Monday, 25 February 2008
तुम्हारा होना
ये कविता एक कहानी का हिस्सा थी। कहानी अधूरी रह गई और कविता भी।
इस कविता को पूरा नहीं करना चाहती। ये ऐसे ही अच्छी है, अपने अधूरेपन में..... आज यह कविता.....
तुम्हारा होना
तुम्हारा होना मेरी जिंदगी में ऐसे है,
जैसे झील के पानी पर
ढेरों कमल खिले हों,
जैसे बर्फबारी के बाद की पहली धूप हो,
बाद पतझड़ के
बारिश की नई फुहारें हों जैसे
जैसे भीड़ में मुझे कसकर थामे हो एक हथेली
एशियाटिक की सूनसान सड़क से गुजरते
जल्दबाजी में लिया गया एक चुंबन हो
जैसे प्यार करने के लिए हो तुम्हारी हड़बड़ी, बेचैनी........
Sunday, 24 February 2008
डिब्बाबंद मुल्क, बड़ी होती लड़की और मातृत्व की उलझी छवियां -2
17-18 साल की उम्र में जब मैने पहली बार सिमोन द बोवुआर को पढ़ा और मातृत्व संबंधी उनके विचारों से दो-चार हुई, तो मेरी सोच में एक भयानक बवाल मचा। उम्र के उस पड़ाव पर पैदा हो रहे सहज बोध, सहज इच्छाओं और पढ़े हुए विचारों में ऐसी कुश्ती, धकमपेल मचती कि लगता दिमाग की नस ही फट जाएगी। जिंदगी के वो कुछ साल रिएक्शन के साल थे। वैसे भी हिंदी प्रदेश के लगभग निम्नवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखने और प्रतापगढ़ी मर्दों की मर्दानगी का नमूना देखने के बाद सिमोन को पढ़कर कोई लड़की रिएक्शन में जीने लगे तो आश्चर्य नहीं। मर्दानगी भी ऐसी कि जो आए दिन बीवियों के शरीर पर जूते-चप्पल की शक्ल में नमूदार होती रहती, 50 पार आदमी की औरत भी 40 की उमर में नौवें या ग्यारहवें बच्चे की उम्मीद से होती। पता चलता, एक ही समय में माँ और बेटी, दोनों ही नाउम्मीद नहीं हैं। गांव में मुझे औरतों की जिंदगी बड़ी खौफनाक लगती थी। वैसा जीवन मेरे सिर आता तो मैं गांव के नजदीकी रेलवे स्टेशन से गुजरने वाली ऊंचाहार एक्सप्रेस के नीचे लेट जाना ज्यादा पसंद करती। मुझे लगता, ये औरतें क्यूं नहीं लेट जातीं। पति की लात और फूले हुए पेट से तो निजात मिलेगी।
जिंदगी के दरवाजे दस्तक देती जवानी और इंद्रिय-बोध के साथ लड़कों के मन और देह की दुनिया कैसे बदलती है, कुछ अंदाजा नहीं, लेकिन लड़कियों की दुनिया में बड़े अदेखे, रहस्यमय तूफान आते हैं। भीतर और बाहर की दुनिया प्रकाश की गति जैसी तेजी से बदलती है और कुछ समझ नहीं आता कि ये क्या हो रहा है। जिन लड़कों और चचेरे-ममेरे भाइयों के साथ हम अब तक जूतमपैजार में मुब्तिला रहते थे, अब अचानक उनसे भी कुछ शर्म-सी आने लगती है। भले अन्य बहनों के मुकाबले मुझमें लज्जाशीलता का यह पर्सन्टेज कुछ कम रहा था और तब भी मैं प्रेम-पत्र वाले खेलों के मुकाबले जूतमपैजार वाले खेल को लेकर ज्यादा एक्साइटेड रहती थी। बल्ला-गेंद या दूसरी किसी चीज को लेकर मैं भाई के साथ गुत्थम-गुत्था होती तो दादी अपनी चारपाई पर बैठे-बैठे ही बिफरतीं, ‘देख तनि इनकर दीदा, घोड़ी हस भइन अउर भाइयन से लिपटत-चिपटत रहत थिन, इनका तनकौ लाज नाही लागत।’
इस उम्र में पितृत्व की कोई भावना न जाने किसी लड़के के मन में कैसे आती है, आती भी है या नहीं, लेकिन किसी औरत का फूला हुआ पेट या नवजात शिशु को दूध पिलाती मां की छवियां दबे पांव लड़की की बदल रही दुनिया में अपनी जगह बना लेती हैं। कहीं, किसी कोने वो छवि छिपकर बैठी होती है और उम्र के तूफानों से अकेली जूझ रही लड़की के एकांत पाते ही पता नहीं कहां से धमक जाती है। हर सुबह लड़की हसरतों, सपनों, जिज्ञासाओं की ओस भीगी जमीन पर पांव रखती है। उमंगों की कोई डोर एक ओर खींचती है, तो अजाने भयों की डोर दूसरी ओर।
कई साल पहले, जब किसी रिश्तेदार की शादी में हमारा गांव जाना हुआ तो वहां बारात में आए लड़कों से आंखों-ही-आंखों में कुछ बातें और मुफ्त में मिले एकाध प्रणय-प्रस्ताव (शादी-ब्याह में ये बहुत ही आम बात है) के अलावा एक बात और हुई। एक लड़की, जो मुझसे कुछ बरस छोटी, लेकिन विवाहिता थी और पिता के घर का बासन-चूल्हा संभालते हुए पांच महीने बाद होने वाले अपने गौने का इंतजार कर रही थी, ने एक रात घर के पिछवाड़े छपड़े के नीचे एक ही चारपाई पर लेटे हुए मुझसे शादी के बाद के रहस्यों के बारे में कुछ सवाल किए। उसके हिसाब से मैं शहर की लड़की थी, और मोटी-मोटी किताबें पढ़ती थी। (दिन में मेरे हाथ में अन्ना कारेनिना का मोटा पहला भाग देखकर उसे मेरे विद्वान होने का यकीन हो चुका था।) तो जरूर इस जानिब मैं उसे कुछ भरोसे लायक जानकारी दे सकूंगी।
शहर की लड़की उसकी उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी, लेकिन उसकी बेचैनी भरी जिज्ञासाएं बड़ी वाजिब थीं। घर में बड़ी बहन की जचगी देखे छमाहा भी न गुजरा था। गांव में कुंवारी लड़कियों को आमतौर पर ऐसे हौलनाक मंजरों से दूर ही रखा जाता है, लेकिन चूंकि उसकी मांग भरी थी, और बरस-दो बरस बाद यह हादसा उसके साथ भी पेश आना था, सो उसे किसी बहाने तिवरी की दुल्हन के यहां नहीं भेजा गया। कलेजे को चीर देने वाली वो डरावनी चीखें उसने सुनी थीं और बड़ा डरती थी कि मरद ऐसा क्या कर देते हैं, कि औरत को इतने खून के आंसू रोने पड़ते हैं।
खैर, उसका ये भरोसा टूटा तो टूटा ही सही, लेकिन सुबह वाली किताब की कहानी सुनकर उसका मुंह फटा की फटा रह गया। पति को छोड़कर दूसरा आदमी कर ली, ट्रेन के नीचे कट गई। कैसी औरत थी ये अन्ना। ऐसा करेगी तो कटेगी ही। उसका आदमी कुछ बोला नहीं। हमारे यहां होती तो जलता कंडा खींचकर मारते। गड़ासी से चीर देते, इंडारा में डुबो देते।
सीलबंद ढक्कन वाले डिब्बे जैसी दुनिया में रहती थीं लडकियाँ। डिब्बे में कोई आता-जाता तो था नहीं। एक मुई चींटी तक तो आती नहीं। अपने दिल की कहें भी तो किससे। सो डिब्बाबंद मुल्क की बड़ी होती लड़कियां अपने अकेलेपन को अकेले में ही गुनती-बुनती, अकेले ही जूझती रहतीं सबकुछ से।
मैं भी इसी डिब्बाबंद मुल्क की एक लड़की थी। बड़ी चाशनी घुली थी, जिंदगी में जवानी की तरंगों के आने से। चाशनी में सिमोन मार्का नारीवाद का छौंका भी लग गया। सब गड्डम-गड्ड।
