Friday, 2 April 2010

अजनबी भाषा का वह शहर और तीन लड़कियां

हॉस्‍टल के कमरे में वो तीन लड़कियां साथ रहती थीं। सदफ, शिएन और अपराजिता। सदफ हमेशा चहकती, मटकती सारी दुनिया से बेपरवाह अपनी रंगीन खुशियों में खोयी रहती थी। ज्‍यादातर समय दोस्‍तों के साथ घूमती-फिरती और रात होने से पहले ही कमरे में नमूदार होती। लौटकर भी पूरे समय मोबाइल पर लगी रहती।

शिएन कमरे के एक कोने में ऐसे रहती थी जैसे घर के किसी कोने में धूल और जालों से अटी कोई सुराही पड़ी रहती है। कोई उधर झांकने भी नहीं जाता, कोई उसके पड़े होने की परवाह भी नहीं करता। वो हो, न हो, किसी को क्‍या फर्क पड़ता है। उसकी आंखें पुराने जंग खाए कनस्‍तर सी खाली थीं, त्‍वचा महीनों अकेले धूप में पड़े हुए बैंगन की त्‍वचा जैसी झुलसी और बेजान, छातियां बिलकुल सपाट क्‍योंकि शरीर पर जरा भी मांस नहीं था। वो इतनी पतली थी कि उसकी एक-एक हड्डी गिनी जा सकती थी। लेकिन उसके पास जीजस क्राइस्‍ट थे। चर्च का अकेला कोना और प्रेयर की एक किताब।

अपराजिता न सदफ थी, न शिएन। उसके पास न दोस्‍तों की एक लंबी फेहरिस्‍त थी, न हर शाम समंदर के किनारे उसका हाथ थामकर चूमने की हड़बड़ाहट दिखाने वाला कोई प्रेमी और न ही जीजस क्राइस्‍ट का सहारा। उसके भीतर बजबजाती रौशनियों का एक शहर था, जिसकी सीली सूनसान गलियों से होकर कोई नहीं गुजरता था। जहां पूरी रात आवारा कुत्‍ते भौंकते, दीवार चाटते, लैंपपोस्‍ट से टिककर अपनी पीठ रगड़ते और आपस में लड़ते रहते थे। हर दिन उसका मन करता कि बस हुआ, अब तो मर ही जाना चाहिए।

शिएन के मन की गलियां तो और भी ज्‍यादा खतरनाक थीं। ऐसे बंद थे सारे खिड़की-दरवाजे कि धूप की एक पतली लकीर या हवा का एक मामूली सा टुकड़ा भी भीतर नहीं जा सकता था। वो दुनिया में ऐसे अजनबियों की तरह रहती थी मानो किसी को जानती-पहचानती ही नहीं। उसके मन की अंधेरी गलियों में आवारा कुत्‍ते भी नहीं भटकते थे। आवारगी भी होती तो कम-से-कम जिंदगी की कुछ तो हलचल होती। लेकिन नहीं, मजाल था कि एक तिनका भी हिल जाए। लेकिन कभी वहां से होकर सब गुजरे थे, शराबी, जुआरी, औरतबाज, हाथ थामते ही सीधे बिस्‍तर पर सुलाने वाले और फिर वापस लौटते हुए पान की पीक जैसे सीढि़यों के कोने पर थूककर कट लेने वाले। कभी लौटकर न आने वाले। रात के अंधेरों में कपड़े उतारने को बेताब और दिन के उजाले में पहचानने से भी इनकार करने वाले। कौन जानता था उसके मन की गलियों के किस्‍से? यकीनन उसने ठीक-ठीक खुलकर कभी नहीं बताया, किसी को नहीं, लेकिन हर बात को ठीक-ठीक खुले शब्‍दों की जरूरत होती भी नहीं। वो ऐसे ही अपना अर्थ जाहिर कर देती हैं।

बयालीस की उम्र पार कर दुनिया के प्रति जैसा वैराग और अजनबियत उसकी आंखों में रहती थी, जिस तरह वो किसी को भी जरा भी करीब आते देख फट से अपने खोल में दुबक जाती, हाथ मिलाने या मुस्‍कुराने तक को तैयार न होती, पता नहीं क्‍यों कभी-कभी अपराजिता उसकी आंखों में अपना भविष्‍य देखती। शिएन जहां जा चुकी थी, अपराजिता उस ओर बढ़ रही थी। वो कुछ ज्‍यादा ही पैसिमिस्टिक थी। उन दुखों को भी अपना समझ लेती, जो उसके होते ही नहीं। जितना बतंगड़ मचाती दिखती, भीतर उतनी ही डूब रही होती।

सदफ की दुनिया बिलकुल अलग थी। उसे उन दोनों के मन की गलियों की कोई भनक तक नहीं थी। उसके मन में खुली चौड़ी राहें थीं, राहों पर बिछा आसमान। हाथ थामे साथ-साथ उड़ता हुआ प्‍यार। उसके मन की पटरियों से तयशुदा टाइमटेबल और मंजिल वाली टेनें गुजरती थीं, जिनके गुजरने के रास्‍ते तय थे और मंजिल तो सफर की शुरुआत से पहले ही तय होती थी।

अपराजिता शिएन की आंखों में देखती और डर जाती। नहीं, मैं शिएन जैसी नहीं हो सकती। मैं कभी शिएन जैसी नहीं होऊंगी। ये वहशत, ये अजनबियत, बिलकुल नहीं। न सही खुला आसमान, आवारा फिरते कुत्‍ते ही सही। वैराग नहीं, आवारगी ही सही।

गुजरी सदी के उत्‍तरार्द्ध में इसी देश के एक महानगर, जो न कभी रुकता था, न कभी सोता था, के किसी कमरे में वो तीनों लड़कियां साथ रहती थीं। यूं देखो तो कुछ खास फर्क नहीं था, पर दरअसल इतना फर्क था कि जिनके किस्‍से कहते-कहते पूरी एक उम्र गुजर जाए। एक हमेशा बात करती थी, दूसरी के पास न शब्‍द थे, न भाषा। एक के लिए चारों ओर अपने लोग, अपने संगी थे, दूसरी का कोई दोस्‍त नहीं था।

ये उसी सदी में उसी देश में घट रहा था, जहां के तमाम नियम-संविधान हर किसी के लिए एक जैसे सुखों और दुखों की गारंटी करते थे, पर जिस देश में एक के लिए राजधानी के संगमरमरी कालीन थे और दूसरा मां के पेट से बाहर आते ही जान लेता था कि वो एक ऐसे अजनबी संसार में आ गया है, जहां सब एक विचित्र, अजनबी भाषा बोलते हैं। वो कभी उस दुनिया का हिस्‍सा नहीं हो सकेगा। जहां कोई उसका अपना नहीं, जहां कभी कोई उसका अपना नहीं होगा।

Thursday, 1 April 2010

जीवन की छोटी मामूली बातें

ये प्‍यार जताना, पकड़ना किसी का हाथ, कहना I love you, ये क्‍यों इतना जरूरी है? जो न कहो तो कुछ फर्क पड़ता है क्‍या? जो मैं ये न कहूं किसी से या कि कोई मुझसे तो क्‍या बिगड़ता है? कितनी मामूली बातें? जीवन की ये बहुत छोटी, मामूली बातें, इनसे सचमुच कुछ बदलता है क्‍या? पता नहीं। लेकिन शायद ये बेहद मामूली सी दिखने वाली बातें ही कई बार बहुत मुश्किल ऊबड़-खाबड़ सी जिंदगी को जीने लायक बनाती हैं।

ऐसी जाने कितनी छोटी, मामूली बातें हैं, जो मुझे बार-बार जिंदगी की ओर लौटा लाती हैं। दुख और थकन के सबसे अंधेरे दिनों में आकर मेरा हाथ थाम लेती हैं। मेरे उलझे बाल सुलझाती हैं, गालों को छूती हैं। मेरे तकिए पर सो जाती हैं। मेरे बगल में लेटकर एक पैर मेरे ऊपर रख लगभग जकड़ सी लेती हैं। ऐसे कि मैं हिल भी न सकूं और कहती हैं, चुप, अब लात खाएगी, ज्‍यादा भैं-भैं किया तो। मेरी हथेली को अपनी हथेलियों में थामे देर तक बस यूं ही बैठी रहती हैं। कुछ कहती नहीं, बस बता देती हैं कि मैं हूं।

बेहद छोटी, मामूली बातें।

सोचो तो कितना मुश्किल है ये जीवन। हम सब अपने भीतर उदास बदरंग रौशनियों का एक शहर लिए फिरते हैं। बेमतलब भटकता है मन उस शहर की अंधेरी, संकरी गलियों में। पूरी रात भटकता है, बिना ये जाने कि जाना कहां है। मैं भी अपने भीतर के उस बदरंग रौशनियों वाले शहर में बेमतलब, उदास भटका करती थी। मुंबई के वे दिन जिंदगी के सबसे अकेले दिन थे। हालांकि समूची जिंदगी के बहुत सारे दिन अकेले दिन ही होते हैं। लेकिन वो अकेलापन इतनी भारी थी कि उसका बोझ मैं अकेले नहीं उठा सकती थी। वो छोटी, मामूली बातें ही अपना हाथ आगे बढ़ातीं और बोझ बांट लेतीं।

