Wednesday, 28 November 2007

हरी जिल्‍द वाली डायरी

आज पुराने कमरों की सफाई करते हुए हरी जिल्‍द वाली एक डायरी सुधा के हाथ लगी। 23 साल पुरानी कविताएं थीं, सुंदर-गोल अक्षरों में लिखी हुई। सूती साड़ी को सिर में लपेटे धूल अंटे कमरे में वहीं लोहे के एक ट्रंक पर बैठकर सुधा कविताएं पढ़ने लगी। ये उसी की लिखी हुई हैं, हां, अक्षर तो उसी के हैं। कुछ प्रेम कविताएं थीं, सुकुमार के लिए लिखी गई। सुकुमार, सुधा के पति, जो एक प्रसिद्ध लेखक और कवि थे।

आज कोई नहीं जानता, सुधा कविताएं लिखती थी और बहुत सुंदर कविताएं। खुद सुधा भी यह भूल चुकी‍ थी, अचानक ये डायरी हाथ न लगी होती तो......

पहले-पहल सुकुमार सुधा की कविता पर ही मोहित हुए थे। फिर विवाह के बाद एक मित्र के घर में आयोजित कविता पाठ में दोनों ने कविताएं पढ़ी। सुधा की कविताओं में सुकुमार से कहीं ज्‍यादा गहराई और परिपक्‍वता थी। वहां मौजूद एक बूढ़े कवि की आंखें भर आईं, मित्र प्रशंसा में बिछ गए। सुकुमार अलग-थलग।

सुधा उड़ी जा रही थी। उसे उम्‍मीद थी कि उसकी इस खुशी में, उपलब्धि में सुकुमार उसके साथ थे। रात में सुकुमार चश्‍मा लगाकर बिस्‍तर पर लेटे-लेटे एक किताब पढ़ रहे थे। सुधा सुकुमार पर झुकी और मारे लाड़ के चश्‍मा खींचकर उनके चेहरे को अपने लंबे-खुले बालों से ढंक दिया। सुकुमार खीझ उठे। खींचतान में कुछ बाल नुचे। शादी के बाद वो पहली ऐसी रात थी।

फिर जब भी कविता उन दोनों के बीच आई, सुकुमार कहते, कथ्‍य ठीक है तुम्‍हारी कविताओं का, लेकिन शिल्‍प नहीं। परिपक्‍व नहीं है। क्‍यूं सिर खपा रही हो। फिर जब भी सुकुमार के दोस्‍त सुधा से कविताओं की फरमाइश करते, रात को सुकुमार करवट बदलकर, दूसरी ओर मुंह करके सोते और सुधा पूरी रात जागती रहती।

फिर एक दिन उसने कविताओं की डायरी, कागज सब जला दिए और उस दिन के बाद से न कभी कविता लिखी, न पढ़ी। उस दिन के बाद से उसकी वह तेज, बेलगाम खिलखिलाहट भी कभी नहीं दिखी, न कभी उसने अपने बालों से सुकुमार का चेहरा ही ढंका। सुकुमार ने भी उन डायरियों के बारे में कभी नहीं पूछा।

ये हरी जिल्‍द वाली डायरी जाने कैसे बची रह गई थी। कूड़ा-कबाड़ अलग करते हुए उस डायरी को पोंछकर सुधा ने किनारे रख दिया। सुकुमार के वापस लौटने से पहले पूरा दिन कविताएं पढ़ती रही और लौट-लौटकर उस दुनिया में जाती रही, जब वो युवा और खूबसूरत थी, ढेरों सपनों और उमंगों से भरी थी।

रात हो रही थी, सुकुमार के आने का वक्‍त हो चला था। दरवाजे की घंटी बजी। डायरी को कबाड़ के ढेर में फेंककर सुधा ने दरवाजा खोला। सुकुमार आज बड़े प्रसन्‍न थे। उनकी नया कविता-संग्रह छपकर आया था। सुकुमार सुधा की कमर में हाथ डाले किताब का कवर दिखा रहे थे। हरी जिल्‍द वाली डायरी मन की किन्‍हीं गहरी पर्तों में दफन हो चुकी थी।

Tuesday, 27 November 2007

सोचो, क्‍या कर रही हो तसलीमा

बारहवीं पास की ही थी, जब मैंने 'औरत के हक में' में पहली बार पढ़ी। लिटरली मेरी रातों की नींद हराम हो गई थी। फिर मैं ढूंढती रहती कि कहां तसलीमा का लिखा कुछ मिले और मैं उसे घोट जाऊं। फिर 'नष्‍ट लड़की नष्‍ट गद्य' पढ़ा। फिर लज्‍जा। फिर सारे कविता संग्रह ढूंढ-ढूंढकर, ट्यूशन के पैसे बचाकर खरीदे और रातों को जाग-जागकर पढ़े।

पिछड़े हिंदी प्रदेश के निम्‍न-मध्‍यवर्गीय परिवारों से आने वाली और एक खूंटे में बंधा, 'ये मत करो, वो मत करो' जैसे ढेर सारे नियमों वाला जीवन जीने वाली मुझ जैसी जाने कितनी लड़कियों की नींदें उस किताब ने कत्‍ल की होंगी।

औरत के हक से शुरू हुई यह यात्रा 'वे अंधेरे दिन' पर आकर खत्‍म हुई और इस बीच द्विखंडित से लेकर फ्रांसीसी प्रेमी तक तसलीमा का लिखा कुछ भी मेरे पढ़ने से छूटा नहीं। अब उनकी आत्‍मकथा का पांचवा भाग भी आ चुका है, और अभी कुछ दिन पहले एक दुकान में किताबें पलटते हुए वो किताब देखकर मैंने परे खिसका दी। कभी सुभीता हुआ तो पढ़ भी सकती हूं, लेकिन फिलहाल तसलीमा अब मेरी वरीयता सूची में नहीं हैं।

