Monday, 9 November 2009

सींखची गुलाब और विलायती चांद की मनमोहक तस्‍वीरें





आ बैल मुझे मार

लिखने के नाम पर आखिरी पोस्‍ट मैंने 3 तारीख को लिखी थी। उसके बाद घर और ऑफिस के बीच दौड़ लगाती थोड़ी मोहलत का इंतजार कर रही थी कि कब मौका मिले और मैं इलाहाबाद की रंग-रौशनी पर थोड़ी और नजरें घुमाऊं। लेकिन मोहलत कहां है। इतने दिन हुए, दोस्‍तों ने टोकना भी शुरू कर दिया। अरे इलाहाबाद स्‍टेशन पर उस चार साल के छोकरे को ऐसी इमबैरेसिंग पोजीशन में बिठाकर आप कहां खिसक लीं। बेचारा बच्‍चा बैठे-बैठे थक न गया होगा। वो हगकर चुका हो तो मोहतरमा किस्‍से को आगे बढ़ाइए। मैं भी बच्‍चे के दुख से कातर बस कलम उठाने ही वाली थी कि दो मुसीबतें मेरे घर पर आ धमकीं। रविवार की छुट्टी मैंने सोचा था, इसी कलमघसीटी के नाम होगी लेकिन जैसाकि जिंदगी में कितना कुछ होना बचा ही रह जाता है, सो यह भी बचा ही रह गया। बच्‍चे को थोड़ी देर और उसी गफलत में छोड़कर मैं रविवार को धमकीं इन दो मुसीबतों के किस्‍सा सुनाती हूं।
तो हुआ यूं साढ़े बारह किलो वजन और चांद पर साढ़े तेरस बाल वाले दो महान ब्‍लॉगर मेरे घर आए। उनमें से एक दिल्‍ली से पधारे थे। अब किसी को क्‍या दोष देना। मैंने खुद ही आ बैल मुझे मार किया था। एक दिन पहले भोपाली ब्‍लॉगर के घर खुद ही खुल्‍लमखुल्‍ला दावत का न्‍यौता देकर आई थी। तो मेरा दोस्‍त, ऑफिस में तथाकथित दूर के फूफा की तरह दूर का बॉस और वैतागवाड़ी पर सवार और दूसरा शब्‍दों की मोहब्‍बत में गिरफ्तार गीत और अनुराग आ धमके।
दोनों जैसे पहले से ही तय करके आए थे कि जी हलकान करके ही जाएंगे। दोनों ने आते ही मेरी किताबों पर हमला बोल दिया। ले दनादन किताबें निकाली और चुनी जानें लगीं कि कौन-कौन सी कहां कहां से फरार करनी हैं। कुछ चुरानी हैं, कुछ पूरी गुंडागर्दी से ऐंठ लेनी हैं और तो कुछ को इस वायदे पर ले जाना है कि पढ़कर लौटा देंगे। अब कौन लौटाता है। मुझे पता होता कि ये दोनों इतने बड़े किताब दाब हैं तो मैं पहले ही हा‍थ जोड़ लेती, कहती, दादा, तुम दोनों तो क्‍या पूरे परिवार का खाना बनाकर घर पहुंचा दूंगी, लेकिन मेरे घर की ओर नजर उठाकर भी देखना।
मैं रसोई में खाना बनाने में अपना जीवन गर्क कर रही थी और दोनों पानी और चाय और कॉफी की फरमाइशों के साथ किताबें उड़ाने में मशगूल थे। तभी अनुराग किचन में आया और पूछा, “आपको हार्डबाउंड पसंद है या पेपरबैक।”
मैंने संभावित खतरे को पहले ही सूंघ लिया और तपाक से बोली, “दोनों।”
15 मिनट इसी पर कटबहसी हुई।
बात यूं थी कि इस्‍मत चुगताई की आत्‍मकथा कागजी है पैरहन की दो प्रतियों पर अनुराग की नजर पड़ गई थी। एक हार्डबाउंड और एक पेपरबै‍क। बस उसी में एक को वो हथिया लेना चाहता था। मैं अपनी किताब की रक्षा में तुरंत हरकत में आ गई।
“अरे वो दूसरी मेरी नहीं किसी और की है।“”
“किसकी?”
मैंने आव देखा न ताव। एक नाम उछाल दिया, मेरे हिसाब से जिससे सब खौफ खाते हैं।
“किताब प्रमोद की है।”
मुझे यकीन था उनका नाम सुनते ही दोनों सनाका खाकर चुप बैठ जाएंगे। वैसे भी प्रमोद से मुंहजोरी करने का जोर किसी में भी नहीं है। उनकी किताब मारने की बात सपने में भी नहीं सोच सकते, भले वो आपकी पूरी लाइब्रेरी ढांपकर बैठ जाएं।
लेकिन तीर उल्‍टा पड़ा। गीत बोला, “अरे उनकी। तब तो तुम रख लो अनुराग।”
प्रमोद कुछ नहीं कहेंगे। वैसे भी इस्‍मत का नाम सुनते ही कसाइन सा मुंह बनाएंगे और दो-चार ओज, पामुक और मुराकामियों का नाम लेकर आपकी दिमागी नाकामियों पर लंबा भाषण सुनाएंगे। ससुर, मनीषा तुम्‍हारा कभी वास्‍तविक बौद्धिक संस्‍कार नहीं बनेगा। इस्‍मत और अपनी किस्‍मत को छाती से सटाए फुदकती रहोगी।”
गीत तो सचमुच उन्‍हें फोन करने पर उतारू था। मैंने किसी तरह दोनों के मोबाइल अपने कब्‍जे में लिए और किताब के ऊपर चढ़कर बैठ गई। “खबरदार जो अब किसी किताब को हाथ लगाया। खाना खाओ और खिसको।”
लेकिन वो मुंहजोर कहां मानने वाले थे।
इतनी मेहनत से तमाम व्‍यंजन पकाए, लेकिन तारीफ के दो बोल बोलते दोनो का मुंह कटता था। गीत ने थोड़ी तारीफ की, लेकिन खाना खत्‍म होते ही बोला, वो तो मैंने इसलिए कहा था कि कहीं परोसी हुई थाली ही मुंह के सामने से न खिसका ली जाए। अनुराग ने थोड़ी शराफत दिखाई और जाते-जाते तारीफ के चंद बोल कहे।
लड़ते-झगड़ते, बतियाते, हंसी-ठट्टा करते काफी वक्‍त गुजर गया। मैंने सारी निकली हुई किताबें वापस आलमारी में सजाईं और चैन की सांस ली। लेकिन जाते-जाते मारग्रेट एटवुड की एक किताब अनुराग उड़ा ही ले गया, इस वायदे पर कि पढ़ने ले जा रहा है। दिल्‍ली जाऊंगी तो याद से पहले अपनी किताब वापस लूंगी।
गिरते-पड़ते फोटो खींचने की भी नौबत आ गई। मैंने सींकची और आसमानी चांद की बेहतरीन तस्‍वीरें खींचीं। अनुराग लाल, काली, हरी जैकेट में ऐसे फोटो खिंचाने लगा कि देखने वाले को लगे कि सूटकेस भर कपड़ा साथ लेकर आया था, चेंज कर-करके फोटो खिंचाने के लिए।
फिर जब गीत मेरी फोटो खींचने को उठा तो मैंने साफ साफ कह दिया कि बासठ किलो की देह को फोटो में बयालीस न दिखा सको, तो कैमरा वापस रख दो। मेरी इज्‍जत का पलीदा करने की जरूरत नहीं, लेकिन वो कहां मानने वाला है। गीत ने कैमरे के कान में ऐसा मंतर फूंका कि वो बासठ के वजन को बहत्‍तर बताते हुए दनादन फोटो खींचने लगा। मेरी सारी सुंदरता मिट्टी में मिल गई। अब गीत दोबारा मेरी फोटो खींचकर देखे। बताती हूं मैं उसे।
तो इस तरह मरते-मराते मैं ये पोस्‍ट लिखने लायक बची रह गई।
एक जरूरी बात तो रह ही गई। अनुराग चाहे जितनी जैकेट बदले और किताब ढांपे, बेचारा है अच्‍छा। दिल्‍ली से मेरे लिए ढोकर बर्गमैन की झोला भर फिल्‍में ले आया था। उस कमरे में किताबों को लेकर जूतमपैजार हो रही थी, दूसरे कमरे में बर्गमैन की फिल्‍मों की पायरेसी चल रही थी।