चर्नी रोड में ऑफिस से बाहर निकलते ही सड़क पार करके समंदर था। दो बस स्‍टॉप ऑफिस से समान दूरी पर थे। एक हॉस्‍टल की तरफ और दूसरा समंदर की तरफ। मैं बस का इंतजार करने हमेशा समंदर की तरफ वाले बस स्‍टॉप पर जाती। वो स्‍टॉप बहुत प्‍यारा लगता था, सिर्फ इसलिए क्‍योंकि वहां से समंदर को देखा जा सकता था। वहां खड़े होकर घंटों इंतजार करना भी नहीं खलता। ऑफिस बहुत उदास सा था और जीवन बेहद अकेला। बस का इंतजार करते हुए सिर्फ कुछ क्षण समंदर का साथ मेरे चेहरे पर एक मुस्‍कान ला सकता था।

भारतीय विद्या भवन में ही नीचे सितार की क्‍लासेज होती थीं। दफ्तर में बैठी दोपहरी बहुत बोझिल होती। लगता था कहीं भाग जाऊं। बस कहीं भी निकल जाऊं। दिन भर फोन की घंटी का इंतजार होता। किसी की आवाज का, एक मेल का। दफ्तर में आने वाली डाक का। घंटी नहीं बजती थी क्‍योंकि उसे बजना नहीं होता था। चिट्ठी नहीं आती, क्‍योंकि उसे आना नहीं होता था। शाम तक उदासी दोहरी हो जाती। मैं हॉस्‍टल लौटने के बजाय सेकेंड फ्लोर पर सितार की क्‍लास में जाकर बैठ जाती। घंटों चुपचाप बैठी रहती। वहां कई लड़के-लड़कियां एक साथ रियाज कर रहे होते थे। सितार के तारों पर दौड़ती-फिसलती उंगलियों से ऐसे सुर उठते, हवाओं में ऐसा रंग बहता कि उदासी के सब धुंधलके उसमें धुल जाते। लगता कि सितार के तारों से बहकर कोई नदी मेरी ओर चली आती थी। उसका एक-एक सुर मेरी उंगलियां थामकर कहता था, क्‍यों हो इतनी उदास। देखो न, दुनिया कितनी सुंदर है।

ऑफिस से लौटते हुए बस की खिड़की पर टिकी हुई उदास आंखों में कोई भी मामूली सी चीज एकाएक चमक पैदा कर सकती थी। मोहम्‍मद अली रोड से बस गुजरती तो शाम को एक मस्जिद के खुले मैदान में अजान की नमाज पढ़ी जा रही होती। सैकड़ों सिर एक साथ झुकते और उठते। वो दृश्‍य देखकर मेरा झुका हुआ सिर एकाएक उठ जाता था। जब तक बस गुजर न जाती, मैं वह दृश्‍य देखती रहती। बड़ी मामूली सी बात थी, पर पता नहीं क्‍यों सुंदर लगती थी। रास्‍ते में कोई 6-7 बरस की बच्‍ची ढा़ई मीटर का लंबा दुपट्टा ऐसे नजाकत से संभालने की कोशिश करती, मानो कह रही हो, मैं बड़ी लड़की हूं। मुझे बच्‍ची मत समझना। उसके पीछे-पीछे एक कुत्‍ता दुम दबाए चला जाता। वो छोटी बच्‍ची भी मेरी आंखों में रोशनी ला सकती थी।

बस में कोई 16-17 बरस की चहकती हुई सी लड़की चढ़ती। खुशी और उमंग से भरी, किसी परी‍कथा कि फिरनी जैसी, मोबाइल पर बेसिर-पैर की बातें करती। उसे देखकर मैं खुश हो जाती थी। कोई प्रेमी जोड़ा, जो बस में बैठे सहयात्रियों की तनिक भी परवाह किए बगैर अपनी बेख्‍याली में गुम होता, मेरे भीतर उम्‍मीद जगाता था। दुनिया सचमुच सुंदर है।

हॉस्‍टल लौटती तो मेरे कमरे के नीचे सीढि़यों पर जानू मेरा इंतजार करती मिलती। जानू एक नन्‍ही सी बिल्‍ली थी। उसका ये नाम मैंने ही रखा था। कमरे का ताला खोलने से पहले उसे गोदी में लेकर प्‍यार करना होता था, वरना वो नाराज हो जाती। मेरी गोदी में बैठकर मेरे कुर्ते को दांत से पकड़ती, हथेलियां चाटती, मैं फ्रेश होने बाथरूम में जाती तो पीछे-पीछे चली आती। जब तक बाहर न निकलूं, दरवाजे पर ही बैठी रहती। इतनी शिद्दत से कोई मेरा इंतजार नहीं करता था। इस इतने बड़े शहर में, जहां हर जगह लोग किसी न किसी का इंतजार करते दिखते थे, मेरा इंतजार कोई नहीं करता था, जानू के अलावा। उससे दोस्‍ती होने के बाद मुझे हॉस्‍टल लौटने की जल्‍दी रहने लगी थी। वहां कोई था, जिसे मेरा इंतजार था।

हॉस्‍टल की बालकनी में आम के पेड़ का घना झुरमुट था। बालकनी की रेलिंग पर अक्‍सर एक गिलहरी आती-जाती। किसी अकेली सुबह को वो पेड़ और वो गिलहरी मुझे अपने होने के एहसास से भर सकते थे।

वो शहर बहुत चमकीला था, लेकिन उसकी हर चमक से लोगों के दिलों के अंधेरे और गाढ़े हो जाते थे। एक अजीब सी आइरनी है। मैं मुंबई से अथाह प्रेम और उससे भी ज्‍यादा घृणा एक साथ करती रही हूं। रात के समय Marine Drive पर बैठी होती तो एक ओर अछोर समंदर और उस पर उतरती घनी रात होती तो दूरी ओर आलीशान पांच सितारा होटलों और इमारतों से बह-बहकर आती रौशनी। मैं रौशनी की ओर पीठ करके समंदर पर उतरते अंधेरे को देखती। वो अंधेरा उम्‍मीद जगाता था। मैं समंदर ही लहरों से कहती, दूर क्षितिज पर टंके सितारों से कहती, समंदर में कहीं चले जा रहे जहाज से कहती और दरअसल अपने आप से कहती, इन रंगीनियों के फेर में मत पड़ना। तुम हो तो सब सुंदर है, ये जहां सुंदर है। घंटों इस तरह अपने आप से बातें करने के बाद जब मैं हॉस्‍टल वापस लौटती तो एक नई पहाड़ी नदी मेरे भीतर बह रही होती थी। मैं शब्‍दों की छोटी-छोटी नाव उस नदी में तैराती, हॉस्‍टल लौटकर कविताएं लिखती।

हॉस्‍टल के कमरे में भी ऐसी कई छोटी, मामूली चीजें थीं, जो बुझते हुए मन को दुनिया की हवाओं से आड़ देती थीं। किसी दोस्‍त का इलाहाबाद से आया कोई खत, पद्मा दीदी का भेजा बर्थडे कार्ड, मेरी डायरी के वो पन्‍ने, जो मैंने चहक वाले दिनों में लिखे थे, नेरूदा की प्रेम कविताएं (न मेरी जिंदगी में प्रेम था और न नेरुदा ने वो कविताएं मेरे लिए लिखी थीं, फिर भी उन्‍हें पढ़ना प्रेम की उम्‍मीद जगाता था), एक पुरानी टेलीफोन डायरी, जिसमें इलाहाबाद के वे पुराने नंबर और पते थे, जो अब बदल चुके थे, जिन पर भेजा कोई खत अब अपने ठिकाने तक नहीं पहुंच सकता था, पुरानी चिट्ठियां जो मैंने लिखीं और जो मुझे लिखी गईं। अजीब शौक है। जब भी मैं उदास होती हूं तो वो पुरानी चिट्ठियां पढ़ती हूं। यकीन नहीं होता, मेरी ही जिंदगी के चित्र हैं। ये पंक्तियां मुझे ही लिखी गई थीं क्‍या ? पुराने फोटो एलबम। मां-पापा के बचपन की तस्‍वीरें। मेरे बचपन की तस्‍वीरें। एक पुराना बेढ़ब कटिंग और तुरपाई वाला कुर्ता, जो मैने अपने हाथों से सिला था। जर्मेन ग्रियर की वो किताब, जो मैंने बीए फर्स्‍ट इयर में ट्यूशन की अपनी पहली कमाई से खरीदी थी।

एक पेन और भूरी जिल्‍द वाली वो डायरी, जो मैं उसके घर से उठा लाई थी और क्‍योंकि उसे छूकर मुझे लगता कि वो है मेरे पास। ये सिर्फ दिल के बहलाने का एक ख्‍याल था, जबकि जानती तो मैं भी थी कि दूर-दूर तक कहीं नहीं था वो। वो तमाम लोग, जो जा चुके थे, लेकिन उनसे जुड़ी कुछ चीजें बची रह गई थीं। बेहद छोटी, मामूली चीजें, लेकिन उन्‍हीं मामूली चीजों से मिलकर मैं बनती थी, मेरा जीवन बनता था।

ये छोटी, मामूली चीजें हमेशा कहतीं, ना जीवन अब भी संभावना है, प्रेम अब भी संभावना है और हमेशा रहेगी। दुख और टूटन के सबसे बीहड़ दिनों में भी हम सब तुम्‍हारे कमरे में ऐसे ही रहेंगे तुम्‍हारे साथ।

प्रेम की उम्‍मीद र‍हेगी तुम्‍हारे साथ।

जारी........



