Wednesday, 28 October 2009
छिपा लो यूं दिल में प्यार मेरा
आज से तकरीबन 12 साल पहले एक बार इलाहाबाद में गंगा के तट पर एक दोस्त के साथ बैठे हुए अचानक ही मेरे मुंह से यह गाना फूट पड़ा - छिपा लो यूं दिल में प्यार मेरा कि जैसे मंदिर में लौ दिए की। किसी बड़ी गहरी भावना में भरकर मैंने कहा, यह गीत मुझे बहुत पसंद है।
वह दोस्त खुद को नारीवादी कहती थी। मुझे पता नहीं, नारीवाद क्या था, लेकिन जो भी था, उसी ने हमें यह स्पेस दिया था कि हम बिलकुल निर्जन गंगा के तट पर जाकर बैठ सकते थे, गाना गा सकते थे और ऐसे तमाम काम कर सकते थे, जो मेरे परिवार, पड़ोस और शहर की लाखों लड़कियों के संसार में दूसरे ग्रह की बात थी।
लेकिन ये गाना सुनते ही वह बिदक गई। बोली, बकवास है। दिस सांग इज शिट। कैसे कोई औरत खुद से खुद को उठाकर चरणों में रखने की बात कर सकती है। कुछ सेल्फ रिस्पेक्ट, कुछ डिग्निटी है कि नहीं। और व्हॉट इज दिस शिट मंदिर। दिस सांग इज पॉलिटिकली ए शिट।
इतना तो मैंने सोचा ही नहीं था। गाना अच्छा लगता था बस। गाने के पॉलिटिकल स्टैंड के बारे में न सोच पाने की कमजहनी के कारण मुझे थोड़ी हीनभावना सी महसूस हुई। एक औरत खुद को उठाकर आदमी के चरणों में गड़ाए दे रही है और मैं उस गाने की तारीफ कर रही हूं। आय एम ऑलसो पॉलिटिकली ए शिट।
उस बात को 12 साल गुजर गए और पॉलिटिकली शिट होने के बावजूद मैं उस गाने को आज तक नापसंद नहीं कर पाई।
हमने अपने परिवेश में औरत को कीड़े-मकोड़ों की तरह जीते, अपमानित होते, पिटते, छेड़े जाते, बलात्कार होते और जलाए जाते देखा था, इसलिए होश संभालने के साथ ही हम उस पूरे समाज के प्रति विरोध की एक तलवार ताने ही बड़े हुए। मार-मारकर लड़की बनाए जाने का विरोध करने की कोशिश में पता ही नहीं चला कि कब हम मनुष्य भी नहीं रह गए। स्त्रियोचित गुणों की लिस्ट जलाकर खाक करने के चक्कर में हमने सारे इंसानी गुण भी जला डाले। त्याग, प्रेम, दया ममत्व, सहनशीलता, सहिष्णुता, उदारता, जिसे औरत का गुण बताया जाता था, उन सारे गुणों को हमने पानी पी पीकर कोसा, उस पर थूका, उसे लानतें भेजी। लेकिन हम नहीं समझे कि इस हर कदम के साथ हम कमतर मनुष्य होते जा रहे थे - हर समय युद्ध की मुद्रा में तैनात, प्रतिक्रियाओं और विरोधों से भरे हुए।
ये सच है कि हमारा समय सचमुच बहुत कठिन था। हमारे दुख, हमारे जीवन की त्रासदियां मामूली नहीं थीं। उन्हें हल्के में उड़ाकर जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ा जा सकता। उस दुनिया से लड़ने के अलावा कोई और राह भी नहीं थी, लेकिन हमारी लड़ाई के तरीके भी उतने ही संकीर्ण और सामंती थे, जितना कि वह समाज जिसके खिलाफ हम लड़ रहे थे। हमने कभी ये नहीं सोचा कि लड़ाई का यह तरीका हमारी दुखभरी जिंदगियों में और जहर घोल देगा।
हमें आपत्ति थी त्याग, प्रेम, दया ममत्व, सहनशीलता, सहिष्णुता, उदारता जैसे तमाम गुणों को सिर्फ औरत की बपौती बनाए जाने से, लेकिन क्या हम इन गुणों को ही जलाकर खाक कर सकते थे? जिस उन्नत और बेहतर मनुष्य समाज की हम बातें करते थे, उस समाज में क्या ये गुण औरत और मर्द दोनों में नहीं होने चाहिए थे? मर्द इनकी आड़ में औरत का शोषण करते हैं, यह गलत है। लेकिन एक सुंदर दुनिया में ये गुण पुरुषों में भी उतने ही होंगे, जितने कि स्त्रियों में।