उस स्‍त्री के साहस, उसकी भावनाओं को सलाम करती हूं, और उनकी आत्‍मकथा के चारों भाग पढ़ने के बाद कोई भी उस साहस के आगे नतमस्‍तक होगा। लेकिन यहां मेरे सवाल कुछ और हैं। तसलीमा कोई बहुत महान लेखिका नहीं हैं, और न ही उनकी रचनाएं अपने समय और जीवन के सवालों, स्‍वप्‍नों की बहुत आंतरिक झलक देती हैं। 17-18 साल की उम्र में किसी लड़की को वो बातें इसलिए आकर्षित करती थीं, क्‍योंकि बहुत अपनी प्रतीत होती थीं। अपनी ही जिंदगी के दुख, अपने ही सवाल लगते थे, और उस साहस के प्रति के आकर्षण, जो हममें तो नहीं था, लेकिन दूर देश की किसी स्‍त्री ने दिखाया था।

लेकिन जब चिंताएं ज्‍यादा गहरी हों, अपने आसपास की दुनिया को समझने, सवालों का हल पाने की जिज्ञासा ज्‍यादा बड़ी हो जाए, तो उन सवालों के जवाब किशोरावस्‍था की उस प्रिय लेखिका के पास नहीं मिलते। उसकी किताबें दुनिया को ठीक-ठीक उस रूप में, जैसीकि वह है, समझने में कोई मदद नहीं करती।

आज से पचीस साल पहले जब तसलीमा ने लिखना शुरू किया था, तब से लेकर आज तक मुझे उनके लेखन में कोई उत्‍तरोत्‍तर गति नहीं नजर आती। हर अगली किताब पिछले की पुनरावृत्ति है। कई मसलों में तो वो पीछे जाती दिखती हैं, जैसेकि 'फ्रांसीसी प्रेमी' मुझे कई मामलों में काफी कमजोर और लचर उपन्‍यास लगा। चार कन्‍या कि चार लघु उपन्‍यासों से भी ज्‍यादा लचर।
ये सारी बातें तीसरी दुनिया के एक गरीब मुल्‍क की निम्‍न-मध्‍यवर्गीय मुस्लिम परिवार से आने वाली लड़की के जीवन, उसके रचना-कर्म और 'मैं सुखी नहीं हूं, तुम सुखी रहना मेरे देश' लिखने वाली उस स्‍त्री के दुखों को कम करके आंकना नहीं है।

लेकिन ये भी तो सवाल हैं कि कोई किन प्रेरणाओं, किन आंतरिक जरूरतों और सवालों के वशीभूत होकर लिख रहा है। लेखक होने का क्‍या अर्थ है, कोई क्‍यूं लिखता है। किसी को क्‍यूं लिखना चाहिए, क्‍यूं सिर्फ लिखना ही चाहिए। किसी लेखन का अर्थ और उपयोगिता क्‍या है। किसी एक बिंदु से शुरू हुआ यह सफर किन रास्‍तों, दर्रों से गुजरता आग बढ़ा जा रहा है।

आगे जारी.....

Monday, 26 November 2007

मेरा समय और लड़कियों की मुख्‍य चिंताएँ

अभी कुछ दिन पहले मुझसे किसी ने पूछा था कि अपने हॉस्‍टल की लड़कियों का जिक्र करते हुए तुम हमेशा प्‍यार और शादी के बारे में ही क्‍यों लिखती हो। मैंने याद करने की कोशिश की कि हॉस्‍टल में जब भी, जिस भी लड़की से मेरी बात हुई या कि लड़कियों की आपसी बातें, तो वो प्‍यार, शादी, ब्‍वॉयफ्रेंड, ब्रांडेड जींस, शाहरुख खान, रेसिपी, इयर रिंग या नूडल्‍स-पिज्‍जा के अलावा किसी और विषय पर भी बातें करती थीं क्‍या। इमोशनल मेलोड्रामा या घर-परिवार की निजी बातें और उन बातों में भी प्‍यार-शादी की झालर सजी ही रहती थी।

ये लड़कियां अमरीकी चुनाव में बुश की विजय, बिहार से लालू के रफा-दफा होने या ग्‍लोबलाइजेशन की समस्‍याओं से व्‍यथित नहीं होती थीं। पेप्‍सी में पेस्‍टीसाइड मिले चाहे गोबर, उनकी बला से। नस्‍लवाद, सांप्रदायिकता, आतंकवाद या ग्‍लोबल वार्मिंग उन लड़कियों की चिंता के सवाल नहीं थे। वर्ल्‍ड ट्रेड सेंटर पर हमले या गोधरा कांड के बारे में थोड़ी-बहुत बातें जरूर कर ली जाती थीं, लेकिन फिर लड़कियां अपनी मूल चिंताओं पर लौट आतीं और इस बात पर मगन होने लगतीं कि अब ग्‍लोबस से शॉपिंग करने के लिए बांद्रा नहीं जाना पड़ेगा, क्‍योंकि यहीं काला-घोड़ा में ग्‍लोबस का नया स्‍टोर खुल गया है।

न हाउसिंग लोन की चिंता थी, और न करियर के ही बड़े पचड़े थे। एक चीज मुझे आश्‍चर्यजनक रूप से याद है कि कोई भी लड़की बहुत ज्‍यादा करियरिस्‍ट टाइप की भी नहीं थी। हो सकता है, मैनेजमेंट या साइंस इंस्‍टीट्यूट्स की या कुछ प्रोफेशनल कोर्स करने वाली लड़कियां ऐसी होती भी हों, लेकिन फिलहाल एस.एन.डी.टी. यूनीवर्सिटी की ग्रेजुएशन और पोस्‍ट ग्रेजुएशन की लड़कियों में वो फैकल्‍टी बिल्‍कुल नदारद थी। पिताओं के बैंक अकाउंट में भविष्‍य सु‍रक्षित था। बहुत तेजी से बदल रही दुनिया में उनकी सारी चिंताएँ वेस्‍टसाइड के कुर्तों और लिंकिंग रोड की चप्‍पलों तक ही सीमित थीं। प्रीती जिंटा और ऐश्‍वर्या राय के बाद बरखा दत्‍त उनकी आदर्श थीं। पढ़ने के नाम पर एम.कॉम की लड़कियां इकोनॉमिक टाइम्‍स पढ़ती थीं और फैशन डिजाइनिंग वाली फेमिना। फिल्‍म फेयर कॉमनली पढ़ी जाती थी।