कुल मिलाकर अच्‍छा वक्‍त गुजरा। ऐसे बुरे वक्‍त रोज रोज आया करें और खुशियों की गुनगुनी महक छोड़ जाया करें। बैल ऐसे हों तो मैं बार बार, आ बैल मुझे मार करूं।

फिलहाल और तस्‍वीरें अपलोड नहीं हो पा रही हैं। अगली पोस्‍ट में अलग से तस्‍वीरें भी लगा दूंगी। भारी लोगों की भारी तस्‍वीरें। इतनी आसानी से चिपक जाएंगी क्‍या। फिलहाल फोटो अपनी कल्‍पना में देखिए और वर्णन मेरे ब्‍लॉग पर।

Friday, 6 November 2009

कितना कुछ होना बचा रह जाता है

इससे पहले कि मुझे घर और दफ्तर की मारामारी के बीच कुछ कलमघसीटी की फुरसत मिले, ये कविता गौर फरमाएं।









जीवन में कितना कुछ होना
बचा रह जाता है

अभी तो कहना था कितना कुछ
कितना तो सुनना था
एक नदी थी
जिसके उस पार जाना था
पहाड़ी पर फिसलना था एक बार
सुदूर जंगल के एकांत में
जोर से पुकारना था तुम्‍हारा नाम
तुम्‍हारी गर्दन में अपनी बाहें फंसाए
तुम्‍हारी पीठ पर लटक जाना था
अचानक कहीं पीछे से आकर
तुम्‍हारी आंखों को मूंद देना था
अपनी उंगलियों से
रात के बीहड़ अंधेरों में चुपचाप
चट्टान पर समंदर की लहरों को टूटते देखना था
बस में मेरे बगल वाली सीट पर बैठे
मेरी खुली बांहों का झीना सा स्‍पर्श
और देह से उठती नमकीन महक का एहसास
जीना था तुम्‍हें
नेरुदा और मारीया को पढ़ना था साथ-साथ
फेलिनी की दुनिया में चुपके से उतरना था
पैडर रोड के शोरगुल के बीच
एक दूसरे की हथेली थामे
बस यूं ही गुजर जाना था एक दिन
कुछ कहना नहीं था
बस एक दूसरे को नजर उठाकर
देख भर लेना था
मेरे तलवों को तुम्‍हें
अपने होंठों से छुना था
उठा लेनी थी मेरी देह
अपने हाथों में
एक बार डूबकर चूम लेना था
तिर आना था एक बार
देह में बसी संपूर्ण पृथ्‍वी से
घुल जाना था तुममें एक दिन ऐसे
जैसे नमक पानी में
अपने भीगे बालों के छीटों से
भिगोनी थी तुम्‍हारी अधखुली किताब
इस तरह अंधेरे जंगल में टांकने थे
प्रेम और सुख के सितारे
स्‍मृतियों के मीठे कण
प्‍यार की नदी में तैरना था
जिस मोड़ से अलग होती थीं हमारी राहें
उससे पहले
ठहरना था एक पल को
पूछना था तुम्‍हारे घर का पता
जिस ठिकाने कभी पहुंचे कोई खत
जाते हुए देर तक
विदा में हिलाना था अपना हाथ
लेकिन देखो
इस रफ्तार से गुजरा सब
कि ऐसा कुछ न हुआ
जीवन में कितना कुछ होना
बचा रह गया।


Monday, 2 November 2009

कितना जानता है एक शहर हमें और हम शहर को – 2

जिदंगी और अनुभवों की दुनिया में एक लंबा अरसा गुजार लेने के बाद अपने उस शहर को देखना, जिसने आपका बुनियादी संस्‍कार और मानस गढ़ा हो, जिसने दिमाग और हिम्‍मत के शुरुआती तेवर से लेकर बिजबिजाती हुई भावुकता तक से नवाजा हो, उस शहर को हम किस निगाह से देखेंगे? शहर को देखने की दोनों निगाहें हो सकती हैं। ब्‍लॉगर मीट में मैंने कहा, यह शहर बिलकुल नहीं बदला। बोधि ने तुरंत प्रतिवाद किया। बोले, यह शहर बहुत बदल गया है। क्‍या सही है और क्‍या गलत? दोनों ही नजरें सही हैं शायद। स्‍टेशन से बाहर निकलकर घर जाने के लिए ऑटो पकड़ा तो सिविल लाइंस की जिन सड़कों से होकर गुजरी, उनकी शक्‍ल मेरे बचपन की शक्‍ल से मामूली सा ही मेल खाती थी। शायद यही आधुनिक विकास की एकरूपता है। अब शायद हर शहर का एक पॉश इलाका ऐसा है, जो तेजी से उन्‍नत रहे सभी शहरों में कमोबेश एक जैसा है। बिलकुल वैसा ही मैकडोनल्‍डस, जैसा मुंबई में है या इंदौर में या किसी और शहर में। वैसी ही पारदर्शी कांच वाली चमचमाती हुई दुकानें, मॉल, डिपार्टमेंटल स्‍टोर, नए-नए रेस्‍टोरेंट, रिलायंस फ्रेश, शहर की हर सड़क, गली दीवारों पर पटे हुए टाटा, वोडाफोन, रिलायंस, मूड्स कंडोम और दुनिया को बदल देने वाले आइडियाज के विज्ञापन। वही चमकती शक्‍लें। ये मेरे पहचाने हुए शहर की शक्‍ल नहीं है। तो इस शहर की थकी हुई स्थिरता से बेचैन न होने के लिए यह बदली हुई रौशनीदार रंगत क्‍या काफी नहीं है? सच ही तो कहा था, शहर बहुत बदल गया है।

लेकिन उसी सिविल लाइंस में आज भी भैंस बीच सड़क में खड़ी होकर टै्फिक रोक देती है और लोग रोज-रोज भैंसों की आवाजाही का कोई स्‍थाई हल ढूंढने के बजाय भैंस को बीच सड़क में आराम फरमाता छोड़ शॉर्टकट निकालते हैं और साइड से निकल लेते हैं। टै्फिक की दिशा ही मुड़ जाती है और अब वह बीच सड़क के बजाय साइड से निकलने लगती है। कंडोम के सार्वजनिक विज्ञापनों ने भैंसों की विचार प्रक्रिया पर कोई प्रभाव नहीं डाला है। शहर वालों की प्रक्रिया पर डाला हो तो पता नहीं।

आज भी वहां इंसान द्वारा खींचा जाने वाला साइकिल रिक्‍शा चलता है। लोग वैसे ही हैं। बड़ी फुरसत में बैठे होते हैं और आने-जाने वाली हर लड़की को तब तक घूरते रहते हैं जब तक वो आंखों से ओझल न हो जाए। चलते हुए कोहनी मार जाते हैं। गाड़ी से हों तो आगे निकल चुकने के बाद भी पलट-पलटकर देखते रहते हैं। पार्किंग में खड़ी स्‍कूटर पर बड़े सुभीते से पान खाकर थूकते हुए आगे बढ़ जाते हैं। सफेद स्‍कूटर पर लाल पीक की सजावट शोभायमान होती है।