इतिहास में ऐसा भी समय आता है, जब दुखी, अभावग्रस्त और उत्पीडित सभ्यताएं वास्तविक गहरे प्रेम की नमी और ऊष्मा को बचा नहीं पातीं। लेकिन प्रेम में किसी के चरणों में खुद को समर्पित कर देने की चाह बहुत मानवीय है। यह सभी मानवीय सभ्यताओं में रहेगी। ऐसे स्पार्टाकस होंगे, जो पशुओं से भी बदतर यंत्रणामय जीवन जीने के बावजूद उस बिलकुल निर्वस्त्र विवर्ण पथराई हुई बाजारू औरत, जिसे उसे संभोग के लिए दिया गया हो, की देह छूने के बजाय, उसकी ओर कपड़े का एक टुकड़ा बढ़ा देंगे और उसे धीरे से बैठ जाने को कहेंगे। प्रेम में समर्पण बहुत मानवीय है। यह दोनों ओर से है। यह स्त्री का शोषण नहीं है। हर अमानवीयता का प्रतिकार करते हुए भी अपने भीतर की मानवीयता को बचा लाना है। प्रेम में सचमुच किसी पुरुष के चरणों में समर्पित हो जाना है। बेशक, वह भी इतना ही समर्पित होगा। ये बात अलग है कि उस समर्पण में कोई नाप-तौल नहीं होगी।
Monday, 19 October 2009
Sunday, 18 October 2009
प्यार की मनाहियां और कुछ चोर दरवाजे
कल विनीत के ब्लॉग पर एक पोस्ट और दियाबरनीसे प्यार हो जाता पढ़ी और मेरे बचपन की कुछ तस्वीरें अचानक याद हो आईं, जो कहीं अवचेतन में पड़ी होंगी और जिदंगी पर अपना असर छोड़ गई होंगी पर अब जो दिन-रात हथौड़े सी दिमाग में दनदनाती नहीं रहती।
कुल मिलाकर इलाहाबाद, प्रतापगढ़, जौनपुर और बंबई के पचासेक घरों में मां-पापा के परिवारों को मिलाकर हमारा खानदान सिमटा हुआ था। बंबई वाले बंबई में रहकर भी खांटी जौनपुरिया थे। बाद में जब बरास्ता बंबई हमारे खानदान का विस्तार बॉस्टन और न्यूयॉर्क तक हुआ, तब भी जौनपुर और प्रतापगढ़ का कीड़ा हम अपने साथ ले गए और वहां भी उस कीड़े की शाखाओं-प्रशाखाओं का विस्तार किया। प्रतापगढ़ हमने कभी नहीं छोड़ा।
घर में भविष्य के दूल्हों, (यानि लड़कों) की दुल्हनों को लेकर घर की बड़ी औरतें, बहनें, रिश्ते की भाभियां, चाचियां और कई बार मां-बड़ी मां तक मजाक किया करती थीं। चाची तीन साल के नाक बहाते लड़के, जिसे हगकर धोने की भी तमीज तब तक नहीं आई थी, से लडि़यातीं, ‘का बबुबा, हमसे बियाह करब।’ बबुबा अपनी फिसलती हुई चड्ढी संभालते हों-हों करते मम्मी की गोदी में दुबक जाते। मम्मी लाड़ करती, क्यों रे, चाची पसंद नहीं है तुझे।' मैं मां से पूछना चाहती थी कि मेरा ब्याह किससे करोगी, लेकिन पूछती नहीं थी। तब ब्याह बड़ी मजेदार चीज लगती थी। कितना सज-संवरकर लड़कियां मंडप में बैठती हैं। सब उन्हीं की पूछ-टहल में लगे रहते हैं। इतने सारे रंग बिरंगे कपड़े, गहने, गिफ्ट, रोशनी, खाने को इतने सारे पकवान, मिठाई। शादी भी क्या मजेदार चीज है। रोज होनी चाहिए। एक बार, जब मैं कुछ चार बरस की रही होंगी, मां-पापा के साथ एक शादी में गई। एक सुंदर सी लड़की लाल रंग की साड़ी में और खूब सजी हुई मुझे इस कदर भा गई कि घर आकर मैंने पैर पटक-पटककर घर सिर पर उठा लिया कि मेरी शादी करो। मुझे भी उस लड़की की तरह सजना है। मां ने डांट-डपटकर चुप करा दिया लेकिन वो लाल रंग की सुंदर सी लड़की मेरे दिमाग में बैठी हुई थी और कभी-कभी उसका भूत ऐसा सिर चढ़कर नाचता कि मैं शादी की रट में मां को मुझे थप्पड़ लगाकर शांत करने के लिए मजबूर कर देती थी। बाद में बड़े होने पर उनके हजार समझाने पर भी जब मैं किसी दुबेजी, पाणेजी का घर बसाने के लिए तैयार नहीं हुई तो मां मेरे बचपन को याद करती और कहती, ‘बचपन में जब मेरी शादी करो, शादी करो चिल्लाती थी, तभी कर दी होती तो अच्छा था। आज ये दिन तो नहीं देखना पड़ता।’ मेरे लिए तब शादी का मतलब साड़ी, गहने, सजना-संवरना, मिठाई और रसगुल्ला होता था। शादी में एक पुरुष का आजीवन का आधिपत्य भी होता है, पैर छूना और घर का सारा काम करना पड़ता है, सबसे पहले उठना और सबसे बाद में सोना पड़ता है और गाहे-बगाहे पति की डांट और अगर प्रतापगढ़ में शादी हो तो बिना अपवाद के पति की लात भी खानी पड़ती है, पता नहीं था। जब जिंदगी के इन रहस्यों ने आंखें खोलीं तो शादी से विरक्ति हो गई।