Sunday, 28 March 2010

प्‍यार की भाषा कहां खो गई है

अभी कुछ दिन पहले हिंदी के कवि चंद्रकांत देवताले जी के किसी परिचित से मेरी मुलाकात हुई। उसने बताया कि देवताले जी से उसने मेरे बारे में काफी कुछ सुन रखा है और बातचीत के दौरान ही उसने एकदम से पूछ लिया, ‘जब वो वेबदुनिया में आपसे मिलने आए थे तो आपने उन्‍हें सबके सामने हग किया था न?’

‘तुम्‍हें कैसे मालूम? वेबदुनिया वालों ने तुम्‍हें ये भी बता दिया?’

‘नहीं, देवताले जी ने बताया। कह रहे थे कि ऑफिस में ढेर सारे लोग थे और सबके सामने ही आप दौड़कर आईं और उन्‍हें गले लगा लिया।’

‘हां, वो हैं ही इतने प्‍यारे। इतने अच्‍छे इंसान कि कैसे कोई उन्‍हें गले से न लगाए।’

ये तकरीबन तीन साल पुरानी बात है। तब मैं वेबदुनिया में थी। देवताले जी इंदौर आए थे। उन्‍हें पता चला कि मैं वेबदुनिया में हूं तो मिलने चले आए। मुझे उनके इस तरह आने से इतनी खुशी हुई कि मैं तेजी से उनके पास गई और खुशी से भरकर उन्‍हें गले से लगा लिया। उन्‍होंने ने भी बिटिया कैसी हो, कहते हुए ढेर सा लाड़ उड़ेला।

लेकिन चूंकि मैं हमेशा ही, जिसे भी दिल से पसंद करती हूं, गले मिलकर ही मिलने की खुशी और गर्मजोशी जताती हूं तो मुझे एहसास तक नहीं हुआ कि मैंने हिंदुस्‍तान के हिंदी प्रदेशों की स्‍नेह को अभिव्‍यक्‍त करने की सीमाओं के हिसाब से कोई बड़ा काम कर डाला है, इतना बड़ा कि लोगों ने साढ़े तीन साल गुजरने के बाद भी उसे याद रखा हुआ है।

देवताले जी की उम्र 75 के आसपास होगी। उन्‍हें जानने वाला कोई व्‍यक्ति, अगर बहुत काईयां टाइप नहीं हुआ तो उन्‍हें पसंद किए बगैर नहीं रह सकता। लेकिन क्‍या लोग आगे बढ़कर उनसे कभी कहते हैं कि वो उनसे कितना प्‍यार करते हैं। 75 साल के उस बूढ़े को क्‍या कभी भी कोई गले लगाकर ये कहता है कि मैं आपसे बहुत प्‍यार करता हूं या कि करती हूं।

क्‍या हमारे देश में कोई भी किसी को गले लगाकर अपना प्‍यार जताता है।

क्‍या हम अपने आसपास कभी भी किसी को गले लगाकर कहते हैं, ‘Listen My Friend, I love you.’

किसी की बुराई करने, पीठ पीछे टेढ़ा बोलने, मेढ़क जैसे कैरेक्‍टर का डिसेक्‍शन करने में तो हम ढाई दफे भी नहीं सोचते। ऑफिस में हमेशा देखती हूं कि दो लोग मिलकर किसी तीसरे की लानत-मलामत करते गालियों के पहाड़ खड़े करते रहते हैं। फलां ऐसा और ढंका ऐसा। अकेले वही महानता के बुर्ज पर सुशोभित हैं, बाकी तो कीचड़ में लि‍थड़े जोकर कुमार हैं।

सबकुछ कह डालते हैं पर कभी किसी से ये नहीं कहते कि तुम कितने अच्‍छे हो या कि मैं तुमसे कितना प्‍यार करता हूं।

प्‍यार शब्‍द को हमने गर्लफ्रेंड-ब्‍वॉयफ्रेंड या पति-पत्‍नी के लिए रिजर्व रखा हुआ है। (ये बात अलग है कि वो भी एक-दूसरे को I love you कहने की जरूरत कभी महसूस नहीं करते।) बाकी लोग एक-दूसरे से प्‍यार नहीं करते। इंसानों ने अपनी दुनिया में एक-दूसरे तक अपनी-अपनी बातों की आवाजाही के लिए जो खिड़कियां बनाई हैं, उसमें प्‍यार का कोई ईंटा, गारा, सरिया नहीं लगा है। हमारी भाषा भी प्रेम के शब्‍दों को जोड़कर नहीं तैयार की गई है, जबकि मनुष्‍य इस दुनिया में प्रेम की भाषा के साथ ही पैदा होता है। कोई सिखाता नहीं, लेकिन एक दिन का बच्‍चा भी प्रेम और स्‍पर्श की भाषा समझता है।

ये बात पहली बार मुझे उस दिन समझ में आई थी, जब मेरी एक कजिन की बिटिया ने अपनी नन्‍ही-नन्‍ही ह‍थेलियां बढ़ाकर मेरे स्‍नेह को थाम लिया था। वो उस समय महज दो महीने की थी और बिस्‍तर पर लेटी-लेटी पूरी ताकत से हाथ-पैर फेंक रही थी। अचानक मैं उसके ऊपर झुकी और उसके माथे को चूम लिया। फिर उसके गालों की पप्‍पी ली और फिर होंठों को बहुत लाड़ से चूमा।

‘मेरी नन्‍ही कली, मेरी शोना, मेरी चांद।’

मुझे कल्‍पना तक नहीं थी कि इस पर उस नन्‍हे से फूल की क्‍या प्रतिक्रिया हो सकती है। अचानक मैंने महसूस किया कि उसने हाथ-पैर चलाना बंद कर दिया है। वो शांत हो गई और अपने तरीके से मेरे स्‍नेह में साझीदार हो गई। मैं महसूस कर सकती थी कि वो दो महीने की बच्‍ची मेरे चूमे जाने के साथ बराबरी से शामिल थी। वो अपने होंठों से मुझे भी चूमकर मेरे प्रेम का जवाब दे रही थी। वो क्षण मेरे लिए एक नए अलौकिक संसार के दरवाजे खुलने की तरह था। अब वो तीन साल की है और अब भी प्रेम की भाषा समझती है और प्रेम की साझेदारी में पीछे नहीं हटती, बल्कि खुद आगे बढ़कर हाथ थाम लेती है। घर में सबको बहुत अच्‍छा लगता है क्‍योंकि वह सिर्फ तीन साल की है। बड़ी होकर भी इतने ही प्रेम से भरी रही तो घरवालों समेत दुनिया वालों को मियादी बुखार जकड़ लेगा। लेकिन जैसे घर में वह पैदा हुई है, बहुत मुमकिन है कि मेरी उम्र तक आते-आते वैसी रह ही न जाए, जैसी जन्‍म के दो महीने बाद थी। दुनिया उसे वैसा बना दे, जैसा दुनिया को लगता है कि लोगों को और खासकर लड़कियों को तो जरूर ही होना चाहिए।

प्रेम की भाषा क्‍या इतनी शर्मनाक है? किसी को गले से लगाते ही क्‍या आप उदात्‍त मनुष्‍य की ऊंचाई से लुढ़ककर सीधे जमीन पर आ पड़ते हैं। क्‍या, प्रॉब्‍लम क्‍या है? प्रेम इतना अछूत है क्‍या? अपनी बनाई दुनिया के लिए क्‍या हमें कभी भी शर्म महसूस होती है। मेरे भाई के घर में जो डॉगी है, वो भी अपना प्‍यार एक्‍सप्रेस करने से पहले ढा़ई घंटे विचार नहीं करता कि हाय, कहीं ये अनैतिक तो नहीं। घर में घुसते ही मेरे ऊपर चढ़ने, चाटने लगता है। मेरी ह‍थेलियों को अपने मुंह से पकड़ेगा, आगे के दोनों पैर रखकर मेरे ऊपर चढ़ जाएगा और मुंह चाटेगा। पैरों के पास बैठकर पैर चाट-चाटकर खुश होगा और बड़े प्‍यार से मेरी ओर देखेगा कि अब तो मेरी पीठ थपथपाओ, मुझे प्‍यार करो। न करूं तो बच्‍चों जैसे नाराज भी हो जाएगा।