जिंदगी के दरवाजे दस्तक देती जवानी और इंद्रिय-बोध के साथ लड़कों के मन और देह की दुनिया कैसे बदलती है, कुछ अंदाजा नहीं, लेकिन लड़कियों की दुनिया में बड़े अदेखे, रहस्यमय तूफान आते हैं। भीतर और बाहर की दुनिया प्रकाश की गति जैसी तेजी से बदलती है और कुछ समझ नहीं आता कि ये क्या हो रहा है। जिन लड़कों और चचेरे-ममेरे भाइयों के साथ हम अब तक जूतमपैजार में मुब्तिला रहते थे, अब अचानक उनसे भी कुछ शर्म-सी आने लगती है। भले अन्य बहनों के मुकाबले मुझमें लज्जाशीलता का यह पर्सन्टेज कुछ कम रहा था और तब भी मैं प्रेम-पत्र वाले खेलों के मुकाबले जूतमपैजार वाले खेल को लेकर ज्यादा एक्साइटेड रहती थी। बल्ला-गेंद या दूसरी किसी चीज को लेकर मैं भाई के साथ गुत्थम-गुत्था होती तो दादी अपनी चारपाई पर बैठे-बैठे ही बिफरतीं, ‘देख तनि इनकर दीदा, घोड़ी हस भइन अउर भाइयन से लिपटत-चिपटत रहत थिन, इनका तनकौ लाज नाही लागत।’
इस उम्र में पितृत्व की कोई भावना न जाने किसी लड़के के मन में कैसे आती है, आती भी है या नहीं, लेकिन किसी औरत का फूला हुआ पेट या नवजात शिशु को दूध पिलाती मां की छवियां दबे पांव लड़की की बदल रही दुनिया में अपनी जगह बना लेती हैं। कहीं, किसी कोने वो छवि छिपकर बैठी होती है और उम्र के तूफानों से अकेली जूझ रही लड़की के एकांत पाते ही पता नहीं कहां से धमक जाती है। हर सुबह लड़की हसरतों, सपनों, जिज्ञासाओं की ओस भीगी जमीन पर पांव रखती है। उमंगों की कोई डोर एक ओर खींचती है, तो अजाने भयों की डोर दूसरी ओर।
कई साल पहले, जब किसी रिश्तेदार की शादी में हमारा गांव जाना हुआ तो वहां बारात में आए लड़कों से आंखों-ही-आंखों में कुछ बातें और मुफ्त में मिले एकाध प्रणय-प्रस्ताव (शादी-ब्याह में ये बहुत ही आम बात है) के अलावा एक बात और हुई। एक लड़की, जो मुझसे कुछ बरस छोटी, लेकिन विवाहिता थी और पिता के घर का बासन-चूल्हा संभालते हुए पांच महीने बाद होने वाले अपने गौने का इंतजार कर रही थी, ने एक रात घर के पिछवाड़े छपड़े के नीचे एक ही चारपाई पर लेटे हुए मुझसे शादी के बाद के रहस्यों के बारे में कुछ सवाल किए। उसके हिसाब से मैं शहर की लड़की थी, और मोटी-मोटी किताबें पढ़ती थी। (दिन में मेरे हाथ में अन्ना कारेनिना का मोटा पहला भाग देखकर उसे मेरे विद्वान होने का यकीन हो चुका था।) तो जरूर इस जानिब मैं उसे कुछ भरोसे लायक जानकारी दे सकूंगी।
शहर की लड़की उसकी उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी, लेकिन उसकी बेचैनी भरी जिज्ञासाएं बड़ी वाजिब थीं। घर में बड़ी बहन की जचगी देखे छमाहा भी न गुजरा था। गांव में कुंवारी लड़कियों को आमतौर पर ऐसे हौलनाक मंजरों से दूर ही रखा जाता है, लेकिन चूंकि उसकी मांग भरी थी, और बरस-दो बरस बाद यह हादसा उसके साथ भी पेश आना था, सो उसे किसी बहाने तिवरी की दुल्हन के यहां नहीं भेजा गया। कलेजे को चीर देने वाली वो डरावनी चीखें उसने सुनी थीं और बड़ा डरती थी कि मरद ऐसा क्या कर देते हैं, कि औरत को इतने खून के आंसू रोने पड़ते हैं।
खैर, उसका ये भरोसा टूटा तो टूटा ही सही, लेकिन सुबह वाली किताब की कहानी सुनकर उसका मुंह फटा की फटा रह गया। पति को छोड़कर दूसरा आदमी कर ली, ट्रेन के नीचे कट गई। कैसी औरत थी ये अन्ना। ऐसा करेगी तो कटेगी ही। उसका आदमी कुछ बोला नहीं। हमारे यहां होती तो जलता कंडा खींचकर मारते। गड़ासी से चीर देते, इंडारा में डुबो देते।
सीलबंद ढक्कन वाले डिब्बे जैसी दुनिया में रहती थीं लडकियाँ। डिब्बे में कोई आता-जाता तो था नहीं। एक मुई चींटी तक तो आती नहीं। अपने दिल की कहें भी तो किससे। सो डिब्बाबंद मुल्क की बड़ी होती लड़कियां अपने अकेलेपन को अकेले में ही गुनती-बुनती, अकेले ही जूझती रहतीं सबकुछ से।
मैं भी इसी डिब्बाबंद मुल्क की एक लड़की थी। बड़ी चाशनी घुली थी, जिंदगी में जवानी की तरंगों के आने से। चाशनी में सिमोन मार्का नारीवाद का छौंका भी लग गया। सब गड्डम-गड्ड।
Saturday, 23 February 2008
डिब्बाबंद मुल्क, बड़ी होती लड़की और मातृत्व की उलझी छवियां -1
करीब ढाई साल गुजरे उस बात को, जब मेरी एक कजिन, जो हमारे ठेठ सामंती, ब्राम्हण परिवार में साफ दिल वाली एक लड़की थी, ने एक बेटी को जन्म दिया। मैं मुंबई गई थी, तब बिल्कुल अकेली थी। ननिहाल, तीन मौसियों और बुआ के घरों वाले उस शहर में कोई अपना नहीं था। एक बागी और जैसाकि स्वीकारोक्ति में पहले ही कह चुकी हूं, बुरी लड़की के लिए अच्छे, भारतीय मूल्यों वाले घर में कुछ खास जगह नहीं थी।
अच्छे घरों की अच्छी लड़कियाँ विले पार्ले स्टेशन पर उतरते ही अच्छी लड़की का चोंगा सीढि़यों के नीचे छिपा कॉलेज और समंदर के सिम्त जाने वाली सड़क का रुख करतीं और शाम को घर लौटते हुए सीढि़यों के नीचे से चोंगा उठाती जाती थीं। मुझे फोन करके स्वीकारोक्तियाँ करतीं, हाल-ए-दिल बयां करतीं। दीदी, आय एम इन लव। वो टॉल, डार्क, हैंडसम मेरा ब्वायॅफ्रेंड है। मैंने हमेशा समझाना चाहा, अच्छे लोगों के घर से आजादी तभी मिलेगी, जब अपने पैरों पर खड़ी होगी। वरना ब्वॉयफ्रेंड तो आज्ञाकारी पुत्र की तरह इनकम टैक्स अफसर की बेटी के साथ लगाएगा फेरे और तुम पैर में आलता लगाकर पति के घर में विम बार से बर्तन धोना। उसे घर ले जाओगी तो तुम्हें तो बाद में, ब्वॉयफ्रेंड को पहले लातों का हार पहनाया जाएगा।
तो ऐसे घर में वो एक लड़की थी, जो मुझे सबसे ज्यादा प्यारी थी। जिसका दिल साफ और आँखें सुंदर-सी थीं। वह नास्तिक और प्रगतिशील तो कतई नहीं थी, उल्टे बड़ी धार्मिक। भगवान के साथ उसका पीआर बड़ा स्ट्रांग और भगवान और मेरा छत्तीस का आंकड़ा। लेकिन उसका मन इतना सुंदर और पारदर्शी था, कि भगवान वाला पीआर कभी हमारे संबंधों के आड़े न आया। मैं तो सो कॉल्ड इंटेलेक्चुअल टाइप होने के बावजूद उसके सहज-बोध और सीधी-सरल नैतिकता के आगे बहुत बार खुद को बौना महसूस करती थी।
मैं जब भी अकेली, उदास होती, उसके ऑफिस चली जाती। हम दोनों जुहू में सेंटॉर होटल से सटी हुई पतली गली से गुजरकर समंदर के किनारे जाकर बैठ जाते। बातें करते, कुछ गीत गाते, तट पर लहरों का टूटना देखते और उस अँधेरे सन्नाटे में लहरों का शोर सुनते। कैसे चीखती थीं लहरें, जैसे पहले-पहले प्यार को स्वीकार कर लिए जाने के बाद कोई तरंग में उड़ा जा रहा हो। मन की, कदमों की उड़ान पर कोई बस ही न हो।