फिलहाल घर के लड़कों से प्यार-मुहब्बत को लेकर बड़े मजाक होते थे पर लड़कियों से नहीं। उन्हें लड़कों और प्रेम शब्द की परछाईं तक से दूर रखा जाता था। मुझसे कभी किसी ने नहीं पूछा कि फलाने से ब्याह करोगी। उतनी बड़ी लड़की हो जाने के बाद तो बिलकुल भी नहीं कि जब दुपट़टा ओढ़ना अनिवार्य हो गया, छत पर जाने की मनाही होने लगी और अड़ोस-पड़ोस के लड़कों के सामने दांत न दिखाने के अलिखित नियम तय होने लगे।
मेरे चचेरे भाई को अपने क्लास की कोई लड़की बड़ी पसंद थी। ताईजी कहतीं, ‘क्यों रे, पिंकी टिंकी को रोज उसके घर तक छोड़कर आता है क्या, रोज स्कूल से आने में देर हो जाती है।’ गोलू दांत दिखाता। घर के सारे लोग दांत दिखाते। परिवार के प्रगतिशील पुरुष मुस्कुराते। पूछते, ‘पिंकी से शादी करने का इरादा है क्या।’ गोलू फिर दांत दिखा देता। मुझसे किसी ने नहीं पूछा कि तुमको कोई पसंद है। शादी करोगी क्या।
बाद में जब बड़े होने पर मैं खुद ही बेशर्म होकर अपने दूल्हे की अपेक्षित खूबियां गिनाने लगी तो दादी को बड़ा गुस्सा आता। कहतीं, ‘भाइयन के सामने आपन बियाहे के बात करत थिन। तनकौ लाज नाहीं लागत।’ यह शिकायत वो बात बात पर करती थीं कि मुझे लाज क्यों नहीं आती है।
प्रेम, पुरुष, जैसी चीजें कल्पना में भी मेरी दुनिया में न घुस जाएं, इस बात की पूरी सावधानी बरती जाती थी। मैं क्या पढ़ती हूं, इस पर नजर होती। इसके बावजूद मैंने लोलिता का कोई सड़कछाप रेलवे स्टेशनों पर बिकने वाला संस्करण भूगोल की किताब में छिपाकर पढ़ डाला था। जिस कमरे में पैर रखने की मनाही थी, उसमें घुसने के चोर दरवाजे भी हम निकाल ही लेते थे।
Tuesday, 13 October 2009
उम्मीद
ढ़ाई साल पहले उदासी और उम्मीद के जाने कैसे नमकीन मौसम में ये कविता लिखी गई थी। कल सफाई करते हुए पुरानी किताबों के बीच कागज के एक टुकड़े पर लिखी मिली।
उम्मीद कभी भी आती है
जब सबसे नाउम्मीद होते हैं दिन
अनगिनत अधसोई उनींदी रातों
और उन रातों में जलती आंखों में
गहरी नींद बनकर दाखिल होती है
थकन और उदासी से टूटती देह में
थिरकन बन मचलने लगती है
सन्नाटे में संगीत सी घुमड़ती है
चुप्पी के बियाबां में
आवाज बन दौड़ने लगती है
सबसे अकेली, सबसे रिक्त रातों में
देह का उन्माद बन दाखिल होती है उम्मीद
हर तार बजता है
हरेक शिरा आलोकित होती है
उम्मीद के उजास से
बेचैन समंदर की छाती में उम्मीद
धीर बनकर पैठ जाती है
मरुस्थल में मेह बन बरसती है
देवालयों में उन्मत्त प्रेम
और वेश्यालयों में पवित्र घंटे के नाद सी
गूंजती है उम्मीद
उम्मीद कभी भी आती है
जब सबसे नाउम्मीद होते हैं दिन
Sunday, 11 October 2009
खून, नदी और उस पार
उन तमाम लड़कियों के लिए जिनके सपनों में इतने अनंत रंग थे जितने धरती पर समाना मुश्किल है, लेकिन जिनके सपनों पर इतने ताले जड़े थे, जो संसार की सारी अमानवीयताओं से भारी थे।
तुम जो भटकती थी
बदहवास
अपने ही भीतर
दीवारों से टकराकर
बार-बार लहूलुहान होती
अपने ही भीतर कैद
सदियों से बंद थे खिड़की-दरवाजे
तुम्हारे भीतर का हरेक रौशनदान
दीवार के हर सुराख को
सील कर दिया था
किसने ?
