Friday 12 February 2010

मेरी जिंदगी में किताबें

कुछ दिन हुए किताबों के महामेले से लौटी हूं। पुस्‍तक मेले में जाना मेरे लिए किसी उत्‍सव की तरह होता है, हालांकि जानती हूं कि वहां से मनों निराशा और टनों उदासी के साथ वापस लौटूंगी। हिंदी किताबों का संसार हजार-हजार फांस बनकर आंखों में चुभता रहता है। छुटपन से इसी सपने के साथ बड़ी हुई थी कि बड़ी होकर लेखक बनूंगी, पर जैसे-जैसे बड़ी होती जाती हूं, लेखक बनने का सपना किसी बीहड़ बियाबान में गुम होता जाता है। पत्रकार बनूंगी, सोचा भी नहीं था, पर वक्‍त के साथ पत्रकारिता की दुनिया में तथाकथित नाम कमाने और पैसा पीट लेने के सपने न सिर्फ सिर उगाते हैं, बल्कि थोड़ी सी तिकड़मों के साथ उन्‍हें पूरा करने की राहें भी हर दिन खुलती नजर आती हैं।

पर मुझे अखबार से ज्‍यादा किताबों से प्‍यार है।

होश संभालने के साथ ही मैंने पाया था कि किताबें झाडू और कलछी की तरह ही एक कमरे के हमारे मामूली से घर का हिस्‍सा थीं। मुश्किल से 12 बाई 12 के एक कमरे में मेरे मां-पापा की समूची गृहस्‍थी थी, जिसका एक बड़ा हिस्‍सा किताबों से पटा हुआ था। ऊपर टाण पर, मेज पर, कमरे के कोने में ईंटों पर लकड़ी के पटरे रखकर बनाई हुई शेल्‍फ पर किताबें सजी रहती थीं। लकड़ी पर अखबार बिछाकर पापा करीने से मार्क्‍सवाद, दर्शन और इतिहास की किताबें रखते थे। जब भी वो घर पर होते तो या किताब पढ़ रहे होते थे या किसी दोस्‍त के साथ उन किताबों पर कुछ ऐसी उलझी बहसें कर रहे होते, जिसका सिर-पैर भी मेरी समझ में नहीं आता था। मां चुपचाप उसी कमरे के एक कोने में, जहां रखा एक स्‍टोव, कुछ डिब्‍बे और बर्तन उसे रसोई जैसा आभास देते थे, में सिर झुकाए चाय बनाती या सब्‍जी छौंक रही होतीं। मां को वो बातें कितनी समझ में आती थीं, पता नहीं। लेकिन उन्‍हीं में से कुछ किताबों के अंदर पिता से छिपाकर वक्‍त-जरूरत के लिए कुछ पैसे रखने के सिवा मां के लिए उनकी कोई खास सार्थकता थी, पता नहीं। वो अकसर किताबों के इस कबाड़ को लेकर नाराज होती रहती थीं, जिसे दिल्‍ली, खुर्जा, गाजियाबाद से लेकर अब इलाहाबाद तक पापा साथ-साथ ढोते रहे थे। पापा जिस भी दिन कोई नई किताब खरीद लाते, मां बहुत चिक-चिक करतीं। एक ढंग का पंखा भी नहीं है, सड़ी गर्मियों में भी इस टुटहे टेबल फैन से काम चलाना पड़ता है। ये नहीं कि एक तखत खरीद लें, एक गैस का चूल्‍हा। स्‍टोव के धुएं में आंखें फोड़ती हूं। पर इन्‍हें अपनी किताबों में आंखें फोड़ने से फुरसत नहीं। मां झींकती, पर उन किताबों की देखभाल वही करती थीं। एक-एक किताब कपड़े से साफ करके करीने से रखतीं, उनकी धूल झाड़ती, दीमक और फफूंद से बचाने के लिए धूप दिखातीं। लेकिन शाम को पापा फ़िर कोई नई किताब ले आते और मां की झकबक शुरू हो जाती।

