Sunday 1 November 2009

कितना जानता है एक शहर हमें और हम शहर को

इस बार कुछ चार बरस बाद मेरा इलाहाबाद जाना हुआ। इलाहाबाद – वह शहर जहां मैं पैदा हुई, जहां मैंने जिंदगी के बीस बरस गुजारे। वह शहर, जहां से मेरे सुख-दुख की, हंसी और विषाद की, निजी और सामाजिक करुणा और अपमान की और पहले प्‍यार की सादगी और बेचारगियों की ढेरों स्‍मृतियां गुंथी हुई हैं। नौ साल हुए, इलाहाबाद से रोजमर्रा का वह नाता टूट गया। इधर-उधर भटकती, अपनी पहचान और जमीन तलाशती जिंदगी में फुरसत नहीं थी अपने शहर तक लौटकर जाने की। लेकिन कई बार अवसाद और अकेलेपन के बेहद निजी क्षणों में मैंने बहुत भावना से भरकर अपने शहर को याद किया था। पर इस बार बचपन की जानी-पहचानी गलियों को देखना, उनसे गुजरना बड़ा विचित्र अनुभव था। किसी भावुक आवेग और उछाल से भर देने वाला नहीं, अपने अकेलेपन में और ज्‍यादा धंसा देने वाला। अवसाद को और-और गाढ़ा करके मन की भीतरी पर्तों में जमा देने वाला।

भीड़ के बीच भी अकेलेपन के इतने बिखरे और सघन तार हैं कि बांधते भी हैं और नहीं भी बांधते। जितना ज्‍यादा बांधते हैं, उतना ही मन अकेला होता जाता है। शहर ने दौड़कर मुझे गले से नहीं लगाया। मैं भी शहर की बाहों में लिपट जाने को बेताब नहीं थी। शहर और मैं अपरिचितों की तरह एक-दूसरे से मिले, नि:संगता से हाथ मिलाया और फिर मैंने कहा, अब मुझे चलना होगा। शहर को भी पड़ी नहीं थी कि मेरा हाथ पकड़कर रोक लेता।

मैं जितनी जल्‍दी हो सके, उस शहर से भाग जाना चाहती थी। जितनी जल्‍दी हो सका, मैं उस शहर से भाग आई। जिस शहर में अब मैं शहर रहती हूं या जिन भी शहरों में अपना शहर छोड़ने के बाद मैं रही, ऐसा नहीं कि वे शहर सुख और स्‍वाधीनता का स्‍वप्‍नलोक थे। सुख और स्‍वाधीनता जैसा शब्‍द भी कीचड़ में लिथड़ी किसी गाली जैसा है। कैसा सुख और कैसी स्‍वाधीनता? इस मुल्‍क या कि संसार के किसी भी मुल्‍क में होगी क्‍या? पता नहीं। लेकिन इलाहाबाद मुझे दुखी और उदास करता है। एक ठहरा, रुका हुआ सा शहर, जिसने कुछ किलोमीटर के दायरे में लंबी-लंबी फसीलें खड़ी कर ली हैं और मानता है कि यही संसार है। उसकी स्‍मृतियों और स्‍वप्‍नों का आकाश नए पैदा हुए बछड़े की दौड़ जितना है। जहां आकर गंगा भी स्थिर हो जाती है। जिस शहर को हिंदी संसार और मेरी पहचानी हुई दुनिया के साथी बहुत बार इतनी मोहब्‍बत और बिछोह की पीड़ा से याद करते रहे हैं, वह शहर मुझे तकलीफ के ऐसे अंधेरे कोनों में लेकर जाता है कि लगता है शहर को लात मारकर भाग जाऊं। क्‍या शहर हमेशा से इतना अकेला और उदास था? क्‍या वहां कभी कुछ भी सुंदर नहीं था? या अकेली और उदास थी मैं? पता नहीं। लेकिन कुछ तो था, जो रह-रहकर बेचैन करता था।

14 comments:

M VERMA said...

शहर ने दौड़कर मुझे गले से नहीं लगाया।'
यही होता है :
मिलते रहो ताके मिलने की ललक रहे
सामने ना हो फिर भी मन में झलक रहे

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा said...

मनीषा, शहर हमें एक साथ कई चीजें देता है, इसका मतलब यह नहीं कि हम उससे अलग हो जाएं। यह कोई मामूली बात नहीं है कि आप एक शहर में अपने यादगार बीस साल गुजारें हों। आप खुद कहती हैं कि इस शहर में निजी और सामाजिक करुणा और अपमान की और पहले प्‍यार की सादगी और बेचारगियों की ढेरों स्‍मृतियां गुंथी हुई हैं। चलिए इतने लंबे अंतराल क बाद आप अपने शहर गईं तो..वैसे यह तो सच है कि हम कभी भी आसानी से शहर को नहीं समझ पाते हैं.मैंने कहीं पढ़ा था कि शहर की आंखें सांप की तरह होती है..