एक दिन मैं टैंपो से सिविल लाइंस से गोविंदपुर जा रही थी। दिन का समय था। शिवकुटी के पास टैंपो रुकी। उलझे बालों और कोहड़े जैसी भारी नाक वाला एक आदमी उतरा। इसलिए नहीं कि उसे वहां उतर जाना था। उतर तो दूसरे यात्री रहे थे। मिस्‍टर कोहड़ा उतरे, सामने एक दुकान थी, जिसका शटर बंद था। उसने दुकान की तरफ मुंह किया और पैंट खोलकर वहीं टैंपो, आती-जाती सड़क और टैंपो के अंदर बैठी दो लड़कियों के सामने प्रकृति की पुकार पर मैं आया, मैं आया करते हुए लघु शंकाओं से निपटने लगा। सब नजारा देख रहे थे। टैंपो वाला भी मजे से इंजन घर्र-घर्र करते हुए कोहड़ा महाशय के निपटने और लौटने का इंतजार कर रहा था। मजे की बात ये कि उसके बाद मुश्किल से सौ कदम की दूरी पर कोहड़ा ने टैंपो रुकवाया और उतरकर वहीं सड़क पर ही बने हुए एक मकान का गेट खोलकर अंदर चले गए। कमाल है। ये दो मिनट इंतजार नहीं कर सकते थे? हगने-मूतने के लिए सड़क है और गोभी का पराठा चाभने के लिए घर।

कोई तर्क दे सकता है कि हो सकता है बहुत जोर से आ रही हो। हो सकता है मिस्‍टर कोहड़ा को लगा हो कि अभी ही नहीं उबरे तो शायद कभी न उबर पाएं। लेकिन ये तर्क देने वालों को अपने ही तर्क पर शर्म आ सकती है, जब वो देखेंगे कि इस शहर में कितने सारे लोगों को अचानक बहुत जोर से आती रहती है। शहर में इधर-उधर लघुशंकाओं से निपटने के नजारे प्राय: देखे जा सकते हैं। इतना ही नहीं, अपने ही मु‍हल्‍ले में आपको ऐसे नजारे भी दिख सकते हैं कि कोई आदमी अपने घर से बाहर निकले, मोहल्‍ले की सड़क पार करे और फिर वहीं नाली में पद्मासन की मुद्रा में समस्‍त शंकाएं निपटाकर घर में वापस घुस जाए। रसूलाबाद में एक आदमी तब मुझे अकसर ऐसा करता दिखता था, जब मैं छठी कक्षा में पढ़ती थी। उसका घर सामने था, लेकिन मूतने के लिए उसे खुले आसमान और आते-जाते लोगों चेहरों की दरकार होती थी। फाफामऊ में एक बार एक लड़का घर से निकला, मुश्किल से पचास कदम गया और एक की पॉइंट पर जाकर, जहां से भीड़ गुजर रही थी, सड़क पर खड़ा होकर पेशाब करने लगा। तब मैं छोटी थी। आज जिस पर मैं इतने शब्‍द खर्च कर रही हूं, बचपन में यह छवियां मेरे मानस में वैसे ही थीं, जैसे झाडू लगाती मम्‍मी, सड़क पर टहलते कुत्‍ते और गाय। बिलकुल सामान्‍य। इसे देखकर मुझे कुछ विचित्र नहीं लगता था क्‍योंकि बचपन से मैं ऐसे मनोहारी नजारों को देखते हुए ही बड़ी हुई थी।

तो मैं कह रही थी कि पूरा शहर सार्वजनिक मूत्रालय बना हुआ है। गनीमत है शौचालय अभी तक नहीं बना। शौचालय का सबसे सुंदर, मन को मोह लेने वाला नजारा इलाहाबाद स्‍टेशन पर प्‍लेटफॉर्म नंबर एक से भीतर घुसते ही दिखाई देता है, जहां सामने पटरियों पर, इधर-उधर, चहुंओर जहां तक आपकी नजरें जाएं, टट्टी ही टट्टी नजर आए। उसी में अपना भी थोड़ा योगदान के लिए लाल साड़ी वाली एक भारी-भरकम औरत खुद प्‍लेटफॉर्म पर घुटने मोड़े हाजत की मुद्रा में बैठी, अपने चार साल के लड़के को हाथ से थामे, उसकी पीठ पटरियों वाले हिस्‍से की ओर करके उसे हगा रही होती है। कर ले बचवा, अरे न गिरबे, हम पकड़े हई, अरी गोपाल, ई बोतलवा में तनि पानी भर लाव हो…”


Sunday, 1 November 2009

कितना जानता है एक शहर हमें और हम शहर को

इस बार कुछ चार बरस बाद मेरा इलाहाबाद जाना हुआ। इलाहाबाद – वह शहर जहां मैं पैदा हुई, जहां मैंने जिंदगी के बीस बरस गुजारे। वह शहर, जहां से मेरे सुख-दुख की, हंसी और विषाद की, निजी और सामाजिक करुणा और अपमान की और पहले प्‍यार की सादगी और बेचारगियों की ढेरों स्‍मृतियां गुंथी हुई हैं। नौ साल हुए, इलाहाबाद से रोजमर्रा का वह नाता टूट गया। इधर-उधर भटकती, अपनी पहचान और जमीन तलाशती जिंदगी में फुरसत नहीं थी अपने शहर तक लौटकर जाने की। लेकिन कई बार अवसाद और अकेलेपन के बेहद निजी क्षणों में मैंने बहुत भावना से भरकर अपने शहर को याद किया था। पर इस बार बचपन की जानी-पहचानी गलियों को देखना, उनसे गुजरना बड़ा विचित्र अनुभव था। किसी भावुक आवेग और उछाल से भर देने वाला नहीं, अपने अकेलेपन में और ज्‍यादा धंसा देने वाला। अवसाद को और-और गाढ़ा करके मन की भीतरी पर्तों में जमा देने वाला।

भीड़ के बीच भी अकेलेपन के इतने बिखरे और सघन तार हैं कि बांधते भी हैं और नहीं भी बांधते। जितना ज्‍यादा बांधते हैं, उतना ही मन अकेला होता जाता है। शहर ने दौड़कर मुझे गले से नहीं लगाया। मैं भी शहर की बाहों में लिपट जाने को बेताब नहीं थी। शहर और मैं अपरिचितों की तरह एक-दूसरे से मिले, नि:संगता से हाथ मिलाया और फिर मैंने कहा, अब मुझे चलना होगा। शहर को भी पड़ी नहीं थी कि मेरा हाथ पकड़कर रोक लेता।

मैं जितनी जल्‍दी हो सके, उस शहर से भाग जाना चाहती थी। जितनी जल्‍दी हो सका, मैं उस शहर से भाग आई। जिस शहर में अब मैं शहर रहती हूं या जिन भी शहरों में अपना शहर छोड़ने के बाद मैं रही, ऐसा नहीं कि वे शहर सुख और स्‍वाधीनता का स्‍वप्‍नलोक थे। सुख और स्‍वाधीनता जैसा शब्‍द भी कीचड़ में लिथड़ी किसी गाली जैसा है। कैसा सुख और कैसी स्‍वाधीनता? इस मुल्‍क या कि संसार के किसी भी मुल्‍क में होगी क्‍या? पता नहीं। लेकिन इलाहाबाद मुझे दुखी और उदास करता है। एक ठहरा, रुका हुआ सा शहर, जिसने कुछ किलोमीटर के दायरे में लंबी-लंबी फसीलें खड़ी कर ली हैं और मानता है कि यही संसार है। उसकी स्‍मृतियों और स्‍वप्‍नों का आकाश नए पैदा हुए बछड़े की दौड़ जितना है। जहां आकर गंगा भी स्थिर हो जाती है। जिस शहर को हिंदी संसार और मेरी पहचानी हुई दुनिया के साथी बहुत बार इतनी मोहब्‍बत और बिछोह की पीड़ा से याद करते रहे हैं, वह शहर मुझे तकलीफ के ऐसे अंधेरे कोनों में लेकर जाता है कि लगता है शहर को लात मारकर भाग जाऊं। क्‍या शहर हमेशा से इतना अकेला और उदास था? क्‍या वहां कभी कुछ भी सुंदर नहीं था? या अकेली और उदास थी मैं? पता नहीं। लेकिन कुछ तो था, जो रह-रहकर बेचैन करता था।