बीच-बीच में, जब कोई जोड़ा दूर समंदर में घुटनों तक पानी में डूबा देह के गणित को समझने में उलझा होता, और मैं दूर से उन्हें बिना पलक झपकाए निहारने में तो ये दीदी का ही शानदार आइडिया होता कि मनीषा, उन्हें नहीं, उन लोगों के चेहरे देखो, जो वहां से गुजरते हुए उस जोड़े को घूर रहे हैं। बड़ी कमाल बात थी। कैसे-कैसे तो चेहरे और कैसी-कैसी प्रतिक्रियाएं। दीदी से थोड़ा ज्यादा सटकर बैठ जाती तो वो फायर और दीपा मेहता को बद्दुआ देती, लोग क्या सोचेंगे, कहकर दूर हट-दूर हट चिल्लाने लगतीं। बड़ा मजा आता। लौटते हुए हम पाव भाजी और आइसक्रीम खाते। बाकी जीवन का पता नहीं, लेकिन समंदर के तट पर उतनी देर मैं जरूर सुखी रहती थी।
फिर एक दिन उसकी शादी हो गई और वो चली गई। बहुत दिनों बाद लौटी तो फूला हुआ पेट, सूजे पैर और भारी-सा मुंह लेकर। मुझे उसकी यह बदली हुई शक्ल थोड़ी विचित्र लगती, लेकिन अपने फूले हुए पेट पर हाथ फेरती उसकी आंखों में संतोष की मुस्कान झलकती थी। वो खुश थी, वो उम्मीद से थी।
आगे जारी
अच्छे घरों की अच्छी लड़कियाँ विले पार्ले स्टेशन पर उतरते ही अच्छी लड़की का चोंगा सीढि़यों के नीचे छिपा कॉलेज और समंदर के सिम्त जाने वाली सड़क का रुख करतीं और शाम को घर लौटते हुए सीढि़यों के नीचे से चोंगा उठाती जाती थीं। मुझे फोन करके स्वीकारोक्तियाँ करतीं, हाल-ए-दिल बयां करतीं। दीदी, आय एम इन लव। वो टॉल, डार्क, हैंडसम मेरा ब्वायॅफ्रेंड है। मैंने हमेशा समझाना चाहा, अच्छे लोगों के घर से आजादी तभी मिलेगी, जब अपने पैरों पर खड़ी होगी। वरना ब्वॉयफ्रेंड तो आज्ञाकारी पुत्र की तरह इनकम टैक्स अफसर की बेटी के साथ लगाएगा फेरे और तुम पैर में आलता लगाकर पति के घर में विम बार से बर्तन धोना। उसे घर ले जाओगी तो तुम्हें तो बाद में, ब्वॉयफ्रेंड को पहले लातों का हार पहनाया जाएगा।
तो ऐसे घर में वो एक लड़की थी, जो मुझे सबसे ज्यादा प्यारी थी। जिसका दिल साफ और आँखें सुंदर-सी थीं। वह नास्तिक और प्रगतिशील तो कतई नहीं थी, उल्टे बड़ी धार्मिक। भगवान के साथ उसका पीआर बड़ा स्ट्रांग और भगवान और मेरा छत्तीस का आंकड़ा। लेकिन उसका मन इतना सुंदर और पारदर्शी था, कि भगवान वाला पीआर कभी हमारे संबंधों के आड़े न आया। मैं तो सो कॉल्ड इंटेलेक्चुअल टाइप होने के बावजूद उसके सहज-बोध और सीधी-सरल नैतिकता के आगे बहुत बार खुद को बौना महसूस करती थी।
मैं जब भी अकेली, उदास होती, उसके ऑफिस चली जाती। हम दोनों जुहू में सेंटॉर होटल से सटी हुई पतली गली से गुजरकर समंदर के किनारे जाकर बैठ जाते। बातें करते, कुछ गीत गाते, तट पर लहरों का टूटना देखते और उस अँधेरे सन्नाटे में लहरों का शोर सुनते। कैसे चीखती थीं लहरें, जैसे पहले-पहले प्यार को स्वीकार कर लिए जाने के बाद कोई तरंग में उड़ा जा रहा हो। मन की, कदमों की उड़ान पर कोई बस ही न हो।
बीच-बीच में, जब कोई जोड़ा दूर समंदर में घुटनों तक पानी में डूबा देह के गणित को समझने में उलझा होता, और मैं दूर से उन्हें बिना पलक झपकाए निहारने में तो ये दीदी का ही शानदार आइडिया होता कि मनीषा, उन्हें नहीं, उन लोगों के चेहरे देखो, जो वहां से गुजरते हुए उस जोड़े को घूर रहे हैं। बड़ी कमाल बात थी। कैसे-कैसे तो चेहरे और कैसी-कैसी प्रतिक्रियाएं। दीदी से थोड़ा ज्यादा सटकर बैठ जाती तो वो फायर और दीपा मेहता को बद्दुआ देती, लोग क्या सोचेंगे, कहकर दूर हट-दूर हट चिल्लाने लगतीं। बड़ा मजा आता। लौटते हुए हम पाव भाजी और आइसक्रीम खाते। बाकी जीवन का पता नहीं, लेकिन समंदर के तट पर उतनी देर मैं जरूर सुखी रहती थी।
फिर एक दिन उसकी शादी हो गई और वो चली गई। बहुत दिनों बाद लौटी तो फूला हुआ पेट, सूजे पैर और भारी-सा मुंह लेकर। मुझे उसकी यह बदली हुई शक्ल थोड़ी विचित्र लगती, लेकिन अपने फूले हुए पेट पर हाथ फेरती उसकी आंखों में संतोष की मुस्कान झलकती थी। वो खुश थी, वो उम्मीद से थी।
आगे जारी
Wednesday, 20 February 2008
पतनशील स्वीकारोक्ति क्या कोई भड़ासी भोंपू है
हिंदी में बहसें कैसे होती हैं। जाना होता है, भदोही, पहुंच जाते हैं भटिंडा। किसी ने एक बहस शुरू की और हिंदी में कोई बात कही। तो कोई और, जिसे टूटी-फूटी फ्रेंच आती हो, (ठीक से हिंदी भी नहीं आती) बीच में कूदकर फ्रेंच में उसका जवाब देने लगता है। फिर कोई और टपक पड़ता है और बंगाली में कुछ-कुछ विचार फेंकता चलता है। फिर कोई किनारे से गुजरता है, और कहता है कि फारसी में मनीषा ने जो बात शुरू की है, उसका हिब्रू में जवाब बहुत शानदार बन पड़ा है।
पतनशील स्वीकारोक्ति पढ़कर भड़ासी को लगता है कि उनके भड़ासी बैंड में एक और भोंपू शामिल हुआ, तो किसी को तुरत-फुरत में ये सफाई देने की जरूरत होती है, कि वो तो मुक्त ही पैदा हुई हैं, उनके घर की रसोई स्त्री-पुरुष समानता का प्रतीक है और वो पतित या पतनशील कतई नहीं हैं। जैसाकि पहले भी कहा गया कि कुछ लपुझन्नों की लार भी टपकने लगती है कि वाह, चलो अब कभी परंपरा, तो कभी प्रगतिशीलता के नाम पर लड़कियों को पटाने की जरूरत नहीं। ये पतिताएं तो खुद ही आकर गोदी में बैठने को तैयार हैं।
यह पतनशील स्वीकारोक्ति क्या कोई भड़ासी भोंपू है। कौन कह रहा है कि लड़कियां अपने दिल की भड़ास निकाल रही हैं। यह मुल्क, यह समाज तो स्त्रियों के प्रति अपने विचारों में आज भी मध्य युग के अंधेरों से थोड़ा ही बाहर आ पाया है और वो बदलते बाजार और अर्थव्यवस्था की बदौलत। नहीं, तो अपने दिलों में झांककर देख लीजिए। हमारे प्रगतिशील साथी बलात्कार पर अदम गोंडवी की एक बेहद दर्दनाक कविता पढ़ रहे हों तो लगता है कि उनका मुंह नोंच लो। 'बैंडिट क्वीन' जैसी फिल्म के सबसे तकलीफदेह हिस्सों पर हॉल में बैठे लोग सीटियां बजाते मन-ही-मन उस आनंद की कल्पना में मस्त हो रहे होते हैं, बगल में बैठा कोई शूरवीर आपको देखकर बाईं आंख भी दबा देता है।
कैसा है यह मुल्क। इस इतने पिछड़े और संकीर्ण समाज में बिना सिर-पैर के सिर्फ भड़ासी भोंपू बजाने का परिणाम जानते हैं आप। आपको जरूरत नहीं, जानने की। अर्जुन की तरह चिडि़या की आंख दिख रही है। पतनशीलता के बहाने अपनी थाली में परोसी जाने वाली रसमलाई।