मूर्ख लड़की
अब नहीं
इन्हें खोलो
खुद को अपनी ही कैद से आजाद करो
आज पांवों में कैसी तो थिरकन है
सूरज उग रहा है नदी के उस पार
जहां रहता है तुम्हारा प्रेमी
उसे सदियों से था इंतजार
तुम्हारे आने का
और तुम कैद थी
अपनी ही कैद में
अंजान कि झींगुर और जाले से भरे
इस कमरे के बाहर भी है एक संसार
जहां हर रोज सूरज उगता है,
अस्त होता है
जहां हवा है, अनंत आकाश
बर्फ पर चमकते सूरज के रंग हैं
एक नदी
जिसमें पैर डालकर घंटों बैठा जा सकता है
और नदी के उस पार है प्रेमी
जाओ
उसे तुम्हारे नर्म बालों का इंतजार है
तुम्हारी उंगलियों और होंठों का
जिसे कब से नहीं संवारा है तुमने
वो तुम्हारी देह को
अपनी हथेलियों में भरकर चूमेगा
प्यार से उठा लेगा समूचा आसमान
युगों के बंध टूट जाएंगे
नदियां प्रवाहित होंगी तुम्हारी देह में
झरने बहेंगे
दिशाओं में गूंजेगा सितार
तुम्हारे भीतर जो बैठे तक अब तक
जिन्होंने खड़ी की दीवारें
सील किए रोशनदान
जो युद्ध लड़ते, साम्राज्य खड़े करते रहे
दनदनाते रहे हथौड़े
उनके हथौड़े
उन्हीं के मुंह पर पड़ें
रक्तरंजित हों उनकी छातियां
उसी नदी के तट पर दफनाई जाएं उनकी लाशें
तुमने तोड़ दी ये कारा
देखो, वो सुदरू तट पर खड़ा प्रेमी
हाथ हिला रहा है.....
Thursday, 8 October 2009
जीवन तो यूं भी चलता रहता है
जानती हूं एक दिन
तुम यूं नहीं होगे मेरी जद में
एक दिन तुम पांव उठा अपनी राह लोगे
जीवन तब भी वैसा ही होगा
जैसा तब हुआ करता था
जब तुम छूते नहीं थे मुझे
वैसे ही उगेगा सूरज
बारिश की बूंदें भिगोएंगी तुम्हारे बाल
पेड़ों के झुरमुट में
अचानक खिल उठेगा
कोई बैंगनी फूल
गोधूलि में टिमटिमाएगी दिए की एक लौ
एक प्रिय बाट जोहेगी
अपने प्रेमी के लौटने की
तारे वैसे ही गुनगुनाएंगे विरह के गीत
लोग काम से घर लौटेंगे
मैं वैसी ही होऊंगी तब भी
बस मेरी पल्कों पर तुम्हारे होंठों की
छुअन नहीं होगी
चुंबनों से नहीं भीगेंगी मेरी आंखें
एक स्मृति बची रह जाएगी
झील के किनारे की एक रात
उन रातों की याद
वरना क्या है
जीवन तो फिर भी चलता ही रहता है
ब्लॉगिंग के साइड इफेक्ट
अकेला कमरा
एक उदास, थका सा कमरा
कमरे की मेज पर
किताबों का ढ़ेर
मार्खेज पर सवार
अमर्त्य सेन का न्याय का विचार
रस्किन बॉन्ड का अकेला कमरा
कुंदेरा का मजाक, काफ्का के पत्र
मोटरसाइकिल पर चिली के बियाबानों में भटकते
चे ग्वेरा की डायरी
अपने देश में अपना देश खोज रही इजाबेला
सोफी के मन में उठते सवाल
उन सवालों के जवाब
कुछ कहानियों के बिखरे Draft
टूटी-फूटी कविताएं
कुछ फुटकर विचार
और टूटे हैंडल वाला कॉफी का एक पुराना मग
पिछले साल रानीखेत में
एक दोस्त की खींची हिमालय की कुछ तस्वीरें
एक पुराना पिक्चर पोस्टकार्ड
पुरानी चिट्ठियों की एक फाइल
जो मैंने लिखीं
जो मुझे लिखी गईं
ये सब
इस एकांत कमरे के साझेदार
भीतर पसरे सन्नाटे में
सन्नाटे जैसे मौन
मेरे साथ
बाहर पत्थरों पर गिरती
बारिश की बूंदों की
आवाज सुन रहे हैं
Wednesday, 7 October 2009
एक दिन
पठानकोट से जाती है जो गाड़ी
कन्याकुमारी को
सोचा था एक दिन उस पर बैठूंगी
इस छोर से उस छोर तक
कन्याकुमारी से सियालदाह
सियालदाह से जामनगर
जामनगर से मुंबई
मुंबई से केरल
वहां से फिर कोई और गाड़ी
जो धरती के किसी भी कोने पर लेकर जाती हो