सचमुच प्‍यार को दिल में छिपा लेना आसान नहीं है


प्रमोद और स्‍वप्‍नदर्शी जी की बात को आगे बढ़ाते हुए


मेरी पिछली पोस्‍ट छिपा लो यूं दिल में प्यार मेरा‍ पर प्रमोद और स्‍वप्‍नदर्शी जी ने जो कहा, उस बात को समझते और पूरा-पूरा स्‍वीकार करते हुए मैं अपनी बात को थोड़ा आगे बढ़ा रही हूं। यह उनकी और मेरी बातों का खंडन नहीं, विस्‍तार है। उस लेख में 12 साल पुरानी एक घटना को याद करते हुए शायद मैं सिर्फ अपने आप से ही संवाद कर रही थी। सच के और भी जटिल कोण हैं, उस पर निगाह डालने से चूक गई। अच्‍छा किया प्रमोद और स्‍वप्‍नदर्शी जी ने ये बात कही, वरना शायद मैं भी समझ नहीं पाती कि सिक्‍के के दूसरे पहलू को अनदेखा कर मेरी बात भी उसी पाले में जा गिरती, जहां से बाहर निकलने के लिए मैं हाथ मार रही थी।

प्रमोद ने कहा, आपसी समर्पण के समन्‍वयन को भी ऊंचाई तभी मिलेगी, ऐसा मुझे लगता है, जब समर्पित होनेवाले में स्‍वयं की सशक्‍त पहचान हो, स्‍वयं की पहचान के रेशे खुद जब बहुत सुलझे न हों, तो वहां समर्पण और कुछ नहीं शुद्ध ग़ुलामी होगी

- मेरे पड़ोस में एक सुखी-सुखी नजर आने वाला एक जोड़ा रहता है। औरत चकरघिन्‍नी सी पति और बच्‍चों के चारों ओर घूमती रहती है। बड़ी समर्पित नजर आती है और खुश भी। लेकिन क्‍या सच सिर्फ इतना ही है ?

- मेरी मां ने पिछले 30 सालों से पति और दो बेटियों के बाहर कोई संसार नहीं देखा। हमेशा हमारे ही इर्द-गिर्द घूमती रहीं। लगता है बड़ी समर्पित हैं, दुनिया को ही नहीं, मां को खुद भी लगता है कि वो समर्पित हैं। लेकिन मैं जानती हूं और शायद अपने दिल के किसी बेहद निजी कोने में वह भी कि अगर मां के पास बाहरी दुनिया की रोशनी को उन तक पहुंचाने का कोई एक छेद भी होता तो यह समर्पण कितना टिका रहता।

- फिजिक्‍स की लेक्‍चरर मेरी एक बहन को पूरे खानदान में त्‍याग और चरणों में समर्पण की मिसाल माना जाता है। लेकिन उसके दिल के अंधेरे कोने में मैं घुसी हूं कई बार, जहां वह दुखी और अकेली है, लेकिन बाहरी दुनिया के सामने अपनी समर्पिता वाली इमेज को बचाए रखने के लिए वह अपने प्राण भी दे सकती है।

प्रेम में अपने अस्तित्‍व को बिलाकर समर्पित हो जाने की बात एक दार्शनिक अवधारणा है। यह विचार जीवन पर लागू हो, औरत और मर्द दोनों उसे अपनी जिंदगियों में उतार सकें, इसके लिए हमारे गरीब, दुखी, चोट खाए मुल्‍क को पता नहीं कितने सैकड़ा वर्ष का सफर तय करना होगा। मेरे आसपास सचमुच ऐसा कोई रिश्‍ता नहीं है, जिसमें ऐसा समर्पण नजर आता हो। जो इस समर्पण गीत से अभिभूत हैं, खुद उनकी जिंदगियों में भी यह नहीं है। मेरी जिंदगी में भी नहीं है। मैं किसी निजी प्रेम गीत में नहाई हुई यह बात नहीं कह रही हूं। मैं कल को किसी संबंध में जाऊं तो कौन जानता है और मैं खुद भी नहीं जानती कि उसके पीछे कितनी सारी सामाजिक, भावनात्‍मक असुरक्षाएं, मन, देह से लेकर आर्थिक जरूरतों तक के कितने तुच्‍छ और उदात्‍त समीकरण होंगे। ऐसे में ऐसा अमूल्‍य समर्पिता भाव कहीं आसमान से तो नहीं टपक सकता। सीधी सी बात है कि जिस समाज में अभाव और असुरक्षा की जड़ें इतनी गहरी हों, लगभग सभी रिश्‍तों के पीछे बहुत घटिया नहीं तो भी एक किस्‍म का जीवन को थोड़ी सुरक्षा, थोड़ा सुभीता मिल जाए, वाला कैलकुलेशन सक्रिय हो, वहां ऐसे उदात्‍त रिश्‍ते संभव नहीं हैं।

स्‍वप्‍नदर्शी ने कहा कि Is it so simple. मैं दुख और निराशा से भरकर कहती हूं, नहीं बिलकुल नहीं। कम से कम मेरे समय में तो यह असंभव की हद तक मुश्किल है।

जिस समाज का लात खाते रहने का लंबा औपनिवेशिक इतिहास न हो या जो कम से कम चेतना और कर्म के स्‍तर पर अभाव और गुलामी के उस मानस से बाहर आया हो, जहां कम से कम इतना तो हो लोगों का सामान्‍य स्‍वस्‍थ मनोविज्ञान बन सके, उनका थोड़ा स्‍वस्‍थ विकास हो सके, जहां इतनी गरीबी न हो कि एक अदद नौकरी और इकोनॉमिक सिक्‍योरिटी जिंदगी के सबसे बड़े सवाल हों क्‍योंकि आपका देश इस बात की कोई गारंटी ही नहीं करता कि आपको अच्‍छा, सम्‍मानजनक काम मिलेगा ही, अच्‍छी शिक्षा मिलेगी ही, आप बीमारी से इसलिए नहीं मरेंगे कि आपके पास पैसे नहीं या डॉक्‍टर को आपके इलाज से ज्‍यादा इस बात की चिंता हो कि वह मारुति बेच हॉन्‍डा सिटी कैसे खरीदे या अपने बच्‍चे को लॉस एंजिलिस कैसे भेजे। तो एक ऐसे समाज में जहां बड़ी मामूली इंसानी इज्‍जत भी मुहैया न हो, जहां हम सिर्फ इस संघर्ष में ही पूरी जिंदगी निकाल दें कि प्‍लीज, हमें कुत्‍ता नहीं, आदमी समझो तो ऐसे समाज में कुछ उदात्‍त समर्पित प्रेम और बहुत ऊंचा मानवीय धरातल कैसे संभव होगा?

लेकिन इन सबके बावजूद जो मैं कहना चाह रही थी और जो अब भी कह रही हूं, वह बस ये एक अन्‍याय और क्रूरता के प्रतिकार में हम कुछ कोमल, सुंदर विचारों का भी प्रतिकार कर देते हैं। मेरा समय इस बात की इजाजत नहीं देता कि ऐसा उदात्‍त समर्पण मुमकिन हो, लेकिन मुझे यह विश्‍वास करना चाहिए कि ऐसा होता है और ऐसा होगा। अगर बेहतर दुनिया की बातें मुगालता नहीं हैं तो यह प्रेम भी मुगालता नहीं है। औरताना बताए जाने वाले गुण सड़े हुए नहीं हैं। आप ये पॉलि‍टिकल स्‍टैंड ले सकते हैं कि उन गुणों को अपनी जिंदगी में उतार लेने को एक खास देश-काल में मुल्‍तवी कर दें लेकिन गुणों को ही सुपुर्द-ए-डस्‍टबिन न करें।

इस थोड़ा और साफ करने के लिए सिमोन बोवुआर ने एक जर्मन पत्रकार से एक इंटरव्‍यू के दौरान जो कहा था, वो यहां कोट कर रही हूं