मैं यह बात आज इस तरह कह पा रही हूं, क्योंकि मैंने कुछ सामाजिक, आर्थिक और बौद्धिक सहूलियतें हासिल कर ली हैं। लेकिन सुल्तानपुर के रामरतन चौबे की ब्याहता और प्राइमरी स्कूल टीचर की 16 साल की बेटी से मैं इस भड़ासी बैंड के कोरस में शामिल होने को नहीं कह सकती। उनसे कुछ कहूंगी भी तो यही कि खूब-खूब पढ़ो, अपने मन और बुद्धि का विस्तार करो, इस काबिल बनो कि अपने लिए चार कपड़े, किताबें और सिर पर छत के लिए किसी मर्द की मोहताज न होओ। छत पर बिना दुपट्टा जाने को न मिले - न सही, पैर फैलाकर बैठने को न मिले - न सही, तेज चलने से कोई रोके तो कोई बात नहीं। किताब तो पढ़ने को मिलती है न। किताब पढ़ो, और उन किताबों के रास्ते वहां तक पहुंचो, जब तुम्हारे दुपट्टा उतार देने पर भी कोई मुंह नहीं खोलगा, क्योंकि तुम्हारे व्यक्तित्व और बुद्धि की ऊंचाइयां उनके मुंह को चाक किए रहेंगी।
यशवंत जी, आपके सारे सुझाव एक गरीब, दुखी देश की दुखी लड़कियों के रसालत में पड़े जीवन को और भी रसातल में लेकर जाते हैं। मेरी पतनशील स्वीकारोक्तियों का सिर्फ और सिर्फ एक प्रतीकात्मक महत्व है। उसे उम्दा, उत्तम, अति उत्तम स्त्री विमर्श का ताज मत पहनाइए। ऐसे सुझाव देने से पहले ये तो सोचिए कि आप किस देश, किस समाज के हिस्से हैं। मुझ जैसी कुछ लड़कियां, जिन्होंने कुछ सहूलियतें पाई हैं, जब वो नारीवाद का झंडा हरहराती हैं, तो क्या उनका मकसद लड़कर सिर्फ अपनी आजादी का स्पेस हासिल कर लेना और वहां अपनी विजय-पताका गाड़ देना है। मैं तो आजाद हूं, देखो, ये मेरी आजाद टेरिटरी और ये रहा मेरा झंडा।
आपको लगता है कि स्त्री-मुक्ति इस समाज के बीच में उगा कोई टापू है, या नारियल का पेड़, जिस पर चढ़कर लड़कियां मुक्त हो जाएंगी और वहां से भोंपू बजाकर आपको मुंह बिराएंगी कि देखो, मुक्ति के इस पेड़ को देखो, जिसकी चोटी पर हम विराजे हैं, तो हमें आपकी अक्ल पर तरस आता है। तिनका-तिनका आजादी पाई किसी भी स्त्री का अगर स्त्री की वास्तविक मुक्ति के प्रति थोड़ा भी सरोकार है, तो ऐसा कोई बाजा बजाने के बजाय वो पढ़ेगी, और खूब-खूब पढ़ेगी, अपनी आजादी को पोज करने के बजाय बड़े फलक पर चीजों को समझने की कोशिश करेगी, वह वास्तवकि अर्थों में बौद्धिक और भावनात्मक रूप से एक मुक्ति और आत्मनिर्भरता हासिल करेगी।
ये सब कैसे होगा, इस पर और भी बहुत कुछ गुनना-बुनना होगा। लेकिन फिलहाल भडा़सी बैंड की सदस्यता से हम इनकार करते हैं। आप अपने कोरस में मस्त रहें।
Tuesday, 19 February 2008
‘पतनशीलता’ क्या कोई मूल्य है
प्रत्यक्षा जी, पतनशीलता क्या कोई मूल्य है। पतन मूल्य कैसे हो सकता है। अच्छे और बुरे की, सत्य और असत्य की, उदात्त और पतित की सारी परिभाषाएं हर देश, काल और विचारधारा में कमोबेश समान होंगी। जो बात वस्तुत: पतित है, स्त्री मुक्ति के विमर्श में वह उन्नत कैसे हो जाएगी। नहीं होगी। ऐसा सोचना समझदारी की बुनियादी जमीन से ही विचलन है।
माया एंजिलो अपनी ऑटोबायोग्राफिकल राइटिंग, 'आई नो, व्हाय द केज्ड बर्ड सिंग्स' में ऐसी ही बैड वुमेन होने की बात कहती हैं। रंग के आधार पर बंटे समाज में वह काली है, अमीर और गरीब के खांचों में बंटे समाज में वह गरीब है और औरत और मर्द के शक्ति समीकरणों में बंटे समाज में वह एक औरत है। वह गरीब, काली और औरत, तीनों एक साथ है, जिसके नियमों को मानने के बजाय वो एक बुरी औरत होना चाहती है। 'ए रुम ऑफ वंस ओन' में वर्जीनिया वुल्फ ने भी एक मुक्त और बुरी औरत के बारे में लिखा है।
सिमोन, माया एंजिलो, वर्जीनिया सबके यहां ये बुरी औरत एक सटायर है, एक व्यंग्य। मुझे सांस लेने के लिए बुरी औरत बनना पड़ेगा तो ठीक है, बुरी ही सही, लेकिन सांस तो मैं लूंगी। लेकिन ये बुरी औरतें बुरे होने से शुरुआत करके न सिर्फ स्त्री समुदाय, बल्कि पूरी मनुष्यता को उदात्त करने की दिशा में जाती हैं। वो विचार, जीवन, कर्म सबमें एक वास्तविक मनुष्य की मुक्ति का लक्ष्य हासिल करती हैं। कर्म, रचनात्मकता और आत्म-सम्मान से भरा जीवन जीती हैं। उनकी पतनशीलता इस दुनिया के प्रति एक व्यक्तिवादी रिएक्शन और सिर्फ अपने लिए स्पेस पा लेने भर की लड़ाई नहीं है।
यह पतनशीलता का सटायर एक चीप किस्म की निजी आजादी में बदल जाएगा, अगर उसके साथ विचार, कर्म और रचनात्मकता का व्यापक फलक न हो। वह स्त्री मुक्ति के साथ समूची मानवता और मनुष्य मात्र की मुक्ति के स्वप्नों से जुड़ा न हो। अपने अंतिम अर्थों में वह एक बेहतर मनुष्य समाज के निर्माण के स्वप्न और कर्मों से संचालित न हो। यह अपनी कुछ खास वर्गीय और सामाजिक सुविधाओं का लाभ उठाते हुए दारू-सिगरेट पी लेने, रात में घूम लेने, एक सुविधा और सेटिंग से मिली नौकरी को अपनी आजाद जीवन की उपलब्धि की माला समझकर गले में टांगकर मस्त होने की बात नहीं है। ऐसा तो बहुत सारी औरतें कर लेती हैं, लेकिन वह मुक्त तो नहीं होतीं। वह पतित भी नहीं होतीं, क्योंकि जिस वर्गीय परिवेश से वो आती हैं, वहां वह पतनशील मूल्य नहीं है। दारू पीना मेरे घर में पतित मूल्य है, लेकिन सुष्मिता सेन के घर में तो नहीं होगा। रात 12 बजे दफ्तर से घर लौटना मेरे घर में पतनशील मूल्य नहीं है, लेकिन बेगूसराय के सरकारी स्कूल मास्टर चौबे जी के लिए बहुत बड़ा पतनशील मूल्य है। हंडिया, बस्तर, लखनऊ, मुंबई और पेरिस के समाजों में स्त्री के लिए पतनशील मूल्य अलग-अलग हैं। एक जगह जो पतित है, वह दूसरी जगह बड़ी सामान्य बात है।
‘पतनशील’ - इस शब्द की प्रतीकात्मकता को समझना और अपने विचारों को बड़े फलक पर देखना बहुत जरूरी है। और मुक्ति भी तो ऐसी कि ‘मैं ये होना चाहती हूं’ जैसी नहीं होती। मैं कोई चीज सिर्फ इसलिए नहीं कर सकती, क्योंकि मैं ये करना चाहती हूं। कोई स्त्री भी उतनी ही मुक्त होती है, जितना मुक्त वह समाज हो, जिसमें वह रहती है। मेरी मुक्ति का स्पेस उतना ही है, जितना मेरे जीवन का भौतिक, वर्गीय परिवेश मुझे प्रदान करता है। यह मुक्ति, अपने मन-मुताबिक जीने की इच्छा मेरे जींस की जेब में रखा लॉलीपॉप नहीं है, कि जब जी में आया, उठाया और खाया।
बेशक, यह बड़े सवाल हैं, बड़ा स्वप्न, बड़े विचार और बहुत बड़ा संघर्ष। इसे समझने के लिए बड़ी नजर, बड़ी समझ, बड़े विवेक और बड़े श्रम की जरूरत होगी।
