Monday 9 November 2009

आ बैल मुझे मार

लिखने के नाम पर आखिरी पोस्‍ट मैंने 3 तारीख को लिखी थी। उसके बाद घर और ऑफिस के बीच दौड़ लगाती थोड़ी मोहलत का इंतजार कर रही थी कि कब मौका मिले और मैं इलाहाबाद की रंग-रौशनी पर थोड़ी और नजरें घुमाऊं। लेकिन मोहलत कहां है। इतने दिन हुए, दोस्‍तों ने टोकना भी शुरू कर दिया। अरे इलाहाबाद स्‍टेशन पर उस चार साल के छोकरे को ऐसी इमबैरेसिंग पोजीशन में बिठाकर आप कहां खिसक लीं। बेचारा बच्‍चा बैठे-बैठे थक न गया होगा। वो हगकर चुका हो तो मोहतरमा किस्‍से को आगे बढ़ाइए। मैं भी बच्‍चे के दुख से कातर बस कलम उठाने ही वाली थी कि दो मुसीबतें मेरे घर पर आ धमकीं। रविवार की छुट्टी मैंने सोचा था, इसी कलमघसीटी के नाम होगी लेकिन जैसाकि जिंदगी में कितना कुछ होना बचा ही रह जाता है, सो यह भी बचा ही रह गया। बच्‍चे को थोड़ी देर और उसी गफलत में छोड़कर मैं रविवार को धमकीं इन दो मुसीबतों के किस्‍सा सुनाती हूं।
तो हुआ यूं साढ़े बारह किलो वजन और चांद पर साढ़े तेरस बाल वाले दो महान ब्‍लॉगर मेरे घर आए। उनमें से एक दिल्‍ली से पधारे थे। अब किसी को क्‍या दोष देना। मैंने खुद ही आ बैल मुझे मार किया था। एक दिन पहले भोपाली ब्‍लॉगर के घर खुद ही खुल्‍लमखुल्‍ला दावत का न्‍यौता देकर आई थी। तो मेरा दोस्‍त, ऑफिस में तथाकथित दूर के फूफा की तरह दूर का बॉस और वैतागवाड़ी पर सवार और दूसरा शब्‍दों की मोहब्‍बत में गिरफ्तार गीत और अनुराग आ धमके।
दोनों जैसे पहले से ही तय करके आए थे कि जी हलकान करके ही जाएंगे। दोनों ने आते ही मेरी किताबों पर हमला बोल दिया। ले दनादन किताबें निकाली और चुनी जानें लगीं कि कौन-कौन सी कहां कहां से फरार करनी हैं। कुछ चुरानी हैं, कुछ पूरी गुंडागर्दी से ऐंठ लेनी हैं और तो कुछ को इस वायदे पर ले जाना है कि पढ़कर लौटा देंगे। अब कौन लौटाता है। मुझे पता होता कि ये दोनों इतने बड़े किताब दाब हैं तो मैं पहले ही हा‍थ जोड़ लेती, कहती, दादा, तुम दोनों तो क्‍या पूरे परिवार का खाना बनाकर घर पहुंचा दूंगी, लेकिन मेरे घर की ओर नजर उठाकर भी देखना।
मैं रसोई में खाना बनाने में अपना जीवन गर्क कर रही थी और दोनों पानी और चाय और कॉफी की फरमाइशों के साथ किताबें उड़ाने में मशगूल थे। तभी अनुराग किचन में आया और पूछा, “आपको हार्डबाउंड पसंद है या पेपरबैक।”
मैंने संभावित खतरे को पहले ही सूंघ लिया और तपाक से बोली, “दोनों।”
15 मिनट इसी पर कटबहसी हुई।
बात यूं थी कि इस्‍मत चुगताई की आत्‍मकथा कागजी है पैरहन की दो प्रतियों पर अनुराग की नजर पड़ गई थी। एक हार्डबाउंड और एक पेपरबै‍क। बस उसी में एक को वो हथिया लेना चाहता था। मैं अपनी किताब की रक्षा में तुरंत हरकत में आ गई।
“अरे वो दूसरी मेरी नहीं किसी और की है।“”
“किसकी?”
मैंने आव देखा न ताव। एक नाम उछाल दिया, मेरे हिसाब से जिससे सब खौफ खाते हैं।
