मैंने नहीं देखी है आज तक कोई बोहेमियन औरत, लेकिन हमेशा से सोचती रही हूं कि काश कि जीवन ऐसा हो कि कल को अपनी आत्मकथा लिखूं तो उसका नाम रख सकूं – एक बोहेमियन औरत की डायरी। लेकिन चूंकि मैं जिस देश और जिस समाज में पैदा हुई, वहां ऐसे बेजा ख्यालों तक की आमद पर बंदिशें हैं तो मैं बोहेमियन की जगह बेदखल की डायरी से ही काम चला रही हूं।
गुजरे रविवार को मैं अपनी एक दोस्त वंदना (मेरे साथ ऑफिस में ही काम करती है) के साथ सांची गई थी। बहुत लोग जाते हैं सांची - रविवार, सोमवार, मंगलवार, सब दिन जाते हैं तो आपने ऐसा क्या तीर मार लिया।
दरअसल बात ये है कि हम दोनों अपनी बाइक (हॉन्डा एक्टिवा) से गए थे। हमें जानने वालों ने चेताया - इतनी दूर बाइक से, हाइवे पर, रिस्की है, दो लड़कियां अकेली, कुछ हो गया, गाड़ी खराब हो गई तो। अरे सीधे रस्ते चलते नहीं बनता। हबीबगंज स्टेशन से Train पकड़ो, विदिशा उतरो, वहां से सांची। नहीं तो मोहतरमा बस से चली जाओ। नहीं तो टैक्सी कर लो। गनीमत है लोगों ने हवाई जहाज से जाने का सुझाव नहीं दिया।
लेकिन हम ठहरे नालायक। कहां मानने वाले थे। ज्यादा दूर पचमढ़ी, महेश्वर, उज्जैन न सही, लेकिन सांची, भीमबेटका या भोजपुर तक कभी अपनी बाइक से जाऊंगी ही, ऐसा सोचा था। जो कोई न हुआ साथ तो अकेले ही सही, के ख्वाब मैं तब से बुनती रही हूं, जब से इस शहर में आई हूं। जिसे शहर की सीमा कहते हैं, कि जहां लोग, मकान, दुकान और भीड़ है, जहां चेहरों की आवाजाही है, शहर की उस सीमा के भीतर तो मैंने खूब गाड़ी दौड़ाई है, अकेले ही इधर-उधर भटकी हूं, लेकिन शहर के भीतर आप कितनी भी गाड़ी दौड़ा लें, मुश्किल से 15-20-25 किलोमीटर की रेंज में घूम-फिरकर अपने घर भी वापस आ जाएंगे। अपनी पेरिफेरी को कितना भी खींचो, इससे ज्यादा बड़ी नहीं होती।
इस पेरिफेरी को खींचने की कोशिश में टू व्हीलर से सांची जाने की बात जब भी कहती, दोस्त कहते, एक्टिवा से मत जाना। मोटरसाइकिल होती तो बात अलग थी। स्कूटी टाइप गाडि़यां लंबी दूरियों के लिए ठीक नहीं होतीं। चार कदम में फुस्स हो जाएगी। फीमेल बाइक का इतना माइलेज नहीं होता। कमाल है। स्कूटी के विज्ञापन में भले प्रियंका चोपड़ा दांत निकाले कितना भी दावा करें कि ‘व्हाय ब्वॉयज शुड हैव ऑल द फन’, लेकिन ये मरगिल्ली स्कूटी बनाने वाली कंपनियों को भी पता होता है कि लड़कियां