ज्यादातर दोस्तों ने किताबें खरीदना छोड़ दिया है और किताबों के बारे में बात करना भी। गलती उनकी भी नहीं है। जीवन ही ऐसा है। तंख्वाह के अंकों में जीरो बढ़ाते जाने और कॅरियर में एक आला मुकाम हासिल करने के लिए लोग मुंह अंधेरे दफ्तरों के लिए निकलते हैं और रात गए वापस लौटते हैं। बचा वक्त फेसबुक सरखी तमाम बुकों के नाम अलॉट है पर किसी और बुक की जगह नहीं है। लड़कियां तो और भी रिकॉर्ड तोड़ काम कर रही हैं। किताबें न खरीदने और न पढ़ने के मामले में वो तो मर्दों से भी चार कदम आगे हैं। हिंदुस्तान में चायनीज और कॉन्टीनेंटल का मार्केट बढ़ते ही वो बड़े गर्व से घरों में भी इसे बनाने की कला सीख रही हैं। बाकी समय बच्चों की नाक पोंछती हैं, पति का पेट भरती हैं और बिल्डिंग की औरतों के साथ इस गॉसिप में मुब्तिला रहती हैं कि कौन कहां किसके साथ फंसा हुआ है। किसके यहां कौन आया और गया। किसका चक्कर किसके साथ, किसकी बीवी किसके हाथ।
बॉम्बे में तकरीबन आठ साल इस हॉस्टल से उस हॉस्टल के बीच फिरते हुए जहां-जहां मैंने ठिकाना बनाया, वहां सिर्फ दो लड़कियां मुझे मिलीं, जिनकी किताबों से कुछ जमती थी। एमए में मेरी रुममेट शहला भी बैंड स्टैंड और फैशन स्ट्रीट का चक्कर लगाने वाली शोख हसीनाओं को लानत भेजती और दिन भर अपनी किताबों में सिर गोड़े रहती थी। वह अंग्रेजी से एमए कर रही थी और उसी से मैंने एलिस वॉकर, टोनी मॉरीसन, एन्नी सेक्सटन, नादिन गॉर्डिमर, मारर्ग्रेट एटवुड वगैरह के बारे में जाना और उनकी किताबें पढ़ीं। वरना इलाहाबाद में तो हम गोदान को साहित्य का दरवाजा और प्रगति प्रकाशन की किताबों को आखिरी दीवार मानकर मगन रहते थे।
लेकिन कुछ तो वो उम्र ही ऐसी थी और कुछ हम ज्यादा नालायक भी थे, कि अंग्रेजी की किताबों से ढूंढ-ढूंढकर इरॉटिक हिस्से पढ़ते और कंबल में मुंह छिपाकर हंसते। वो लाइब्रेरी से लेडी चैटर्लीज लवर खासतौर से इसलिए लेकर आई थी कि उसके कुछ विशेष हिस्सों पर गौर फरमाया जा सके। ऐसे हिस्सों का ऊंचे स्वर में पाठ होता था। हम मुंह दबाकर हंसते थे। ऊऊऊ……. सो सैड, सो स्वीट, सो किलिंग, सो पथेटिक। टैंपल ऑव माय फैमिलिअर पढ़ते हुए शहला बीच-बीच में कहती जाती, ये तो हर चार पन्ने के बाद चूमा-चाटी पर उतर आते हैं।
मैं निराशा से भरकर कहती, ‘बस इतना ही।’
‘अरे नहीं, और इसके आगे और भी है मेरी जान।’ शहला आंखें मटकाती।