माया एंजिलो अपनी ऑटोबायोग्राफिकल राइटिंग, 'आई नो, व्हाय द केज्ड बर्ड सिंग्स' में ऐसी ही बैड वुमेन होने की बात कहती हैं। रंग के आधार पर बंटे समाज में वह काली है, अमीर और गरीब के खांचों में बंटे समाज में वह गरीब है और औरत और मर्द के शक्ति समीकरणों में बंटे समाज में वह एक औरत है। वह गरीब, काली और औरत, तीनों एक साथ है, जिसके नियमों को मानने के बजाय वो एक बुरी औरत होना चाहती है। 'ए रुम ऑफ वंस ओन' में वर्जीनिया वुल्फ ने भी एक मुक्त और बुरी औरत के बारे में लिखा है।
सिमोन, माया एंजिलो, वर्जीनिया सबके यहां ये बुरी औरत एक सटायर है, एक व्यंग्य। मुझे सांस लेने के लिए बुरी औरत बनना पड़ेगा तो ठीक है, बुरी ही सही, लेकिन सांस तो मैं लूंगी। लेकिन ये बुरी औरतें बुरे होने से शुरुआत करके न सिर्फ स्त्री समुदाय, बल्कि पूरी मनुष्यता को उदात्त करने की दिशा में जाती हैं। वो विचार, जीवन, कर्म सबमें एक वास्तविक मनुष्य की मुक्ति का लक्ष्य हासिल करती हैं। कर्म, रचनात्मकता और आत्म-सम्मान से भरा जीवन जीती हैं। उनकी पतनशीलता इस दुनिया के प्रति एक व्यक्तिवादी रिएक्शन और सिर्फ अपने लिए स्पेस पा लेने भर की लड़ाई नहीं है।
यह पतनशीलता का सटायर एक चीप किस्म की निजी आजादी में बदल जाएगा, अगर उसके साथ विचार, कर्म और रचनात्मकता का व्यापक फलक न हो। वह स्त्री मुक्ति के साथ समूची मानवता और मनुष्य मात्र की मुक्ति के स्वप्नों से जुड़ा न हो। अपने अंतिम अर्थों में वह एक बेहतर मनुष्य समाज के निर्माण के स्वप्न और कर्मों से संचालित न हो। यह अपनी कुछ खास वर्गीय और सामाजिक सुविधाओं का लाभ उठाते हुए दारू-सिगरेट पी लेने, रात में घूम लेने, एक सुविधा और सेटिंग से मिली नौकरी को अपनी आजाद जीवन की उपलब्धि की माला समझकर गले में टांगकर मस्त होने की बात नहीं है। ऐसा तो बहुत सारी औरतें कर लेती हैं, लेकिन वह मुक्त तो नहीं होतीं। वह पतित भी नहीं होतीं, क्योंकि जिस वर्गीय परिवेश से वो आती हैं, वहां वह पतनशील मूल्य नहीं है। दारू पीना मेरे घर में पतित मूल्य है, लेकिन सुष्मिता सेन के घर में तो नहीं होगा। रात 12 बजे दफ्तर से घर लौटना मेरे घर में पतनशील मूल्य नहीं है, लेकिन बेगूसराय के सरकारी स्कूल मास्टर चौबे जी के लिए बहुत बड़ा पतनशील मूल्य है। हंडिया, बस्तर, लखनऊ, मुंबई और पेरिस के समाजों में स्त्री के लिए पतनशील मूल्य अलग-अलग हैं। एक जगह जो पतित है, वह दूसरी जगह बड़ी सामान्य बात है।
‘पतनशील’ - इस शब्द की प्रतीकात्मकता को समझना और अपने विचारों को बड़े फलक पर देखना बहुत जरूरी है। और मुक्ति भी तो ऐसी कि ‘मैं ये होना चाहती हूं’ जैसी नहीं होती। मैं कोई चीज सिर्फ इसलिए नहीं कर सकती, क्योंकि मैं ये करना चाहती हूं। कोई स्त्री भी उतनी ही मुक्त होती है, जितना मुक्त वह समाज हो, जिसमें वह रहती है। मेरी मुक्ति का स्पेस उतना ही है, जितना मेरे जीवन का भौतिक, वर्गीय परिवेश मुझे प्रदान करता है। यह मुक्ति, अपने मन-मुताबिक जीने की इच्छा मेरे जींस की जेब में रखा लॉलीपॉप नहीं है, कि जब जी में आया, उठाया और खाया।
बेशक, यह बड़े सवाल हैं, बड़ा स्वप्न, बड़े विचार और बहुत बड़ा संघर्ष। इसे समझने के लिए बड़ी नजर, बड़ी समझ, बड़े विवेक और बड़े श्रम की जरूरत होगी।
Monday, 18 February 2008
हम लड़कियां पतित होना चाहती हैं
एक पतनशील स्वीकारोक्ति
(सुजाता ने नोटपैड पर पतनशीलता पर कुछ विचार व्यक्त किए। मैं सच कहने से खुद को रोक नहीं पा रही हूं।)
अपने घर की बड़ी-बूढियों और पड़ोसिनों, मिश्रा आंटी, तिवारी आंटी और चौबे आंटी से अच्छी लड़की होने के लक्षणों और गुणों पर काफी भाषण सुना है। और-तो-और, हॉस्टल में भी लड़कियाँ अक्सर मुझमें एक अच्छी लड़की के गुणों का अभाव पाकर उंगली रखती रहती थीं।
अच्छी लड़की न होने के बहुत सारे कारण हो सकते थे।
दादी के पैमाने ज्यादा संकुचित थे, मां के उनसे थोड़ा उदार और हॉस्टल के सहेलियों के थोड़ा और उदार। लेकिन पतित सभी की नजरों में रही हूं। जैसेकि शीशे के सामने चार बार खड़ी हो गई, या कोई रोमांटिक गाना गुनगुनाया, थोड़ा ज्यादा नैन मटका लिए, चलते समय पैरों से ज्यादा तेज आवाज आई, भाइयों के सामने बिना दुपट्टा हंसी-ठट्ठा किया तो दादी को मेरे अच्छी लड़की न होने पर भविष्य में ससुराल में होने वाली समस्याओं की चिंता सताए जाती थी।
मां इतनी तल्ख तो नहीं थीं। उनके हिसाब से घर में चाहे जितना दांत दिखाओ, सड़क या गली से गुजरते हुए चेहरा एक्सप्रेशनलेस होना चाहिए। सामने वाले शुक्ला जी का लड़का छत पर खड़ा हो तो छत पर मत जाओ, घर में भले बिना दुपट्टा रहो पर छत पर बिना दुपट्टा अदाएं दिखाना पतित होने के लक्षण हैं। अड़ोसी-पड़ोसी लड़कों से ज्यादा लडि़याओ मत। पूरा दिन घर से बाहर रहकर घूमने को जी चाहे तो लक्षण चिंताजनक है। रात में घर न लौटकर दोस्त के घर रुक जाने या इलाहाबाद यूनिविर्सिटी के गर्ल्स हॉस्टल में किसी सहेली के कमरे में रात बिताने को जी चाहे तो मां की नींद हराम होने के दिन आ गए हैं, ऐसा समझ लेना चाहिए। जबकि पापा अपने कॉलेज के दिनों के किस्से इस उम्र में भी मजे लेकर सुनाते रहे थे कि कैसे घर में उनके पांव नहीं टिकते थे, कि साइकिल उठाए वो कभी भी दस दिनों के लिए घर से अचानक गायब हो सकते थे और इलाहाबाद से सौ किलोमीटर दूर तक किसी गांव में जिंदगी को एक्स्प्लोर करते 10-15 दिन बिता सकते थे।
हॉस्टल की लड़कियां ज्यादा खुली थीं। वहां मैं कह सकती थी कि 20 पार हूं, लड़कों से बात करने को जी चाहता है। आमिर खान बड़ा हैंडसम है, मुझे उससे प्यार जैसा कुछ हो गया है। इन बातों को लड़कियां पतित नहीं समझतीं। उनके भी दिलों का वही हाल था, इतना तो मुंह खोलने की आजादी भी थी। लेकिन वहां भी पतन के कुछ लक्षण प्रकट हुए। जैसेकि ये तू बैठती कैसे है, पैर फैलाकर आदमियों की तरह। मनीषा, बिहेव लाइक ए डीसेंट गर्ल। ये पेट के बल क्यूं सोती है, लड़कियों के सोने में भी एक अदा होनी चाहिए।
हॉस्टल में मेरी रूममेट और दूसरी लड़कियां दिन-रात मुझमें कुछ स्त्रियोचित गुणों के अभाव को लेकर बिफरती रहतीं और जेनुइनली चिंताग्रस्त होकर सिखाती रहतीं कि अगर मुझे एक अच्छी लड़की, फिर एक अच्छी प्रेमिका, अच्छी पत्नी और अच्छी मां होना है, तो उसके लिए अपने भीतर कौन-कौन से गुण विकसित करने की जरूरत है।