मुंबई के हॉस्‍टल में एक बिल्‍ली रहती थी। वो भी रोज शाम को मेरे ऑफिस से लौटने का इंतजार करती थी और आते ही गोदी में चढ़कर बैठ जाती, हाथ-पैर चाटती। उसके मन भी बड़ा प्‍यार था, जिसे जताने से पहले न वो उनके नैतिक-अनैतिक पहलुओं पर विचार करती थी और न ही संकोच से गड़ जाती थी। मेरे ऑफिस जाने से पहले और लौटने के बाद उसे लाड़ करना ही करना होता था।

बच्‍चों को भी लाड़ करना ही करना होता है। उन्‍हें प्‍यार करना आता है, लेकिन जैसे-जैसे बड़े होते जाते हैं, प्‍यार की भाषा शर्म का सबब हो जाती है। वो गाली-गुच्‍चा, मारपीट, हर भाषा के साथ कंफर्टेबल होते जाते हैं, पर प्‍यार की बात नहीं करते।

मैं संसार की भाषा को शर्मनाक और त्‍याज्‍य समझती हूं। आपने ऐसी दुनिया बनाई है कि जिसके लिए आपको शर्म से डूब जाना चाहिए। मैं अपनी भाषा खुद रच रही हूं। हर उस बंधन को गटर में झोंकते हुए, जिसे आपने मोर मुकुट की तरह मेरे माथे पर सजाने की हमेशा कोशिश की है। मैं अपनी भाषा हवा से सीखती हूं, जो मौका मिलते ही आकर मेरे गालों पर बैठ जाती है और मेरे बाल हिलाने लगती है। उन फूलों से, जो मोहब्‍बत से भरकर झुक जाते हैं। उस पहाड़ी नदी से, जो अपनी राह में आने वाले हर खुरदरी चट्टान को प्रेम के स्‍पर्शों से मुलायम कर देती है।

अब मैं पापा के पैर नहीं छूती। उन्‍हें गले लगाकर कहती हूं, Papa, I Love you। वो बड़े प्‍यार से मुझे देखकर मुस्‍कुराते हैं पर कभी भी जवाब में ये नहीं कहते, I Love you too बेटा। हालांकि वो अपने समय और समाज के हिसाब से बहुत ज्‍यादा रौशनख्‍याल हैं, लेकिन फिर भी तमाम बंधन बचे रह गए हैं। मैं साठ साल की उम्र में अब उन्‍हें बदल नहीं सकती। मां को भी गले लगाकर I Love you बोलती हूं और मां का जवाब होता है, I love you too बेटा।

मुझे याद नहीं कि कब मैं इतनी बड़ी हो गई कि पापा ने मुझे गले लगाना या लाड़ करना छोड़ दिया था, पर बड़े होने के बाद मैंने उस सीमा को तोड़ा। क्‍योंकि मुझे उनका हाथ पकड़ने की जरूरत थी और मुझे जो जरूरत होती है, मैं कर डालती हूं। ज्‍यादा सोचती नहीं।

बहुत साल पहले, जब मैं मुंबई जा रही थी, इलाहाबाद स्‍टेशन पर हावड़ा-मुंबई मेल छूटने से कुछ सेकेंड पहले, जब मैं टेन में थी और पापा प्‍लेटफॉर्म पर खड़े थे, मैंने खिड़की की सलाखों पर रखे पापा के हाथ को चूमकर कहा था, Papa I love you. पापा की वो आंखें आज भी मेरे जेहन में ताजा हैं। बिलकुल भर आई थीं और उनमें मेरे लिए ढेर सारा प्‍यार था। पापा कितने खुश होते हैं, इस बात से कि जो सीमाएं वो नही तोड़ पाए, मैं तोड़ देती हूं और इस तरह मैं खुद उनकी भी मदद कर रही होती हूं।

मैं सचमुच हर वो दुष्‍ट सीमा तोड़ देना चाहती हूं, जो मुझे कमतर इंसान बनाती है। मैं हमारे घर के डॉगी और हॉस्‍टल वाली बिल्‍ली की तरह होना चाहती हूं। बिलकुल सहज, वैसी जैसा प्रकृति ने मुझे रचा है। मैं चाहती हूं कि मेरी दीदी की बिटिया कभी न बदले और जब वो मेरी उम्र की हो और मैं 62 साल की बूढ़ी तो मुझे 32 साल पहले की तरह चूमकर कहे, मौसी, I Love you. वैसे भी 62 साल की बूढ़ी औरत को कौन प्‍यार से चूमने में इंटरेस्‍ट दिखाएगा।

मैं हर उस व्‍यक्ति से अपने मन की बात कहना चाहती हूं, जिससे मैं सचमुच प्‍यार करती हूं। मैं पापा को गले लगाकर कहना चाहती हूं, Papa, I love you. प्रणय दादा को बोलना चाहती हूं, Dada, I truly love you. रस्किन बॉन्‍ड से कभी मिलूं तो कहूंगी, Mr. Bond, see how much we all love you. Specially I love you. मैं निशा दीदी को कहना चाहती हूं, दीदी तुम बहुत प्‍यारी हो और मैं तुमसे बहुत प्‍यार करती हूं। अपने नानाजी को कहना चाहती हूं, नानू, आपसे मेरे विचार नहीं मिलते, लेकिन मैं आपसे बहुत प्‍यार करती हूं। रिंकू भईया को बोलना चाहती हूं, तुम्‍हारे जैसा भाई कोई नहीं। भईया, I love you. मैं शायदा, अभय, प्रमोद, अशोक, तनु दीदी, शुभ्रा दीदी, भूमिका, दादू, अवधेश, अनिल जी, ललित, मेरी बहन, अभिषेक, गोलू और अपने उन तमाम दोस्‍तों को, जितने मैं बहुत प्‍यार करती हूं, कहना चाहती हूं, 'नालायकों, Listen, I Love you.'

ये प्‍यार जताना मुझे इंसान बनाता है और मैं इंसान बनी रहना चाहती हूं।

PS : ये नालायक शब्‍द अभय, प्रमोद, अशोक, दादू और अनिल जी के लिए नहीं है। बाकी सब are truly नालायक।


We all shit, we all pee but never talk about it - 2

बंबई में फिल्‍म रिपोर्टिंग करते हुए जब तक मैं खुद इस दिक्‍कत से नहीं गुजरी थी, मेरे जेहन में ये सवाल तक नहीं आया था। पब्लिक टॉयलेट यूज करने की कभी नौबत नहीं आई, इसलिए उस बारे में सोचा भी नहीं। लेकिन अब अपनी दोस्‍त लेडी डॉक्‍टर्स से लेकर अनजान लेडी डॉक्‍टर्स तक से मैं ये सवाल जरूर पूछती हूं कि औरतों के बाथरूम रोकने, दबाने या बाथरूम जाने की फजीहत से बचने के लिए पानी न पीने के क्‍या-क्‍या नतीजे हो सकते हैं? कौन-कौन सी बीमारियां उनके शरीर में अपना घर बनाती हैं और आपके पास ऐसे कितने केसेज आते हैं। मेरे पास कोई ठीक-ठीक आंकड़ा नहीं है कि लेकिन सभी लेडी डॉक्‍टर्स ने यह स्‍वीकारा किया कि औरतों में बहुत सी बीमारियों की वजह यही होती है। उन्‍हें कई इंफेक्‍शन हो जाते हैं और काफी हेल्‍थ संबंधी कॉम्‍प्‍लीकेशंस। कई औरतें प्रेग्‍नेंसी के समय भी अपनी शर्म और पब्लिक टॉयलेट्स की अनुपलब्‍धता की सीमाओं से नहीं निकल पातीं और अपने साथ-साथ बच्‍चे का भी नुकसान करती हैं। यूं नहीं कि ये रेअरली होता है। बहुत ज्‍यादा और बहुत बड़े पैमाने पर होता है। खासकर जब से औरतें घरों से बाहर निकलने लगी हैं, नौ‍करियां करने लगी हैं और खास तौर से ऐसे काम, जिसमें एक एयरकंडीशंड दफ्तर की कुर्सी नहीं है बैठने के लिए। जिसमें दिन भर इधर-उधर भटकते फिरना है।

मुंबई में मेरे लिए ये सचमुच एक बड़ी समस्‍या थी। हमेशा आप किसी सेंसिटिव सी जान पड़ने वाली फीमेल सेलिब्रिटी के घर ही तो नहीं जाते। या कई बार किसी के भी घर नहीं जाना होता, फिर भी भटकना होता है। मैं तो ऐसी भटकू राम थी कि बिना काम के भी भटकती थी। तो ऐसे में मैंने एक तरीका और ईजाद किया था। बॉम्‍बे में वेस्‍टसाइड, ग्‍लोबस, फैब इंडिया और बॉम्‍बे स्‍टोर से लेकर शॉपर्स स्‍टॉप तक जितने भी बड़े स्‍टोर थे, उनका इस्‍तेमाल मैं पब्लिक टॉयलेट की तरह करती थी। जाने कितनी बार मैं इन स्‍टोरों में कुछ खरीदने नहीं, बल्कि इनका टॉयलेट इस्‍तेमाल करने के मकसद से घुसी हूं। काउंटर पर बैग जमा किया, दो-चार कपड़े, सामान इधर-उधर पलटककर देखा और चली गई उनके वॉशरुम में। इससे ज्‍यादा उन स्‍टोर्स की मेरे लिए कोई वखत नहीं थी।