पढ़-पढ़-पढ़।’ और फिर एक सेशन चलता ऐसे हिस्सों का। लेकिन यूं नहीं कि बस काम भर का पढ़कर हम किताब को रवाना कर देते। हम गंभीरता से भी पढ़ते थे। उसने मुझे एन्नी सेक्सटन पढ़ाया और मैंने उसे हिंदी कविताएं। दूसरी पढ़ने वाली लड़की थी, डॉकयार्ड रोड के हॉस्टल में केरल की रहने वाली बिंदु, जिसने मुझे वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलीट्यूड पढ़ता देखकर कहा था कि वो ये किताब मलयालम अनुवाद में चार साल पहले ही पढ़ चुकी है। उसे न ठीक से हिंदी आती थी और न अंग्रेजी। मलयालम मेरे लिए डिब्बे में कंकड़ भरकर हिलाने जैसी ध्वनि थी। फिर भी पता नहीं कैसे हम एक-दूसरे की बातें समझ लेते थे और दुनिया भर की किताबों और कविताओं के बारे में बात करते थे।
इसके अलावा लड़कियों की दुनिया बहुत पथेटिक थी और वहां किताबों के लिए ढेला भर जगह नहीं थी। वो बहत्तर रंग और डिजाइन के चप्पल और अंडर गारमेंट्स जमा करतीं, तेईस प्रकार की लिप्सटिक और ईयर रिंग्स और इन सबके बावजूद अगर उनका ब्वॉय फ्रेंड पटने के बजाय इधर-उधर मुंह मारता दिखे तो उस दूसरी लड़की को कोसते हुए उसके खिलाफ प्लानिंग करती थीं। उन्हें मर्द कमीने और दुनिया धोखेबाज नजर आती। लेकिन कमीने मर्दों के बगैर काम भी नहीं चलता। चप्पलों का खर्चा कौन उठाएगा? लब्बेलुआव ये कि मोहतरमाएं दुनिया के हर करम कर लें, पर मिल्स एंड बून्स और फेमिना छोड़ किताब नहीं पढ़ती थीं और मुझे और शहला को थोड़ा कमजेहन समझती थीं।
ऐसा नहीं कि मैं लिप्सटिक नहीं लगाती या सजती नहीं, फुरसत में होती हूं तो मेहनत से संवरती हूं, लेकिन अगर काफ्का को पढ़ने लगूं तो लिप्सटिक लगाने का होश नहीं रहता। हॉस्टल के दिनों में नाइट सूट पहने-पहने ही क्लास करने चली जाती थी और आज भी अगर मैं कोई इंटरेस्टिंग किताब पढ़ रही हूं तो ऑफिस के समय से पांच मिनट पहले किताब छोड़ जो भी मुड़ा-कुचड़ा सामने दिखे, पहनकर चली जाती हूं। होश नहीं रहता कि बालों में ठीक से कंघी है या नहीं। यूं नहीं कि मैं चाहती नहीं कि लिप्स्टिक-काजल लगा लूं पर इजाबेला एलेंदे के आगे लिप्सटिक जाए तेल लेने। लिप्सटिक बुरी नहीं है, लेकिन उसे उसकी औकात बतानी जरूरी है। मैं सजूं, सुंदर भी दिखूं, पर इस सजावट के भूत को अपनी खोपड़ी पर सवार न होने दूं। सज ली तो वाह-वाह, नहीं सजी तो भी वाह-वाह।
और कभी महीने में एक-दो बार मजे से संवरती भी हूं। ऑफिस में सब कहते हैं, आज शाम का कुछ प्रोग्राम लगता है। मैं कहती हूं हां, मुराकामी के साथ डेट पर जा रही हूं।
कौन मुराकामी?