टॉय टेन पर कालका से शिमला
दिसंबर की किसी कड़कती दोपहरी में जाऊंगी
जब चीड़ की नुकीले दरख्तों पर
बर्फ सुस्ता रही होगी
पहाड़ों और जंगलों से गुजरेगी गाड़ी
पहाड़ी नदी के साथ-साथ चलेगी
ज्यादा दूर नहीं तो कम कम से
अपने पूरे शहर का चक्कर
तो लगाऊंगी ही एक दिन
अपनी साइकिल पर
पीठ पर एक टेंट लादकर
उस गांव में जाऊंगी
जहां से हिमालय को छूकर देख सकूं
वहीं पड़ी रहूंगी कई दिन, कई रातें
नर्मदा में तैरूंगी तब
जब सबसे ऊंचा होगा उसका पानी
सोचा तो बहुत
इस सूनसान अकेले कमरे में लेटी
बेजार छत को तकती
आज भी सोचा करती हूं
धरती के दूसरे छोर के बारे में
जहां रात के अंधेरे में
अचानक बसंती फूल खिल आया है
जहां कोई दिन-रात
मेरी राह अगोर रहा है
Monday, 5 October 2009
एक आत्मस्वीकारोक्ति के बहाने कुछ सवाल – 3
(इस सिगरेट पुराण से अब मैं बोर हो गई हूं। मनीषा प्रगतिशील छापाखाना से सिगरेट पुराण का यह आखिरी संस्करण प्रकाशित हो रहा है। इसके बाद प्रगतिशील छापाखाना अन्य महत्वपूर्ण विषयों पर जोर देगा।)
कुल मिलाकर 19 महीने मेरी जिंदगी में इस बला का साया रहा। अब साथ छूट गया तो बला हो गई, पहले तो हमसफर हुआ करती थी। मेरे बड़े-बड़े सिगरेटबाज मित्र भी मुझे इस कर्म में मुब्तिला देखकर फटकार लगाते। प्रमोद कहते, ये तुम कौन काम, महान कर्म की आशा में किए जा रही हो। बहुत हो गया, बंद करो। (खुद भले कभी न बंद करें।)
अभय खुद कभी बड़े वाले सिगरेटबाज हुआ करते थे, लगातार चार के बाद पांचवी को हाथ लगाने पर डांटने से बाज नहीं आते, मनीषा बस, अब हाथ मत लगाना। अब मैं तुम्हें बिलकुल नहीं पीने दूंगा। (ठीक है। खुद छोड़ चुके हैं तो उनका हक बनता है भाषण देने का।) मेरी दोस्त भूमिका गाली भी देती रहती, लेकिन रात में अचानक स्टॉक खत्म हो जाए तो, “तू कभी सुधरना मत” कहते हुए किसी भरोसेमंद साथी को बोलकर स्टॉक भरवाने की व्यवस्था भी करती थी।
सिगरेट खरीदने के किस्से भी कम दारुण नहीं हैं।
फंडा नं 1 - दुकान में जाकर गोल्डफ्लेक लाइट नाम की पर्ची दुकानदार को पकड़ाओ और पूछो, “भईया ये है क्या।” चेहरे पर ऐसे एक्सप्रेशन रखो कि किसी ने मुझे पर्ची थमा सिगरेट खरीदने भेजकर मेरा जीवन नष्ट कर डाला है। ऐसे सकुचाओ कि सुल्तानपुरिया दुबाइन भी क्या सकुचाती होगी भला।
फंडा नं 2 – मैं सिगरेट की किसी दुकान पर जाती और भूमिका को फोन लगाती। “हां, क्या लाना है, हां, हां, क्या नाम बताया। अरे यार प्लीज, मुझे ये सब काम मत कहा करो। हां ठीक है। इट़स ओके। आई विल डू दैट।” एक्सप्रेशन ऐसा जैसे कसाईखाने में आ गई हूं। भारतीय लड़की सिगरेट की दुकान पर, यहीं धरती क्यों न फट जाए और मैं उसमें क्यों न समा जाऊं।
मैं 20 महीने पहले के मानसिक संसार में लौटती हूं और उन दिनों को याद करने की कोशिश करती हूं, जब ये किस्सा शुरू हुआ था तो बस इतना ही ध्यान आता है कि दिल्ली में कुछ प्रगतिशील साथियों की संगत में उदकते-फुदकते मैंने अनायास ही इस मुकुट को अपने माथे पे सजाया और मन ही मन सोचा, कितनी सुंदर लग रही हूं मैं। अपनी ही जिंदगी से ऐसा रोमांस पहले कभी महसूस नहीं किया था। कितना ग्लैमर है। अचानक मैं अपनी ही नजरों में ऊपर उठ गई हूं। अपने आसपास की तमाम लड़कियां हीन नजर आने लगीं। उफ, पति की चड्ढी धोना कब छोड़ेंगी