जो मिला, सबने अपने तरीके से अच्छी लड़की के गुणों के बारे में समझाया-सिखाया। और मैं जो हमेशा से अपने असली रूप में एक पतित लड़की रही हूं, उन गुणों को आत्मसात करने के लिए कुछ हाथ-पैर मारती रही, क्योंकि आखिरकार मुझे भी तो इसी दुनिया में रहना है और अंतत: मैं खुद को इग्नोर्ड और आइसोलेटेड नहीं फील करना चाहती।
इसलिए कहीं-न-कहीं अपने मन की बात, अपनी असली इच्छाएं कहने में डरती हूं, क्योंकि मुझे पता है कि वो इच्छाएं बड़ी पतनशील इच्छाएं हैं, और सारी प्रगतिशीलता और भाषणबाजी के बावजूद मुझे भी एक अच्छी लड़की के सर्टिफिकेट की बड़ी जरूरत है। हो सकता है, अपनी पतनशील इच्छाओं की स्वीकारोक्ति के बाद कोई लड़का, जो मुझसे प्रेम और शादी की कुछ योजनाएं बना रहा हो, अचानक अपने निर्णय से पीछे हट जाए। 'मैं तो कुछ और ही समझ रहा था, ये तो बड़ी पतनशील निकली।'
कोई मेरे दिल की पूछे तो मैं पतित होना चाहती हूं, भले पैरलली अच्छी लड़की होने के नाम से भावुक होकर आंसू चुहाती रहूं।
वैसे पतनशील होना ज्यादा आसान है और अच्छी लड़की बनने की बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। हो सकता है, मेरे जैसी और ढेरों लड़कियां हों, जो अपनी पतनशीलता को छिपाती फिरती हैं, अच्छी लड़की के सर्टिफिकेट की चिंता में। डर रही हूं, कि खुद ही ओखल में सिर दे दिया है, लेकिन अब दे दिया तो दे दिया। चार और साथिनें आगे बढ़कर अपनी पतनशील इच्छाएं व्यक्त करेंगी, तो दिल को कुछ सुकून मिलेगा। लगेगा, मैं ही नहीं हूं साइको, और भी हैं मेरे साथ।
Monday, 21 January 2008
इस भावुकतावाद का मैं क्या करूं
इंदौर में पानी की तंगी से जेनुइनली ग्रस्त मैंने कुछ अपना और आने वाले समय का दुखड़ा ब्लॉग पर रोया, तो मेरे लेखकीय शगल और नीयत पर भी कुछ सवाल उठे। पानी का रोना तो रो रही हैं, पानी बचाने के लिए आपने क्या किया। आजे-जाते यायावरों ने टिप्पणी की। एक टिप्पणी कुछ यूं आई है। आई तो रोमन हिंदी में है, लेकिन मैं यूनीकोड में तर्जुमा यहां रख रही हूं :
माफ कीजिएगा, अगर ब्लॉग पर लिखने के लिए ही आप ऐसी बुनियादी समस्याओं तक पहुंचती हैं तो कोई बात नहीं अन्यथा दुनिया में शिकायतों का पुलिंदा तैयार करने वालों की कोई कमी नहीं.... आपके लेख को देखकर लगा कि आप काफी कुछ सोचती हैं और फलस्वरूप लिखती भी हैं... अच्छा है, लेकिन इस समय का क्या.. आप अपने को इस समस्या के मुताल्लिक कितना जिम्मेदार समझती हैं.... समस्या को उठाना बड़ी बात नहीं, समस्या को दूर करने के लिए पहल करना ज्यादा महत्वपूर्ण है... माना कि ये अकेले की बात नहीं, लेकिन शुरुआत तो करनी पड़ेगी... इंदौर में ये पहल आप की क्यों नहीं करती हैं... आप तो तथाकथित बुद्धिजीवी लोग हैं और ऊर्जावान भी... बड़े-बड़े लोगों से आपका संपर्क भी होगा तो ऐसे मामलों में आप जानकार लोगों की मदद भी ले सकती हैं और जबकि राजेंद्र सिंह जैसे पानी के जानकार पुरोधा लोग हमारे बीच हैं... याद रखिए, आज ये समस्या है, कल ये महामारी बनेगी... साहित्यकार केवल मुद्दे उठाते नहीं, उसके लिए पहल भी करते हैं.... माफ कीजिएगा, टिप्पणी कड़वी जरूर है, लेकिन उतनी ही सच भी... आशा है कि आप मेरी टिप्पणी को अन्यथा न लेकर इस दिशा में कुछ पहल भी करेंगी... एक आम आदमी.
उपरोक्त टिप्पणी नि:संदेह कुछ गंभीर सवाल खड़े करती है। मैंने इस बारे में क्यूं लिखा। जरूर मुझे कहीं दिक्कत या जरूरत महसूस हुई होगी, तभी लिखा। लिखने का कीड़ा काटा हो तो लिखने के लिए विषयों की कमी तो है नहीं। फिर पानी के लिए आंसू बहाने की कुछ खास वजह।
और सोचो, तो सिर्फ पानी का अभाव ही क्यों, सुबह से लेकर रात तक की जिंदगी में जाने कितना कुछ ऐसा घटता है, जो आपको दुखी करता है, पस्त करता है। आप खीझते हैं, चिढ़ते हैं, रोते हैं, तिल-तिल मरते हैं। नल में पानी नहीं होता, तो सुबह-सुबह बिजली गायब होती है। ऑफिस के लिए निकलिए तो ऑटो वाले का मीटर पहले-पहले प्यार की हार्ट बीट की तरह बढ़ता है। बस वाला चार लोगों की सीट पर आठ लोगों को ऐसे ठूंसता है, जैसे बोरे में आलू भर रहा हो। सड़क पर पैदल चलिए तो पान वाले, दुकान वाले सारा काम-धाम छोड़कर आपके स्वागत में पलक-पांवड़े बिछाते हैं। टैंपो में मुश्किल से जगह मिले भी तो बगल की सीट पर बैठा आदमी खिसकने की गुंजाइश होने पर भी ऐसे सटकर बैठेगा कि लगता है कि बस आकर गोद में बैठ जाने भर की देर है। सड़क चलते शोहदे लड़कियों को अपने घर के दुआरे बंधी बकरी समझते हैं कि जब जी आया, जो भी बोलकर, कोहनी मारकर चलते बने।
मां बेचारी पिछले 29 सालों से पापा की गंदी बनियान धो रही हैं और पुदीने की चटनी बना रही हैं। बहन मुंबई की भागमभाग भरी जिंदगी में दो छोटे-छोटे बच्चों के साथ घर, नौकरी, लोकल ट्रेन की ट्रैवलिंग सबकुछ संभाल रही है और पतिदेव अपना अंडरवियर तक बाथरूम में छोड़कर आते हैं कि बीवी धोएगी, नहीं तो बाई से धुलवाएगी।
कोई किताब खरीदनी हो तो बहुत दूर जाना पड़ता है, क्योंकि कई करोड़ की आबादी वाले इस शहर में हिंदी किताबों की सिर्फ एक दुकान है। एक और हुआ करती थी कभी, अब वहां ऑल्टो और मारुति सुजुकी के पार्ट्स मिलते हैं।
कोई एक ऐसा दोस्त नहीं, जिसे घर और गाड़ी की ईएमआई और शेयर मार्केट में डूबते इन्वेस्टमेंट की चिंता न हो। सहेलियाँ बच्चों की बहती नाक और पति के कभी न भरने वाले पेट की फरमाइशों से ही त्रस्त रहती हैं।
कितनी तो परेशानियां हैं। और फिर सिर्फ पानी की समस्या ही क्यों, मैं इनमें से किसी भी समस्या को दूर करने के लिए कुछ नहीं करती। ब्लॉग है तो कम-से-कम ब्लॉग पर कुछ लिख लेती हूं। न होता तो ये भी न करती।
क्या करूं। भावुकता में नाक बहाकर रोऊं। हाय पानी, हाय बिजली, हाय मम्मी, हाय दीदी। दीदी पति से लड़ती क्यों नहीं। जीजाजी के सामने साफ-साफ कह क्यूं नहीं देती कि मैं नए जमाने की आजाद, आधुनिक औरत हूं, इस धरती पर मेरा जन्म तुम्हारा अंडरवियर धोने के लिए नहीं हुआ है। कहेगी तो क्या होगा। जीजाजी, अगले दिन से अपनी गलती का एहसास कर सुधर जाएंगे क्या। नहीं, बल्कि दीदी की जिंदगी अगर आज बकरी की लेड़ जितनी नरक है तो कल घोड़े की लीद हो जाएगी, और परसों उससे भी बदतर...