ऐसे आदमी से ब्‍याह करके उनकी किस्‍मत फूट गई है, जिसे इन मरी किताबों के अलावा जीती-जागती मां की कोई परवाह नहीं है। शादी के दस सालों में पापा ने उन्‍हें एक साड़ी भी नहीं दिलाई। जो कुछ भी है, उनकी मां का दिया हुआ है वरना पापा तो निरे फो‍कटिया ठहरे। मैं सचमुच इस बात पर यकीन ेर लेती कि मां पापा को फोकटिया ही समझती हैं, अगर एक बार मैंने मुंबई में नानी के यहां, नानी के ये कहने पर कि तुम्‍हारा पति तो बिलकुल निठल्‍ला है, खास कमाता नहीं और जो कमाता है, सब किताबों पर फूंक देता है, मां को जवाब में ये कहते न सुना होता कि उन्‍हें अपने पति पर बहुत गर्व है। मां ने उनमें से कुछ किताबें पढ़ी हैं और वो सचमुच ज्ञान का भंडार हैं। तब मेरी उम्र कुछ पांच बरस रही होगी। मैंने बाद में चुपके से पापा से कहा था कि मां नानी से कह रही थीं कि उन्‍हें आप पर बड़ा गर्व है।

गर्व तो मुझे भी था। बड़ी मामूली सी उम्र में ही मैंने जिंदगी में किताबों की जरूरत और उसकी कीमत को समझ लिया था। उनमें लिखी बातें मैंने बहुत बाद में पढ़ीं, लेकिन ये हमेशा से जानती थी कि ये किताबें हमारे घर और हमारे होने का निहायत जरूरी हिस्‍सा थीं। आस-पड़ोस और मुंबई में हमारे रिश्‍तेदारों में से किसी के यहां गीता प्रेस, गोरखपुर वाला गुटका रामायण, हनुमान चालीसा, तुलसी उवाच या कबीर के दोहे छोड़कर कुछ खास किताबें नहीं थीं। कोर्स की किताब भी अगली क्‍लास में जाने के साथ ही बेच दी जाती और अगले क्‍लास की सेकेंड हैंड किताबें खरीद ली जातीं। सभी रिश्‍तेदार आपस में सामानों और गहनों की तुलना करते हुए एक-दूसरे से आगे निकल जाने के लिए होड़ मचाए रहते थे। मौसी की नींद इसी बात से तबाह हो सकती थी कि मामी ने पांच तोले का सोने का हार बनवा लिया है और वो अभी तक ब्‍याह की पतरकी चेन से ही गुजरा कर रही हैं।

लेकिन पापा उस दुनिया का हिस्‍सा नहीं थे। वो अपने तख्‍ते, लकड़ी के पटरे वाली शेल्‍फ, टुटहे टेबल फैन और किताबों में संतुष्‍ट रहने वाले जीव थे। मैं भी मुंबईया खचर-पचर वाली दुनिया को देखकर चकित-भ्रमित होती थी, लेकिन फिर इलाहाबाद लौटकर पापा की किताबें देखकर खुश भी हो जाया करती थी।

लेकिन जब वक्‍त गुजरने और आर्थिक तंगियां बढ़ते जाने के बाद भी पापा के किताबें खरीदने पर लगाम नहीं लगी तो मां की जबान पर भी लगाम नहीं रही। वो नाराज होतीं और दुखी भी। जब बोलने पर आतीं तो बोलती चली जातीं। अपनी नहीं तो कम से कम दो-दो लड़कियों की तो सोचो। उनके ब्‍याह के लिए कुछ जोड़ो। लड़कियां कुंवारी बैठी रहेंगी और ये किताबों में सिर गोड़े रहेंगे।

