Monday, 21 January 2008

इस भावुकतावाद का मैं क्‍या करूं

इंदौर में पानी की तंगी से जेनुइनली ग्रस्‍त मैंने कुछ अपना और आने वाले समय का दुखड़ा ब्‍लॉग पर रोया, तो मेरे लेखकीय शगल और नीयत पर भी कुछ सवाल उठे। पानी का रोना तो रो रही हैं, पानी बचाने के लिए आपने क्‍या किया। आजे-जाते यायावरों ने टिप्‍पणी की। एक टिप्‍पणी कुछ यूं आई है। आई तो रोमन हिंदी में है, लेकिन मैं यूनीकोड में तर्जुमा यहां रख रही हूं :

माफ कीजिएगा, अगर ब्‍लॉग पर लिखने के लिए ही आप ऐसी बुनियादी समस्‍याओं तक पहुंचती हैं तो कोई बात नहीं अन्‍यथा दुनिया में शिकायतों का पुलिंदा तैयार करने वालों की कोई कमी नहीं.... आपके लेख को देखकर लगा कि आप काफी कुछ सोचती हैं और फलस्‍वरूप लिखती भी हैं... अच्‍छा है, लेकिन इस समय का क्‍या.. आप अपने को इस समस्‍या के मुताल्लिक कितना जिम्‍मेदार समझती हैं.... समस्‍या को उठाना बड़ी बात नहीं, समस्‍या को दूर करने के लिए पहल करना ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण है... माना कि ये अकेले की बात नहीं, लेकिन शुरुआत तो करनी पड़ेगी... इंदौर में ये पहल आप की क्‍यों नहीं करती हैं... आप तो तथाकथित बुद्धिजीवी लोग हैं और ऊर्जावान भी... बड़े-बड़े लोगों से आपका संपर्क भी होगा तो ऐसे मामलों में आप जानकार लोगों की मदद भी ले सकती हैं और जबकि राजेंद्र सिंह जैसे पानी के जानकार पुरोधा लोग हमारे बीच हैं... याद रखिए, आज ये समस्‍या है, कल ये महामारी बनेगी... साहित्‍यकार केवल मुद्दे उठाते नहीं, उसके लिए पहल भी करते हैं.... माफ कीजिएगा, टिप्‍पणी कड़वी जरूर है, लेकिन उतनी ही सच भी... आशा है कि आप मेरी टिप्‍पणी को अन्‍यथा न लेकर इस दिशा में कुछ पहल भी करेंगी... एक आम आदमी.

उपरोक्‍त टिप्‍पणी नि:संदेह कुछ गंभीर सवाल खड़े करती है। मैंने इस बारे में क्‍यूं लिखा। जरूर मुझे कहीं दिक्‍कत या जरूरत महसूस हुई होगी, तभी लिखा। लिखने का कीड़ा काटा हो तो लिखने के लिए विषयों की कमी तो है नहीं। फिर पानी के लिए आंसू बहाने की कुछ खास वजह।

और सोचो, तो सिर्फ पानी का अभाव ही क्‍यों, सुबह से लेकर रात तक की जिंदगी में जाने कितना कुछ ऐसा घटता है, जो आपको दुखी करता है, पस्‍त करता है। आप खीझते हैं, चिढ़ते हैं, रोते हैं, तिल-तिल मरते हैं। नल में पानी नहीं होता, तो सुबह-सुबह बिजली गायब होती है। ऑफिस के लिए निकलिए तो ऑटो वाले का मीटर पहले-पहले प्‍यार की हार्ट बीट की तरह बढ़ता है। बस वाला चार लोगों की सीट पर आठ लोगों को ऐसे ठूंसता है, जैसे बोरे में आलू भर रहा हो। सड़क पर पैदल चलिए तो पान वाले, दुकान वाले सारा काम-धाम छोड़कर आपके स्‍वागत में पलक-पांवड़े बिछाते हैं। टैंपो में मुश्किल से जगह मिले भी तो बगल की सीट पर बैठा आदमी खिसकने की गुंजाइश होने पर भी ऐसे सटकर बैठेगा कि लगता है कि बस आकर गोद में बैठ जाने भर की देर है। सड़क चलते शोहदे लड़कियों को अपने घर के दुआरे बंधी बकरी समझते हैं कि जब जी आया, जो भी बोलकर, कोहनी मारकर चलते बने।