ये बातें तब की हैं, जब मैं एम।ए. में पढ़ रही थी। हॉस्‍टल और यूनीवर्सिटी की फीस खासी थी। यहां पढ़ने वाली लड़कियां पंजाब, गुजरात, बंगाल और दक्षिण भारत के समृद्ध परिवारों से आती थीं। सब जींस पहनती और अँग्रेजी में बात करती थीं। किसी मामूली निम्‍न-मध्‍यवर्गीय व्‍यक्ति के लिए वहां अपनी लड़की को पढ़ाना और वहां के खर्चे उठाना संभव ही नहीं था। मैं अकेली थी, उन लोगों के बीच, जो सरकारी हिंदी मीडियम स्‍कूल से पढ़कर हिंदी लिटरेचर में एम.ए. करने इतनी दूर मुंबई आई थी और अपना खर्चा उठाने के लिए वॉर्डन और लड़कियों से छिपाकर ट्रांसलेशन का काम करती थी। जिसने जींस पहनना, अँग्रेजी बोलना, क्रिसमस पार्टी में हाथ-पैर फेंक-फेंककर डिस्‍को करना और कांटे से नूडल्‍स खाना वहां उन लोगों के बीच रहकर सीखा।


स्‍टूडेंट हॉस्‍टल की लड़कियों के बीच एक किस्‍म की सांस्‍कृतिक एकरूपता थी। सभी कमोबेश एक वर्ग विशेष से ताल्‍लुक रखती थीं और उस वर्ग की खासियतों से लबरेज थीं। उनका जीवन, दुख-सुख, चिंताएं और सवाल कमोबेश एक से थे। बाद के वर्किंग वीमेन हॉस्‍टल की लड़कियों की तरह उनमें गहरे वर्गीय, सांस्‍कृतिक और जीवनगत विभेद नहीं थे। इतनी गहरी खाई नहीं कि जिसे पाट सकना नामुमकिन होता।

Saturday, 24 November 2007

उफ, ये बोरियत

मुंबई में जिन तीन अलग-अलग हॉस्‍टलों में मैं रही, उन सब जगहों पर लड़कियों की जिंदगी में एक चीज कॉमन थी, और वह थी आए दिन सिर उठा लेने वाली बोरियत। हमेशा कोई-न-कोई बोरियत की शिकायत करता मिलता। -‘यार बोर हो रहा है। क्‍या करूं, चल वेस्‍टसाइड होकर आते हैं। विंडो शॉपिंग करेंगे।

बोरियत जैसे कोई सबसे खूबसूरत रेशमी साड़ी थी, जिसे आपस में बांटकर बारी-बारी से लड़कियां पहना करती थीं। दिन अच्‍छे गुजरते रहते, फिर एकाएक बोरियत का दौरा पड़ जाता। मन नहीं लगता इस जहां में मेरा। हाय ये बोरियत।

बोरियत के ये दौरे सांवली, कमजोर, साधारण नैन-नक्‍श और मामूली तंख्‍वाहों वाली लड़कियों पर नहीं आते थे। मैंने कभी फहमीदा, येलम्‍मा या प्रभा को बोरियत का गाना गाते नहीं देखा था। ये गाना ज्‍यादातर वो लड़कियां गाती थीं, जिनके वीकेंड उनके ताजातरीन ब्‍वॉयफ्रेंड के साथ बैंड स्‍टैंड और मरीन ड्राइव पर बीता करते थे। जिनके परफ्यूम तो क्‍या, जूते-चप्‍पल तक खुशबू मारते थे। ये गाना मैं भी गाती थी कभी-कभी, पर मेरा सुर इतना सधा हुआ नहीं था। डेजरे डायस तो जब देखो तक तानपूरा उठाए बोरियत राग का आलाप लेती नजर आतीं।

सुबह बोरियत का आलाप चल रहा होता। शाम तक मरीन ड्राइव की एक सैर और AXE का नया डियो। बोरियत दूर भाग जाती। लेकिन कब तक के लिए। दो दिन बाद डियो पुराना पड़ जाता और फिर वही जानलेवा बोरियत। फिर एक नई सैंडिल से जीवन में कुछ दिन नयापन रहता और फिर वही डिप्रेसिंग बोरियत। लिप्‍सटिक के किसी नए शेड में कुछ ज्‍यादा समय तक बोरियत को दूर रखने की कूवत होती थी। नई ब्रांडेड जींस या टी-शर्ट में लिप्‍स्‍टिक के बराबर या उससे कुछ मामूली-सी ज्‍यादा।

और भी कुछ चीजें बोरियत भगातीं और जिंदगी में नयापन लातीं, जैसेकि कोई नई हेयर-स्‍टाइल, एकाध किलो वजन कम होना, जींस की नई स्‍टाइलिश बेल्‍ट, ऑक्‍सीडाइज्‍ड या कॉपर ज्‍वेलरी, कोलाबा या कफ परेड में घूमते-शॉपिंग करते बिताई गई कोई शाम, ब्‍वॉयफ्रेंड का एक किस, लिबर्टी या मेट्रो में कोई नई रोमांटिक फिल्‍म, शाहरुख खान का नया लुक या ‘कल हो ना हो' में प्रीती जिंटा के अमेजिंग आउटफिट्स वगैरह।

मुझे याद है, एक दिन डिनर के बाद सभी टीवी रुम में बैठे बोर होने की शिकायत कर रहे थे। तभी ‘इट्स द टाइम टू डिस्‍को' टीवी में आने पर अचानक बातचीत का रुख प्रीती जिंटा के वेस्‍टर्न आउटफिट्स की ओर मुड़ गया। देबाश्री और डेजरे की आंखें उत्‍साह से चमकने लगीं। सभी लड़कियां अपने समय के उस बेहद जरूरी कन्‍वर्सेशन में अपना योगदान देने के लिए मचलने लगी थीं।

ऐसी तमाम बातें कुछ देर के लिए बोरियत भगातीं, जीवन में नएपन की बहार लातीं, लेकिन फिर वही मुई बोरियत।

मैंने इतने बड़े पैमाने पर फैली हुई इस बीमारी पर कुछ गहन विचार करना चाहा। मुझे लगा, शायद इस उम्र में ऐसा होता ही होगा। मे बी सम हॉर्मोनल चेंजेज....... हो सकता है, 18 से 23 की उम्र में दादी को भी इतनी ही बोरियत होती रही हो और मम्‍मी को भी। मैंने एक बार मां से अपनी इस समस्‍या का समाधान भी चाहा। बात उनकी समझ में नहीं आई। कैसी बोरियत, काहे की बोरियत, कहकर बड़बड़ाती हुई वो अपने काम में लग गईं।