एक जापानी ब्वॉयफ्रेंड है।
अल्लाह, हमें हिंदुस्तानी तक तो मिलते नहीं, इसने तो जापानी पटा रखा है।
***
जीवन की रौशनियों और तारीकियों से आंख-मिचौली खेलते मेरी राह में ऐसे ठहराव आए कि कभी तो मैंने किताबों से नाता तोड़ लिया तो कभी किताबों में ही ठौर मांगी। बॉम्बे में आठ साल प्रणव के साथ के दौरान मैंने किताबें नहीं खरीदीं क्योंकि उसके पास हजारों किताबें थीं। लगता था, वो सब मेरी भी तो हैं। हमारे जीवन साझे हैं तो किताबें भी हुईं। उसके घर की आधी किताबें हॉस्टल के मेरे कमरे में गंजी रहती थीं। फिर जब प्रणव दूर चला गया तो उसके साथ सारी किताबें भी चली गईं। फिर बॉम्बे छोड़ने के बाद मैं कूरियर से एक-एक करके उसकी किताबें वापस भेजती रही। एक दिन सारी किताबें वापस हो गईं और इसी के साथ उसकी किताबों से भी नाता जाता रहा। चार साल हुए, अब मैं फिर से थोक में किताबें खरीदने लगी हूं। अब जेब भी इजाजत देती है कि कुछ अच्छा लग जाए तो पट से खरीद लूं। नौकरी पढ़ने की इजाजत जितनी भी देती है, सुबह-रात मौका मिलते ही पढ़ती हूं। कभी दो-चार दिन की छुट्टी हाथ लगे तो किताबों के साथ सेलिब्रेट करती हूं।
पापा के पास सैकड़ों किताबें हैं और ताऊजी के पास हजारों। लेकिन घर में अब कोई किताब नहीं पढ़ता। ताऊजी से कहती हूं कि उनकी सारी किताबें मेरी होंगी। पहले ताईजी जब भी मेरी शादी के बाबत बात करतीं तो मैं कहती थी कि दहेज में ये सारी किताबें दे देना। ताईजी कहतीं, तेरी सास किताबों समेत उल्टे बांस बरेली भेज देगी। मैं कहती, बुढ़िया की ऐसी की तैसी। उसे मैं आगरा भेज दूंगी। ऐसे ही हम सब खचर-पचर करते गुल्लम-पुल्लम मचाए रहते हैं, पर किताबों से मुहब्बत कम नहीं होती।
जब मां पास नहीं होती तो किताबें मां हो जाती हैं। जब कोई प्रेमी नहीं होता दुलराने के लिए तो किताबें प्रेमी बन जाती हैं। जब सहेली नहीं होती खुसुर-पुसुर करने और खिलखिलाने के लिए तो किताबें सहेली हो जाती हैं। किताबें सब होती हैं। वो अदब होती हैं और जिंदगी का सबब होती हैं।
समाप्त।
पिछली कड़ियां - मेरी जिंदगी में किताबें - 1
मेरी जिंदगी में किताबें - 2
Saturday, 20 February 2010
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28 comments:
लिखते रहिये, काफी ईमानदार भाषा है आपकी डायरी की हमें भी काफी कुछ पढ़ने को मिला।
लिखते रहिये, काफी ईमानदार भाषा है आपकी डायरी की हमें भी काफी कुछ पढ़ने को मिला।
लिखते रहिये, काफी ईमानदार भाषा है आपकी डायरी की हमें भी काफी कुछ पढ़ने को मिला।
मेरे रोंगटे खड़े हो गए.
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कुछ और कहने की जरुरत है ?
ओह्ह... अभी दूसरी पोस्ट पर कमेन्ट लिखने की सोच ही रही थी कि ये अंतिम पोस्ट भी आ गयी...पर मुंबई हो या पटना या इलाहाबाद पढने वाले हमेशा अल्पसंख्यक ही होते हैं और ये भी है...कि अपनी जैसी रूचि वाले हर जगह मिल ही जाते हैं...
मुंबई में हिंदी किताबें तो नहीं मिलतीं..पर अंग्रेजी किताबों का ज़खीरा है,यहाँ...'Not without my daughter'.....मैंने ३ बजे सुबह ख़त्म की थी...और ५ बजे सुबह उठकर बच्चों को स्कूल भेजना था...ऐसे ही 'Suitable Boy' जब पढ़ रही थी तो रामायण जितनी मोटी वो १५०० पेज की किताब टेबल पर रख कर सीधे बैठकर पढनी पड़ती थी...सब मजाक बनाते..कोई एग्जाम है क्या..?