ये औरतें। बैकवर्ड कहीं की। प्रगति मैदान में पुस्तक मेले में घूमते हुए मुझे अचानक ही सिगरेट की तलब होने लगती। तलब शरीर को नहीं, मन को होती थी। लेडीज बाथरुम में जाकर सिगरेट पीते हुए लगता, जाने कौन सा निषिद्ध इलाका मैं पार कर आई। मोटा मोटा सिंदूर लगाए मोटी आंटियां बाथरूम के अंदर आधुनिक पतिता को सिगरेट पीता देख अजीब से एक्सप्रेशन देतीं और मैं अपनी महानता के आगे उन्हें तुच्छ समझने का लोभ संवरण नहीं कर पाती थी। इन सूखी-मोटी आंटियों की जिंदगी में न रोमांस है, न ग्लैमर। ये क्या जानें। बस पुदीने की चटनी बनाया करें।
हां, वो कुछ और नहीं, रोमांस और ग्लैमर ही था। सिगरेट का ग्लैमर, जिसके साथ एक और दो शुरू हुआ सफर 5-8-10 तक होता हुआ कभी-कभी दिन में 15 तक का भी आंकड़ा पार कर जाता था।
बेशक, सिगरेट आधुनिकता और बौद्धिकता का ग्लैमरस प्रतीक है। होंठो के बीच सिगरेट दबाए ईजल के सामने झुकी फ्रीडा अपने रंगों से कैनवास पर ऐसा संसार रचती है कि टा्टस्की भी उसके मोहपाश में बंधने से खुद को रोक नहीं पाते, मेरी तो बिसात ही क्या। पेरिस के किसी रेस्त्रां में उन्नीसवीं सदी के बौद्धिकों का एक समूह होंठों में सिगरेट दबाए अस्तित्ववाद का दर्शन रच रहा है। सिगरेट पीते मुक्तिबोध की छवि अंधेरे में के साथ ऐसे एकाकार है, मानो मुक्तिबोध ने नहीं, उनकी सिगरेट की लत ने कविता लिखी थी। सिगरेट न होती तो न फ्रीडा चित्र बना पाती, न अस्तित्वाद का दर्शन ही धरती पर पैदा होता।
ये सिगरेट का ग्लैमर है, जो दिमाग में बचा रह जाता है। उस क्रिएशन के पीछे का अनथक श्रम, उर्वर दिमाग, गहन जिज्ञासाएं और दुनिया को जानने की तड़प और गहरे सवाल दिमाग में नहीं ठहरते। ठहरती है तो बस होंठों के बीच दबी सिगरेट और धुएं के छल्ले। उसमें ग्लैमर है, आकर्षण है।
अधकचरे, आधुनिक, विचारशील दिमागों को होंठों के बीच धुएं के छल्ले उड़ाती सिगरेट वैसे ही आकर्षित करती है जैसे सनसिल्क से बाल धोने के बाद ऐश्वर्या के बालों की चमक विवाह और पति में अपने जीवन की सार्थकता ढूंढ़ने वाली आधुनिका कुमारी के दिल में बैठ जाती है। ऐसे बाल हों तो पति क्यों न प्यार करे भला। सिगरेट हो तो क्रिएटिविटी क्यों न फूट-फूटकर बहे भला।
एक समय के बाद शरीर और मन को इसकी लत लग जाने के बाद क्या होता है पता नहीं, लेकिन सिगरेट पीने की शुरुआत के पीछे कुछ-कुछ ऐसी ही मानसिकता होती है। बाद में शरीर भी आदी हो जाता है। मन तो खैर होता ही है।
दरअसल दिक्कत सिगरेट नहीं है। दिक्कत है दिमाग का वह मैकेनिज्म, जो इस तरीके से काम करता है। जो अपनी बेहिसाब कमजोरियों और अधकचरेपन के बचाव के लिए तर्क बुनता है। अगर उस मैकेनिज्म पर ही सवाल न हो तो वह सिर्फ सिगरेट ही नहीं, असंख्य रूपों में बार-बार व्यक्त होगा। वो मूर्खाधीश टाइप एक कविता लिखकर खुद को महान रचनाकार समझने में, अपने औसत मंझोले ज्ञान को दुनिया की परम विद्वता आंकने में व्यक्त होगा। वो दिमाग अपने ही प्रेम में डूबा और एक झूठी काल्पनिक दुनिया गढ़ता मानस रचेगा। वो मूर्खों का सम्राट होगा।
दिक्कत सिगरेट से नहीं, मूर्खों का सम्राट होने से है। 10 रुपए का लक्स लगाकर किसी का दिल चुरा लेने के मीडियॉकर विचारशील संसार से है।
Sunday, 4 October 2009
सुख कहां है ?