फिलहाल बोरियत का बैक्‍टीरिया हमारी जिंदगी में बदस्‍तूर बना हुआ था। लिप्‍स्‍टिक से लेकर शाहरुख खान तक किसी में बोरियत को स्‍थाई रूप से दूर करने की ताकत नहीं थी। बोरियत कभी-कभी बेसाख्‍ता बढ़ जाती। कभी किसी लड़की का अपने ब्‍वॉयफ्रेंड से झगड़ा हो जाता या किसी ने अपने ब्‍वॉयफ्रेंड को किसी और लड़की के साथ देख लिया होता। उसके बाद 'जीवन क्‍या है' और 'प्रेम क्‍या है' जैसे गंभीर सवालों पर चिंतन-मनन होता। बड़े दार्शनिक लहजे में लड़कियां लड़कों के फरेबी चरित्र और प्रेम की निस्‍सारता के बारे में बात करतीं और सूं-सूं करती नाक बहाती रोतीं। दूसरी लड़की, जो शाम तक पैडीक्‍योर करवाने की वजह से काफी प्रसन्‍न होती थी, अचानक भावुक हो उठती। 'लड़के तो ऐसे ही होते हैं, घमंडी, धोखेबाज। डू नॉट क्राय बेबी, आय अंडरस्‍टैंड.....।'

दिल टूटते और फिर जुड़ जाते। प्‍यार के तमाम दार्शनिक किस्‍से बार-बार दोहराए जाते। फिर शाम को आई लाइनर लगाकर लड़कियां मैचिंग पर्स झुलाती नए साथी के साथ सैर पर जातीं और फैशन स्‍ट्रीट से 500 की जींस 200 में लेकर लौटतीं।

एक के साथ ब्रेक-अप होने पर लड़कियां बड़ी बेचैनी से किसी नए ब्‍वॉयफ्रेंड की तलाश करती थीं। एक बार सॉल्‍ट लेक, कोलकाता से एक लड़की आई - पिया घोष। वो तो हर समय गाय की सींगों की तरह सिर पर बोरियत की ताज सजाए चलती थी और हमेशा मुझसे कहती, 'लाइफ इज सो बोरिंग। तुम्‍हारे ऑफिस में कोई लड़का नहीं है, मुझसे मिलवा दो ना।'

एक अदद ब्‍वॉयफ्रेंड पाने के लिए उसकी बेचैनी की कोई सीमा नहीं थी। ये सारी चीजें मेरे लिए इतनी नई और विचित्र थीं कि मैं बात-बात पर नए पैदा हुए बच्‍चे की तरह मुंह में उंगली दबाए आश्‍चर्य से हाय-हाय करती थी।

इलाहाबाद में तो शादीशुदा लड़कियां भी प्रेम का ऐसे खुल्‍ला गाना नहीं गातीं, जैसी बेहया ये बड़े शहरों की लड़कियां हैं। मैं तो इसकी सखी-सहेली भी नहीं कि कहती है कोई ब्‍वॉयफ्रेंड दिलवा दो। जैसे चार रु. पाव तोरई है, जो बाजार से दिलवा दूं।

Thursday, 22 November 2007

प्रगतिशील नारीवादी के साथ फैब इंडिया की सैर

एक बार मुंबई में एक महिला से मेरी जान-पहचान हुई। मैक्‍समूलर आर्ट गैलरी में सुधीर पटवर्द्धन के चित्रों की प्रदर्शनी लगी थी। वह महिला भी वहां आई थीं। उम्र बत्‍तीस के आसपास। पतिदेव सॉफ्टवेअर इंजीनियर थे।

महिला प्रगतिशील नारीवादी थीं। साथ ही मार्क्‍सवादी भी थीं। महिला व उनके पति, दोनों को प्रगतिशीलता और मार्क्‍सवाद के गुण विरासत में मिले थे - फैमिली हेरिडिट्री। फिर भी वो महिला लगातार बताती रहतीं कि विचारों से वह कितनी प्रगतिशील हैं। ‘कम्‍युनिस्‍ट मेनिफेस्‍टो’ से लेकर ‘परिवार, निजी संपत्ति और राज्‍य की उत्‍पत्ति’ तक उन्‍होंने भलीभांति घोंट रखा है। मार्खेज और केट मिलेट को भी नहीं छोड़ा। वो चित्रकला, सूफी-क्‍लासिकल-जैज और उम्‍दा कला फिल्‍मों की किस कदर दीवानी हैं। मौका मिलते ही वह स्त्रियों की आजादी के पक्ष में भाषण देने लगतीं - तोड़ो कारा तोड़ो......।

वो हमेशा कुछ खास रंगों के कॉटन के कुर्ते पहनतीं, खादी टाइप झोला टांगती और पैर में फ्लैट जर्नलिस्टिक लुक वाली चप्‍पल पहनतीं। आंखों में काजल, खुले बाल और धूप वाला चश्‍मा उनकी पहचान था। शुरू में मुझे लगा कि वो कुछ नौकरी-वौकरी करती होंगी, लेकिन मैं गलत थी। वह दिल्‍ली यूनिवर्सिटी से मनोविज्ञान में पोस्‍ट-ग्रेजुएट थीं और पिछले 7 सालों से रिसर्च कर रही थीं, किए जा रही थीं।

उस पेंटिंग एक्जिबिशन के बाद फिर कई बार हमारी मुलाकात हुई। मैं उनके घर भी गई एक-दो बार। नारीवाद के कुछ लक्षण तो मुझमें भी थे, लेकिन संभवत: उन्‍हें लगता था कि मेरे इस संप्रदाय में दीक्षित होने में कुछ कमियां रह गई हैं। वो उन कमियों को दूर करने के लिए तत्‍पर थीं। मुझसे हमेशा इस लहजे में बात करतीं कि सिखाने और उपदेश देने के लिए उद्धत जान पड़तीं।