बचपन में मैंने मां, मौसी, ताईजी और घर की औरतों को देखा था कि वो कहीं भी बाहर जाने से पहले बाथरूम जाती थीं और घर वापस आने के बाद भी सबसे पहले बाथरूम ही जाती थीं। गांव में, जहां हाजत के लिए खुले खेतों में जाना पड़ता है, वहां तो सचमुच औरतों के शरीर में (सिर्फ औरतों के) अलार्म फिट था। उन्‍हें सुबह उजाला होने से पहले और शाम को अंधेरा होने के बाद ही हाजत आती और कमाल की बात थी कि पड़ोस, पट्टेदारी की सारी औरतों को एक साथ आती थी। सब ग्रुप बनाकर साथ ही जाती थीं, मानो किसी समारोह में जा रही हों। मैं भाभी, दीदी टाइप महिलाओं से बक्‍क से पूछ भी लेती थी, आप लोगों को घड़ी देखकर टॉयलेट आती है क्‍या?’ कइयों ने कहा, हां और कइयों ने स्‍वीकारा कि दिन में जाने का जोर आए तो दबा देते हैं।

कितनी अजीब है ये दुनिया। टायलेट जाते भी औरतों को शर्म आती है, मानो कोई सीक्रेट पाप कर रही हों। जिस कमरे से होकर बाथरूम के लिए जाना पड़ता है, या जिस कमरे से अटैच बाथरूम है, उस कमरे में अगर जेठ जी, ससुर या कोई भी पुरुष बैठा है तो मेरी दीदियां, भाभियां, मामियां और घर की औरतें रसोई में चुपाई बैठी रहेंगी, लेकिन बाथरूम नहीं जाएंगी। बोलेंगी, नहीं, नहीं, वो जेठजी बैठे हैं। हर दो मिनट पर झांकती रहेंगी, दबाती रहेंगी, लेकिन जाएंगी नहीं। जेठजी तो गेट के बाहर गली खड़े होकर करने के लिए भी दो मिनट नहीं सोचते। बहुएं मरी जाती हैं।

जेठ-बहू को जाने दें तो पढ़ी-लिखी नौकरीपेशा लड़कियों के दिमाग भी कुछ खास रौशनख्‍याल नहीं हैं। इंदौर में वेबदुनिया में लेडीज टॉयलेट का रास्‍ता एक बड़े केबिन से होकर गुजरता था, जहां सब पुरुष काम कर रहे होते थे। वहां भी लड़कियां बाथरूम जाने में संकोच करती थीं। कहतीं,

सब बैठे रहते हैं वहां पर, सबको पता चल जाएगा कि हम कहां जा रहे हैं।

अरे तो चलने दो न पता, कौन सा तुम अभिसार पर जा रही हो।

अभिसार मतलब।

‘अभिसार मतलब रात में छिपकर अपने प्रेमी से मिलने जाना। अभिसार पर जाने वाली अभिसारिका।

तुम बिलकुल बेशर्म हो।

इसमें बेशर्म की क्‍या बात है। अभिसार में शरमाओ तो समझ में भी आता है। लेकिन बाथरूम जाने में कैसी शर्म। जो लोग वहां बैठे हैं, वो नहीं जाते क्‍या।

नहीं यार, अच्‍छा नहीं लगता।

ऐसे ही इस दुनिया को जाने क्‍या-क्‍या अच्‍छा नहीं लगता। आपकी बाकी चीजें तो अच्‍छी नहीं ही लगतीं, लेकिन अब आप पानी पीना, बाथरूम जाना भी छोड़ दीजिए। लोगों को अच्‍छा जो नहीं लगता।

ये इतनी स्‍वाभाविक जरूरत है, लेकिन इसके बारे में हम कभी बात नहीं करते। बच्‍चा पैदा होते साथ ही रोने और दूध पीने के बाद पहला काम यही करता है, लेकिन औरतों के बाथरूम जाने को लेकर समाज ऐसे पिलपिलाने लगता है मानो बेहया औरतें भरे चौराहे आदमी को चूम लेने की बेशर्म जिद पर अड़ आई हों। नहीं, हम तो यहीं चूमेंगे, अभी इसी वक्‍त।

हम कोई अतिरिक्‍त सहूलियत की बात नहीं कर रहे हैं। ऐसा नहीं कि बहुत मानवीय, उदात्‍त, गरिमामय समाज की डिमांड की जा रही है। प्‍लीज, प्‍यार कर सकने लायक खुलापन दीजिए समाज में, इतना कि अपने दीवाने को हम चूम सकें। रात में समंदर किनारे बैठकर बीयर पीना चाहें तो पीने दीजिए। हल्‍द्वानी-नैनीताल की बीच वाली पहाड़ी पर रात में बैठकर सितारों को देखने दीजिए। नदी में तैरने दीजिए, आसमान में उड़ने दीजिए। राहुल सांकृत्‍यायन की तरह पीठ पर एक झोला टांगे बस, Truck, टैंपो, ऑटो, बैलगाड़ी, ठेला जो भी मिले, उस पर सवार होकर दुनिया की सैर करने दीजिए। अपनी बाइक पर हमें मनाली से लेह जाने दीजिए और बीच में अपनी नाक मत घुसाइए, प्‍लीज। प्‍यार की खुली छूट दीजिए या फ्री सेक्‍स कर दीजिए।

ऐसा तो कुछ नहीं मांग रहे हैं ना। बस इतना ही तो कह रहे हैं कि बाथरूम करने दीजिए। घूरिए मत, ऐसी दुनिया मत बनाइए कि बाथरूम जाने में भी हम शर्म से गड़ जाएं। इतने पब्लिक टॉयलेट तो हों कि सेल्‍स गर्ल, एलआईसी एजेंट या हार्डकोर रिपोर्टर बनने वाली लड़कियों को यूरीनरी इंफेक्‍शन होगा ही होगा, ये बहार आने पर फूल खिलने की तरह तय हो।

प्‍लीज, ये बहुत नैचुरल, ह्यूमन नीड है। इसे अपने सड़े हुए बंद दिमागों और कुंठाओं की छिपकलियों से बचाइए। सब रेंग रही हैं और हम अस्‍पतालों के चक्‍कर लगा रहे हैं।

समाप्‍त।

पहली कड़ी - We all shit, we all pee but we never talk about it - 1

Saturday, 27 March 2010

We all shit, we all pee but never talk about it

अगर मैं ठीक-ठीक याद कर पा रही हूं तो ये पिछली गर्मियों की किसी तपती दोपहरी वाले दिन घटी घटना है। मैं घर में अकेली थी कुछ-कुछ फुरसतिया मूड में कभी इधर, कभी उधर बैठकर टाइम पास करती। तभी दरवाजे की घंटी बजी।

दरवाजे पर दो महिलाएं खड़ी थीं। मेरे दरवाजा खोलते ही धुआं छोड़ने वाली 150 सीसी पल्‍सर की रफ्तार से शुरू हो गईं।

मैडम हम फलां कंपनी की तरफ से आए हैं, फलां फेयरनेस क्रीम और साबुन और शैंपू जाने क्‍या-क्‍या तो बेच रहे हैं। एक डेमो देना चाहते हैं।

मैंने उनकी बात खत्‍म होने से पहले ही अपने रूटीन बेहया लहजे में कहा, नहीं, नहीं, नहीं चाहिए। हम पहले से ही बहुत ज्‍यादा फेयर हैं। क्रीम लगाएंगे तो करीना कपूर छाती पीटकर रोएगी। उसके रूप के साथ हम अन्‍याय नहीं कर सकते।

मजाक नहीं, मैंने सचमुच ऐसा ही कहा। (मैं काफी बदजबान हूं और कब कहां क्‍या बोल दूं, मुझे खुद भी पता नहीं होता।)

दोनों थोड़ा इमबैरेस सी हुईं, लेकिन फिर मेरे चेहरे पर शरारती मुस्‍कान देखकर हंसने लगीं। अबकी मैंने फाइनल डिसीजन सुना दिया, ‘Look mam, I am not interested. ’

मुझे लगा कि अब वो लौट जाएंगी और किसी और का दरवाजा खटखटाकर सुंदर होने के नुस्‍खे बताएंगी। लेकिन वो कुछ मिनट और खड़ी रहीं। दोनों ने एक ही रंग और डिजाइन की साड़ी पहन रखी थी। दिखने में पहली ही नजर में कहीं से आकर्षक नहीं जान पड़ती थीं, लेकिन बरछियां बरसाती बदजात दोपहरी में दरवाजे-दरवाजे भटकना पड़े तो करीना कपूर भी दस दिन में कोयला कुमारी नजर आने लगे। वो मेरी तरह कूलर की हवा में बैठकर तरबूज का शरबत पीती होतीं तो निसंदेह उनकी त्‍वचा इतनी खुरदुरी नहीं लगती।