मां बेचारी पिछले 29 सालों से पापा की गंदी बनियान धो रही हैं और पुदीने की चटनी बना रही हैं। बहन मुंबई की भागमभाग भरी जिंदगी में दो छोटे-छोटे बच्‍चों के साथ घर, नौकरी, लोकल ट्रेन की ट्रैवलिंग सबकुछ संभाल रही है और पतिदेव अपना अंडरवियर तक बाथरूम में छोड़कर आते हैं कि बीवी धोएगी, नहीं तो बाई से धुलवाएगी।

कोई किताब खरीदनी हो तो बहुत दूर जाना पड़ता है, क्‍योंकि कई करोड़ की आबादी वाले इस शहर में हिंदी किताबों की सिर्फ एक दुकान है। एक और हुआ करती थी कभी, अब वहां ऑल्‍टो और मारुति सुजुकी के पार्ट्स मिलते हैं।

कोई एक ऐसा दोस्‍त नहीं, जिसे घर और गाड़ी की ईएमआई और शेयर मार्केट में डूबते इन्‍वेस्‍टमेंट की चिंता न हो। सहेलियाँ बच्‍चों की बहती नाक और पति के कभी न भरने वाले पेट की फरमाइशों से ही त्रस्‍त रहती हैं।

कितनी तो परेशानियां हैं। और फिर सिर्फ पानी की समस्‍या ही क्‍यों, मैं इनमें से किसी भी समस्‍या को दूर करने के लिए कुछ नहीं करती। ब्‍लॉग है तो कम-से-कम ब्‍लॉग पर कुछ लिख लेती हूं। न होता तो ये भी न करती।

क्‍या करूं। भावुकता में नाक बहाकर रोऊं। हाय पानी, हाय बिजली, हाय मम्‍मी, हाय दीदी। दीदी पति से लड़ती क्‍यों नहीं। जीजाजी के सामने साफ-साफ कह क्‍यूं नहीं देती कि मैं नए जमाने की आजाद, आधुनिक औरत हूं, इस धरती पर मेरा जन्‍म तुम्‍हारा अंडरवियर धोने के लिए नहीं हुआ है। कहेगी तो क्‍या होगा। जीजाजी, अगले दिन से अपनी गलती का एहसास कर सुधर जाएंगे क्‍या। नहीं, बल्कि दीदी की जिंदगी अगर आज बकरी की लेड़ जितनी नरक है तो कल घोड़े की लीद हो जाएगी, और परसों उससे भी बदतर...

शहर में पेड़ लगाओ आंदोलन और पानी बचाओ आंदोलन में दुनिया को बदल देने के भावुकतापूर्ण भाषणों से इस देश की एक अरब जनता को स्‍वच्‍छ पानी और हवा की गारंटी हो जाएगी, अगर ऐसा मैं गलती से भी सोच पाती तो शायद ज्‍यादा सुखी रहती।

लेकिन मेरा दुख यही है कि ऐसी कोई भोली भावुकता मेरी आत्‍मा को शांति नहीं पहुंचाती। मियां यायावर, चीजें ऐसे बदलती भी नहीं हैं। ये सारा सुधारवाद फटे हुए कुर्ते में पैबंद है, जिससे फटेहाल गरीबी थोड़ी ढंकती तो मालूम होती है, लेकिन न तो ठीक से ढंकती है और न ही दूर होती है।

मुझे मेरी औकात भी पता है। अपने मन, अपने‍ विचारों की सीमा कि जितना मैं कर सकती हूं। भविष्‍य में भी ऐसे तमाम प्रश्‍नों पर सिवाय लिखने के कुछ और ठोस करूंगी, ऐसा कोई दावा नहीं है।

लेकिन मुझे यकीन है कि मैं उस नई ग्‍लोबलाइज्‍ड पीढ़ी का हिस्‍सा नहीं हूं, जो बहुत निरापद भाव से बाजार के कोरस पर डिस्‍को कर रही है, बिना किसी सवाल, बिना किसी उलझन के। मैं उस पीढ़ी का भी हिस्‍सा नहीं हूं, अखबारों के सिटी एडीशन में जिनकी दांत निपोरे फोटो छपती है, कि फलाने एडलैब्‍स और ढिकाने मॉल ने अच्‍छी चीजों को सस्‍ता और सर्वसुलभ बना दिया है। अब सबकुछ सबके लिए है।