एक शाम उन्‍हें शॉपिंग के लिए फैब इंडिया जाना था। मेरे ऑफिस फोन करके पूछा कि मैं कब खाली हो रही हूं। शनिवार का दिन था। दो बजे ऑफिस से छूटकर 238 नं. बस पकड़कर गिरगांव चौपाटी से मैं सीधा जहांगीर आर्ट गैलरी पहुंची। जहांगीर पर ही मिलना तय हुआ था। मैंने पहली बार फैब इंडिया का नाम उन्‍हीं के मुंह से सुना था, क्‍योंकि अपने घर के बहुत सारे लकड़ी और बेंत के सामानों की ओर इशारा करते हुए उन्‍होंने बताया था कि ये सारे सामान उन्‍होंने फैब इंडिया से खरीदे हैं। मुझे अपने पिछड़ेपन पर बड़ी कोफ्त हुई। इतनी बड़ी चीज का नाम मुझे कैसे नहीं मालूम हुआ अब तक। वेस्‍टसाइड, ग्‍लोबस और शॉपर्स स्‍टॉप वगैरह का नाम तो मैंने सुना था, और दर्शन भी किए थे। एस.एन.डी.टी. हॉस्‍टल की लड़कियां वहां जाया करती थीं और इस तरह मेरे भी ज्ञान में इजाफा हुआ था। लेकिन फैब इंडिया के बारे में उन लड़कियों ने मुझे कभी कुछ नहीं बताया।

फिलहाल प्रगतिशील महिला शुरू थीं - फैब इंडिया का पर्दा, फैब इंडिया की चादर, फैब इंडिया का कुर्ता, फैब इंडिया की चप्‍पल। राम भज राम की तर्ज पर वो फैब इंडिया भज रही थीं और मैं भक्तिभाव से हाथ जोड़े सुन रही थी।

उस दिन फैब इंडिया से उन्‍होंने 4-6 कॉटन के कुर्ते खरीदे, एक चादर और दो कुशन कवर लिए। प्रगतिशील महिला दिल्‍ली में पढ़ी-लिखी जरूर थीं, लेकिन मूलत: सुल्‍तानपुर से आती थीं। बचपन में उन्‍होंने भी मेरी तरह मंगलवार की हाट से टिकुली-बिंदी खरीदी होगी और मुहल्‍ले की दुकान से सूजी और उडद की दाल, लेकिन फैब इंडिया की हर चीज को वो ऐसे बरत रही थीं, जैसे बचपन से यही देखती बडी हुई हों। उन्‍हें लगा कि हिंदी प्रदेश की चिरकुट भय्यानी को उनके व्‍यवहार की सारी अदाएं संपट जाएंगी।

फैब इंडिया की हर नई चीज देखकर उनकी आंखें उत्‍साह से चमकने लगतीं। उन्‍हें लगता कि कितना कुछ वो अपने घर में भर लें। बीच-बीच में वो मुझे समझाती जातीं – फैब इंडिया में सब जमीन से जुड़ी चीजें हैं। लकड़ी, बेंत, सूती, खादी, गृह उद्योग का शहद, अचार और मुरब्‍बा। सब जमीन से जुड़ा हुआ आम लोगों का सामान। मेरे ज्ञान-चक्षु खुल रहे थे। वेस्‍टसाइड और पेंटालून तो अमीरों के चोंचले हैं, फैब इंडिया जमीन से जुड़े लोगों की चीज हैं। प्रगतिशील, बुद्धिजीवियों, धारा से अलग हटकर सोचने वालों का स्‍टोर।

फिलहाल 3200/- का बिल बनवाकर प्रगतिशील महिला बाहर आईं। बिल देखकर मेरे कान खड़े हो गए। शॉपिंग की चमक से उनका चेहरा रोशन था। हम चर्चगेट स्‍टेशन की ओर बढ़े। रास्‍ते में फुटपाथ पर पुरानी सेकेंड हैंड किताबों की दुकानें नदारद थीं। कुछ दिन पहले खबर आई थी कि नगर पालिका ने उन दुकानों को बंद करवा दिया है। रास्‍ता झिकता है, आने-जाने में परेशानी होती है।

प्रगतिशील महिला दुख और क्रोध से उबल पड़ी। मुंबई में लोग इतने सेल्‍फ सेंटर्ड हैं। यहां कोई मूवमेंट, कोई एक्टिविटी ही नहीं है। किसी सोशल इशू पर लोगों की कोई गैदरिंग नहीं होती। ये दुकानें यहां से हटा दी गईं, हम क्‍या कर रहे हैं। दिल्‍ली में ऐसा नहीं होता। वहां मूवमेंट है, काम हो रहा है। एंड व्‍हॉट अबाउट द लेफ्ट। व्‍हॉट दे आर डूइंग। अपने शॉपिंग के पैकेट संभालते हुए वो बड़बड़ाती जा रही थीं। व्‍हॉट्स हैपनिंग ऑव लेफ्ट मूवमेंट इन दिस कंट्री, मनीषा। तुम्‍हें इन चीजों के बारे में सोचना चाहिए। मैं, जो मन-ही-मन फैब इंडिया से कुर्ता खरीदने की योजना बना रही थी, अचानक हुए इस हमले से सकपका गई। लगा, वो उलाहना दे रही हों, देश में लेफ्ट मूवमेंट का ये हाल है, और तुम्‍हें कॉटन के कुर्ते की पड़ी है।

अपनी 3200 की खरीदारी संभालती प्रगतिशील महिला बोरीवली की ट्रेन में सवार हुईं। मैं मरीन ड्राइव से हॉस्‍टल जाने वाली बस पर चढ़ी, दिमाग में कॉटन के कुर्तों और हिंदुस्‍तान में लेफ्ट मूवमेंट की चिंताओं से लदर-बदर। दूर समंदर की लहरें पछाड़ खा रही थीं।

Saturday, 17 November 2007

पुरानी यादें

कविता से अलगाव के 7 सालों बाद उस दुनिया में मेरी वापसी प्‍यार में डूबी हुई लड़कियों’ के मार्फत नहीं हुई। ब्‍लॉग लिखने के नए-नए जोश में मैं इस कविता को भूल ही गई थी, जो अभी दो-ढाई महीने पहले लिखी गई है और सही मायनों में कविता के देश में मेरी वापसी का पुल यही कविता है - पुरानी यादें।



पुरानी यादें

1
कहां जाती हैं
पुरानी यादें
प्‍लास्‍टर झड़ी दीवार की तरह
रहती हैं हर घड़ी आँखों के सामने
छत पर पुराने सीलिंग फैन की तरह
लटकी होती हैं
और घरघराती हैं पूरी रात

