चाहती हूं’ जैसी नहीं होती। मैं कोई चीज सिर्फ इसलिए नहीं कर सकती, क्‍योंकि मैं ये करना चाहती हूं। कोई स्‍त्री भी उतनी ही मुक्‍त होती है, जितना मुक्‍त वह समाज हो, जिसमें वह रहती है। मेरी मुक्ति का स्‍पेस उतना ही है, जितना मेरे जीवन का भौतिक, वर्गीय परिवेश मुझे प्रदान करता है। यह मुक्ति, अपने मन-मुताबिक जीने की इच्‍छा मेरे जींस की जेब में रखा लॉलीपॉप नहीं है, कि जब जी में आया, उठाया और खाया।

बेशक, यह बड़े सवाल हैं, बड़ा स्‍वप्‍न, बड़े विचार और बहुत बड़ा संघर्ष। इसे समझने के लिए बड़ी नजर, बड़ी समझ, बड़े विवेक और बड़े श्रम की जरूरत होगी।

10 comments:

VIMAL VERMA said...

पतनशीलता का सबक आपने अच्छा समझाया है..जो उदाहरण भी दिये है वो काबिलेतारीफ़ है.. इस मुद्दे पर मैं आपके साथ हूँ.लिखते रहिये

यशवंत सिंह yashwant singh said...

भाई ममता, तुम्हारे ब्लाग को खूब पढ़ा है, कई बार चाहा कमेंटियाना पर लिख नहीं पाया, टेम नहीं मिला. भई, लिखतो रहो और इस ब्लागिंग को तुम्हारी जरूरत है, नोकरी सोकरी तो मिलती चलती रहेगी.

बड़ी बुद्धिमान और समझदार हो. सहज और सरल हो. बस, तुम्हें किसी की नजर न लग जाए. जियो हजारों साल.

तुम्हारी पिछली पोस्ट मैं पतित होना चाहती हूं टाइप की जो हेडिंग थी, उस पोस्ट को तो पढ़कर मैं वाकई पूरे दिन खुश रहा, चलो, कोई भड़ासिन तो मिली....:)
यशवंत

Priyankar said...

पतनशीलता पर बहस ठीक-ठाक थी . पर यह उपसंहार उत्कृष्ट लगा . यह बहुत से संदर्भ साफ करता है . इसमें बहुत समझदारी और सदिच्छा है , इसीलिए अधिक प्रभावकारी भी .

मनीषा पांडे said...

यशवंत जी, मेरा नाम मनीषा है, ममता नहीं।

यशवंत सिंह yashwant singh said...

सारी भाई मनीषा, गलत नाम लिखने के लिए। देखो, नाम तक याद नहीं है, बस लिखने की तुम्हारी स्टाइल व कंटेंट व याद है।

आपकी तारीफ करने के क्रम में मैं अपनी एक असहमति का जिक्र नहीं कर पाया था, वो अब कर रहा हूं।

आपका उपसंहार सैद्धांतिक तौर पर अच्छा है, लिखा अच्छे से है, पर व्यावहारिक नहीं है। पतित होने के लिए जिस बड़े विजन, बड़े फलक, बड़े संदर्भों की शर्त लगा दी है वो उचित नहीं है।

भइया, लड़की को मुक्त होने दो। उस ढेर सारी चीजें न समझाओ, न बुझाओ और न रटाओ। उसे बस क से कबूतर पढाओ। माने अपनी मर्जी से जीने की बात सिखाओ। आत्मनिर्भर होने को कहो। दिल की बात को सरेआम, खुलेआम रखने का साहस दो।

मनमर्जी करेगी तो जाहिर सी बात है कि गलत भी करेगी, सही भी करेगी। दिल की बात कहेगी तो अच्छी बात भी कहेगी, बुरी बात कहेगी। पर ये क्या कि स्त्री पतित हो लेकिन विचारधारा का चश्मा लेकर, नैतिकता का आवरण ओढ़कर, महिलावादी विजन लपेटकर.....।

इस लड़की को अभी सिर्फ इसलिए पतित होने दो कि वह इससे अपने लिए स्‍पेस पा सकती है, वह इससे चीप किस्‍म की ही सही, निजी आजादी पा सकती है।

समूची मानवता, उदात्तता, रचनात्मकता...ये सब तब होंगी जब वह अपने निजी स्पेस की जंग को जीत ले। रिएक्ट करने में सफल हो जाए। इतने महान लक्ष्य अभी से देंगी तो वैसे ही महानता के बोझ से दबी स्त्री फिर और महान हो जाएगी और पतित होने से रह जाएगी।

मैं तो कहूंगा इस पतनशीलता को किसी मूल्य से न जोड़ो। इसे मूल्यहीन पतनशीलता कहना पड़े तो खुल के कहो। चीजें क्रमिक तरीके से विकसित होती हैं। अभी रिएक्ट कर लेने दों, स्पेस ले लेने दो, चीप किस्म के सुख जी लेने दो....अपने आप इससे मन उबेगा और फिर अंदरखाने बड़े सवाल उठने शुरू हो जाएंगे। लेकिन अगर पतन होने के लिए पहले ही ढेर सारे मूल्य वगैरह बना दिए तो फिर सब टांय टांय फिस्स.....