औरतों में प्रतिद्वंद्विता और एक दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति नहीं होती है। सहनशीलता और धैर्य, जो एक सीमा तक तो खूबी होते हैं, लेकिन उसके बाद कमजोरी में तब्दील हो जाते हैं, भी औरतों का एक खास गुण है। औरतों में अपनी विडंबनाओं की समझ भी होती है, एक खास किस् की सरलता और सीधापन। ये स्त्रियोचित गुण हमारे लैंगिक अनुकूलन और उत्पीड़न की उपज हैं, लेकिन यह गुण अपने आप में बुरे नहीं हैं। ये हमारी मुक्ति के बाद भी बरकरार रहने चाहिए और पुरुषों को ये गुण अर्जित करने के प्रयास करने होंगे।



Wednesday, 28 October 2009

छिपा लो यूं दिल में प्‍यार मेरा

क्‍या हम जीवन में कुछ भी सहज और स्‍वाभाविक होते हैं? सबकुछ ओढ़ा-बिछाया सा न हो। बिलकुल सहज, जैसे बारिश की बूंदें, जैसे फूलों का खिलना, जैसे उत्‍तरी से दक्षिणी ध्रुव तक हर दौर और हर सभ्‍यता में एक खास उम्र में आकर हर लड़की और लड़के के मन में प्रेम का उपजना, जैसे सहज रूप से बिल्‍ली का आकर दूध चट कर जाना। हम गरीब, पिछड़े, सामंती मुल्‍क के बनाए नियमों को नहीं मानते। यह स्‍वत: नहीं हो जाता, ऐसा करने के लिए हम अपने आपसे और अपने आसपास की दुनिया से लगातार एक युद्ध लड़ते होते हैं और अगर आदमी सचेत न हो तो वह निरंतर संघर्ष हमें इतना विरूप कर देता है कि न लकीर के उस पार और न इस पार ही हम एक सहज मनुष्‍य रह जाते हैं।

आज से तकरीबन 12 साल पहले एक बार इलाहाबाद में गंगा के तट पर एक दोस्‍त के साथ बैठे हुए अचानक ही मेरे मुंह से यह गाना फूट पड़ा - छिपा लो यूं दिल में प्‍यार मेरा कि जैसे मंदिर में लौ दिए की। किसी बड़ी गहरी भावना में भरकर मैंने कहा, यह गीत मुझे बहुत पसंद है।
वह दोस्‍त खुद को नारीवादी कहती थी। मुझे पता नहीं, नारीवाद क्‍या था, लेकिन जो भी था, उसी ने हमें यह स्‍पेस दिया था कि हम बिलकुल निर्जन गंगा के तट पर जाकर बैठ सकते थे, गाना गा सकते थे और ऐसे तमाम काम कर सकते थे, जो मेरे परिवार, पड़ोस और शहर की लाखों लड़कियों के संसार में दूसरे ग्रह की बात थी।
लेकिन ये गाना सुनते ही वह बिदक गई। बोली, बकवास है। दिस सांग इज शिट। कैसे कोई औरत खुद से खुद को उठाकर चरणों में रखने की बात कर सकती है। कुछ सेल्‍फ रिस्‍पेक्‍ट, कुछ डिग्निटी है कि नहीं। और व्‍हॉट इज दिस शिट मंदिर। दिस सांग इज पॉलिटिकली ए शिट।
इतना तो मैंने सोचा ही नहीं था। गाना अच्‍छा लगता था बस। गाने के पॉलिटिकल स्‍टैंड के बारे में न सोच पाने की कमजहनी के कारण मुझे थोड़ी हीनभावना सी महसूस हुई। एक औरत खुद को उठाकर आदमी के चरणों में गड़ाए दे रही है और मैं उस गाने की तारीफ कर रही हूं। आय एम ऑलसो पॉलिटिकली ए शिट।
उस बात को 12 साल गुजर गए और पॉलिटिकली शिट होने के बावजूद मैं उस गाने को आज तक नापसंद नहीं कर पाई।
हमने अपने परिवेश में औरत को कीड़े-मकोड़ों की तरह जीते, अपमानित होते, पिटते, छेड़े जाते, बलात्‍कार होते और जलाए जाते देखा था, इसलिए होश संभालने के साथ ही हम उस पूरे समाज के प्रति विरोध की एक तलवार ताने ही बड़े हुए। मार-मारकर लड़की बनाए जाने का विरोध करने की कोशिश में पता ही नहीं चला कि कब हम मनुष्‍य भी नहीं रह गए। स्त्रियोचित गुणों की लिस्‍ट जलाकर खाक करने के चक्‍कर में हमने सारे इंसानी गुण भी जला डाले। त्‍याग, प्रेम, दया ममत्‍व, सहनशीलता, सहिष्‍णुता, उदारता, जिसे औरत का गुण बताया जाता था, उन सारे गुणों को हमने पानी पी पीकर कोसा, उस पर थूका, उसे लानतें भेजी। लेकिन हम नहीं समझे कि इस हर कदम के साथ हम कमतर मनुष्‍य होते जा रहे थे - हर समय युद्ध की मुद्रा में तैनात, प्रतिक्रियाओं और विरोधों से भरे हुए।
ये सच है कि हमारा समय सचमुच बहुत कठिन था। हमारे दुख, हमारे जीवन की त्रासदियां मामूली नहीं थीं। उन्‍हें हल्‍के में उड़ाकर जिम्‍मेदारी से पल्‍ला नहीं झाड़ा जा सकता। उस दुनिया से लड़ने के अलावा कोई और राह भी नहीं थी, लेकिन हमारी लड़ाई के तरीके भी उतने ही संकीर्ण और सामंती थे, जितना कि वह समाज जिसके खिलाफ हम लड़ रहे थे। हमने कभी ये नहीं सोचा कि लड़ाई का यह तरीका हमारी दुखभरी जिंदगियों में और जहर घोल देगा।
हमें आपत्ति थी त्‍याग, प्रेम, दया ममत्‍व, सहनशीलता, सहिष्‍णुता, उदारता जैसे तमाम गुणों को सिर्फ औरत की बपौती बनाए जाने से, लेकिन क्‍या हम इन गुणों को ही जलाकर खाक कर सकते थे? जिस उन्‍नत और बेहतर मनुष्‍य समाज की हम बातें करते थे, उस समाज में क्‍या ये गुण औरत और मर्द दोनों में नहीं होने चाहिए थे? मर्द इनकी आड़ में औरत का शोषण करते हैं, यह गलत है। लेकिन एक सुंदर दुनिया में ये गुण पुरुषों में भी उतने ही होंगे, जितने कि स्त्रियों में।
इतिहास में ऐसा भी समय आता है, जब दुखी, अभावग्रस्‍त और उत्‍पीडित सभ्‍यताएं वास्‍तविक गहरे प्रेम की नमी और ऊष्‍मा को बचा नहीं पातीं। लेकिन प्रेम में किसी के चरणों में खुद को समर्पित कर देने की चाह बहुत मानवीय है। यह सभी मानवीय सभ्‍यताओं में रहेगी। ऐसे स्‍पार्टाकस होंगे, जो पशुओं से भी बदतर यंत्रणामय जीवन जीने के बावजूद उस बिलकुल निर्वस्‍त्र विवर्ण पथराई हुई बाजारू औरत, जिसे उसे संभोग के लिए दिया गया हो, की देह छूने के बजाय, उसकी ओर कपड़े का एक टुकड़ा बढ़ा देंगे और उसे धीरे से बैठ जाने को कहेंगे। प्रेम में समर्पण बहुत मानवीय है। यह दोनों ओर से है। यह स्‍त्री का शोषण नहीं है। हर अमानवीयता का प्रतिकार करते हुए भी अपने भीतर की मानवीयता को बचा लाना है। प्रेम में सचमुच किसी पुरुष के चरणों में समर्पित हो जाना है। बेशक, वह भी इतना ही समर्पित होगा। ये बात अलग है कि उस समर्पण में कोई नाप-तौल नहीं होगी।