मुझे समझ में नहीं आया कि पापा के किताब पढ़ने की वजह से कैसे हमारी शादी नहीं हो पाएगी। जो भी हो, शादी से मुझे वैसे भी चिढ़ थी। बैहराना में महिला सेवा सदन इंटर कॉलेज वाली जिस गली में हमारा एक कमरे का घर था, उसके मुहाने पर एक लॉरी वाला रोज दारू पीकर अपनी बीवी की कुटम्‍मस करता था। मकान मालिक चौरसिया बात-बात पर अपनी बीवी पर चिल्‍लाता रहता था, कुतिया के कान में खूंट पड़ी है। हरामजादन सुनती ही नहीं। बगल के कमरे का किराएदार पूर्णमासी यादव बीवी के घर से जाते ही मुझे बुलाकर गोदी में बिठाने के लिए चुमकारने लगता था। इसलिए मुझे शादी और आदमी के नाम से ही घिन आती थी। अच्‍छा ही है शादी न हो। इन किताबों के बहाने ही सही।

जारी

29 comments:

Anonymous said...

sayad aap ne hi mrinaal pande par likha tha .janadesh.in par padha

मनीषा पांडे said...

विरोध जी, मैंने जनादेश डॉट इन पर कुछ नहीं लिखा है। वैसे आप किस लेख की बात कर रहे हैं।

शायदा said...

अच्‍छे पापा वाली कुंवारी लड़की...समय का सदुपयोग, छुटिटयों का पूरा फायदा। बढि़या है।

अमिताभ श्रीवास्तव said...

kitabe..sampoorna jeevan se kyaa kam he...,
jaaree ka intjaar

डॉ .अनुराग said...

शुक्र है इस कंप्यूटर की दुनिया में वापस तो आई..किताबो के बहाने से सही .....किताबो से हमने भी बचपन में दोस्ती की थी जो आज तक कायम है ...कभी झगडा नहीं हुआ ...हाँ मर्द की एक जात चौरसिया ओर किराएदारभी होती है .......

rashmi ravija said...

किताबों से प्यार मुझे भी विरासत में ही मिला है...होश संभाला और किताबें ,पत्र-पत्रिकाएँ हमेशा से आस पास ही नज़र आयीं.पापा हमेशा' नॉवेल प्राईज़ विनर बुक' जरूर खरीदते थे...'कैंसर वार्ड', 'डॉ. जीवागो' समझ में नहीं आई थी पर स्कूल में ही पहली बार पढ़ डाली थी...बाद में भी कई बार पढ़ी....

एक बात बताऊँ ..मेरी एक कहानी की नायिका कहती है, "इतनी किताबें हैं दुनिया में जिन्हें पढने को एक जनम भी कम है..काट लूंगी ज़िन्दगी इन्हीं किताबों के सहारे"...फिर भी एक इल्तिजा है...इतना तल्ख़ रवैया ना अपनाएँ...पुरुषों के प्रति..

Kajal Kumar said...

इन्सान को भला सोचने से कोई नहीं रोक सकता अलबत्ता फ़ैसला उसका अपना होता है. बीता हुआ कल, आने वाले कल के लिए कोई विशेष सहायक नहीं होता. One must move on, why cling on to dead past.

विनीत कुमार said...

देखोजी,ये है हमारी असली बेटी। तुम कहा करती थी न कि इस रद्दी को खरीदने से क्या होगा। अब तो देख रही हो न।..आपके पापा की तरफ। आखिर एक मर्द दूसरे मर्द के विहॉफ पर तो बोल ही सकता है न।..

राजकिशोर said...

simply wonderful. your prose ... माशाअल्लाह ! तुम्हें लिखना आता है। बधाई।

Sanjeet Tripathi said...

बात किताबों की चले तो सूंघते, सुनते या देखते(गिरते-पड़ते) आखिर में अपन पहुंच ही जाते हैं।
लेकिन जब यहां आकर देखते हैं कि जब राजकिशोर जी कह रहे हैं कि आपको लिखना आता है। तो यह सोच रहे हैं कि इतने दिनों से हम किस मनीषा को पढ़ रहे थे, उसे लिखना आता था भी या नहीं?
;)

वैसे एकदम प्रवाहमान लिखा है आपने, बात कहां शुरु हुई, कहां लाकर आपने जारी कह दिया तो प्रतीक्षा है अगली किश्त की…

Anonymous said...