2
कभी कोई नर्म हथेली बनकर
तो कभी सूजे हुए फफोलों का दर्द
जिंदा रहती हैं यादें
कहीं नहीं जातीं
जमकर बैठ जाती हैं छाती में
पूरी रात दुखता है सीना
आँखें सूजकर पहाड़ हो जाती हैं

3
पुराना घाव बनकर यादें
रिसती रहती हैं दिन-रात
हलक में अटकी पड़ी रहती हैं सालों-साल
न उगली जाती हैं, न निगली

4
पुरानी यादें
ठहरे हुए पानी की तरह
सड़ती हैं
अटकती हैं सांस रात भर
रातें गुजरती हैं मुश्किल से

5
पुराने छोटे पड़ गए कपड़ों की तरह
बंद कर किसी जंग खाए संदूक में
पुरानी यादों को
कहीं दूर छोड़ आऊं
इतनी दूर
कि पहचानकर मेरा संदूक
कोई वापस न छोड़ जाए मेरे दरवाजे

6
घर के गर्दो-गुबार की तरह
सूरज उगने से पहले
बुहारकर निकाल दूं
सारे बीते दिन
गुजरी हुई यादें
इतनी दूर
कि हवा के साथ उड़कर वापस न आ सके

Wednesday, 14 November 2007

किस्‍सा दीदी-जीजा का

(अभय और तनु दीदी से क्षमा सहित)

अभय ने अपने ब्‍लॉग पर मेरा परिचय देते हुए बताया था कि मुझसे उनकी मुलाकात और जान-पहचान मुंबई की है।

अभय की पत्‍नी तनु दीदी से मेरी पहचान इलाहाबाद में हुई थी। एस। एन. डी. टी. हॉस्‍टल में दो साल वो मेरी लोकल गार्जियन थीं।

जब देखो तब अनुशासन का डंडा चलाने वाली खड़हुस वॉर्डन को ये बताया गया था कि तनु दीदी मेरी मौसी की बेटी हैं। मौसी प्राण पियारी हैं, मां की सगी बहन हैं। तनु दीदी, सगी मौसी की लड़की हैं। खून का रिश्‍ता है। मैं पांडे, वो तिवारी, दोनों ब्राम्‍हण। शक की कोई गुंजाइश नहीं। वॉर्डन ने स्‍मार्ट, लंबी मौसी की लड़की की बातों पर भरोसा किया, एडमिशन मिल गया।

बात यहीं खत्‍म नहीं होती। बात यहां से शुरू होती है। तनु दीदी, मेरी दीदी तो अभय तिवारी हुए जीजाजी। वॉर्डन का सबसे प्रिय शगल था, लड़कियों की फैमिली हिस्‍ट्री के बारे में सारे डीटेल आंखें मटका-मटकाकर सुनना।

मुझसे बोलीं, तुम्‍हारी दीदी शादीशुदा हैं ?
हां।

जीजाजी का क्‍या नाम है ?
अभय तिवारी।
क्‍या करते हैं ?
सीरियल और फिल्‍में लिखते हैं।
और दीदी, हाउसवाइफ ?
नहीं, वो भी लिखती हैं।
क्‍या ?
जी में आया, कह दूं, आपका सिर। फिर मैंने दीदी की एक पतिव्रता भारतीय नारी वाली इमेज पेश की। जीजाजी के साथ ही काम करती हैं। उनकी मदद करती हैं, लिखने में।

वॉर्डन हंसकर बोली, फिर खाना कौन बनाता है?
मैंने कहा, दीदी ही बनाती हैं। शी इज वेरी होमली एंड डेडीकेटेड वाइफ।

(तनु दीदी, ये पढ़कर चप्‍पल उतारकर मारेंगी मुझे, इस बार मुंबई गई तो।)

मेरी दीदी और जीजाजी का किस्‍सा यहीं खत्‍म नहीं होता। इस रिश्‍ते को अभी दो साल और चलना था। हर लड़की बातों में कभी-न-कभी पूछती, मनीषा, हू इज योर लोकल गार्जियन?
मेरी दीदी।
मैरिड ?
यस।
वॉव.....

दीदी-जीजा, भईया-भाभी में लड़कियों को बड़ा इंटरेस्‍ट होता था। नई ब्‍याही दीदी अगर फ्लोरिडा में भी हो, तो हर हफ्ते नियम से उसका हालचाल पूछा जाएगा, जीजाजी का भी। जान-न-पहचान, लेकिन कंसर्न ऐसा कि पूछो मत। लेकिन ये कंसर्न बुआ, ताई, दादी, नानी के लिए तो नहीं होता था। ताईजी क्‍या करती हैं, और ताऊजी क्‍या करते हैं, किसी को पड़ी नहीं थी। लेकिन दीदी के साथ जीजाजी की और भईया के साथ भाभी की बातें किए बगैर लड़कियों को रात में नींद नहीं आती थी।

मुझसे भी मेरी दीदी-जीजा के किस्‍से पूछे गए और मैंने सुनाए भी। कुछ सच और ज्‍यादातर मनगढंत।
मणिपुरी रूममेट रॉबिता पूछती, तुम्‍हारी दीदी का लव मैरिज है।
मैं कहती, हां।

लड़कियां हीं-हीं करती चारपाई पर उछलतीं।

वो कहां मिले।
मैं क्‍या बताती, कहां मिले। तुक्‍का मारा, साथ पढ़ते थे।

मान गए शादी के लिए।
हां, खुशी-खुशी।

और भी ढेरों सवाल जीजाजी के स्‍वभाव-चरित्र की पड़ताल के मकसद से पूछे जाते।


तुम्‍हारे जीजू का नेचर कैसा है?
वो रोमांटिक हैं ?
दीदी का ख्‍याल रखते हैं ?
तुम्‍हारे जीजू दीदी के साथ मूवी देखने जाते हैं ?
जीजू खाना बनाते हैं ?
जीजू गाना गाते हैं ?