“किताब प्रमोद की है।”
मुझे यकीन था उनका नाम सुनते ही दोनों सनाका खाकर चुप बैठ जाएंगे। वैसे भी प्रमोद से मुंहजोरी करने का जोर किसी में भी नहीं है। उनकी किताब मारने की बात सपने में भी नहीं सोच सकते, भले वो आपकी पूरी लाइब्रेरी ढांपकर बैठ जाएं।
लेकिन तीर उल्‍टा पड़ा। गीत बोला, “अरे उनकी। तब तो तुम रख लो अनुराग।”
प्रमोद कुछ नहीं कहेंगे। वैसे भी इस्‍मत का नाम सुनते ही कसाइन सा मुंह बनाएंगे और दो-चार ओज, पामुक और मुराकामियों का नाम लेकर आपकी दिमागी नाकामियों पर लंबा भाषण सुनाएंगे। ससुर, मनीषा तुम्‍हारा कभी वास्‍तविक बौद्धिक संस्‍कार नहीं बनेगा। इस्‍मत और अपनी किस्‍मत को छाती से सटाए फुदकती रहोगी।”
गीत तो सचमुच उन्‍हें फोन करने पर उतारू था। मैंने किसी तरह दोनों के मोबाइल अपने कब्‍जे में लिए और किताब के ऊपर चढ़कर बैठ गई। “खबरदार जो अब किसी किताब को हाथ लगाया। खाना खाओ और खिसको।”
लेकिन वो मुंहजोर कहां मानने वाले थे।
इतनी मेहनत से तमाम व्‍यंजन पकाए, लेकिन तारीफ के दो बोल बोलते दोनो का मुंह कटता था। गीत ने थोड़ी तारीफ की, लेकिन खाना खत्‍म होते ही बोला, वो तो मैंने इसलिए कहा था कि कहीं परोसी हुई थाली ही मुंह के सामने से न खिसका ली जाए। अनुराग ने थोड़ी शराफत दिखाई और जाते-जाते तारीफ के चंद बोल कहे।
लड़ते-झगड़ते, बतियाते, हंसी-ठट्टा करते काफी वक्‍त गुजर गया। मैंने सारी निकली हुई किताबें वापस आलमारी में सजाईं और चैन की सांस ली। लेकिन जाते-जाते मारग्रेट एटवुड की एक किताब अनुराग उड़ा ही ले गया, इस वायदे पर कि पढ़ने ले जा रहा है। दिल्‍ली जाऊंगी तो याद से पहले अपनी किताब वापस लूंगी।
गिरते-पड़ते फोटो खींचने की भी नौबत आ गई। मैंने सींकची और आसमानी चांद की बेहतरीन तस्‍वीरें खींचीं। अनुराग लाल, काली, हरी जैकेट में ऐसे फोटो खिंचाने लगा कि देखने वाले को लगे कि सूटकेस भर कपड़ा साथ लेकर आया था, चेंज कर-करके फोटो खिंचाने के लिए।
फिर जब गीत मेरी फोटो खींचने को उठा तो मैंने साफ साफ कह दिया कि बासठ किलो की देह को फोटो में बयालीस न दिखा सको, तो कैमरा वापस रख दो। मेरी इज्‍जत का पलीदा करने की जरूरत नहीं, लेकिन वो कहां मानने वाला है। गीत ने कैमरे के कान में ऐसा मंतर फूंका कि वो बासठ के वजन को बहत्‍तर बताते हुए दनादन फोटो खींचने लगा। मेरी सारी सुंदरता मिट्टी में मिल गई। अब गीत दोबारा मेरी फोटो खींचकर देखे। बताती हूं मैं उसे।
तो इस तरह मरते-मराते मैं ये पोस्‍ट लिखने लायक बची रह गई।
एक जरूरी बात तो रह ही गई। अनुराग चाहे जितनी जैकेट बदले और किताब ढांपे, बेचारा है अच्‍छा। दिल्‍ली से मेरे लिए ढोकर बर्गमैन की झोला भर फिल्‍में ले आया था। उस कमरे में किताबों को लेकर जूतमपैजार हो रही थी, दूसरे कमरे में बर्गमैन की फिल्‍मों की पायरेसी चल रही थी।