हिंदी किताबों का संसार हजार-हजार फांस बनकर आंखों में चुभता रहता है।

अपनी हालत भी ऐसी ही होती थी, किन्तु अब मन को समझा लेता हूँ

बिंदास लेखन, रोचक शैली

बी एस पाबला

अनिल कान्त said...

किताबें मेरे जीवन को सम्पूर्णता प्रदान करती सी जान पड़ती हैं...ये ना होती तो बहुत कुछ अधूरा रहता

Mithilesh dubey said...

बेहतरीन लिखा है आपने , आपकी लेखनि को सलाम । किताबे तो मुझे भी पढने की बहुत इच्छा होती है परन्तु पढ ही नहीं पाता ।

सुशील छौक्कर said...

चलिए किताबों के बहाने ही सही काफी दिनों बाद आप नजर तो आई। वैसे किताबों के काले अक्षरों का जादू हम पर भी खूब चढता है। और देखिए इन्हीं किताबों के जरिए आपसे हमारी मुलाकात भी हो गई। और कुछ किताबें खरीद ली। दोस्तों ने कहा कि अजीब इंसान है दो दिन बाद घर में शादी है और तू किताबें खरीद रहा है। खैर आते ही किताबों के झुंड में ये सातों किताबें छिपा दी कही हमारी मैडम जी की नजर ना पड जाए और वही पुराना डायलाग " और किसी चीज के लिए पैसे आए या ना आए पर किताबों के लिए तो जरुर आ जाते हैं।" ना सुनने को मिल जाए।
खैर आपका लिखा हमें बहुत पसंद आया क्योंकि यह बहुत सारी जिदंग़ियों के करीब लगता है। जिनमें से एक मेरे सर भी है।

अजित गुप्ता का कोना said...

मनीषा, दिल खुश कर दिया। बहुत ही अच्‍छा लिखा है। सच है किताबों का नशा होता ही ऐसा है। विमलमित्र ने अपने एक उपन्‍यास में लिखा था कि शराब पीने वाले को लोग व्‍यसनी कहते हैं लेकिन पुस्‍तक पढ़ने वाले को कोई कुछ नहीं कहता जबकि यह भी एक व्‍यसन से कम नहीं है। अगली कड़ी का इन्‍तजार रहेगा।

Rohit Singh said...

पुरुषों के प्रति सोच को बदल डालिए. ये समस्या सभी में हैं....न तो सभी पुरुष एक जैसे होतें हैं न ही स्त्रियां....आपके पिता की तरह पुरुष होतें हैं इसी दुनिया में..जो सिखातें हैं कि विचारों पर विर्मश करते रहो, न जाने कौन सा विचार किसके माध्यम से जाने कहां जाकर कोई बगिंया बसा दे...शादी नहीं की आपने इसके मूल में चोरसिया जैसे लोग तो कतई नहीं होंगें..आखिर इतनी बड़ी जिदगी में और भी लोग मिलते हैं...

अजित वडनेरकर said...

पर मुझे अखबार से ज्‍यादा किताबों से प्‍यार है..

तुमसे यूं ही लगाव नहीं है मनीषा! सोच रहा था कुछ सोच कर लिखोगी दिल्ली से लौट कर। आज नज़र आया। बहुत खूब...
तुम्हारे माता-पिता दोनों से ही मिल चुका हूं और उन्हें देखकर वह सब भाँप गया था जिसे अब तुम अब कह रही हो। मां से बतियाने का ज्यादा मौका मिला।

खैर, बहुत ही अच्छा संस्मरण है। जारी रहे। मिलने पर मैं तो अपने अंदाज में तुम्हें प्रतिक्रिया दूंगा ही। लाइव...:)
जियो और खूब मज़े करो यानी तरक्की करो।

आर. अनुराधा said...

आगे...!!??? इंतजार लंबा लग रहा है।

सागर said...

आपकी यह पोस्ट दिमाग में अटक गयी है...
इस छन्नी से जो चाय निकली है वो अपने पसंद का है...

आनंद said...

वाह। वही लाजवाब स्‍टाइल...