जीजा पुराण बड़ा लंबा चलता था। मनीषा पांडेय के जीजाजी अभय तिवारी पर एस.एन.डी.टी. हॉस्‍टल की लड़कियों ने पीएचडी कर डाली।

हॉस्‍टल छूटा। दीदी-जीजा के किस्‍सों से भी निजात मिली। बाद में वर्किंग वीमेन हॉस्‍टल में न लोकल गार्जियन का पचड़ा था न लड़कियों को दीदी-जीजा की कहानियों में कोई इंटरेस्‍ट।

मैं ये बातें लगभग भूल ही गई थी, लेकिन चूंकि अब गुजरा हुआ बहुत कुछ याद आ रहा है और चूंकि मैं गड़े मुर्दे उखाड़ ही रही हूं तो ये भी सही।

अभय, दो साल तक जीजाजी थे। फिर वापस मित्र हो गए।

अगर वॉर्डन भी ब्‍लॉग पढती होगी, तो मेरी ऐसी-की-तैसी।

Tuesday, 13 November 2007

प्‍यार में डूबी हुई लड़कियाँ


याद नहीं पड़ता कि आखिरी कविता मैंने कब लिखी थी। 6-7 साल हुए, कविता लिखना छोड़ दिया। इलाहाबाद छोड़ते ही कविता भी छूट गई। पहले तो बहुत लिखती थी। आधी रात में जागकर, जब सब सो जाते, टेबल लैंप जलाकर गुलाबी रंग की स्‍याही वाली कलम से लाल जिल्‍द वाली मोटी डायरी में सुंदर अक्षरों में कविता फेयर करती।

बाद में कविता सधी नहीं मुझसे। यहां इंदौर में एक शब्‍द बड़ा प्रचलित है, संपट। सो मुझे संपट नहीं पड़ती कविता। पर कोढ़ में खाज की तरह परसों रात अचानक कविता फूट पड़ी। 7 साल पहले की तरह रात दो बजे उठकर कविता लिखने लगी। ब्‍लॉगियाने का प्रथम लक्षण प्रकट हुआ है। सो आज यह कविता :

प्‍यार में डूबी हुई लड़कियां - 1

रेशम के दुपट्टे में टांकती हैं सितारा
देह मल-मलकर नहाती हैं,
करीने से सजाती हैं बाल
आंखों में काजल लगाती हैं
प्‍यार में डूबी हुई लड़कियां.....

मन-ही-मन मुस्‍कुराती हैं अकेले में
बात-बेबात चहकती
आईने में निहारती अपनी छातियों को
कनखियों से
खुद ही शरमा‍कर नजरें फिराती हैं
प्‍यार में डूबी हुई लड़कियां....

डाकिए का करती हैं इंतजार
मन-ही-मन लिखती हैं जवाब
आने वाले खत का
पिछले दफे मिले एक चुंबन की स्‍मृति
हीरे की तरह संजोती हैं अपने भीतर
प्‍यार में डूबी हुई लड़कियां....

प्‍यार में डूबी हुई लड़कियां
नदी हो जाती हैं
और पतंग भी
कल-कल करती बहती हैं
नाप लेती है सारा आसमान
किसी रस्‍सी से नहीं बंधती
प्‍यार में डूबी हुई लड़कियां.....

प्‍यार में डूबी हुई लड़कियां - २

प्‍यार में डूबी हुई लड़कियों से
सब डरते हैं
डरता है समाज
मां डरती है,
पिता को नींद नहीं आती रात भर,
भाई क्रोध से फुंफकारते हैं,
पड़ोसी दांतों तले उंगली दबाते
रहस्‍य से पर्दा उठाते हैं.....
लडकी जो तालाब थी अब तक
ठहरी हुई झील
कैसे हो गई नदी
और उससे भी बढ़कर आबशार
बांधे नहीं बंधती
बहती ही जाती है
झर-झर-झर-झर।

प्‍यार में डूबी हुई लड़कियां - ३

प्‍यार में डूबी हुई लड़कियां
अब लड़की नहीं रही
न नदी, न पतंग, न आबशार....

प्‍यार में डूबी हुई लड़कियां
अकेली थीं
अपने घरों, शहरों, मुहल्‍लों में
वो और अकेली होती गईं
मां-पिता-भाई सब जीते
प्‍यार मे डूबी हुई लड़कियों से
लड़कियां अकेली थीं,
और वे बहुत सारे....
प्‍यार में डूबी हुई लड़कियां
अब मांएं हैं खुद
प्‍यार में डूबी हुई लड़कियों की
और डरती हैं
अपनी बेटी के प्‍यार में डूब जाने से
उसके आबशार हो जाने से........

Saturday, 10 November 2007

छल को सजाने के हजारों श्रृंगार

कल 'जब वी मेट' देखी। बड़ी तारीफ सुनी थी, जो भी देखकर आता, तारीफों के पुल बांध देता।

मैं आमतौर पर ऐसी फिल्‍में देखना पसंद नहीं करती। चिरकुट लव-स्‍टोरी टाइप की। समय की बर्बादी। लेकिन पता नहीं क्‍या सोचकर 'जब वी मेट' देख ही ली।

फिल्‍म मुझे डिप्रेसिंग लगी। हिंदी फिल्‍मों की अनरीअल लव स्‍टोरीज मुझे वैसे भी बर्दाश्‍त नहीं होतीं, लेकिन उस रात मैं ज्‍यादा डिप्रेस महसूस कर रही थी। शायद इसलिए कि उसी शाम हॉस्‍टल की एक पुरानी दोस्‍त से फोन पर बात हुई थी। हॉस्‍टल के वही पुराने किस्‍से थे, फहमीदा अब भी अपने नेट प्रेमी के आने का इंतजार कर रही थी, प्रभा अब भी शादी की उम्‍मीद लगाए बैठी थी और बिंदु केरल वापस लौट गई थी, अपनी माता-पिता की मर्जी से शादी करने।

ये हिंदी फिल्‍मों में ही हो सकता है कि कोई वेबकूफ, दुनियादारी का ककहरा भी न जानने वाली लड़की इस तरह घर से भाग जाए और उसके साथ कोई हादसा न हो। करीना कपूर भागती हैं, तो उन्‍हें शाहिद कपूर मिल जाते हैं, प्रीती जिंटा पाकिस्‍तान से भागकर हिंदुस्‍तान आती हैं, तो उन्‍हें शाहरुख खान मिल जाते हैं। एक नजर में इतना प्‍यार करने लगते हैं कि अपना जीवन तक कुर्बान करने को तैयार।