Arvind Mishra said...

इलाहाबाद की गोष्ठी में जब आपने यह कहा की आज भी इलाहाबाद वहीं है जहाँ अपने इसे छोडा था तो एक साथ ही कई अर्थ ध्वनित हो गए ! श्रोताओं में भी भनभनाहट हुयी -लोगों ने अपने तरीके से अर्थ लगाये -इस शहर ने बदलाव को धता बता दिया है ,यहाँ का पिछडापन नहीं जाने वाला है ,अपनी सांस्क्रतिक -सांस्कारिक धरोहरों को बचाए हुए हैं आदि आदि ! एक ने तो यह तक कहा की यह भारद्वाज के समय से यही है आखिर शहर कोई चलायमान थोड़े ही होते हैं ! अब इनमें से कौन सा जवाब आपका है? क्या बतायेगीं ?

अनिल कान्त said...

हो सकता है शहर ने ये महसूस कर लिया हो कि अब वो अपनापन नहीं है हम दोनों के दरमियान या शायद कभी वो या आप बना ही नहीं पाए वो अपनापन

या शायद ठीक उस अपनेपन के जैसा हो जिसे हम पुकार सकते हैं अपनापन कहकर लेकिन उसका एहसास न होता हो

या कभी कभी हम खुद से इतने भागते से लगते हैं कि हर कोई हमें हमसे भागता सा लगता है
हो सकता है वो शहर भी उनमें हो

या यही सब आपके साथ उस शहर के लिए भी हो सकता है

परमजीत सिहँ बाली said...

हम कही पर भी जाएं लेकिन हमारी कुछ जड़े वही छूट जाती है यादे बन कर......शायद वही बैचेन करती रहती हैं हमें.....

अमिताभ श्रीवास्तव said...

"shahr ka mizaz kab badlta he,
badlta he jab kuch to vaqt badlta he..
kab ham mohabbat kar kurbaan hue he,
insaan khud ki chahto me bahut kuchh badlta he..."
kher.., yah peeda, pah dard..us shahr ke bahut nazdeek rakhe hue he aapko....

शरद कोकास said...

मनीषा जी जो शहर हम पीछे छोड आते है उन शहरों मे जब भी जायें दोबारा तो हर बार वे अलग अलग नज़र आते हैं । जिस शहर मे बचपन बीता हो हम उस शहर मे वही चित्र ढूंढते है लेकिन वह हमे नहीं मिलता फिर भी एक नॉस्टेल्जिया होता है जो हमे इसमे भी सुख देता है .. और जिस शहर मे हम आकर बस जाते है उस शहर में भी दिल नही लगता .. मैने शहर को कुछ इस तरह देखा है अपनी इस कविता मे ...
213 शहर

शहर में खड़ी हैं उदास इमारतें
जिनकी आँखों से टपकते हैं ईट पत्थर
सड़्कों के गढ्ढे
पाँवों के जाने पहचाने हैं
कूड़े के ढेरों पर मौज़ूद है
कचरा बीनने वालो की नई पीढ़ी
दुखी से दुखी आदमी
हालचाल पूछने पर
सब ठीक कहता है
पहचान का भाव गायब है
जवान होते बच्चों की आँखों में
दोस्तों के बीच
बस बीमारियों की बातें बची हैं
वीरान है गपबाज़ी के तमाम अड्डे
जिनका कहना था
कि शहर उन्होने बसाया था
वे खुदा हो गये हैं
हद तो यह है कि
शहर के लोग
मुझे ज़िम्मेदार नागरिक मानने लगे हैं ।

शरद कोकास

शोभना चौरे said...

asal me jaisa hm chodkarkar aate hai salo bad vaisa hi pane ki tamnna rkhte hai kintuham apne aap ko dekhe kya ham vaise hi rah paye hai .insano ki ki badlti prvrti se shahr bhi achuta nhi rhta kyoki insano se hi shhar basta hai .

प्रमोद ताम्बट said...

मनीशा जी,
शायद अपने पूर्वाग्रहों को आपने आपने आप पर हावी हो जाने दिया इसलिए इलाहाबाद ने आपको इतना बैचेन कर दिया। बहरहाल हम प्रतीक्षा कर रहे हैं ब्लाॅगर सम्मेलन के बारे में आपकी सम्पादकीय प्रतिक्रिया का जो अब तक नहीं आई है।

प्रमोद ताम्बट
भोपाल
www.vyangya.blog.co.in

Sudhir (सुधीर) said...