अगली किश्‍त का इंतजार है।

- आनंद

Ashok Kumar pandey said...

काश कि मेरी बिटिया इस पोस्ट का एक हिस्सा कभी बड़े होकर लिख सके!

वैसे यह उसकी नहीं मेरी लियाक़त का मामला है…

Anonymous said...

Manisha ki Bachhi,

6 mahine ho gaye tumhen yahaan se laute.
Tab se koi khabar hi nahin.
Tum ho bhi kahin...
Ki nahin?

मनीषा पांडे said...

निश्चित तौर पर अशोक, ये आप ही की लियाकत का मामला है। उसे खिलने दीजिए गुलाब की तरह, बनने दीजिए तो वो बनना चाहती है। प्रेम करने दीजिए, जीने दीजिए। आपकी बात से एक सुंदर प्रसंग याद आया है। उसे एक पोस्‍ट के रूप में लिखती हूं ब्‍लॉग पर अलग से।

मनीषा पांडे said...

अशेष जी, कब गई
,
कहां गई? आप मुझी से बात कर रहे हैं क्‍या? या किसी और मनीषा से? मैं तो कल्‍पना में ही यहां-वहां चली जाती हूं। वरना कहां ऐसी किस्‍मत कि रोहतांग की गोद में ही आशियाना बसा लूं।

Anonymous said...

Achha!
Toh Judwaan ho tum dono!
Twins. Yaa 2 in 1 ?
Tabhi kahoon ki mere blog par ye tumhare jaisi kaun aa gayi hai?

2 nayi twins bhi wahaan aayi hain.
The Tent Twins! Dekh lena.

Rajkishore?
Bach ke rahna re Baba. Ek bar sapariwaar hamaare ghar aaye. Tab se dil me ghar kiye huye hain.

Ye sabko samajhne ki poori koshish karte hain, inhen koi samjhe, na samjhe. Mere yahaan aane ka fir waada hai inka. Tum sath aana. Inki Bitia aur inki sangini ko bhi lana. Hamari Manisha bhi hogi.

PD said...

"ऐसे आदमी से ब्‍याह करके उनकी किस्‍मत फूट गई है, जिसे इन मरी किताबों के अलावा जीती-जागती मां की कोई परवाह नहीं है। शादी के दस सालों में पापा ने उन्‍हें एक साड़ी भी नहीं दिलाई। जो कुछ भी है, उनकी मां का दिया हुआ है वरना पापा तो निरे फो‍कटिया ठहरे। मैं सचमुच इस बात पर यकीन ेर लेती कि मां पापा को फोकटिया ही समझती हैं, अगर एक बार मैंने मुंबई में नानी के यहां, नानी के ये कहने पर कि तुम्‍हारा पति तो बिलकुल निठल्‍ला है, खास कमाता नहीं और जो कमाता है, सब किताबों पर फूंक देता है, मां को जवाब में ये कहते न सुना होता कि उन्‍हें अपने पति पर बहुत गर्व है। मां ने उनमें से कुछ किताबें पढ़ी हैं और वो सचमुच ज्ञान का भंडार हैं। तब मेरी उम्र कुछ पांच बरस रही होगी। मैंने बाद में चुपके से पापा से कहा था कि मां नानी से कह रही थीं कि उन्‍हें आप पर बड़ा गर्व है।"

बस यही एक पैराग्राफ दिमाग में अटक गया है.. शायद सच्चा प्यार यही होता है.. मैं चाहे जो कहूँ, मेरा हक है.. कोई और भला क्यों कुछ कहे?

अफ़लातून said...

'बल्कि थोड़ी सी तिकड़मों के साथ' तिकड़म नहीं कौशल,जो है काफ़ी ।

ghughutibasuti said...

इसपर टिप्पणी तो एक पोस्ट ही बन जाएगी। यदि आप मेरी माँ से मिलती तो आपको अच्छा लगता। उनका पुस्तक प्रेम गजब का है।
घुघूती बासूती

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

अभी कमेन्ट नही दूगा.. बाकी पढ रहा हू... :)