इस पर सवार होकर ज्यादा से ज्यादा घर से कॉलेज – कॉलेज से घर या घर से दफ्तर और दफ्तर से घर ही जाएंगी। नहीं हुआ तो संडे को बाजार तक जा सकती हैं, करेला, भिंडी और साड़ी का मैचिंग फॉल खरीदने या ब्यूटी पार्लर तक आइब्रो बनवाने। और बहुत हुआ तो ज्योति टॉकीज तक चली जाएंगी, प्यार इमपॉसिबल देखने। प्यार की इमपॉसिबिलिटी का पता नहीं, लेकिन स्कूटी से पचमढ़ी जाने की बात सोचना भी इमपॉसिबल है।
लेकिन हमने इस इमपॉसिबल को पॉसिबल करने की सोची और अकेले ही निकल गए। कड़ी दोपहरी में मुंह पर कपड़ा बांधे और गॉगेल्स लगाए हर बेहद टुच्चे नियम को तोड़ने पर आमादा दो लड़कियां इतने में ही ऐसा अनोखा गर्व और खुशी महसूस कर रही थीं, मानो हिमालय पार कर आई हों। शहर क्रॉस खत्म होने के बाद जैसे ही भोपाल-सांची हाइवे शुरू हुआ, हम एक पेटोल पंप पर रुके और वहां मौजूद धोती और मैले-कुचैले पायजामों से लेकर लेवी की जींस वालों तक के लिए हम कौतुक का सबब बने। सब हमें बड़े ध्यान से देख रहे थे। शहर के भीड़-भड़क्के में Petrole पंप पर खड़ी लड़कियां अजीब नहीं लगतीं, लेकिन यहां शहर से इतनी दूर हाइवे पर ये नमूनियां कहां से नमूदार हुईं। हम Petrole भराकर आगे बढ़े तो भी सब पलट-पलटकर देख रहे थे।
‘वंदना बोली, दीदी, सब देख रहे हैं।’
‘देखने दे न। नयन सुख ही तो ले रहे हैं। दूसरों के नयनों को सुख देने में कोई बुराई है। समाज सेवा है ये। लो भईया, और देख लो आंख फाड़कर। सुखी रहो।’
हाइवे पर मैंने 30 से लेकर 70 तक की स्पीड में गाड़ी दौड़ाई। बगल से गुजरने वाले बाइक सवार लड़कों ने पलट-पलटकर देखने का कार्यक्रम पूरे रास्ते जारी रखा। कभी वे जूंजूंजूंजूंजूंजूंजूं की आवाज करते तेजी से अगल से गुजर जाते और आगे जाकर स्पीड धीमी कर लेते। फिर जब हम आगे निकल जाते तो फिर ऐसे ही तेजी से बाइक दनदनाते हमें पीछे छोड़ते हुए वो हमें क्रॉस करते। दो लड़कियां हाइवे पर अकेली। बेचारे बड़े समाज सेवी थे। पूरे रास्ते सुरक्षा गार्ड की तरह साथ लगे रहे।
कुछ तो स्त्री के सम्मान के प्रति इतने सजग थे कि बगल से गुजरते हुए हमें चेताया, मैडम अपना कुर्ता तो सही कर लीजिए। वंदना पीछे बैठी थी और तेज हवा में उसका कुर्ता अपनी सही जगह छोड़कर लोगों के दर्शनार्थ पीठ को उपलब्ध कराते हुए उड़ रहा था।
तीन-चार लोगों ने गुजरते हुए टोका।
‘मैडम, आपका कुर्ता?’