अधिकारहीन और बड़ों का गुलाम बचपन बड़ों जैसे अधिकारसंपन्न हो जाने में सुख ढूंढता था। वक्त गुजरा। लड़की बड़ी हो गई। बड़ी हो गई तो मां की बेडि़यों से निजात मिली और अपना जीवन खुद रचने-गढ़ने का मुगालता विश्वास बनकर छाती में बैठ गया। सुख तब भी नहीं था। कभी एक क्षण को प्रकट होता, लगता बस छू लेने भर की दूरी पर है, लेकिन फिर अगले ही क्षण गायब हो जाता।
Friday, 2 October 2009
एक आत्मस्वीकारोक्ति के बहाने कुछ सवाल–2
अब जब ये आदत नहीं रही तो इस पर किसी सार्वजनिक मंच से बात करना बहुत नहीं तो थोड़ा आसान जरूर हो गया है। ये बिलकुल वैसा ही है जैसे चोरी छोड़ देने के बाद कोई दार्शनिक लहजे में यह स्वीकारे कि कभी वो चोर हुआ करता था। जिस आदत को मैं दुनिया से छिपाती फिरी कि कहीं मेरे ऑफिस में किसी को पता न चल जाए, आज उसी के बारे में उस तटस्थता से लिख रही हूं मानो वे किसी और की जिंदगी के चित्र हों।
खुद अपने अनुभव और अपने आसपास की लड़कियों (पुरुष नहीं सिर्फ स्त्रियां) के अध्ययन से जो सीधी-सपाट बात मेरी समझ में आती है वो यह कि सिगरेट पीने के पीछे अमूमन फैशन, अपनी बराबरी और मुक्ति का एहसास और झूठा किस्म का अपने बचाव के लिए बुना गया तर्क होता है कि यह क्रिएटिव होने की निशानी है। सिगरेट फैशन और हर समय प्रगतिशीलता को ओढ़ने-बिछाने वाले कुछ मित्रों की सोहबत का नतीजा होती है। हमें दुनिया से आपत्ति है, इस दुनिया के रचे हर नियम-कायदे, मूल्य-विचार, उसके सिर-पैर, नाक-पूंछ सबसे आपत्ति है। दुनिया मेरे ठेंगे पर। मैं वो हर काम करके दिखा दूंगी, जो दुनिया के तयशुदा पैरामीटर कहते हैं कि “लड़की हो, मत करो।” मां ने कहा, “लज्जा लड़की का गहना है।” मैंने कहा, ऐसे गहने पर मैं थूकने भी न जाऊं। ऐसा गहना पहनूंगी कि मां की सात पीढि़यों में किसी ने कल्पना नहीं की होगी। वह कर दिखाना है, जो सदियों से नहीं किया गया, जिसे सदियों से करने से रोका जाता रहा।
पापा चूंकि अपनी बात थोपने के बजाय तर्क की राह चलते थे तो मेरा तर्क होता कि मेरे शरीर को इसकी जरूरत है। जैसे मां चाय के बिना नहीं रह सकतीं, मैं धुएं के बिना नहीं रह सकती। धुएं बगैर मुझे कॉन्सटिपेशन हो जाता है। मेरा पेट खराब हो जाता है। मेरा दिन खराब हो जाता है। मेरा काम खराब हो जाता है, नींद खराब हो जाती है, कुल मिलाकर जीवन ही खराब हो जाता है। तो भईया, जीवन काहें खराब करो। लो डंडी, सुलगाओ, सुखी रहो। तब मैंने एक भी बार नहीं सोचा कि पहले तो नहीं होता था ऐसा। सिगरेट तो अभी एक साल से पी रही हूं, उसके पहले क्या 27 साल कॉन्सटिपेशन और मेरा, कम्प्यूटर और की-बोर्ड का साथ था कि एक के बिना दूसरे का अस्तित्व बेमानी है। ये तो मैंने ही अपने शरीर का इतना सत्यानाश कर डाला है और कमर कसे बैठी हूं कि जब तक इस विनाश के चरम पर नहीं पहुंच जाती, हार नहीं मानूंगी। मम्मी तुरंत रसोई में से मेथी का पाउडर ढूंढ लातीं, बाबा रामदेव का कब्ज निवारक चूर्ण, अजवायन-जीरा-मेथी का पाउडर और ईसबगोल की भूसी कि बेटा ये सब ले ले, लेकिन धुएं से तौबा कर।
आगे जारी............