मैं चमचमाते मॉलों के बीच कभी-कभी होने वाले पेड़ बचाओ, पानी बचाओ आंदोलन के फुस्‍स-फुस्‍स नारों का भी हिस्‍सा नहीं हूं। ये बड़े सवाल हैं और बड़े परिवर्तनों सके बदलेंगे। परिवर्तन किसी व्‍यक्ति विशेष का नहीं, समूची पीढ़ी का, समूचे युग का, समूचे राष्‍ट्रों का परिवर्तन। बाकी मैं क्‍या हूं और मुझे क्‍या करना चाहिए, तलाश अभी जारी है।

Friday, 18 January 2008

ड्रम में पानी न हुआ प्रियतम के आंसू हुए


नए साल की पहली पोस्‍ट

नए साल की ये मेरी पहली पोस्‍ट है। मेल आता है, दोस्‍त फोन करके चिल्‍लाते हैं, लिखती क्‍यूं नहीं। लिखने की फीस लोगी क्‍या। क्‍यूं नहीं लिखा, का कोई कारण नहीं है। बस सुभीता नहीं हुआ, चित्‍त रमा नहीं तो नहीं लिखा। फिर, लिखा नहीं तो क्‍या किया। कुछ खास नहीं। हाइबरनेशन में चली गई थी। अब बाहर आई हूं तो दुनिया फिर से दिख रही है, कुछ बदली-बदली....

इतने दिनों बाद एकदम से मुंह उठाकर ये पोस्‍ट इसलिए लिख रही हूं, क्‍योंकि मेरे न लिख पाने की एक वजह में मैं इसे भी शुमार करती हूं। हालांकि ये नाच न जाने अंगना टेढ वाली बात भी हो सकती है... लेकिन समस्‍या तो है, न लिखने का कारण भले न हो...

आप दिन भर ऑफिस में थककर-पककर आठ-नौ बजे घर पहुंचे और सोचें कि अब मेंहदी हसन को सुना जाए, या बर्गमैन की कोई फिल्‍म देखी जाए या गद्दे पर पसरकर अदर कलर्स के कुछ और चैप्‍टर पढ़े जाएं या कम्‍प्‍यूटर पर बैठकर तसल्‍ली से कुछ लिखा जाए, तो मैं बता दूं कि इंदौर में रहते हुए ये संभव नहीं है। दिमाग में लिखने के लिए कुछ उथल-पुथल मच रही होती है, तो घर पहुंचते ही पता चलता है कि पीने का पानी नहीं है, एक बाल्‍टी पानी बाथरूम में पड़ा हुआ है और उसी में जिंदगी बसर करनी है।

किसी दिन आपने हिम्‍मत करके सुबह की बासी दाल-रोटी न खाकर खिचड़ी बनाने की योजना बनाई हो तो नल में एक बूंद पानी न पाकर सारी योजना धरी रह जाती है और वो रात भी सूखी दाल-रोटी पर गुजर होती है।

लब्‍बोलुवाब ये है कि मिनी बॉम्‍बे कहे जाने वाले और करोड़ों के इन्‍वेस्‍टर्स मीट वाले इस शहर में, जीवन की बुनियादी जरूरत पानी की सप्‍लाई का कोई बेसिक इंफ्रास्‍ट्रक्‍चर नहीं है। पानी की किल्‍लत इंदौर में सर्वव्‍यापी समस्‍या है।

आज अखबार में न्‍यूज है कि रिलायंस मेरे घर के सामने काफी समय से खाली पड़ी जमीन पर 1000 करोड़ रु. में एक बड़ा मॉल खड़ा करने जा रहा है।

अभी भी सिर्फ इंदौर में इतने शॉपिंग मॉल हैं, जितने पूरे बंबई में भी नहीं होंगे। मैं जहां रहती हूं, वो इस शहर का सो कॉल्‍ड पॉश इलाका है। घर के सामने ताज और शहर का सबसे मंहगा होटल है। ये बिल्‍कुल वैसा ही है, जैसे मुंबई में आप ताजमहल या ओबेरॉय शेरटन के सामने रहते हों। घर से पांच मिनट की दूरी पर अनिल अंबानी का एडलैब्‍स खड़ा है, चमचमाता हुआ, जहां वीकेंड में सज-संवरकर पति की बांह थामे और बच्‍चों की नाक पोंछती औरतें अपना जीवन सफल करने आती हैं। नए जोड़े एलीवेटर के सामने खड़े होकर फोटो खिंचवाते हैं और मैकडोनल्‍ड्स में बरगर खाते हैं। पांच मिनट और चलें तो दो और शॉपिंग मॉल हैं और दो नए बन रहे हैं। थिस्‍को थेक हैं, पब हैं, मैकडोनल्‍ड्स है, पिज्‍जा हट है, जूते से लेकर परफ्यूम और ज्‍वेलरी तक के ब्रांड हैं, लेकिन पीने का पानी नहीं है।