अंग्रेजी लेखकों से अनजान जब मैंने ' Nancy Friday ' की किताब पर हाथ रखा तो librarian ने सर हिलाया...आपको अच्छी नहीं लगेगी आप Nora Robert को पढ़िए.
बड़ी अच्छी तरह किताबों से जुडी यादों को सजाया है..हमने भी एन्जॉय किया.
जब मां पास नहीं होती तो किताबें मां हो जाती हैं। जब कोई प्रेमी नहीं होता दुलराने के लिए तो किताबें प्रेमी बन जाती हैं। जब सहेली नहीं होती खुसुर-पुसुर करने और खिलखिलाने के लिए तो किताबें सहेली हो जाती हैं। किताबें सब होती हैं। वो अदब होती हैं और जिंदगी का सबब होती हैं।
सब कुछ तो इन शब्दों ने कह दिया जी अब हम क्या कहें। वैसे आपकी पोस्ट अलग अनौखी होती है।
सही कहा आपने...किताबें ज़िंदगी का सबब होती हैं ।
15 Miles the milestone ki shooting barf me... aur tumhari baaton se thand me garmi!
Milestone ki lekhika JAYA SNOWA ka is telefilm me ek samvaad hai :" Shabon aur kitaabon ke jungle se guzre bina Zindagi ka guzar nahin. Maun tak pahunchne ke liye kita bolna aur padhna padta hai. Uff!
Tumhari isse pahle ki post me bata chuki hoon ki tum kya cheez ho.
Tum me jo ladki hai, wo 'milestone' aur Snowa Borno's blog me kitni chup chup hai!
Ab kitna koi bole?
Chalo ik baar fir se ajnabi ban jaayen ham dono.
अरे बाप रे। मनीषा पहले पाराग्राफ में लगा कि तुमने मुझे भी धो दिया है। पर मैं धीरे धीरे दफ्तर के आला कामों से खुद को अलग करने लगा हूं। दो कारण से कि एक दुनिया देख सकूं और वक्त बचे तो किताबें पढ़ सकूं।
लेकिन पढ़ने के चक्कर में लिखना मत भूल जाना।
आपको पढ़कर पिछले साल एक घटना याद आई। दफ़्तर के एक दोस्त हर सण्डे को चले आते थे। उस दिन उनको झेलने का बिल्कुल मूड नहीं था। फोन आया तो मैने कहा,'यार एक दोस्त आई हैं।'उनने पूछा,'कौन' मैने झुम्पा लाहिरी का नाम बताया…दो सेकेण्ड बाद वे बोले भाई इस सण्डे तुम निपटा दो अगले सण्डे उनकी दावत मेरे घर है।
तब से अब तक उन्हें किताबें देके उस मज़ाक की क़ीमत चुका रहा हूं!!!
वाकई अब जेब इजाजत देती है तो पढ़ने के लिये वक्त निकालना बहुत मुश्किल हो जाता है।
किताबों से दोस्ती गहरी होनी चाहिये।
बहुत अच्छा है
किताबों में दुनिया की सारी बातें दर्ज है
किताबें हमको दुनिया के तमाम विचार ख्याल से मुलाकात कराती है
आपके ख्याल की कोई किताब आप पाठकों के लिए भी बताएं
ओह....अद्भुत शब्द शिल्प और ये अंदाज़-ऐ-बयां.....ऐसे में अगर हमारी अपेक्षाएं कुछ बढ़कर हों तो इसमें गलत क्या है....आशा है आते-जाते यायावरों को 'वोल्तेयर' की याद भी दिलाती रहेंगी....किताबों की दुनिया का बाशिंदा मैं भी रह चुका हूँ....'स्ट्रगल' ('संघर्ष' शब्द में वैसे अर्थ-बिम्ब नहीं है। दर्द और तनाव, टूटन और नाउम्मीदी के छीलते काँटों की सटीक व्याख्या 'स्ट्रगल' शब्द से ही होती है: 'मुझे चाँद चाहिए-सुरेन्द्र वर्मा', ३७०-३७१) की वो अधूरी दास्ताँ याद आ गयी....कानपुर की सड़कों पर गुजरे आठ साल में इन किताबों के सहारे जिंदगी को जितना समझा है शायद पूरी जिंदगी ही नाकाफी होती.....अजित