Sunday, 18 October 2009

प्‍यार की मनाहियां और कुछ चोर दरवाजे

कल विनीत के ब्‍लॉग पर एक पोस्‍ट और दियाबरनीसे प्यार हो जाता ‍पढ़ी और मेरे बचपन की कुछ तस्‍वीरें अचानक याद हो आईं, जो कहीं अवचेतन में पड़ी होंगी और जिदंगी पर अपना असर छोड़ गई होंगी पर अब जो दिन-रात हथौड़े सी दिमाग में दनदनाती नहीं रहती।

कुल मिलाकर इलाहाबाद, प्रतापगढ़, जौनपुर और बंबई के पचासेक घरों में मां-पापा के परिवारों को मिलाकर हमारा खानदान सिमटा हुआ था। बंबई वाले बंबई में रहकर भी खांटी जौनपुरिया थे। बाद में जब बरास्‍ता बंबई हमारे खानदान का विस्‍तार बॉस्‍टन और न्‍यूयॉर्क तक हुआ, तब भी जौनपुर और प्रतापगढ़ का कीड़ा हम अपने साथ ले गए और वहां भी उस कीड़े की शाखाओं-प्रशाखाओं का विस्‍तार किया। प्रतापगढ़ हमने कभी नहीं छोड़ा।

घर में भविष्‍य के दूल्‍हों, (यानि लड़कों) की दुल्‍हनों को लेकर घर की बड़ी औरतें, बहनें, रिश्‍ते की भा‍भियां, चाचियां और कई बार मां-बड़ी मां तक मजाक किया करती थीं। चाची तीन साल के नाक बहाते लड़के, जिसे हगकर धोने की भी तमीज तब तक नहीं आई थी, से लडि़यातीं, का बबुबा, हमसे बियाह करब। बबुबा अपनी फिसलती हुई चड्ढी संभालते हों-हों करते मम्‍मी की गोदी में दुबक जाते। मम्‍मी लाड़ करती, क्‍यों रे, चाची पसंद नहीं है तुझे।' मैं मां से पूछना चाहती थी कि मेरा ब्‍याह किससे करोगी, लेकिन पूछती नहीं थी। तब ब्‍याह बड़ी मजेदार चीज लगती थी। कितना सज-संवरकर लड़कियां मंडप में बैठती हैं। सब उन्‍हीं की पूछ-टहल में लगे रहते हैं। इतने सारे रंग बिरंगे कपड़े, गहने, गिफ्ट, रोशनी, खाने को इतने सारे पकवान, मिठाई। शादी भी क्‍या मजेदार चीज है। रोज होनी चाहिए। एक बार, जब मैं कुछ चार बरस की रही होंगी, मां-पापा के साथ एक शादी में गई। एक सुंदर सी लड़की लाल रंग की साड़ी में और खूब सजी हुई मुझे इस कदर भा गई कि घर आकर मैंने पैर पटक-पटककर घर सिर पर उठा लिया कि मेरी शादी करो। मुझे भी उस लड़की की तरह सजना है। मां ने डांट-डपटकर चुप करा दिया लेकिन वो लाल रंग की सुंदर सी लड़की मेरे दिमाग में बैठी हुई थी और कभी-कभी उसका भूत ऐसा सिर चढ़कर नाचता कि मैं शादी की रट में मां को मुझे थप्‍पड़ लगाकर शांत करने के लिए मजबूर कर देती थी। बाद में बड़े होने पर उनके हजार समझाने पर भी जब मैं किसी दुबेजी, पाणेजी का घर बसाने के लिए तैयार नहीं हुई तो मां मेरे बचपन को याद करती और कहती, बचपन में जब मेरी शादी करो, शादी करो चिल्‍लाती थी, तभी कर दी होती तो अच्‍छा था। आज ये दिन तो नहीं देखना पड़ता। मेरे लिए तब शादी का मतलब साड़ी, गहने, सजना-संवरना, मिठाई और रसगुल्‍ला होता था। शादी में एक पुरुष का आजीवन का आधिपत्‍य भी होता है, पैर छूना और घर का सारा काम करना पड़ता है, सबसे पहले उठना और सबसे बाद में सोना पड़ता है और गाहे-बगाहे पति की डांट और अगर प्रतापगढ़ में शादी हो तो बिना अपवाद के पति की लात भी खानी पड़ती है, पता नहीं था। जब जिंदगी के इन रहस्‍यों ने आंखें खोलीं तो शादी से विरक्ति हो गई।

फिलहाल घर के लड़कों से प्‍यार-मुहब्‍बत को लेकर बड़े मजाक होते थे पर लड़कियों से नहीं। उन्‍हें लड़कों और प्रेम शब्‍द की परछाईं तक से दूर रखा जाता था। मुझसे कभी किसी ने नहीं पूछा कि फलाने से ब्‍याह करोगी। उतनी बड़ी लड़की हो जाने के बाद तो बिलकुल भी नहीं कि जब दुपट़टा ओढ़ना अनिवार्य हो गया, छत पर जाने की मनाही होने लगी और अड़ोस-पड़ोस के लड़कों के सामने दांत न दिखाने के अलिखित नियम तय होने लगे।

मेरे चचेरे भाई को अपने क्‍लास की कोई लड़की बड़ी पसंद थी। ताईजी कहतीं, क्‍यों रे, पिंकी टिंकी को रोज उसके घर तक छोड़कर आता है क्‍या, रोज स्‍कूल से आने में देर हो जाती है। गोलू दांत दिखाता। घर के सारे लोग दांत दिखाते। परिवार के प्रगतिशील पुरुष मुस्‍कुराते। पूछते, पिंकी से शादी करने का इरादा है क्‍या। गोलू फिर दांत दिखा देता। मुझसे किसी ने नहीं पूछा कि तुमको कोई पसंद है। शादी करोगी क्‍या।

बाद में जब बड़े होने पर मैं खुद ही बेशर्म होकर अपने दूल्‍हे की अपेक्षित खूबियां गिनाने लगी तो दादी को बड़ा गुस्‍सा आता। कहतीं, भाइयन के सामने आपन बियाहे के बात करत थिन। तनकौ लाज नाहीं लागत। यह शिकायत वो बात बात पर करती थीं कि मुझे लाज क्‍यों नहीं आती है।

प्रेम, पुरुष, जैसी चीजें कल्‍पना में भी मेरी दुनिया में न घुस जाएं, इस बात की पूरी सावधानी बरती जाती थी। मैं क्‍या पढ़ती हूं, इस पर नजर होती। इसके बावजूद मैंने लोलिता का कोई सड़कछाप रेलवे स्‍टेशनों पर बिकने वाला संस्‍करण भूगोल की किताब में छिपाकर पढ़ डाला था। जिस कमरे में पैर रखने की मनाही थी, उसमें घुसने के चोर दरवाजे भी हम निकाल ही लेते थे।


Tuesday, 13 October 2009

उम्‍मीद














ढ़ाई साल पहले उदासी और उम्‍मीद के जाने कैसे नमकीन मौसम में ये कविता लिखी गई थी। कल सफाई करते हुए पुरानी किताबों के बीच कागज के एक टुकड़े पर लिखी मिली।

उम्‍मीद कभी भी आती है
जब सबसे नाउम्‍मीद होते हैं दिन
अनगिनत अधसोई उनींदी रातों
और उन रातों में जलती आंखों में
गहरी नींद बनकर दाखिल होती है
थकन और उदासी से टूटती देह में
थिरकन बन मचलने लगती है
सन्‍नाटे में संगीत सी घुमड़ती है
चुप्‍पी के बियाबां में
आवाज बन दौड़ने लगती है
सबसे अकेली, सबसे रिक्‍त रातों में
देह का उन्‍माद बन दाखिल होती है उम्‍मीद
हर तार बजता है
हरेक शिरा आलोकित होती है
उम्‍मीद के उजास से
बेचैन समंदर की छाती में उम्‍मीद
धीर बनकर पैठ जाती है
मरुस्‍थल में मेह बन बरसती है
देवालयों में उन्‍मत्‍त प्रेम
और वेश्‍यालयों में पवित्र घंटे के नाद सी
गूंजती है उम्‍मीद
उम्‍मीद कभी भी आती है
जब सबसे नाउम्‍मीद होते हैं दिन

Sunday, 11 October 2009

खून, नदी और उस पार


उन तमाम लड़कियों के लिए जिनके सपनों में इतने अनंत रंग थे जितने धरती पर समाना मुश्किल है, लेकिन जिनके सपनों पर इतने ताले जड़े थे, जो संसार की सारी अमानवीयताओं से भारी थे।

तुम जो भटकती थी

बदहवास

अपने ही भीतर

दीवारों से टकराकर

बार-बार लहूलुहान होती

अपने ही भीतर कैद

सदियों से बंद थे खिड़की-दरवाजे

तुम्‍हारे भीतर का हरेक रौशनदान

दीवार के हर सुराख को

सील कर दिया था

किसने ?