मैं दरवाजा बंद करके पीछा छुड़ाना चाहती थी, लेकिन वो मेरी रुखाई के बावजूद एकदम से पलटकर दोबारा कभी मेरा मुंह भी न देखने को उद्धत नहीं जान पड़ीं। उनकी आंखों ने कहा कि वो कुछ कहना चाहती हैं, लेकिन संकोच की कोई रस्‍सी तन रही है।

हम दोनों ही कुछ सेकेंड चुपचाप खड़े रहे।

फिर जैसे बड़ी मुश्किल से उनमें से एक हिम्‍मत जुटाकर बोली, मैम, हम आपका बाथरूम यूज कर सकते हैं।

मुझे उनकी बात समझने में कुछ सेकेंड लगे। फिर बोली, हां जरूर, शौक से। प्‍लीज, अंदर आ जाइए।

दोनों कमरे की ठंडी हवा में आकर सुस्‍ताने लगीं। एक-एक करके बाथरूम गईं, मुंह पर पानी के छींटे डाले। मैंने तरबूज का शरबत उन्‍हें भी ऑफर किया। दोनों चुपचाप बैठकर शरबत पीने लगीं और उस पूरे दौरान हुई बातचीत से उनके मुतल्लिक कुछ ऐसी जानकारियां हासिल हुईं।

वो किसी कंपनी में डेली वेजेज पर काम करती थीं, सुबह दस से शाम छह बजे तक और शाम को मिलने वाले पैसे इस बात पर निर्भर करते थे कि दिन भर उन्‍होंने कितने प्रोडक्‍ट बेचे थे। वो घर-घर जाकर अपने प्रोडक्‍ट दिखातीं (जैसे चश्‍मे बद्दूर में दीप्ति नवल चमको साबुन बेचती थी) और जिस घर जातीं, उनका नाम, मकान नंबर और साइन एक कागज पर दर्ज कर लेती थीं। उनमें से एक अपने एलआईसी एजेंट पति और दूसरी मां और विधवा बहन के साथ रहती थी। ये जानकारियां मैंने दनादन सवालों की बौछार करके जुटा ली थीं। लेकिन मैं mainly जो बात कहना चाहती हूं, उसका इन डीटेल्‍स से न ज्‍यादा, न कम लेना-देना है।

मैं घूम-फिरकर उस सवाल पर आ गई, जो मुझे इतनी देर से कोंच रहा था।

आप दिन भर इतनी गर्मी, धूप में घूमते-घूमते परेशान नहीं हो जातीं।

आदत हो गई है।

आपको प्‍यास लगे तो? ’

किसी के घर में पी लेते हैं।

और लू जाना हो तो? ’

क्‍या? ’

बाथरूम?’

बाथरूम जाना हो तो? आप लोगों को प्रॉब्‍लम नहीं होती। 8-10 घंटे आप बाहर घूमती हैं। बाथरूम लगे तो क्‍या करती हैं?’

मैंने देखा संकोच की एक लकीर उनके माथे पर घिर आई थी। जाहिर था कि जैसे उन्‍होंने मुझे लड़की, शायद थोड़ी बिंदास लड़की या जो कुछ भी समझकर मुझसे बाथरूम यूज करने की रिक्‍वेस्‍ट कर ली थी, ऐसा वो अमूमन नहीं करती होंगी, नहीं कर पाती होंगी। वैसे भी आप किसी अनजान के घर सामान बेचने जाकर उसके बाथरूम में नहीं घुस जाते। लेकिन बाथरूम Available न हो तो ऐसा तो नहीं कि सू-सू अपने आने का कार्यक्रम मुल्‍तवी कर देगी।

उन्‍होंने बताया कि उन्‍हें दिक्‍कत तो होती है। दिन भर वो कम से कम पानी पीती हैं। बहुत बार घंटों-घंटों इस प्राकृतिक जरूरत को दबाकर भी रखती हैं। मेरे काफी खोदने पर उन्‍होंने स्‍वीकारा कि ऐसा करने का उन्‍हें खामियाजा भी भुगतना पड़ता है। पेट में दर्द से लेकर यूरिनरी इंफेक्‍शन तक वो झेल चुकी हैं।

पीरियड्स के समय भी आप ऐसे ही घूमती हैं?

वो और ज्‍यादा अपने संकोच में सिकुड़ गईं। मैं तो कोई पुरुष नहीं थी, लेकिन शायद लड़कियां भी लड़कियों से ऐसी बातें नहीं करतीं। इसलिए मैं उन्‍हें थोड़ी विचित्र जान पड़ी।

बोलीं, हां करना तो पड़ता है मैम। क्‍या करें, हमारी नौकरी ही ऐसी है। एक दिन न आएं तो उस दिन के पैसे नहीं मिलेंगे। और फिर घर भी तो चलाना है। आजकल महंगाई कितनी बढ़ गई है।

बातें जो न चाहें तो कभी खत्‍म न हों, को चाहकर हमने खत्‍म किया और वो चली गईं। वो चली गईं और मैं सोच रही थी। घड़ी की तरह शरीर में भी (खासकर औरतों के शरीर में) एक अलार्म होना चाहिए, जिसमें हर चीज का टाइम सेट कर दें। बाथरूम आने का भी टाइम सेट हो। सुबह दस से शाम छह बजे तक नहीं आएगी। जब घर में रहेंगे, तभी आएगी क्‍योंकि इस देश में पब्लिक टॉयलेट्स सच्‍ची मोहब्‍बत की तरह ढूंढे से नहीं मिलते। गलती से मिल भी जाएं तो पता चलता है कि सच्‍ची मोहब्‍बत नहीं, सड़क छाप, बदबू मारते गलीज बीमारियों के अड्डे हैं, जहां अव्‍वल तो लड़कियां घुसती नहीं और घुसती हैं तो ऐसा ही समझा जाता है कि छेड़े जाने की हरसत से आई हैं। और जो थोड़ी भलमनसाहत बाकी हो और उन्‍हें न भी छेड़ो तो आंखें फाड़-फाड़ देख तो लो ही सही।

तो ऐसे देश का सिस्‍टम तो बदलने से रहा, इसलिए अलार्म ही फिट हो सके तो कुछ बात बने। वरना हम ऐसी ही मुश्किलों से गुजरते रहने को अभिशप्‍त होंगे।

ऐसी मुश्किलों से मैं भी कम नहीं गुजरी हूं और बीमारियों को खुद आ बैल मुझे मार करने के लिए बुलाया है।

अपने जिए हुए अनुभव से मैं कह सकती हूं कि हिंदुस्‍तान जैसे मुल्‍क, जो हालांकि पूरा की पूरा ही बड़ा शौचालय है, लेकिन पब्लिक शौचालय का जहां कोई क्‍लीयर आइडिया न तो सरकार और न लोगों के दिमाग में है, में किसी लड़की के लिए ऐसा कोई काम, जिसमें उसे दिन भर सिर्फ घूमते रहना हो, करना किसी बड़ी बीमारी को मोहब्‍बत से फुसलाकर अपनी गोदी बिठाने से कम नहीं है।

मुंबई में मैंने कुछ समय फिल्‍म रिपोर्टिंग जैसे काम में हाथ आजमाया था, जिसके लिए मुझे घंटों-घंटों न घर, न ऑफिस, बल्कि बाहर इधर-उधर भटकना पड़ता था। सुबह नौ बजे मैं घर से निकलती, दो घंटे ऑटो, लोकल train और बस से सफर करके यारी रोड, पाली हिल, लोखंडवाला कॉम्‍प्‍लेक्‍स या महालक्ष्‍मी रेसकोर्स रोड के रेस्‍टरेंट में पहुंचती, फिर वहां से पृथ्‍वी थिएटर, पृथ्‍वी से जुहू तारा रोड, जुहू तारा से सात बंगला, सात बंगला से केम्‍स कॉर्नर, केम्‍स कॉर्नर से वॉर्डन रोड करते हुए मेरा शरीर रोड की तरह हो जाता था, जिस पर लगता हजारों गाडि़यां दौड़-दौड़कर रौंदे डाल रही हैं।

मुंबई जैसे विशालकाय महानगर में, जहां पांच सितारा होटलों के चमकीले टायॅलेटों, जिनकी फर्श भी हमारी रसोई की परात जितनी साफ रहती है, इतनी कि उस पर आटा सान लो, से लेकर बांद्रा की खाड़ी के बगल में बने आसमान के नीचे खुले प्राकृतिक शौचालयों तक सबकुछ मिल जाएगा, लेकिन पब्लिक टॉयलेट ढूंढना वहां भी धारावी में ब्रैड पिट को ढूंढने की तरह है।

सुबह नौ बजे से लेकर शाम 5-6 बजे तक भटकने के बाद मैं ऑफिस पहुंचती और सबसे पहले बाथरूम भागती थी। दिन भर काफी मिट्टी पलीद होती थी। बॉम्‍बे के बेहद उमस भरे दिलफरेब मौसम में बार-बार पानी या लेमन जूस पीते रहना मजबूरी थी, वरना डिहाइड्ेशन से ही मर जाती। इस तरह भटकते रहने का यह ताजातरीन अनुभव था। शुरू में काफी एक्‍साइटमेंट था। लेकिन इससे और क्‍या-क्‍या मुश्किलात जुड़े हैं या इसके और क्‍या-क्‍या नतीजे मुमकिन हैं, इस बारे में तब तक कोई अंदाजा ही नहीं था। नौ बजे घर से निकलने के बाद 1-2 बजते-बजते मैं काफी परेशान हो जाती थी। लेकिन मैंने हालांकि बड़े सामान्‍य, लेकिन कुछ विचित्र भी लगने वाले तरीकों से ऐसी हाजतों से निजात पाई है। ये बोलते हुए हंसी भी आती है, लेकिन फेयरनेस क्रीम बेचने वाली उन स्त्रियों ने तो मुझसे ही बाथरूम यूज करने की रिक्‍वेस्‍ट की थी, लेकिन मैं बड़े-बड़े सेलिब्रिटियों के घर ऐसी डिमांड रख देती थी।

एक दिन स्‍मृति ईरानी के घर पहुंची तो जोर की बाथरूम लगी थी। संकोच बहुत था, लेकिन कुछ जरूरतें ऐसी होती हैं कि दुनिया के हर संकोच से बड़ी हो जाती हैं। मैंने बड़ी बेशर्मी से पूछ लिया, May I use your washroom please.