माशा अल्लाह! मनीषा, क्या चीज लिखी है। अभी चारो हिस्से पढ़ गया हूं। अहसासे कमतरी से भर गया हूं। किताबें न पढ़ पाने का दर्द लिए-लिए मर गया हूं। अलबत्ता, पुराना राजनीतिक कार्यकर्ता होने की बीमारी के तहत यह सलाह देना जरूरी समझता हूं कि दुनिया को पढ़ना भी किताबें पढ़ने जितना ही दिलचस्प होता है। कभी-कभी उससे भी ज्यादा। आखिर कबीर जैसे हमारे पुरखे कोई ज्यादा पढ़े-लिखे लोग तो थे नहीं। क्या मुझे मनीषा की पोस्टों में इधर कुछ सिनिसिज्म नजर आ रहा है? कोई कटाऊं टाइप चीज? शायद नहीं। यह सिर्फ अपनी बात जोरदारी के साथ कहने की झनक है। लेकिन फिर मुझे इस कदर खुद पर तमाचे पड़ते से क्यों लग रहे हैं....
मनीषा जी बहुत अच्छा लिखा है भाषा का प्रवाह जब दिल की सच्चाइयों के साथ आता है तो चमक ही कुछ और होती है ... किताबें अदब भी होती हैं , सबब भी वाकई दिल को छू लिया ...बधाई
मेरा मानना है किताबे आप को ओर बेहतर इन्सान बनाती है ...
मनीषा जी, नहीं जानता कि क्यों वापस आया हूँ....अभी-२ 'The Bicycle Thief (१९४८)' देखकर उठा हूँ.....मन अजीब सी कडुवाहट से भर गया है.....जबसे खोला है आपका पेज तो बस बंद ना कर सका और फिर से नज़र पड़ गयी....टी आर पी और Dane Carlson का लिंक मुंह चिढ़ा रहा है.....'क्रांतिवीर' के उलट आज हरेक 'प्रताप' को इस कलमवाली बाई से झूठी ही सही उम्मीदें तो हैं ही.....अतिरेक है जानता हूँ....लेकिन ये मुई उम्मीदें भी ना 'बेहया' कि तरह उग ही आती हैं.....शुभेच्छा
नोट: मैंने कानपुर के सड़कों की धूल १९९४-२००२ दरम्यान फांकी थी (सन्दर्भ: पिछली टिपण्णी).
क्यों, क्यों और क्यों इतनी जल्दी खत्म?
अभी तो आप फ्लो में आई थीं और इतनी जल्दी ही यह श्रृंखला समाप्त?
नाह, बात हजम नहीं हुई।
यूं नहीं आपकी लेखनी के पंखे है अपन।
कहीं ऐसा न हो कि फिर एक लंबे समय के लिए गायब हो जाएं आप
आन-ठान के चक्कर में जितने पैसे आपने प्रणव को कूरियर करके किताबें भेजने में लगाए उससे बहुत सारी किताबें आ जाती।..लेकिन आपको कौन समझाए।
मैं तो आपकी रखी किताबें इसी लोभ से कूरियर नहीं कर रहा कि जितने पैसे कूरियर में लगाउंगा उतने पैसे से कोई किताब ही आपको खरीदकर दे दूं।..
लोगों ने और खासकर लड़िकयों ने अगर किताब पढ़ना बंद या कम कर दिया है तो इसकी बड़ी वजह है कि वो जो करना चाहती है,जो बनना चाहती हैं,वहां किताबों की जरुरत बहुत अधिक नहीं रह गयी है। मैं अगर न्यूज चैनलों और मीडिया के रेफरेंस से बात करुं तो वहां गिनती के ऐसे दो-चार लोगों की जरुरत होती है।..फिर वो क्यों और पढ़कर क्या करें? अपनी बेहतरी के लिए पढ़नेवाला फ्लेवर रह ही कितना गया है?