शहर में पेड़ लगाओ आंदोलन और पानी बचाओ आंदोलन में दुनिया को बदल देने के भावुकतापूर्ण भाषणों से इस देश की एक अरब जनता को स्वच्छ पानी और हवा की गारंटी हो जाएगी, अगर ऐसा मैं गलती से भी सोच पाती तो शायद ज्यादा सुखी रहती।
लेकिन मेरा दुख यही है कि ऐसी कोई भोली भावुकता मेरी आत्मा को शांति नहीं पहुंचाती। मियां यायावर, चीजें ऐसे बदलती भी नहीं हैं। ये सारा सुधारवाद फटे हुए कुर्ते में पैबंद है, जिससे फटेहाल गरीबी थोड़ी ढंकती तो मालूम होती है, लेकिन न तो ठीक से ढंकती है और न ही दूर होती है।
मुझे मेरी औकात भी पता है। अपने मन, अपने विचारों की सीमा कि जितना मैं कर सकती हूं। भविष्य में भी ऐसे तमाम प्रश्नों पर सिवाय लिखने के कुछ और ठोस करूंगी, ऐसा कोई दावा नहीं है।
लेकिन मुझे यकीन है कि मैं उस नई ग्लोबलाइज्ड पीढ़ी का हिस्सा नहीं हूं, जो बहुत निरापद भाव से बाजार के कोरस पर डिस्को कर रही है, बिना किसी सवाल, बिना किसी उलझन के। मैं उस पीढ़ी का भी हिस्सा नहीं हूं, अखबारों के सिटी एडीशन में जिनकी दांत निपोरे फोटो छपती है, कि फलाने एडलैब्स और ढिकाने मॉल ने अच्छी चीजों को सस्ता और सर्वसुलभ बना दिया है। अब सबकुछ सबके लिए है।
मैं चमचमाते मॉलों के बीच कभी-कभी होने वाले पेड़ बचाओ, पानी बचाओ आंदोलन के फुस्स-फुस्स नारों का भी हिस्सा नहीं हूं। ये बड़े सवाल हैं और बड़े परिवर्तनों सके बदलेंगे। परिवर्तन किसी व्यक्ति विशेष का नहीं, समूची पीढ़ी का, समूचे युग का, समूचे राष्ट्रों का परिवर्तन। बाकी मैं क्या हूं और मुझे क्या करना चाहिए, तलाश अभी जारी है।
माफ कीजिएगा, अगर ब्लॉग पर लिखने के लिए ही आप ऐसी बुनियादी समस्याओं तक पहुंचती हैं तो कोई बात नहीं अन्यथा दुनिया में शिकायतों का पुलिंदा तैयार करने वालों की कोई कमी नहीं.... आपके लेख को देखकर लगा कि आप काफी कुछ सोचती हैं और फलस्वरूप लिखती भी हैं... अच्छा है, लेकिन इस समय का क्या.. आप अपने को इस समस्या के मुताल्लिक कितना जिम्मेदार समझती हैं.... समस्या को उठाना बड़ी बात नहीं, समस्या को दूर करने के लिए पहल करना ज्यादा महत्वपूर्ण है... माना कि ये अकेले की बात नहीं, लेकिन शुरुआत तो करनी पड़ेगी... इंदौर में ये पहल आप की क्यों नहीं करती हैं... आप तो तथाकथित बुद्धिजीवी लोग हैं और ऊर्जावान भी... बड़े-बड़े लोगों से आपका संपर्क भी होगा तो ऐसे मामलों में आप जानकार लोगों की मदद भी ले सकती हैं और जबकि राजेंद्र सिंह जैसे पानी के जानकार पुरोधा लोग हमारे बीच हैं... याद रखिए, आज ये समस्या है, कल ये महामारी बनेगी... साहित्यकार केवल मुद्दे उठाते नहीं, उसके लिए पहल भी करते हैं.... माफ कीजिएगा, टिप्पणी कड़वी जरूर है, लेकिन उतनी ही सच भी... आशा है कि आप मेरी टिप्पणी को अन्यथा न लेकर इस दिशा में कुछ पहल भी करेंगी... एक आम आदमी.
उपरोक्त टिप्पणी नि:संदेह कुछ गंभीर सवाल खड़े करती है। मैंने इस बारे में क्यूं लिखा। जरूर मुझे कहीं दिक्कत या जरूरत महसूस हुई होगी, तभी लिखा। लिखने का कीड़ा काटा हो तो लिखने के लिए विषयों की कमी तो है नहीं। फिर पानी के लिए आंसू बहाने की कुछ खास वजह।
और सोचो, तो सिर्फ पानी का अभाव ही क्यों, सुबह से लेकर रात तक की जिंदगी में जाने कितना कुछ ऐसा घटता है, जो आपको दुखी करता है, पस्त करता है। आप खीझते हैं, चिढ़ते हैं, रोते हैं, तिल-तिल मरते हैं। नल में पानी नहीं होता, तो सुबह-सुबह बिजली गायब होती है। ऑफिस के लिए निकलिए तो ऑटो वाले का मीटर पहले-पहले प्यार की हार्ट बीट की तरह बढ़ता है। बस वाला चार लोगों की सीट पर आठ लोगों को ऐसे ठूंसता है, जैसे बोरे में आलू भर रहा हो। सड़क पर पैदल चलिए तो पान वाले, दुकान वाले सारा काम-धाम छोड़कर आपके स्वागत में पलक-पांवड़े बिछाते हैं। टैंपो में मुश्किल से जगह मिले भी तो बगल की सीट पर बैठा आदमी खिसकने की गुंजाइश होने पर भी ऐसे सटकर बैठेगा कि लगता है कि बस आकर गोद में बैठ जाने भर की देर है। सड़क चलते शोहदे लड़कियों को अपने घर के दुआरे बंधी बकरी समझते हैं कि जब जी आया, जो भी बोलकर, कोहनी मारकर चलते बने।
मां बेचारी पिछले 29 सालों से पापा की गंदी बनियान धो रही हैं और पुदीने की चटनी बना रही हैं। बहन मुंबई की भागमभाग भरी जिंदगी में दो छोटे-छोटे बच्चों के साथ घर, नौकरी, लोकल ट्रेन की ट्रैवलिंग सबकुछ संभाल रही है और पतिदेव अपना अंडरवियर तक बाथरूम में छोड़कर आते हैं कि बीवी धोएगी, नहीं तो बाई से धुलवाएगी।
कोई किताब खरीदनी हो तो बहुत दूर जाना पड़ता है, क्योंकि कई करोड़ की आबादी वाले इस शहर में हिंदी किताबों की सिर्फ एक दुकान है। एक और हुआ करती थी कभी, अब वहां ऑल्टो और मारुति सुजुकी के पार्ट्स मिलते हैं।
कोई एक ऐसा दोस्त नहीं, जिसे घर और गाड़ी की ईएमआई और शेयर मार्केट में डूबते इन्वेस्टमेंट की चिंता न हो। सहेलियाँ बच्चों की बहती नाक और पति के कभी न भरने वाले पेट की फरमाइशों से ही त्रस्त रहती हैं।
कितनी तो परेशानियां हैं। और फिर सिर्फ पानी की समस्या ही क्यों, मैं इनमें से किसी भी समस्या को दूर करने के लिए कुछ नहीं करती। ब्लॉग है तो कम-से-कम ब्लॉग पर कुछ लिख लेती हूं। न होता तो ये भी न करती।
क्या करूं। भावुकता में नाक बहाकर रोऊं। हाय पानी, हाय बिजली, हाय मम्मी, हाय दीदी। दीदी पति से लड़ती क्यों नहीं। जीजाजी के सामने साफ-साफ कह क्यूं नहीं देती कि मैं नए जमाने की आजाद, आधुनिक औरत हूं, इस धरती पर मेरा जन्म तुम्हारा अंडरवियर धोने के लिए नहीं हुआ है। कहेगी तो क्या होगा। जीजाजी, अगले दिन से अपनी गलती का एहसास कर सुधर जाएंगे क्या। नहीं, बल्कि दीदी की जिंदगी अगर आज बकरी की लेड़ जितनी नरक है तो कल घोड़े की लीद हो जाएगी, और परसों उससे भी बदतर...
