Sunday, 14 March 2010

आवाज का घर











1

मुमकिन है

कि मेरे लिए उम्र भर

तुम एक आवाज ही रहो

हम हवाओं से होकर गुजरती

असंख्‍य मकानों, जंगलों, पहाड़ों

और सूने दरख्‍तों को लांघकर हम तक पहुंचती

तरंगों से ही

भेजें अपने संदेश

अपने जी का हाल कहें

एसएमएस में बांधकर थोड़ी सी हंसी

और आंसू की दो बूंदें

कुछ पुरानी यादें, बिछड़े यार

कुछ साझे अधूरे स्‍वप्‍न

जो साझे इसीलिए थे

क्‍योंकि अधूरे थे

प्रेम के कुछ अधपके किस्‍से

जो जब तक समझ में आते

हाथों से फिसल चुके थे

हम यूं ही आवाज से थामें एक-दूसरे की हथेली

आवाज के कंधे पर ही टिकाएं अपना सिर

जब उदासी आसमान से भी भारी हो जाए

आवाज वीरान रातों में

रौशनी बनकर उतरे

जब हर ओर सब चुप हो

आवाज मेरी हर शिरा में बजने लगे

सुबह कहे - 'नालायक, आलसी अब तो उठ जा'

और रात में - 'मेरी नन्‍ही परी, अब सो जा'

आवाज ही सहलाए, दुलराए

गोदी में उठा ले

मुमकिन है कि हम

सिर्फ आवाज के तिनकों को बटोरकर

बनाएं एक घरौंदा

वो दुनिया का शायद पहला और आखिरी घरौंदा हो

जहां सिर्फ प्रेम की संतानें जन्‍म लें।

2

मुमकिन है

कि बूढ़े होने तक यूं ही

हम एक-दूसरे को

सिर्फ आवाज से पहचानें

आवाज की खनक और उदासी से

सचमुच

कभी न जान पाएं कि

कैसे दिखते थे हम

जिस खनक पर तुम रीझे

इतनी शिद्दत से संजोया जिसे

मुमकिन है उसे

कभी छूकर न देख पाओ

जिस हंसी को याद किया बार-बार

दुख और उदासी के अंधेरे दिनों में

मुमकिन है कभी न जान पाओ

कि कैसी दिखती थीं वो आंखें

जब हंसी उतरती थी उनके भीतर

फिर भी हमारे बूढ़े होने तक वो खनक

वो हंसी

ऐसे ही सहेजो अपने भीतर

उन आंखो में उदासी की हल्‍की सी छाया भी

उदास कर दे तुम्‍हें

देखो तो जरा

कैसी विचित्र कथा है ये

इसी युग में, हमारी ही आंखों के सामने

हमारी ही जिंदगियों में घटती

सोचा था कि कभी

कि सिर्फ आवाज का एक घर बनाओगे

घर जो हवाओं में तैरेगा

मोबाइल कंपनियों के टॉवरों से निकलती तरंगों पर झूलेगा

पर देखो न

कितना अजीब है ये जीवन

जाना ही नहीं कि कब

बेदरो दीवार का एक घर

बना डाला

घर में आवाज की इतनी असंख्‍य खिड़कियां

इतने अनंत दरवाजे

कि जिनसे होकर

जिंदगी भर

रौशनी और हवाएं

आती-जाती रहेंगी

इस घर में कभी जी नहीं घुटेगा

देखना तुम

बूढ़े होने तक

ऐसे ही खिले रहेंगे हम

19 comments:

Unknown said...

यूँ भी हो सकती है कविता!आवाज को भी जिया जा सकता है ,यकीन नहीं होता ,मगर ये सच है शब्द दर शब्द ये कविता न जाने किसी बिंदु से होकर शरीर में प्रवेश कर गयी और शिराओं को आंदोलित कर एक अनुनाद सा पैदा करने लगी ,कविता पढ़े जाने के बाद भी मुस्कुरा रही है और मै चुपचाप उस आवाज के सामने सर झुकाए खड़ा हूँ ,जो मैंने भी कभी नहीं सुनी ,यही कविता की सार्थकता है

अनिल कुमार हर्ष said...