उसने कहा, yes. Off course. ऑफ कोर्स मैंने खुद को कृतार्थ किया।

एक बार शेखर कपूर के घर, हालांकि वो उस समय घर में नहीं थे (ये बहुत दुख की बात है, क्‍यों‍कि शेखर कपूर पर मुझे क्रश है) मैंने सुचित्रा से ऐसी ही रिक्‍वेस्‍ट की और उन्‍होंने बड़ी खुशी से रिस्‍पॉन्‍ड किया। ऐसी रिक्‍वेस्‍ट मैंने सुप्रिया पाठक, किरण खेर, रेणुका शहाणे, सुरेखा सीकरी, नादिरा बब्‍बर वगैरह से भी की थी और शायद सबने इस रिक्‍वेस्‍ट की जेनुइननेस को समझा भी था। इंटरेस्टिंगली सभी स्त्रियों से ही ऐसी बात कहने का विश्‍वास होता था। बोस्‍कीयाना में बैठकर ढाई घंटे भी इंतजार करना पड़े तो भी मैं नेचर कॉल को चप्‍पल उतारकर दौड़ाती - 'भाग, अभी नहीं, बाद में आना।'

सिर्फ कुछ ही महीनों में सेहत की काफी बारह बज गई थी।

जारी……………


Thursday, 25 March 2010

We do not belong to your world

मैंने नहीं देखी है आज तक कोई बोहेमियन औरत, लेकिन हमेशा से सोचती रही हूं कि काश कि जीवन ऐसा हो कि कल को अपनी आत्‍मकथा लिखूं तो उसका नाम रख सकूं एक बोहेमियन औरत की डायरी। लेकिन चूंकि मैं जिस देश और जिस समाज में पैदा हुई, वहां ऐसे बेजा ख्‍यालों तक की आमद पर बंदिशें हैं तो मैं बोहेमियन की जगह बेदखल की डायरी से ही काम चला रही हूं।

गुजरे रविवार को मैं अपनी एक दोस्‍त वंदना (मेरे साथ ऑफिस में ही काम करती है) के साथ सांची गई थी। बहुत लोग जाते हैं सांची - रविवार, सोमवार, मंगलवार, सब दिन जाते हैं तो आपने ऐसा क्‍या तीर मार लिया।

दरअसल बात ये है कि हम दोनों अपनी बाइक (हॉन्‍डा एक्टिवा) से गए थे। हमें जानने वालों ने चेताया - इतनी दूर बाइक से, हाइवे पर, रिस्‍की है, दो लड़कियां अकेली, कुछ हो गया, गाड़ी खराब हो गई तो। अरे सीधे रस्‍ते चलते नहीं बनता। हबीबगंज स्‍टेशन से Train पकड़ो, विदिशा उतरो, वहां से सांची। नहीं तो मोहतरमा बस से चली जाओ। नहीं तो टैक्‍सी कर लो। गनीमत है लोगों ने हवाई जहाज से जाने का सुझाव नहीं दिया।

लेकिन हम ठहरे नालायक। कहां मानने वाले थे। ज्‍यादा दूर पचमढ़ी, महेश्‍वर, उज्‍जैन न सही, लेकिन सांची, भीमबेटका या भोजपुर तक कभी अपनी बाइक से जाऊंगी ही, ऐसा सोचा था। जो कोई न हुआ साथ तो अकेले ही सही, के ख्‍वाब मैं तब से बुनती रही हूं, जब से इस शहर में आई हूं। जिसे शहर की सीमा कहते हैं, कि जहां लोग, मकान, दुकान और भीड़ है, जहां चेहरों की आवाजाही है, शहर की उस सीमा के भीतर तो मैंने खूब गाड़ी दौड़ाई है, अकेले ही इधर-उधर भटकी हूं, लेकिन शहर के भीतर आप कितनी भी गाड़ी दौड़ा लें, मुश्किल से 15-20-25 किलोमीटर की रेंज में घूम-फिरकर अपने घर भी वापस आ जाएंगे। अपनी पेरिफेरी को कितना भी खींचो, इससे ज्‍यादा बड़ी नहीं होती।

इस पेरिफेरी को खींचने की कोशिश में टू व्‍हीलर से सांची जाने की बात जब भी कहती, दोस्‍त कहते, एक्टिवा से मत जाना। मोटरसाइकिल होती तो बात अलग थी। स्‍कूटी टाइप गाडि़यां लंबी दूरियों के लिए ठीक नहीं होतीं। चार कदम में फुस्‍स हो जाएगी। फीमेल बाइक का इतना माइलेज नहीं होता। कमाल है। स्‍कूटी के विज्ञापन में भले प्रियंका चोपड़ा दांत निकाले कितना भी दावा करें कि व्‍हाय ब्‍वॉयज शुड हैव ऑल द फन, लेकिन ये मरगिल्‍ली स्‍कूटी बनाने वाली कंपनियों को भी पता होता है कि लड़कियां इस पर सवार होकर ज्‍यादा से ज्‍यादा घर से कॉलेज कॉलेज से घर या घर से दफ्तर और दफ्तर से घर ही जाएंगी। नहीं हुआ तो संडे को बाजार तक जा सकती हैं, करेला, भिंडी और साड़ी का मैचिंग फॉल खरीदने या ब्‍यूटी पार्लर तक आइब्रो बनवाने। और बहुत हुआ तो ज्‍योति टॉकीज तक चली जाएंगी, प्‍यार इमपॉसिबल देखने। प्‍यार की इमपॉसि‍बिलिटी का पता नहीं, लेकिन स्‍कूटी से पचमढ़ी जाने की बात सोचना भी इमपॉसिबल है।

लेकिन हमने इस इमपॉसिबल को पॉसिबल करने की सोची और अकेले ही निकल गए। कड़ी दोपहरी में मुंह पर कपड़ा बांधे और गॉगेल्‍स लगाए हर बेहद टुच्‍चे नियम को तोड़ने पर आमादा दो लड़कियां इतने में ही ऐसा अनोखा गर्व और खुशी महसूस कर रही थीं, मानो हिमालय पार कर आई हों। शहर क्रॉस खत्‍म होने के बाद जैसे ही भोपाल-सांची हाइवे शुरू हुआ, हम एक पेटोल पंप पर रुके और वहां मौजूद धोती और मैले-कुचैले पायजामों से लेकर लेवी की जींस वालों तक के लिए हम कौतुक का सबब बने। सब हमें बड़े ध्‍यान से देख रहे थे। शहर के भीड़-भड़क्‍के में Petrole पंप पर खड़ी लड़कियां अजीब नहीं लगतीं, लेकिन यहां शहर से इतनी दूर हाइवे पर ये नमूनियां कहां से नमूदार हुईं। हम Petrole भराकर आगे बढ़े तो भी सब पलट-पलटकर देख रहे थे।

वंदना बोली, दीदी, सब देख रहे हैं।

देखने दे न। नयन सुख ही तो ले रहे हैं। दूसरों के नयनों को सुख देने में कोई बुराई है। समाज सेवा है ये। लो भईया, और देख लो आंख फाड़कर। सुखी रहो।

हाइवे पर मैंने 30 से लेकर 70 तक की स्‍पीड में गाड़ी दौड़ाई। बगल से गुजरने वाले बाइक सवार लड़कों ने पलट-पलटकर देखने का कार्यक्रम पूरे रास्‍ते जारी रखा। कभी वे जूंजूंजूंजूंजूंजूंजूं की आवाज करते तेजी से अगल से गुजर जाते और आगे जाकर स्‍पीड धीमी कर लेते। फिर जब हम आगे निकल जाते तो फिर ऐसे ही तेजी से बाइक दनदनाते हमें पीछे छोड़ते हुए वो हमें क्रॉस करते। दो लड़कियां हाइवे पर अकेली। बेचारे बड़े समाज सेवी थे। पूरे रास्‍ते सुरक्षा गार्ड की तरह साथ लगे रहे।

कुछ तो स्‍त्री के सम्‍मान के प्रति इतने सजग थे कि बगल से गुजरते हुए हमें चेताया, मैडम अपना कुर्ता तो सही कर लीजिए। वंदना पीछे बैठी थी और तेज हवा में उसका कुर्ता अपनी सही जगह छोड़कर लोगों के दर्शनार्थ पीठ को उपलब्‍ध कराते हुए उड़ रहा था।

तीन-चार लोगों ने गुजरते हुए टोका।

मैडम, आपका कुर्ता?’