शहर में पेड़ लगाओ आंदोलन और पानी बचाओ आंदोलन में दुनिया को बदल देने के भावुकतापूर्ण भाषणों से इस देश की एक अरब जनता को स्वच्छ पानी और हवा की गारंटी हो जाएगी, अगर ऐसा मैं गलती से भी सोच पाती तो शायद ज्यादा सुखी रहती।
लेकिन मेरा दुख यही है कि ऐसी कोई भोली भावुकता मेरी आत्मा को शांति नहीं पहुंचाती। मियां यायावर, चीजें ऐसे बदलती भी नहीं हैं। ये सारा सुधारवाद फटे हुए कुर्ते में पैबंद है, जिससे फटेहाल गरीबी थोड़ी ढंकती तो मालूम होती है, लेकिन न तो ठीक से ढंकती है और न ही दूर होती है।
मुझे मेरी औकात भी पता है। अपने मन, अपने विचारों की सीमा कि जितना मैं कर सकती हूं। भविष्य में भी ऐसे तमाम प्रश्नों पर सिवाय लिखने के कुछ और ठोस करूंगी, ऐसा कोई दावा नहीं है।
लेकिन मुझे यकीन है कि मैं उस नई ग्लोबलाइज्ड पीढ़ी का हिस्सा नहीं हूं, जो बहुत निरापद भाव से बाजार के कोरस पर डिस्को कर रही है, बिना किसी सवाल, बिना किसी उलझन के। मैं उस पीढ़ी का भी हिस्सा नहीं हूं, अखबारों के सिटी एडीशन में जिनकी दांत निपोरे फोटो छपती है, कि फलाने एडलैब्स और ढिकाने मॉल ने अच्छी चीजों को सस्ता और सर्वसुलभ बना दिया है। अब सबकुछ सबके लिए है।
मैं चमचमाते मॉलों के बीच कभी-कभी होने वाले पेड़ बचाओ, पानी बचाओ आंदोलन के फुस्स-फुस्स नारों का भी हिस्सा नहीं हूं। ये बड़े सवाल हैं और बड़े परिवर्तनों सके बदलेंगे। परिवर्तन किसी व्यक्ति विशेष का नहीं, समूची पीढ़ी का, समूचे युग का, समूचे राष्ट्रों का परिवर्तन। बाकी मैं क्या हूं और मुझे क्या करना चाहिए, तलाश अभी जारी है।
Friday, 18 January 2008
ड्रम में पानी न हुआ प्रियतम के आंसू हुए
नए साल की पहली पोस्ट
नए साल की ये मेरी पहली पोस्ट है। मेल आता है, दोस्त फोन करके चिल्लाते हैं, लिखती क्यूं नहीं। लिखने की फीस लोगी क्या। क्यूं नहीं लिखा, का कोई कारण नहीं है। बस सुभीता नहीं हुआ, चित्त रमा नहीं तो नहीं लिखा। फिर, लिखा नहीं तो क्या किया। कुछ खास नहीं। हाइबरनेशन में चली गई थी। अब बाहर आई हूं तो दुनिया फिर से दिख रही है, कुछ बदली-बदली....
इतने दिनों बाद एकदम से मुंह उठाकर ये पोस्ट इसलिए लिख रही हूं, क्योंकि मेरे न लिख पाने की एक वजह में मैं इसे भी शुमार करती हूं। हालांकि ये नाच न जाने अंगना टेढ वाली बात भी हो सकती है... लेकिन समस्या तो है, न लिखने का कारण भले न हो...
आप दिन भर ऑफिस में थककर-पककर आठ-नौ बजे घर पहुंचे और सोचें कि अब मेंहदी हसन को सुना जाए, या बर्गमैन की कोई फिल्म देखी जाए या गद्दे पर पसरकर अदर कलर्स के कुछ और चैप्टर पढ़े जाएं या कम्प्यूटर पर बैठकर तसल्ली से कुछ लिखा जाए, तो मैं बता दूं कि इंदौर में रहते हुए ये संभव नहीं है। दिमाग में लिखने के लिए कुछ उथल-पुथल मच रही होती है, तो घर पहुंचते ही पता चलता है कि पीने का पानी नहीं है, एक बाल्टी पानी बाथरूम में पड़ा हुआ है और उसी में जिंदगी बसर करनी है।
किसी दिन आपने हिम्मत करके सुबह की बासी दाल-रोटी न खाकर खिचड़ी बनाने की योजना बनाई हो तो नल में एक बूंद पानी न पाकर सारी योजना धरी रह जाती है और वो रात भी सूखी दाल-रोटी पर गुजर होती है।
लब्बोलुवाब ये है कि मिनी बॉम्बे कहे जाने वाले और करोड़ों के इन्वेस्टर्स मीट वाले इस शहर में, जीवन की बुनियादी जरूरत पानी की सप्लाई का कोई बेसिक इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं है। पानी की किल्लत इंदौर में सर्वव्यापी समस्या है।
आज अखबार में न्यूज है कि रिलायंस मेरे घर के सामने काफी समय से खाली पड़ी जमीन पर 1000 करोड़ रु. में एक बड़ा मॉल खड़ा करने जा रहा है।
अभी भी सिर्फ इंदौर में इतने शॉपिंग मॉल हैं, जितने पूरे बंबई में भी नहीं होंगे। मैं जहां रहती हूं, वो इस शहर का सो कॉल्ड पॉश इलाका है। घर के सामने ताज और शहर का सबसे मंहगा होटल है। ये बिल्कुल वैसा ही है, जैसे मुंबई में आप ताजमहल या ओबेरॉय शेरटन के सामने रहते हों। घर से पांच मिनट की दूरी पर अनिल अंबानी का एडलैब्स खड़ा है, चमचमाता हुआ, जहां वीकेंड में सज-संवरकर पति की बांह थामे और बच्चों की नाक पोंछती औरतें अपना जीवन सफल करने आती हैं। नए जोड़े एलीवेटर के सामने खड़े होकर फोटो खिंचवाते हैं और मैकडोनल्ड्स में बरगर खाते हैं। पांच मिनट और चलें तो दो और शॉपिंग मॉल हैं और दो नए बन रहे हैं। थिस्को थेक हैं, पब हैं, मैकडोनल्ड्स है, पिज्जा हट है, जूते से लेकर परफ्यूम और ज्वेलरी तक के ब्रांड हैं, लेकिन पीने का पानी नहीं है।
आप लेवी की जींस और प्लैटिनम की एसेसरीज पहनकर, बिग बाजार से 3,000 की शॉपिंग करके घर पहुंचिए तो पता चलेगा कि सिंक में पड़ी प्लेट धोने के लिए नल में पानी ही नहीं है। बाल्टी से मग-मग पानी लेकर डेढ़ मिनट में धुलने वाली प्लेट को साढ़े छ: मिनट तक धोओ। ड्रम में संजोया हुआ पानी, मानो पानी न हुआ प्रियतम के आंसू है। खर्च करने में भी डर लगे। बदलते वक्त के साथ गीतों के उपमान बदलेंगे, तो कुछ इस किस्म के गीत लिखे जा सकते हैं -
तेरे आंसू हैं सजनी
ड्रम में भरा हुआ पानी, इन्हें यूं न बहाना.....
किसी को मेरी बात मजाक लग सकती है, लेकिन ये सच है कि पूरे इंदौर शहर में भरपूर मात्रा में और सुविधाजनक पानी की सप्लाई का कोई बुनियादी इंफ्रास्ट्रक्चर अब तक नहीं बन पाया है और न ही लोगों को इस बात की कोई फिक्र है। लोग मॉल में घूमकर और पिज्जा खाकर मगन हैं। पानी की किसी को पड़ी नहीं है।
यहां पानी का एकमात्र स्रोत नर्मदा नदी है, जिसका पानी भी एक-एक दिन छोड़कर आता है और गर्मियों में उसके भी लाले पड़े रहते हैं। इंडिविजुअल बोरिंग के चलते शहर भर में इतने बोरिंग हो गए हैं कि जमीन के अंदर भी पानी के लिए हाय-हाय मची है।
मेरी उम्र के तमाम लोग इस देश के और अपने जीवन के विकास को लेकर काफी उत्साहित हैं। शॉपिंग मॉल के नाम से लड़कियों को गुदगुदी होने लगती है, लड़के जोश में भदभदाकर गिरते रहते हैं। आगे बढ़ने के रास्ते इतने रौशन कभी न थे, स्लोगन पर मगन होकर थिरकते हैं, लेकिन पानी कहां से आएगा, ये कोई नहीं सोचता।
अभी नैनो को लेकर एक बार फिर लोगों का जोश उछाल मार रहा है। अच्छी बात है, लोग गाड़ी चढ़ें, जन्म सफल करें, लेकिन इस विकास के पैरलल एक जो दूसरी तस्वीर बन रही है, और जो आने वाले 10-15 सालों में अपने सबसे भयावह रूप में हमारे सामने होगी, कूदा-कादी मचाए लोगों को उसकी कुछ पड़ी नहीं है। वाहनों की संख्या जिस तेजी के साथ बढ़ रही है, अगर आप कहें कि आने वाले 15-20 सालों में इस देश में इतनी गाडि़यां होंगी कि उन्हें चलाने के लिए सड़क भी नहीं होगी, तो लोग आपको जनविरोधी मान लेंगे। जबकि नैनो न भी आई होती, तो भी कुछ सालों में ये नौबत तो आनी ही है।
और ये इसलिए आनी है क्योंकि इस देश में हो रहे विकास में कोई संतुलन नहीं है। विकास की ओर बढ़ते कदम दरअसल कहां लेकर जा रहे हैं, ये हमारी चिंता का विषय नहीं है। मैकडोनल्ड्स के बरगर खाकर लोग सुखी हैं। रैवलॉन की लिप्सटिक लगाने और ग्लोबस की सैंडिल पहनने के बाद भी जीवन के बारे में कुछ सोचने को रह जाता है क्या। नैनो में चढ़ने के बाद कुछ और मगज में सोचने को बचेगा, मुझे डाउट है।
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