The write up is beautifuly crafted but it reflect some inner sence that there is some thing missing / not achieved by you and you are still in fighting / targatting to achieve the goal

Rohit Singh said...

काफी दिन बाद आया आपके ब्लाग पर, एक के बाद एक सारी रचनाएं पढ़ी..किताबों से आपका नाता....फिल्म से आपका रिशता....खुद से करते सवाल....एकदम दुरुस्त हैं....हर कोई कहीं न कहीं किसी न किसी मोड़ पर सोचता है कि आखिर वो कर क्या रहा है, क्या चाहता है..पर क्या है हर कुछ चाहा होता नहीं....पर सवाल तो करता ही है इंसान....खुद से, संसार से....
बेंडिय क्वीन दिल्ली में देखी,,,कई लोग परिवार के साथ नहीं थे..फिर भी पूरी फिल्म लोग नहीं देख पाए....कम से कम मेरे आसपास सिनेमा हाल में कुछ सन्नाटा था....

फूलन देवी जंगल में जिंदा थी, पर कंक्रीट के जंगल में जान से भी हाथ धो बेठी...

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा!!

संजय भास्‍कर said...

ग़ज़ब की कविता ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है .

उधेड़बुन said...

Aawazen bazati hain jeewan bhar anahad need ki tarah!

विनीत कुमार said...

वो दुनिया का शायद पहला और आखिरी घरौंदा हो
जहां सिर्फ प्रेम की संतानें जन्‍म लें...

raviprakash said...

कवि और लेखक दर्द की पैदाइश होते हें एक अधूरेपन का एहसास हमेशा मजबूर करता है उस दर्द को कागज़ पर उतारने के लिए
यह पंक्तियाँ दिल को छू गयीं

RAVI SRIVASTAVA

डॉ .अनुराग said...

गोया के अब काँधे बदल गए है ...मसलन.....

एसएमएस में बांधकर थोड़ी सी हंसी
और आंसू की दो बूंदें

ओर फिर भी इस भागती दौड़ती दुनिया में कुछ उम्मीद .......

आवाज की इतनी असंख्‍य खिड़कियां

इतने अनंत दरवाजे

कि जिनसे होकर

जिंदगी भर

रौशनी और हवाएं
आती-जाती रहेंगी

कृष्ण मुरारी प्रसाद said...

दिल लिखी नहीं, गायी गयी कविता..
लड्डू बोलता है...इंजीनियर के दिल से

जब भी ये दिल उदास होता है...
कोई मेरे आसपास होता है..
laddoospeaks.blogspot.com

pallavi trivedi said...

आवाज की खनक और उदासी से

सचमुच

कभी न जान पाएं कि

कैसे दिखते थे हम

तुम्हारा लिखा हमेशा ही अच्छा लगता है मुझे! ये बात और है की बहुत कम आ पाती हूँ ब्लॉग पर!

कडुवासच said...

....बेहतरीन रचनाएं !!!

सुशील छौक्कर said...

एक बार जब पढना शुरु किया बस डूबता ही चला गया। अद्भुत।

शरद कोकास said...

अच्छी कविता है ।

Sanjeet Tripathi said...

pura padha, comments bhi aur paaya ki jo mere mann me baat uthi thik vahi baat sanjay bhaaskar jee ne kahi hai, kaise, aakhir kaise aap log aur aap itna achcha likh lete ho..

aap koi class lagao na aise lekhan par mai sabse pahle join karunga...shabd jaha paani ki tarah par-darshi hote se lagein, aur arth jaha apne maayne se aage badh kar batate hue se lagein, aisa to hamesha mai bhi likhna chahunga.....

विजयप्रकाश said...

आपकी कविता ने मन को छू लिया

Amitraghat said...

"आवाज़ का घर कितना सलोना लगेगा....आपकी कविताओं में यायावरी की महक आती है..."
प्रणव सक्सैना
amitraghat.blogspot.com

siddheshwar singh said...

कविता !
सचमुच !!!!!

mukti said...

आभासी दुनिया का सच...