आप के चिठ्ठे पर आकर आज ऐसा लगा कि वास्तव में आपकी पोस्ट में आपकी इलाहाबाद को लेकर बैचनी परिलक्षित होती हैं...अजीब सा अहसास...जो शायद पाठकों के मन में भी असहजता की छाप छोड़ जाता है.. सही मायने में लगा कि बेदखल की डायरी पढ़ रहा हूँ

Anil Pusadkar said...

हर किसी का अपना अनुभव होता है अपने शहर के लिये।मुझे मेरा शहर बहुत प्यारा है,इसने मुझे क्या दिया क्या नही इस पर मैने कभी विचार भी नही किया कभी घूमने भी निकले तो रोज़ सोते समय शहर फ़िल्म की तरह आंखो के सामने आता रहा है।इसे छोडकर जाने के एक नही कई मौके आये मगर मैने शहर छोड़ने की बजाय तरक्की के मौके ही छोड़ दिये।इसके बावज़ूद कि शहर अब अचानक़ बड़ा हो गया है।छोटे सा शहर राजधानी बन गया है,पता नही कंहा-कंहा से लोग आ गये हैं,भीड़ बेतहाशा बढती जा रही है,उसमे जाने-पहचाने चेहरे अब ढूंढना पड़ता है,उसी शहर मे जब स्कूल से भाग कर सिनेमा जाते थे तो पूरे समय यही प्रार्थना करते रह्ते थे हे भगवान कोई पहचान का न मिल जाये।बाद मे तो ऐसा समय भी आया कि जिधर जाओ कोई न कोई पहचान का मिलता ही ता।ऐसा लगता था कि शहर शहर न हो कर कोई खूब बड़ा सा मुहल्ला हो,अब लेकिन लगता है कि मुहल्ला कालोनी मे बदल गया है।अड़ोस-पड़ोस मे रहने वालों मे भी जाने पहचाने चेहरे को ढूंढते-ढूंडते थकान हो जाती है इसके बावज़ूद शहर से प्यार कम नही हुआ।ऐसा लगता है कि यादों के विशाल महासागर की छाती पर तैर रहा कोई जहाज और मैं उस पर बैठा कोई परिंदा।ये मेरे अपने विचार हैं,आपसे असहमति नहीं।

संदीप कुमार said...

पता नहीं क्यों मनीषा लेकिन मुझे लगता है कि हमें उन शहरों, उन जगहों पर लौट कर नहीं जाना चाहिए जिन्हें हम कभी छोड चुके हैं

Udan Tashtari said...

न जाने क्यूँ आपका लेखन हमें अपनी जिन्दगी सोचने को ढकेलता है...सब आप बीती सी. उत्कृष्ट लेखन, बधाई.

इलाहाबादी अडडा said...

मनीषाजी, इस पोस्‍ट से आपका इलाहाबाद प्रेम झलकता है। मुझे लगता है कि अकसर शहर, मौसम, महीनों को लेकर हमारे दिल में उसकी एक रोमैन्टिक तस्‍वीर छप जाती है, जिसे हम कभी बदल नहीं पाते। इनको लेकर हमारी स्थिति उस प्रेमी की तरह हो जाती है जो अपनी प्रेमिका को हमेशा जवान और खूबसूरत देखना चाहता है लेकिन समय के साथ जब चीजों में बदलाव आता है तो जेहन में बसी यह तस्‍वीर हमें स्‍तब्‍ध तक कर देती है। यह सहज वत्ति है।

दरअसल, जब आप यहां थी तो उस दौर में भी पुराने लोग बदलते इलाहाबाद को देखकर कुढ रहे थे। आज हम खुद उस दौर में पहुंच गये हैं जब आज से दस साल पहले का इलाहाबाद हमें बेहद सुहाना लगता था। और यह भी निश्‍श्चित है कि पांच साल बाद लोग आज को याद करके ठण्‍डी सासें भरा करेंगें। समय बदल रहा है तो शहरों के चेहरे भी कुछ धूल-पूंछ जरूर रहे हैं लेकिन वास्‍तव में इलाहाबाद की नब्‍ज अभी भी पुरानी तरीके से ही चल रही है। आपने भी अपनी पोस्‍ट में लिखा कि, लोग इतने खाली हैं कि सडकों पर चलने वाली लडकियों को तब तक घूरते रहते हैं जब तक वह ओझल नहीं हो जाती। शहर का कलेवर बदला लेकिन अंदाज मेरे नजरिये से अभी भी आपके समय का ही है और अभी भी दारागंज में पचास पैसे में चाय और पचास पैसे का समोसा मिल रहा है। अगली बार आईयेगा तो साथ खायेंगे।

आपने पोस्‍ट बेहद सुन्‍दर लिखी है, इसे एक बार और दुहराने की जरूरत नहीं लगती।