मूर्ख लड़की

अब नहीं

इन्‍हें खोलो

खुद को अपनी ही कैद से आजाद करो

आज पांवों में कैसी तो थिरकन है

सूरज उग रहा है नदी के उस पार

जहां रहता है तुम्‍हारा प्रेमी

उसे सदियों से था इंतजार

तुम्‍हारे आने का

और तुम कैद थी

अपनी ही कैद में

अंजान कि झींगुर और जाले से भरे

इस कमरे के बाहर भी है एक संसार

जहां हर रोज सूरज उगता है,

अस्‍त होता है

जहां हवा है, अनंत आकाश

बर्फ पर चमकते सूरज के रंग हैं

एक नदी

जिसमें पैर डालकर घंटों बैठा जा सकता है

और नदी के उस पार है प्रेमी

जाओ

उसे तुम्‍हारे नर्म बालों का इंतजार है

तुम्‍हारी उंगलियों और होंठों का

जिसे कब से नहीं संवारा है तुमने

वो तुम्‍हारी देह को

अपनी हथेलियों में भरकर चूमेगा

प्‍यार से उठा लेगा समूचा आसमान

युगों के बंध टूट जाएंगे

नदियां प्रवाहित होंगी तुम्‍हारी देह में

झरने बहेंगे

दिशाओं में गूंजेगा सितार

तुम्‍हारे भीतर जो बैठे तक अब तक

जिन्‍होंने खड़ी की दीवारें

सील किए रोशनदान

जो युद्ध लड़ते, साम्राज्‍य खड़े करते रहे

दनदनाते रहे हथौड़े

उनके हथौड़े

उन्‍हीं के मुंह पर पड़ें

रक्‍तरंजित हों उनकी छातियां

उसी नदी के तट पर दफनाई जाएं उनकी लाशें

तुमने तोड़ दी ये कारा

देखो, वो सुदरू तट पर खड़ा प्रेमी

हाथ हिला रहा है.....



Thursday, 8 October 2009

जीवन तो यूं भी चलता रहता है


जानती हूं एक दिन
तुम यूं नहीं होगे मेरी जद में
एक दिन तुम पांव उठा अपनी राह लोगे
जीवन तब भी वैसा ही होगा
जैसा तब हुआ करता था
जब तुम छूते नहीं थे मुझे
वैसे ही उगेगा सूरज
बारिश की बूंदें भिगोएंगी तुम्‍हारे बाल
पेड़ों के झुरमुट में
अचानक खिल उठेगा
कोई बैंगनी फूल
गोधूलि में टिमटिमाएगी दिए की एक लौ
एक प्रिय बाट जोहेगी
अपने प्रेमी के लौटने की
तारे वैसे ही गुनगुनाएंगे विरह के गीत
लोग काम से घर लौटेंगे
मैं वैसी ही होऊंगी तब भी
बस मेरी पल्‍कों पर तुम्‍हारे होंठों की
छुअन नहीं होगी
चुंबनों से नहीं भीगेंगी मेरी आंखें
एक स्‍मृति बची रह जाएगी
झील के किनारे की एक रात
उन रातों की याद
वरना क्‍या है
जीवन तो फिर भी चलता ही रहता है

ब्‍लॉगिंग के साइड इफेक्‍ट


प्‍लेटफॉर्म पर बहती नदी....... (मुझे साफ करने की कोई जरूरत नहीं
है। रात भर में बिल्‍ली ही साफ कर जायेगी।)


कोयला होने से पहले ही पड़ गई मेरी नजर


हे भगवान ! अब इसे साफ कौन करेगा........



खुल गई पोल !

अकेला कमरा


एक उदास, थका सा कमरा

कमरे की मेज पर

किताबों का ढ़ेर

मार्खेज पर सवार

अमर्त्‍य सेन का न्‍याय का विचार

रस्किन बॉन्‍ड का अकेला कमरा

कुंदेरा का मजाक, काफ्का के पत्र

मोटरसाइकिल पर चिली के बियाबानों में भटकते

चे ग्‍वेरा की डायरी

अपने देश में अपना देश खोज रही इजाबेला

सोफी के मन में उठते सवाल

उन सवालों के जवाब

कुछ कहानियों के बिखरे Draft

टूटी-फूटी कविताएं

कुछ फुटकर विचार

और टूटे हैंडल वाला कॉफी का एक पुराना मग

पिछले साल रानीखेत में

एक दोस्‍त की खींची हिमालय की कुछ तस्‍वीरें

एक पुराना पिक्‍चर पोस्‍टकार्ड

पुरानी चिट्ठियों की एक फाइल

जो मैंने लिखीं

जो मुझे लिखी गईं

ये सब

इस एकांत कमरे के साझेदार

भीतर पसरे सन्‍नाटे में

सन्‍नाटे जैसे मौन

मेरे साथ

बाहर पत्‍थरों पर गिरती

बारिश की बूंदों की

आवाज सुन रहे हैं

Wednesday, 7 October 2009

एक दिन


पठानकोट से जाती है जो गाड़ी

कन्‍याकुमारी को

सोचा था एक दिन उस पर बैठूंगी

इस छोर से उस छोर तक

कन्‍याकुमारी से सियालदाह

सियालदाह से जामनगर

जामनगर से मुंबई

मुंबई से केरल

वहां से फिर कोई और गाड़ी

जो धरती के किसी भी कोने पर लेकर जाती हो

टॉय टेन पर कालका से शिमला

दिसंबर की किसी कड़कती दोपहरी में जाऊंगी

जब चीड़ की नुकीले दरख्‍तों पर

बर्फ सुस्ता रही होगी

पहाड़ों और जंगलों से गुजरेगी गाड़ी

पहाड़ी नदी के साथ-साथ चलेगी

ज्‍यादा दूर नहीं तो कम कम से

अपने पूरे शहर का चक्‍कर

तो लगाऊंगी ही एक दिन

अपनी साइकिल पर

पीठ पर एक टेंट लादकर

उस गांव में जाऊंगी

जहां से हिमालय को छूकर देख सकूं

वहीं पड़ी रहूंगी कई दिन, कई रातें

नर्मदा में तैरूंगी तब

जब सबसे ऊंचा होगा उसका पानी

सोचा तो बहुत

इस सूनसान अकेले कमरे में लेटी

बेजार छत को तकती

आज भी सोचा करती हूं

धरती के दूसरे छोर के बारे में

जहां रात के अंधेरे में

अचानक बसंती फूल खिल आया है

जहां कोई दिन-रात

मेरी राह अगोर रहा है

Monday, 5 October 2009

एक आत्‍मस्‍वीकारोक्ति के बहाने कुछ सवाल – 3


(इस सिगरेट पुराण से अब मैं बोर हो गई हूं। मनीषा प्रगतिशील छापाखाना से सिगरेट पुराण का यह आखिरी संस्‍करण प्रकाशित हो रहा है। इसके बाद प्रगतिशील छापाखाना अन्‍य महत्‍वपूर्ण विषयों पर जोर देगा।)


कुल मिलाकर 19 महीने मेरी जिंदगी में इस बला का साया रहा। अब साथ छूट गया तो बला हो गई, पहले तो हमसफर हुआ करती थी। मेरे बड़े-बड़े सिगरेटबाज मित्र भी मुझे इस कर्म में मुब्तिला देखकर फटकार लगाते। प्रमोद कहते, ये तुम कौन काम, महान कर्म की आशा में किए जा रही हो। बहुत हो गया, बंद करो। (खुद भले कभी न बंद करें।)