मैडम, कपड़े तो सही कर लो।

कमीने, हरामी की औलाद सब के सब। मैंने खुले दिल से गालियों की बौछार की। साले, खुद टी शर्ट उतारकर भी चलाएंगे तो किसी की नानी नहीं मरेगी। जरा कुर्ता उड़ गया तो उनकी आंतें उतरने लगीं। मैंने कहा, मरने दे उन्‍हें। तू आराम से बैठ। पीठ को हाइवे की हवा लग रही है न। लगने दे। पसीने में हवाओं की ठंडी छुअन। मस्‍त है यार। टेंशन मत ले। ससुरों के दिमागों तक को हवा नहीं लगने पाती। हमारी तो पीठ तक को लग रही है। पता नहीं क्‍या था कि हम किसी बात की परवाह करने को तैयार नहीं थे। हमने सचमुच किसी बात की परवाह नहीं की।

हम रास्‍ते भर तरह-तरह के ऊटपटांग गाने पूरे बेसुरे सुर में गाते जा रहे थे। गाना कोई भी हो सकता था, बस शर्त ये थी कि वो चीप होना चाहिए। अचानक वंदना तेरे मेरे सपने अब एक रंग हैं गाती तो मैं गुस्‍सा होकर टोक देती। अबे, Track मत बदल यार। चीप गाने गा, चीप। और हम शुरू हो जाते।

आजा न छू ले मेरी चुनरी सनम

कुछ ना मैं बोलूं तुझे मेरी कसम

आई जवानी सिर पे मेरे…………

और तभी बगल से कोई बाइक सवार गुजरता और हम एकदम से पॉज का बटन दबा देते…….

बाइक गुजर गई और हम शुरू

ऐसे में क्‍या करूं जवानी पे रहम……….. हायययय आजा न……….

हालांकि चीप गाने ढूंढने में हमें काफी मेहनत करनी पड़ी़, तब भी हम राह से भटके नहीं। अल्‍लाह कसम, हमने एक भी अच्‍छा गाना नहीं गाया। चीपनेस की टेक बनाए रखी।

मैं तो रस्‍ते से जा रहा था…….

नीचे फूलों की दुकान ऊपर गोरी का मकान........

तब तक रहेगा समोसे में आलू……..

आजा मेरी गाड़ी में बैठ जा……..

और……

मैं तुझको भगा लाया हूं तेरे घर से……. ससुर बाप के डर से

गाने के शब्‍दों में हम सुविधानुसार फेरबदल भी कर देते थे।

दिबाकर की नई फिल्‍म का गाना भी हमने ऑरिजिनल फॉर्म में गाया, सेंसर बोर्ड के एक शब्‍द को बदलकर कोई दूसरा उससे भी ज्‍यादा चीप शब्‍द दे देने के पहले वाले फॉर्म में। लेकिन हमारे गाने में बहुत सारे पॉज थे। हम अपनी अदृभुत गायन प्रतिभा से आने-जाने वालों की हैरानी और हसरतों में और घी नहीं डालना चाहते थे।

रास्‍ते भर हम रुक-रुककर तस्‍वीरें भी खींचते रहे। अपनी तो अपनी, सड़क पर गाय, गधा, कुत्‍ता, बकरी, भैंस जो भी दिख जाए, सबकी तस्‍वीरें ले लीं। एक तालाब के किनारे हम भैंसों की फोटो खींच रहे थे तो दो बाइक सवार, जो आगे निकल चुके थे, पलटकर आए और बोले,

मैडम हमरा भी फोटू खींच लीजिए।

मेरे जी में आया, बोलूं, जाकर उसी भैंस की पीठ पर बैठ जाओ। अभी खींचे लेती हूं। लेकिन हमारी तीसरी आंख सचेत थी। सड़क सूनसान थी। दोनों ओर फैले खेत। आदमी का नामोनिशान नहीं। मैं तुरंत हरकत में आई और अंग्रेजी बोलनी शुरू कर दी।

What? What did you say?

We have come from Mumbai.

Both of us are journalist in Times of India. Not from this place. Just going to see Sanchi for a reporting project.

What do you want ?

गाड़ी पर Press लिखा हुआ था। मैंने लाल रंग के अक्षरों में लिखे Press की ओर इशारा किया और इस तरह उसे समझा दिया कि देखो, लपुझन्‍ने, हम तुम्‍हारी दुनिया का हिस्‍सा नहीं हैं। इस गांव-देहात के नहीं, इस शहर के भी नहीं।

हमने उन दोनों गांवटियों को ये सोचाया कि हम अमीर, अंग्रेजीदां, फैशनपरस्‍त लड़कियां हैं। यहां के चाल-चलन नहीं जानतीं, इसलिए ठुमकती फिर रही हैं। दोनों थोड़े प्रभावित, अवाक् और कुछ हक्‍का-बक्‍का होकर चले गए।

आप कैसे सबको हैंडल कर लेती हो, वंदना हंस रही थी और मैं सोच रही थी।

हम जो कर रहे थे, वो जिला इलाहाबाद, उत्‍तर प्रदेश या जिला मोतीहारी, बिहार की हिंदी बोलने वाली किसी मामूली सी लड़की को करते शोभा नहीं देता। उनके वर्ग की लड़कियां ऐसे दिन-दहाड़े हाइवे पर अकेली गाड़ी नहीं दौड़ातीं। ऐसे खुलेआम सड़क पर हंसती, गाना गाती, फोटू खींचती तो बिलकुल भी नहीं। वे लोग अपने समाज और अपने वर्ग की लड़कियों को इस रूप में देखने के आदी नहीं हैं। ऐसी मामूली लड़कियां उन्‍हें कमेंट करने से लेकर छेड़ने तक के लिए एक्‍सेसबल जान पड़ती हैं। हम नहीं। हम मुंबई, दिल्‍ली वाली, अंग्रेजीदां, फैशनपरस्‍त, साथ में सिगरेट और बीयर के केन वाली लड़कियों का दर्जा अपने आप निचले वर्ग के मर्दों से ऊंचा हो जाता है।

आज भी चमकीली दुकानों और रौशनियों वाले शहर को पार करते ही जैसे ही हम ठेठ देहाती दुनिया में घुसते हैं, अकेली लड़कियों के लिए No Entry का बोर्ड हर कहीं टंगा होता है। न वो दुनिया आपके साथ कॅम्‍फर्टेबल है और न ही आप उस दुनिया के साथ। वहां के सेट नियमों को तोड़ने वाली लड़कियों के लिए जगह नहीं है। वो दुनिया आपको स्‍वीकार नहीं करेगी, unless and until आप अंग्रेजी न बोलती हों और उन्‍हें ये यकीन न हो कि आप दूसरे ग्रह की वासी हैं।

शहरों में चौके-बर्तन की दुनिया से बाहर निकलती, नौकरी करती, कॉलेज जाती, सड़कों पर गाडि़यां दौड़ाती, गोलगप्‍पे खाती और सिनेमा हॉलों में प्‍यार इमपॉसिबल देखती लड़कियों को देखकर हमने ये गलतफहमी पाल ली है कि लड़कियों के लिए दुनिया बदल रही है, मर्दों की सोच और उनका दिमाग भी। जबकि हकीकत ये है कि जो स्‍पेस नजर आता है, वो भी बाजार का दिया स्‍पेस है। अमरीका, कनाडा की सीमाएं तोड़कर जो कंपनियां हिंदुस्‍तान के शहरों तक आ रही हैं, अपने घरों की सीमाएं तोड़कर लड़कियां उन कंपनियों की इंटीपेंडेंट, कॅरियर कॉन्‍शस आधुनिकाएं बन गई हैं। यह सीमा बाजार ने तोड़ी है, पूरी दुनिया में फैल रहे पूंजी के सीमा तोड़ खेल ने। बाजार न होते तो औरतों के लिए आज भी रसोई और पति के बेडरुम के बाहर कोई खास दुनिया होती, यकीन करना मुश्किल है।

हाइवे पर हमारी पीठ ताकने और फोटू खींचने की इल्‍तजा करने वाले ये जानते होते कि मैं कोई दिल्‍ली-बंबई वाली नहीं, टुच्‍चे हिंदी प्रदेश की एक मामूली सी भय्यानी हूं तो? पता नहीं? लेकिन पूरे रास्‍ते और सांची में भी जहां किसी ने हमारी हरकतों को लेकर आंखें चौड़ी करने की कोशिश की तो हमने ऐसे दिखाया कि मानो अंग्रेजी छोड़ कोई भाषा हमें समझती ही नहीं है। हम अभी-अभी आसमान से टपके हैं। You poor, tuchche people, we do not belong to your world. Understood? Bloody hell.