Thursday, 1 October 2009
एक आत्मस्वीकारोक्ति के बहाने कुछ सवाल
एक महीने से ऊपर गुजरे, मैं अपनी दुनिया को सिगरेट के धुएं से आजाद कर चुकी हूं। वह धुआं जो एक महीने पहले वैसे ही मेरे होने का हिस्सा था, जैसे मेरे बाल, मेरी नाक, की-बोर्ड पर फिसलती मेरी ये उंगलियां और जैसे बर्गमैन के लिए समझ की सीमाओं से परे मेरा विचित्र आकर्षण।
मैं उत्तर प्रदेश के एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार में पैदा हुई, पली और एक हिंदी अखबार के घनघोर सामंती परिवेश में अपनी रोजी के लिए चाकरी करने वाली एक लड़की सारी दुनिया से छिपाकर अपने घर के एकांत में सिगरेट के साथ अपना मन और जीवन साझा करती थी। मेरे बहुत नजदीकी और जिनकी सोच में औरत और आदमी के लिए अलग-अलग खांचे नहीं हैं, वही मेरे इस राज के साझेदार थे। हालांकि जिस अखबार में मैं नौकरी करती हूं, उसी के अंग्रेजी अखबार डीएनए में काम करने वाली कई लड़कियां सार्वजनिक रूप से ऑफिस के गेट पर खड़े होकर भी इस हरकत को अंजाम देने का साहस रखती थीं, लेकिन मैं नहीं। मुझे ऑफिस के दुबे, चौबे जी, तिवारी जी और भदौरिया जी की बड़ी परवाह थी। कैरेक्टर सर्टिफिकेट का भय सिगरेट के लॉजिकल डिफेंस पर भारी था। मेरे मां-पापा ये बात जानते थे। वे जानते थे क्योंकि मेरे न चाहने के बावजूद मैं ये चाहती थी कि अब वे जान ही जाएं तो बेहतर है। मां को दुख था, पिता को चिंता। मां बिफरती, सिमोन और तसलीमा को गरियाती कि उन्हीं की वजह से आज उन्हें ये दिन देखना पड़ा है कि मेरी गहन संस्कारी लड़की ने जाने कौन पतित राह पकड़ी है। पापा उन्हें समझाते कि ऐसे डांटो मत। उनके अपने लॉजिक थे। वे मां से कहते, अगर तुम लड़की होने के कारण उसे सिगरेट छोड़ने को कहोगी तो वो दो पीती होगी तो चार पिएगी। हां, सेहत वाला तर्क वाजिब है। उसे वैसे ही समझाओ। और फिर उनके तर्क का विस्तार यहां तक जाता था कि सुधा, (मेरी मां) अगर डांटोगी, चिल्लाओगी तो सिर्फ इतना ही कर पाओगी कि वो हमारे सामने नहीं पिएगी। लेकिन पीठ पीछे तो यह काम होता रहेगा। क्या यह ज्यादा बेहतर नहीं है कि हमसे झूठ बोलने या छिपाने के बजाय वो जो कर रही है, हमारे सामने कर रही है। मां सहमत थीं या नहीं, पता नहीं। लेकिन उन्होंने डांटना छोड़ दिया। सिर्फ निवेदन करती थीं, बेटा छोड़ दे, ये अच्छा नहीं है।
मां के तर्क से मैं भी सहमत हूं, अच्छा तो नहीं है। फिर क्यों मैंने इस आत्महंता विशंज को शंकर के सांप की तरह अपनी छाती से चिपटाकर रखा है। मैं मां के निवेदन और पापा के ठोस तर्कों से सहमत हूं कि ये सेहत के लिए जहर है। फिर मैं क्यों अपने फेफड़ों को आबनूस की लकड़ी बना देने पर तुली हूं। होंठ गुलाबी हों तो क्या मुझे मियादी बुखार जकड़ता है तो क्यों मैं सिगरेट के धुएं से उसे काला और खुरदुरा कर देना चाहती हूं।
ऐश्टे् और लाइटर, जो कभी अनिवार्य रूप से हमेशा मेरे पढ़ने की मेज, किताबों के कोने, कम्प्यूटर के पास और सिरहाने रखा रहता था, आज जब वह लावारिस किसी कोने में उपेक्षित सा पड़ा है तो मैं उस मन और उस चोर दरवाजे की पड़ताल करना चाहती हूं, जिससे होकर फेफड़ों को (मुंह को नहीं) काला करने वाली यह आदत मेरी दुनिया में दाखिल हुई थी। वो क्या मेंटल स्टेट है? मन और दिमाग क्या सोचकर ऐसा करते हैं? हम क्यों जानबूझकर इस तरह गुलाम होते जाते हैं किसी के। जिस प्रेम में दुनिया बेगानी नजर आती है, बुद्धि पर ताले लग जाते हैं, कोई लाख समझाए राह सूझती नहीं, उसी प्रेम की लाचारगी और बेचारगी पर एक उम्र गुजरने के बाद मन हंसता है। वो बेवकूफ मैं ही थी क्या। लगता तो नहीं कि मैं कभी इतनी झंडूबाम रही होऊंगी, लक्स साबुन के दस रुपए में ले गए उनका दिल टाइप काठ की उल्लू।
जारी………...