कुल मिलाकर अच्‍छा वक्‍त गुजरा। ऐसे बुरे वक्‍त रोज रोज आया करें और खुशियों की गुनगुनी महक छोड़ जाया करें। बैल ऐसे हों तो मैं बार बार, आ बैल मुझे मार करूं।

फिलहाल और तस्‍वीरें अपलोड नहीं हो पा रही हैं। अगली पोस्‍ट में अलग से तस्‍वीरें भी लगा दूंगी। भारी लोगों की भारी तस्‍वीरें। इतनी आसानी से चिपक जाएंगी क्‍या। फिलहाल फोटो अपनी कल्‍पना में देखिए और वर्णन मेरे ब्‍लॉग पर।

21 comments:

Amrendra Nath Tripathi said...

'' ऐसे बुरे वक्‍त रोज रोज आया करें और खुशियों की
गनगुनी महक छोड़ जाया करें। बैल ऐसे हों तो मैं
बार बार, आ बैल मुझे मार करूं।''--
खामखा की स्थितियों में सीखना ज्यादा होता है |
सुन्दर प्रस्तुति
धन्यवाद् ...

शायदा said...

मनीषा मैंने पूरी पोस्‍ट ध्‍यान से पढ़ी और मुझे शक है कि इस रिपोर्ट के कई हिस्‍से तुमने शाया नहीं किए हैं। इस तरह की हड़बडि़यों में फंसी रहोगी तो क्‍या ख़ाक बौदि़धक संस्‍कार उपजेंगे...अरे काहे नहीं एक सींकिया और दूसरे चांद को काम पर लगा दिया और खुद किताबों के आगे शील्‍ड की तरह खड़ी नहीं हो गई। खै़र अब तुम्‍हें कौन समझाए, जब आ बैल मुझे मार वाली नीति पर चलना ही ठहरा तो। और बुआ-फुफा की किताबें तो कम से कम सामने मत रखो, नाहक लोगों को भरमाती रहती हो।

Udan Tashtari said...

बढ़िया मेल मिलाप का वर्णन रहा.

विनीत कुमार said...

किताब उड़ानेवाले के लिए व्यंजन बना-बनाकर खिलातीं हैं और हमें कायदे से थैंक्यू तक नहीं कहा। भोपाल नहीं तो न सही,इलाहेबाद लिए चलती। बड़े-बुजुर्ग का गोड़ छूकर भविष्य में खुशहाली के लिए आशीर्वाद तो मिल जाता।.

प्रवीण त्रिवेदी said...

इतने बेदखल लोगों के साथ इतनी सीनाजोरी ? तस्वीरों का इन्तेजार रहेगा!

Puja Upadhyay said...

आपके बुक रैक को देख कर तो हमें भी जलन होने लगी है. :) इतनी किताबें हों तो उडाने का मन करना स्वाभाविक है, इसमें उनका क्या दोष...बेचारे. :) bargman की फिल्मों की piracy मुबारक हो, उम्मीद है जल्दी ही रिव्यू भी आएगा ब्लॉग पर.

डॉ .अनुराग said...

गलती कर दी आपने .जो बुक शेल्फ का फोटो छाप दिया .कुछ इंसोरेंस विन्सोरेंस करा रखा है के नहीं ?....इधर हम राजकमल प्रकाशित ...मन्नू भंडारी की आत्मकथा के लिए इधर उधर फोन लगा रहे थे ..उधर आप खजाना लिए बैठी है ...खैर प्रमोद जी के नाम का बेजा इस्तेमाल करने के बाद भी क्या आपकी किताबे बची ?

anurag vats said...

@shyadaji...inhone bua-fufa ki dheron kitaben laga rakhi thi...to is mamle me bhi ye bailon ko thitholi ka mauka de gain...doosri baat yah ki kai kitabon k do-do titles the...maslan doctor zhivago,kagzi hai pairhan wgairah-2...mujhe maloom hota ki 8 nov. 2009ko is tarah do milengi to 2003 me use jebkharch bachakar thode khareedta :-)...kagzi hai pairah to inhone nahi hi diya...had kanzad hai baba manisha...siway pahle k hue karar k mutabik bergman ki autobiography hi di...atwood to maine 17 tarah k jhanse dekar liya...