आपको पढ़ना, यादों को पढ़ना जैसा लगता है। किताबों को अपना साथी माननेवाले आप जैसे लोगों के लेखों को पढ़कर एक दूसरी दुनिया की सैर हो जाती है। साफ शब्दों में कहूं, तो इधर जितने पोस्ट पढ़े या लेख देखे, उनमें आपकी पोस्ट सबसे अलग और मंत्रमुग्ध कर देनेवाला है। इस पोस्ट को पढ़ने के बाद किताबें पढ़ने की प्रेरणा मिलती है।
किताबें पढ़ने का शौक होकर भी उनके लिए पर्याप्त वक़्त ना निकाल पाना मन को सालता है। पर किताबों से अपने प्रेम को आपने इस लेखमाला में उकेरा है उससे हर पुस्तकप्रेमी कुछ हद तक ही सही प्रेरित अवश्य होगा।
अपने इन संस्मरणों को जिस ईमानदारी और रोचकता से पेश करने के लिए आपको धन्यवाद !
जब मां पास नहीं होती
तो किताबें मां हो जाती हैं
जब कोई प्रेमी नहीं होता
दुलराने के लिए
तो किताबें प्रेमी बन जाती हैं
जब सहेली नहीं होती खुसुर-पुसुर करने और खिलखिलाने के लिए
तो किताबें सहेली हो जाती हैं।
किताबें सब होती हैं।
वो अदब होती हैं और
जिंदगी का सबब होती हैं
मनीषा जी कितनी अच्छी कविता लिखी है आपने !!!
फिर जब प्रणव दूर चला गया
तो उसके साथ सारी किताबें भी चली गईं।
फिर मैं कूरियर से
एक-एक करके उसकी किताबें वापस भेजती रही। एक दिन सारी किताबें वापस हो गईं
और इसी के साथ
उसकी किताबों से भी नाता जाता रहा।
चार साल हुए,
अब मैं फिर से थोक में किताबें खरीदने लगी हूं। अब जेब भी इजाजत देती है
कि कुछ अच्छा लग जाए तो पट से खरीद लूं।
यह कविता भी अच्छी है बस ..थोड़ा शिल्प ठीक करना होगा ?
मनीषा जी आप तो हिंदी लेखिकाओं क़ी "bandit queen हें, विशेष रूप से यह लाइन" लिप्सटिक बुरी नहीं है, लेकिन उसे उसकी औकात बतानी जरूरी है
हिंदी में लेखिकाओं का हमेशा से अकाल सा रहा है, मैं बचपन में गौरा पन्त शिवानी , इस्मत चुगताई , अमृता प्रीतम को पढता था और समकालीन साहित्य कारों में इलाहबाद के के arthur kanan dyle कहे जाने वाले "इब्ने सफी B .A " के जासूसी नोवेल और "प्यारे लाल " जी का पटरी साहित्य का भी अध्यन कर चुका हूँ .आज का ब्लॉग भी बहुत रोचकहै
जैसे ही पढता गया, हल्की सी मुस्कुराहट आती गयी...आप दिल से लिखती है.. एक पाक-साफ़ दिल से...
पब्लिक डिमान्ड पर उन प्यारी किताबो के नाम बताये जाये... मुझे पढनी है **blush**
...........ADBHUT.
...........ADBHUT.
किताबों से आपके लगाव को देखकर मुझे आपसे लगाव हो गया है। साधुवाद आपकी इस भावपूर्ण लेखनी के लिए। मैं तो एक ऐसे अनुभव से गुजरा हूँ जिसमें आलमारी में बन्द किताबों ने मुझे रुला दिया था। यहीं इलाहाबाद की घटना है जिसका जिक्र आप मेरी दो पोस्टों में पाएंगी।
किताबों की खुसर-फुसर-1
किताबों की खुसर-फुसर-2
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