आप लेवी की जींस और प्‍लैटिनम की एसेसरीज पहनकर, बिग बाजार से 3,000 की शॉपिंग करके घर पहुंचिए तो पता चलेगा कि सिंक में पड़ी प्‍लेट धोने के लिए नल में पानी ही नहीं है। बाल्‍टी से मग-मग पानी लेकर डेढ़ मिनट में धुलने वाली प्‍लेट को साढ़े छ: मिनट तक धोओ। ड्रम में संजोया हुआ पानी, मानो पानी न हुआ प्रियतम के आंसू है। खर्च करने में भी डर लगे। बदलते वक्‍त के साथ गीतों के उपमान बदलेंगे, तो कुछ इस किस्‍म के गीत लिखे जा सकते हैं -

तेरे आंसू हैं सजनी
ड्रम में भरा हुआ पानी, इन्‍हें यूं न बहाना.....

किसी को मेरी बात मजाक लग सकती है, लेकिन ये सच है कि पूरे इंदौर शहर में भरपूर मात्रा में और सुविधाजनक पानी की सप्‍लाई का कोई बुनियादी इंफ्रास्‍ट्रक्‍चर अब तक नहीं बन पाया है और न ही लोगों को इस बात की कोई फिक्र है। लोग मॉल में घूमकर और पिज्‍जा खाकर मगन हैं। पानी की किसी को पड़ी नहीं है।

यहां पानी का एकमात्र स्रोत नर्मदा नदी है, जिसका पानी भी एक-एक दिन छोड़कर आता है और गर्मियों में उसके भी लाले पड़े रहते हैं। इंडिविजुअल बोरिंग के चलते शहर भर में इतने बोरिंग हो गए हैं कि जमीन के अंदर भी पानी के लिए हाय-हाय मची है।

मेरी उम्र के तमाम लोग इस देश के और अपने जीवन के विकास को लेकर काफी उत्‍साहित हैं। शॉपिंग मॉल के नाम से लड़कियों को गुदगुदी होने लगती है, लड़के जोश में भदभदाकर गिरते रहते हैं। आगे बढ़ने के रास्‍ते इतने रौशन कभी न थे, स्‍लोगन पर मगन होकर थिरकते हैं, लेकिन पानी कहां से आएगा, ये कोई नहीं सोचता।

अभी नैनो को लेकर एक बार फिर लोगों का जोश उछाल मार रहा है। अच्‍छी बात है, लोग गाड़ी चढ़ें, जन्‍म सफल करें, लेकिन इस विकास के पैरलल एक जो दूसरी तस्‍वीर बन रही है, और जो आने वाले 10-15 सालों में अपने सबसे भयावह रूप में हमारे सामने होगी, कूदा-कादी मचाए लोगों को उसकी कुछ पड़ी नहीं है। वाहनों की संख्‍या जिस तेजी के साथ बढ़ रही है, अगर आप कहें कि आने वाले 15-20 सालों में इस देश में इतनी गाडि़यां होंगी कि उन्‍हें चलाने के लिए सड़क भी नहीं होगी, तो लोग आपको जनविरोधी मान लेंगे। जबकि नैनो न भी आई होती, तो भी कुछ सालों में ये नौबत तो आनी ही है।

और ये इसलिए आनी है क्‍योंकि इस देश में हो रहे विकास में कोई संतुलन नहीं है। विकास की ओर बढ़ते कदम दरअसल कहां लेकर जा रहे हैं, ये हमारी चिंता का विषय नहीं है। मैकडोनल्‍ड्स के बरगर खाकर लोग सुखी हैं। रैवलॉन की लिप्‍सटिक लगाने और ग्‍लोबस की सैंडिल पहनने के बाद भी जीवन के बारे में कुछ सोचने को रह जाता है क्‍या। नैनो में चढ़ने के बाद कुछ और मगज में सोचने को बचेगा, मुझे डाउट है।