@ manisha...kya naam diya...matlab kaya dubli hai to सींकची...:-)...aur photos...ahem-ahem...ye लाल, काली, हरी जैकेट nahi sab ek hi kapde ke rang the...mujhe zukam tha yah bhi likh deti...

but anyway...i spent quality time in bhopal with geet & his family...& u ppl...it ws my first trip, after long four yrs dumped in delhi...& u see...u boasted so much on phone tht u wud show me jheel & bharat bhawan...u didnt even mention this thing...anyways i managed to see those places with geet...i m jealous with the place where u put up...its such a beautiful flat...this comment has got a long tail i think...i wud cut it now...thanks very much for the lunch...but the black coffee was terrible...improve it...:-)

regards,
av

ps...

1.plz dont put our embarrassing phtos yar...atleast i look terrible in them...

2. u see...bail hi sahi, but ur content was good. so, u written a btr post...:-)

Sanjeet Tripathi said...

kitabo k sath laziz khana bhi milega....wah wah

mai bhi aata hu fir to ;)

सागर said...

रोचक घटना... पढ़कर मेरे होंठों पर भी मुस्कराहट फ़ैल गयी... किताब वाले स्वार्थ से मैं भी दोस्ती करना चाहता हूँ... क्या इरादा है एक और किताब्खोर के बारे में ???

Geet Chaturvedi said...

भोजन की तरह ही लज़ीज़ पोस्‍ट, चटपटी.

Lalit Kumar said...

मनीषा जी,

आपकी लेखन-शैली रोचक है। लिखती रहें।

प्रमोद ताम्बट said...

मोहतरमा,
आपके इस अनुभव पर कहने को कुछ नहीं सिवा किताब चोरों को कोसने के, परन्तु एक गुजारिश है कि आप जब भी प्रमोद का जिक्र करें उसके आगे सिंह लगा दिया करें, क्योंकि आपकी पोस्ट में प्रमोद नाम देखकर लोग दनादन ईमेल करके मुझे परेशान करने लगते हैं, जबकि भोपाल में रहकर भी मैं तो आप से अब तक मिला तक नहीं।

प्रमोद ताम्बट
भोपाल
www.vyangya.blog.co.in

आनंद said...

आपका लिखने का स्‍टाइल गजब का है....
पढ़ने में मज़ा आ जाता है।

- आनंद

शशिभूषण said...

आपको खुश और सक्रिय देखकर बहुत अच्छा लग रहा है.वरना आपसे मिलकर तो यही लगा था कि आप इस बात से बेहद दुखी हैं कि ब्लाग जगत में शैतान तथा हिन्दी साहित्य में चिरकुट भरे हुए हैं.गीत जी पर खूब गैर किया आपने वे उजले, समृद्ध और अत्यंत गतिशील सिर के वाहक हुए जा रहे हैं.

Randhir Singh Suman said...

nice

Naimitya Sharma said...

kya chhuti pe chale gaye....?

Anonymous said...

आह, हम बैल ना हुए :-)

किताबें!? मेरी चहक वैसी ही है जैसे धारा के विज्ञापन में उस बच्चे की होती है 'जलेबी!?' बोलते हुए :-)

और फिर 56 नहीं 712 !! ढैण-टणैण। चलो आज गुल्लक तोड़ें-भोपाल जाने के लिए।
शरद जी को लौटने दीजिए मुम्बई से

वैसे आपकी लेखन शैली भाती है।

बी एस पाबला

संजय @ मो सम कौन... said...

मनीषा जी, ये प्रगतिशील नारी का बयान पढकर मजा आ गया। सींखची गुलाब और विलायती चांद तो बहुत खुशकिस्मत निकले, दावत भी खींची और किताबें भी लूट कर ले गये - चुपडी और दो-दो: बाकी पाबला साहब ने तो हमारे मन की कह दी।

Ashok Kumar pandey said...

ऐसे दोस्त सबको मिलें…
वैसे चांद वाले को घर का न्योता हमने भी कई बार दिया है। अब मालूम हुआ कि कौन सी मुसीबत न्योती है!

आपसे संवाद के स्टाल पर छोटी सी मुलाकात याद है हमें।

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

हमारे पास भी कभी एक शेल्फ़ हुआ करती थी..अभी चन्द किताबे तकिये के पास पडी रहती है...उनपर सर रख्कर सो जाता हू..सोचता हू शायद सारे पात्र अपने आप दिमाग मे चले जाये और मुझे कहानी पढनी न पडे..
साईड बार मे आपकी फ़ेव बुक्स की लिस्ट लगा दीजिये, पहले उनही को खत्म करेन्गे..