एक बढ़ियावाली बहस शुरू करने के लिए आपको बधाई।
जय भड़ास
यशवंत

इरफ़ान said...

यह देखना दिलचस्प है कि खेल-खेल में एक शब्द "पतनशील", जो एक वरिष्ठ ब्लॉगर लंबे समय से किन्हीं और संदर्भों में प्रयोग कर रहे थे, का यहाँ इस्तेमाल हुआ और बातें अपनी-अपनी तरह से समझी गईं. आप देख रही होंगी कि "हम लडकियाँ पतनशील होना चाहती हैं" शीर्षक पोस्ट के अर्थ अलग-अलग लोगों नें अलग-अलग निकाले, जो कि स्वाभाविक ही है. आख़िरकार आपको अपने कहने का आशय स्पष्ट करने के लिये और साथ ही बहस को ठीक दिशा में बढाने के लिये यह पोस्ट लिखनी पडी है. आपने सवालों को और अधिक विस्तृत फलक में देखने की माँग की है, जो आपकी चिंताओं को ज़ाहिर करता है. इसमें मौजूद आपकी प्रखर दृष्टि और जानने की ललक आश्वस्त करती है कि आपका उपरोक्त शीर्षक बयान ठीक से समझा जायेगा. लेकिन यहीं यह बात दुहराता हूँ कि एक शब्द के दुरुपयोग से गडबड शुरू हुई. प्रगति और पतन में से अगर चुनना ही हो तो आप क्या चुनेंगी, इसमें न तो मुझे कोई संदेह है और न ही आपके सामने कोई धुँधलका. याद रखिये हम साँपों, बिच्छुओं, गोजरों, केकडों और घडियालों से भी घिरे हैं और हमारा कोई भी स्व-उद्घाटन हमें इन सरीसृपों की लपलपाती जीभों की ज़द में ला देता है.
अगर सात महिला चिंतकों की सत्रह किताबों में सवालों के जवाब मौजूद होते तो हम वहीं से दवाओं की पुडियाँ बाँधकर घर लाते. हर समाज की अपनी ऐतिहासिक-सामाजिक विशिष्टता होती है और उस समाज के सवाल उसी ज़मीन पर चलने वाली बौद्धिक-सामाजिक हलचलों से उलझते-सुलझते हैं. आप और आपके साथी भी इसी जद्दोजहद में हैं और बहस पटरी पर आएगी यही उम्मीद है.

Reetesh Mukul said...

मैंने एक चीज़ देखा है, भारतीय नारियों में | अब चाहे वो किसी MNC में काम कर रही लड़की हो अथवा परिस्थितिवश चूल्हा फूंक रही लड़की | इन सब में अक्सर कार्य बोध नहीं होता | अगर समस्या हो तो ये समस्या का रोना लगाती हैं, और अगर सब कुछ मिल जाए तो बकवास में लग जाती हैं | जैसे मैंने यह देखा है कि इन का Concentration काफी weak होता है| चूँकि technical field में हूँ, सो मैंने अभी तक किसी भी लड़की को Mission Critical अथवा Technically Inclined काम करते नहीं देखा | Mostly अपने सपनो के दुनिया में जीती हैं, जो कि अक्सर काफी स्वार्थी दुनिया होती है | अब प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों हैं ? कहीं ना कहीं उनके "इस" तरह के पतित कहलाने कि कहानी कि साखाएं यहाँ से जुड़ती है | मैंने किसी भारतीय लड़की को ऐसा ब्लॉग लिखते नहीं देखा -- http://riofriospacetime.blogspot.com/ . अथवा ऐसा --- http://kea-monad.blogspot.com/ |
यह मेरा observation है, निष्कर्ष नहीं ? मनीषा जी, मेरी बातों पर हर बिन्दु से सोचियेगा |

मनीषा पांडे said...

धन्य हैं मनीषा की पतित होने की इच्छाएं। और, हॉस्टल में लड़कियों को मनीषा में अच्छी लड़की नहीं पतित लड़की दिखती थी इसका बड़ा अद्भुत चित्रण है। जबकि, हॉस्टल में पतितियाने की होड़ सी लगी रहती है।
हर्षवर्द्धन

travel30 said...

kasam se kya likhti hai aap :-)

hum aapko pane blogroll mein add karna chahte hai agar aap aagya kare to?

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

बहुत विस्तृत आयाम है आपके विचारों का.....लेकिन मुश्किल यह भी है....कि इतने विस्तीर्ण फलक पर इन्हें समझने की चेष्टा ही नहीं करता....सब अपनी समझ-भर की बात ले कर टिपियाने लगते हैं...और सच भी तो यही है " कोई अपनी ही नज़र से तो हमें देखेगा............एक कतरे को समंदर नज़र आयें कैसे......??!!