‘मैडम, कपड़े तो सही कर लो।’
कमीने, हरामी की औलाद सब के सब। मैंने खुले दिल से गालियों की बौछार की। साले, खुद टी शर्ट उतारकर भी चलाएंगे तो किसी की नानी नहीं मरेगी। जरा कुर्ता उड़ गया तो उनकी आंतें उतरने लगीं। मैंने कहा, मरने दे उन्हें। तू आराम से बैठ। पीठ को हाइवे की हवा लग रही है न। लगने दे। पसीने में हवाओं की ठंडी छुअन। मस्त है यार। टेंशन मत ले। ससुरों के दिमागों तक को हवा नहीं लगने पाती। हमारी तो पीठ तक को लग रही है। पता नहीं क्या था कि हम किसी बात की परवाह करने को तैयार नहीं थे। हमने सचमुच किसी बात की परवाह नहीं की।
हम रास्ते भर तरह-तरह के ऊटपटांग गाने पूरे बेसुरे सुर में गाते जा रहे थे। गाना कोई भी हो सकता था, बस शर्त ये थी कि वो चीप होना चाहिए। अचानक वंदना तेरे मेरे सपने अब एक रंग हैं गाती तो मैं गुस्सा होकर टोक देती। अबे, Track मत बदल यार। चीप गाने गा, चीप। और हम शुरू हो जाते।
आजा न छू ले मेरी चुनरी सनम
कुछ ना मैं बोलूं तुझे मेरी कसम
आई जवानी सिर पे मेरे……………
और तभी बगल से कोई बाइक सवार गुजरता और हम एकदम से पॉज का बटन दबा देते…….
बाइक गुजर गई और हम शुरू
ऐसे में क्या करूं जवानी पे रहम……….. हायययय आजा न……….
हालांकि चीप गाने ढूंढने में हमें काफी मेहनत करनी पड़ी़, तब भी हम राह से भटके नहीं। अल्लाह कसम, हमने एक भी अच्छा गाना नहीं गाया। चीपनेस की टेक बनाए रखी।
मैं तो रस्ते से जा रहा था…….
नीचे फूलों की दुकान ऊपर गोरी का मकान........
तब तक रहेगा समोसे में आलू……..
आजा मेरी गाड़ी में बैठ जा……..
और……
मैं तुझको भगा लाया हूं तेरे घर से……. ससुर बाप के डर से
गाने के शब्दों में हम सुविधानुसार फेरबदल भी कर देते थे।
दिबाकर की नई फिल्म का गाना भी हमने ऑरिजिनल फॉर्म में गाया, सेंसर बोर्ड के एक शब्द को बदलकर कोई दूसरा उससे भी ज्यादा चीप शब्द दे देने के पहले वाले फॉर्म में। लेकिन हमारे गाने में बहुत सारे पॉज थे। हम अपनी अदृभुत गायन प्रतिभा से आने-जाने वालों की हैरानी और हसरतों में और घी नहीं डालना चाहते थे।
रास्ते भर हम रुक-रुककर तस्वीरें भी खींचते रहे। अपनी तो अपनी, सड़क पर गाय, गधा, कुत्ता, बकरी, भैंस जो भी दिख जाए, सबकी तस्वीरें ले लीं। एक तालाब के किनारे हम भैंसों की फोटो खींच रहे थे तो दो बाइक सवार, जो आगे निकल चुके थे, पलटकर आए और बोले,
‘मैडम हमरा भी फोटू खींच लीजिए।’
मेरे जी में आया, बोलूं, जाकर उसी भैंस की पीठ पर बैठ जाओ। अभी खींचे लेती हूं। लेकिन हमारी तीसरी आंख सचेत थी। सड़क सूनसान थी। दोनों ओर फैले खेत। आदमी का नामोनिशान नहीं। मैं तुरंत हरकत में आई और अंग्रेजी बोलनी शुरू कर दी।
What? What did you say?
We have come from Mumbai.
Both of us are journalist in Times of India. Not from this place. Just going to see Sanchi for a reporting project.
What do you want ?