अभय खुद कभी बड़े वाले सिगरेटबाज हुआ करते थे, लगातार चार के बाद पांचवी को हाथ लगाने पर डांटने से बाज नहीं आते, मनीषा बस, अब हा‍थ मत लगाना। अब मैं तुम्‍हें बिलकुल नहीं पीने दूंगा। (ठीक है। खुद छोड़ चुके हैं तो उनका हक बनता है भाषण देने का।) मेरी दोस्‍त भूमिका गाली भी देती रहती, लेकिन रात में अचानक स्‍टॉ‍क खत्‍म हो जाए तो, तू कभी सुधरना मत कहते हुए किसी भरोसेमंद साथी को बोलकर स्‍टॉक भरवाने की व्‍यवस्‍था भी करती थी।

सिगरेट खरीदने के किस्‍से भी कम दारुण नहीं हैं।

फंडा नं 1 - दुकान में जाकर गोल्‍डफ्लेक लाइट नाम की पर्ची दुकानदार को पकड़ाओ और पूछो, भईया ये है क्‍या। चेहरे पर ऐसे एक्‍सप्रेशन रखो कि किसी ने मुझे पर्ची थमा सिगरेट खरीदने भेजकर मेरा जीवन नष्‍ट कर डाला है। ऐसे सकुचाओ कि सुल्‍तानपुरिया दुबाइन भी क्‍या सकुचाती होगी भला।

फंडा नं 2 मैं सिगरेट की किसी दुकान पर जाती और भूमिका को फोन लगाती। हां, क्‍या लाना है, हां, हां, क्‍या नाम बताया। अरे यार प्‍लीज, मुझे ये सब काम मत कहा करो। हां ठीक है। इट़स ओके। आई विल डू दैट। एक्‍सप्रेशन ऐसा जैसे कसाईखाने में आ गई हूं। भारतीय लड़की सिगरेट की दुकान पर, यहीं धरती क्‍यों न फट जाए और मैं उसमें क्‍यों न समा जाऊं।

मैं 20 महीने पहले के मानसिक संसार में लौटती हूं और उन दिनों को याद करने की कोशिश करती हूं, जब ये किस्‍सा शुरू हुआ था तो बस इतना ही ध्‍यान आता है कि दिल्‍ली में कुछ प्रगतिशील साथियों की संगत में उदकते-फुदकते मैंने अनायास ही इस मुकुट को अपने माथे पे सजाया और मन ही मन सोचा, कितनी सुंदर लग रही हूं मैं। अपनी ही जिंदगी से ऐसा रोमांस पहले कभी महसूस नहीं किया था। कितना ग्‍लैमर है। अचानक मैं अपनी ही नजरों में ऊपर उठ गई हूं। अपने आसपास की तमाम लड़कियां हीन नजर आने लगीं। उफ, पति की चड्ढी धोना कब छोड़ेंगी ये औरतें। बैकवर्ड कहीं की। प्रगति मैदान में पुस्‍तक मेले में घूमते हुए मुझे अचानक ही सिगरेट की तलब होने लगती। तलब शरीर को नहीं, मन को होती थी। लेडीज बाथरुम में जाकर सिगरेट पीते हुए लगता, जाने कौन सा निषिद्ध इलाका मैं पार कर आई। मोटा मोटा सिंदूर लगाए मोटी आंटियां बाथरूम के अंदर आधुनिक पतिता को सिगरेट पीता देख अजीब से एक्‍सप्रेशन देतीं और मैं अपनी महानता के आगे उन्‍हें तुच्‍छ समझने का लोभ संवरण नहीं कर पाती थी। इन सूखी-मोटी आंटियों की जिंदगी में न रोमांस है, न ग्‍लैमर। ये क्‍या जानें। बस पुदीने की चटनी बनाया करें।

हां, वो कुछ और नहीं, रोमांस और ग्‍लैमर ही था। सिगरेट का ग्‍लैमर, जिसके साथ एक और दो शुरू हुआ सफर 5-8-10 तक होता हुआ कभी-कभी दिन में 15 तक का भी आंकड़ा पार कर जाता था।

बेशक, सिगरेट आधुनिकता और बौद्धिकता का ग्‍लैमरस प्रतीक है। होंठो के बीच सिगरेट दबाए ईजल के सामने झुकी फ्रीडा अपने रंगों से कैनवास पर ऐसा संसार रचती है कि टा्टस्‍की भी उसके मोहपाश में बंधने से खुद को रोक नहीं पाते, मेरी तो बिसात ही क्‍या। पेरिस के किसी रेस्‍त्रां में उन्‍नीसवीं सदी के बौद्धिकों का एक समूह होंठों में सिगरेट दबाए अस्तित्‍ववाद का दर्शन रच रहा है। सिगरेट पीते मुक्तिबोध की छवि अंधेरे में के साथ ऐसे एकाकार है, मानो मुक्तिबोध ने नहीं, उनकी सिगरेट की लत ने कविता लिखी थी। सिगरेट न होती तो न फ्रीडा चित्र बना पाती, न अस्तित्‍वाद का दर्शन ही धरती पर पैदा होता।

ये सिगरेट का ग्‍लैमर है, जो दिमाग में बचा रह जाता है। उस क्रिएशन के पीछे का अनथक श्रम, उर्वर दिमाग, गहन जिज्ञासाएं और दुनिया को जानने की तड़प और गहरे सवाल दिमाग में नहीं ठहरते। ठहरती है तो बस होंठों के बीच दबी सिगरेट और धुएं के छल्‍ले। उसमें ग्‍लैमर है, आकर्षण है।

अधकचरे, आधुनिक, विचारशील दिमागों को होंठों के बीच धुएं के छल्‍ले उड़ाती सिगरेट वैसे ही आकर्षित करती है जैसे सनसिल्‍क से बाल धोने के बाद ऐश्‍वर्या के बालों की चमक विवाह और पति में अपने जीवन की सार्थकता ढूंढ़ने वाली आधुनिका कुमारी के दिल में बैठ जाती है। ऐसे बाल हों तो पति क्‍यों न प्‍यार करे भला। सिगरेट हो तो क्रिएटिविटी क्‍यों न फूट-फूटकर बहे भला।

एक समय के बाद शरीर और मन को इसकी लत लग जाने के बाद क्‍या होता है पता नहीं, लेकिन सिगरेट पीने की शुरुआत के पीछे कुछ-कुछ ऐसी ही मानसिकता होती है। बाद में शरीर भी आदी हो जाता है। मन तो खैर होता ही है।

दरअसल दिक्‍कत सिगरेट नहीं है। दिक्‍कत है दिमाग का वह मैकेनिज्‍म, जो इस तरीके से काम करता है। जो अपनी बेहिसाब कमजोरियों और अधकचरेपन के बचाव के लिए तर्क बुनता है। अगर उस मैकेनिज्‍म पर ही सवाल न हो तो वह सिर्फ सिगरेट ही नहीं, असंख्‍य रूपों में बार-बार व्‍यक्‍त होगा। वो मूर्खाधीश टाइप एक कविता लिखकर खुद को महान रचनाकार समझने में, अपने औसत मंझोले ज्ञान को दुनिया की परम विद्वता आंकने में व्‍यक्‍त होगा। वो दिमाग अपने ही प्रेम में डूबा और एक झूठी काल्‍पनिक दुनिया गढ़ता मानस रचेगा। वो मूर्खों का सम्राट होगा।

दिक्‍कत सिगरेट से नहीं, मूर्खों का सम्राट होने से है। 10 रुपए का लक्‍स लगाकर किसी का दिल चुरा लेने के मीडियॉकर विचारशील संसार से है।


नोट : (सिगरेट पीने वाली लड़कियां मेरे विशेषण और विश्‍लेषण को अन्‍यथा न लें। ये खासतौर से मुझे ही संबोधित हैं।)