गाड़ी पर Press लिखा हुआ था। मैंने लाल रंग के अक्षरों में लिखे Press की ओर इशारा किया और इस तरह उसे समझा दिया कि देखो, लपुझन्ने, हम तुम्हारी दुनिया का हिस्सा नहीं हैं। इस गांव-देहात के नहीं, इस शहर के भी नहीं।
हमने उन दोनों गांवटियों को ये सोचाया कि हम अमीर, अंग्रेजीदां, फैशनपरस्त लड़कियां हैं। यहां के चाल-चलन नहीं जानतीं, इसलिए ठुमकती फिर रही हैं। दोनों थोड़े प्रभावित, अवाक् और कुछ हक्का-बक्का होकर चले गए।
‘आप कैसे सबको हैंडल कर लेती हो,’ वंदना हंस रही थी और मैं सोच रही थी।
हम जो कर रहे थे, वो जिला इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश या जिला मोतीहारी, बिहार की हिंदी बोलने वाली किसी मामूली सी लड़की को करते शोभा नहीं देता। उनके वर्ग की लड़कियां ऐसे दिन-दहाड़े हाइवे पर अकेली गाड़ी नहीं दौड़ातीं। ऐसे खुलेआम सड़क पर हंसती, गाना गाती, फोटू खींचती तो बिलकुल भी नहीं। वे लोग अपने समाज और अपने वर्ग की लड़कियों को इस रूप में देखने के आदी नहीं हैं। ऐसी मामूली लड़कियां उन्हें कमेंट करने से लेकर छेड़ने तक के लिए एक्सेसबल जान पड़ती हैं। हम नहीं। हम मुंबई, दिल्ली वाली, अंग्रेजीदां, फैशनपरस्त, साथ में सिगरेट और बीयर के केन वाली लड़कियों का दर्जा अपने आप निचले वर्ग के मर्दों से ऊंचा हो जाता है।
आज भी चमकीली दुकानों और रौशनियों वाले शहर को पार करते ही जैसे ही हम ठेठ देहाती दुनिया में घुसते हैं, अकेली लड़कियों के लिए No Entry का बोर्ड हर कहीं टंगा होता है। न वो दुनिया आपके साथ कॅम्फर्टेबल है और न ही आप उस दुनिया के साथ। वहां के सेट नियमों को तोड़ने वाली लड़कियों के लिए जगह नहीं है। वो दुनिया आपको स्वीकार नहीं करेगी, unless and until आप अंग्रेजी न बोलती हों और उन्हें ये यकीन न हो कि आप दूसरे ग्रह की वासी हैं।
शहरों में चौके-बर्तन की दुनिया से बाहर निकलती, नौकरी करती, कॉलेज जाती, सड़कों पर गाडि़यां दौड़ाती, गोलगप्पे खाती और सिनेमा हॉलों में प्यार इमपॉसिबल देखती लड़कियों को देखकर हमने ये गलतफहमी पाल ली है कि लड़कियों के लिए दुनिया बदल रही है, मर्दों की सोच और उनका दिमाग भी। जबकि हकीकत ये है कि जो स्पेस नजर आता है, वो भी बाजार का दिया स्पेस है। अमरीका, कनाडा की सीमाएं तोड़कर जो कंपनियां हिंदुस्तान के शहरों तक आ रही हैं, अपने घरों की सीमाएं तोड़कर लड़कियां उन कंपनियों की इंटीपेंडेंट, कॅरियर कॉन्शस आधुनिकाएं बन गई हैं। यह सीमा बाजार ने तोड़ी है, पूरी दुनिया में फैल रहे पूंजी के सीमा तोड़ खेल ने। बाजार न होते तो औरतों के लिए आज भी रसोई और पति के बेडरुम के बाहर कोई खास दुनिया होती, यकीन करना मुश्किल है।
हाइवे पर हमारी पीठ ताकने और फोटू खींचने की इल्तजा करने वाले ये जानते होते कि मैं कोई दिल्ली-बंबई वाली नहीं, टुच्चे हिंदी प्रदेश की एक मामूली सी भय्यानी हूं तो? पता नहीं? लेकिन पूरे रास्ते और सांची में भी जहां किसी ने हमारी हरकतों को लेकर आंखें चौड़ी करने की कोशिश की तो हमने ऐसे दिखाया कि मानो अंग्रेजी छोड़ कोई भाषा हमें समझती ही नहीं है। हम अभी-अभी आसमान से टपके हैं। You poor, tuchche people, we do not belong to your world. Understood? Bloody hell.