अगर फहमीदा ऐसे ही भाग जाए तो? उसे कोई कमाठीपुरा की गलियों में पहुंचा देगा। बिंदु भाग जाए तो? शायद कुछ साल बाद आत्‍महत्‍या कर ले। मैं भाग जाऊं तो ? कोई शाहरुख खान आसमान से टपकने वाला नहीं, सत्‍यनारायण चौबे जरूर मिल जाएंगे।

ये हिंदी फिल्‍मों का ही संसार है। झूठा, काल्‍पनिक, आभासी सुख की दुनिया। असल जिंदगी में ऐसा कभी नहीं होता, फिल्‍मों में प्रेम और भावना की ऐसा आवेग देखकर हम अपने जीवन के अभाव पूरते हैं। एक दुखी, लतियाए हुए समाज की चोट खाई लड़कियां किताबों के पन्‍ने में शाहरुख खान की तस्‍वीर छिपाकर रखती हैं और वैसे ही किसी प्‍यार में जान देने वाले का सपना देखा करती हैं।

मुझे ये फिल्‍में डिप्रेस करती हैं। रोते हुए शाहिद कपूर की आंखों में अपनी कल्‍पना के प्रेमी का अक्‍स देखने वाली बेव‍कूफ लड़कियां। झूठ का संसार बुनती अपने मन में, रेतीली धरती पर दरकतीं। कैसा छल है ये जीवन। छल को सजाने के हजारों श्रृंगार।

दुपट्टा उड़ाती लड़कियां


बड़ी होती लड़की की जिंदगी में तमाम रहस्‍यों और सवालों की तरह आता है दुपट्टा।

छोटी थी तो दुपट्टा मेरे लिए रसगुल्‍ला हुआ करता था। फुफेरी-ममेरी बहनों का दुपट्टा ओढ़कर जमीन में लथराती, गंदा करती चलती और थप्‍पड़ खाती। लेकिन फिर भी मेरा दुपट्टा मोह कम नहीं होता था।

दुपट्टे के बड़े इस्‍तेमाल थे। सिर में लपेटकर बाल लंबे हो जाते, कमर में लपेटकर साड़ी बन जाती और कंधों पर फिसलते दुपट्टे का सुख नए-नवेले ब्‍याह से कम नहीं होता था।

बचपन की वह दुनिया पंख लगाकर उड़ गई। फिर एक दिन दुपट्टा एक दूसरी ही शक्‍ल में मेरे सामने आया। मां ने सफेद रंग की एक ओढ़नी दिलाई थी और हर शलवार-कुर्ते के साथ ओढ़ने की ताकीद की थी। मैं बड़ी खुश। अब दूसरों के दुपट्टे का मोहताज होने की जरूरत नहीं। ये दुपट्टा मेरा अपना है, पूरा-की-पूरा। अब मैं हर समय इसे टांगे रह सकती हूं।

शुरू-शुरू मे तो बड़ा मजा आया, लेकिन जैसे हर चीज पुरानी पड़ती है, उसका मोह खत्‍म होता है, दुपट्टे का मोह भी फीका पड़ने लगा। अब दुपट्टा घर में मारा-मारा फिरता। कभी पलंग पर, कभी कुर्सी पर, कभी रसोई के दरवाजे पर, कभी टाण पर तो कभी बाहर साइकिल पर। जब अपना ही है तो ओढ़ने की कौन-सी आफत आई जा रही है। लेकिन आफत आ रही थी, जिसका भान खुद मुझे भी बहुत नहीं था। एक दिन मैं चौराहे तक बिना दुपट्टे के घूम आई, दूध का पैकेट ले आई, आधा किलो भिण्‍डी और हरी मिर्च खरीद लाई। दुपट्टा बाहर साइकिल का घूंघट बना सुशोभित था।

लौटी तो मां दरवाजे पर ही खड़ी मिलीं। पहली बार मुझे दुपट्टा न ओढ़ने के लिए डांट पड़ी। सबकुछ बड़ा विचित्र लगता था। बड़ों की इच्‍छाएं, उनकी तानाशाही। पहले ओढ़ने के लिए थप्‍पड़ पड़ते थे और अब न ओढ़ने के लिए डांट पड़ रही थी।

मां आंखों मे अंगारे भरे चिल्‍ला रही थीं, तुमको कोई लिहाज, कोई तमीज नहीं है या नहीं। चौराहे तक ऐसे ही घूम आई। लोग तो यही कहेंगे न कि मां ने यही सिखाया है।

एक सफेद रंग के कपड़े के टुकड़े में लोग, मां, पड़ोस और दुनिया-जहान कहां से टपक पड़ा। ये तो मेरा मन। मैं रसगुल्‍ला खाऊं या न खाऊं। इससे बगल वाली आंटी को क्‍या। ऐसा विचित्र तो न देखा, न सुना कि रसगुल्‍ला न खाने के लिए डांट पड़े।

लेकिन दुपट्टा रसगुल्‍ला नहीं था। उसकी सामाजिकता, उसके तमाम रहस्‍यों ने बहुत बाद में अपना अर्थ खोला। बचपन में जो दुपट्टा मेरे लिए रसगुल्‍ला हुआ करता था, वह अब एक सामाजिक जरूरत था। मेरे आसपास की दुनिया ने उसे मेरे लिए तय किया था, मेरी मर्जी या मेरी रुचि-अरुचि जाने बगैर। बढ़ती हुई देह पर पर्दा जरूरी था, उसे दुनिया की नजरों से छिपाना जरूरी था, वरना समाज मुझे एक अच्‍छी शालीन लड़की का सर्टिफिकेट किसी कीमत पर नहीं देता। मेरी मां को भी इसी सर्टिफिकेट की चिंता थी, जिसके चलते उन्‍होंने मेरे दिन-रात तबाह कर दिए थे।

पापा के सामने दुपट्टा ओढ़ो, ताऊजी के सामने ओढ़ो, भाईयों के सामने ओढ़ो, जबकि वो तो हाफ पैंट पहनकर आधा शहर घूम आते थे। ताईजी तो मुझे दुपट्टाधारी सुकन्‍या बनाने के चक्‍कर में रात-दिन हलकान हुई जाती थीं। उनका बस चलता तो सोते समय भी दुपट्टा ओढ़वातीं।


14 साल से ऊपर हुए मेरे जिंदगी में स्‍थाई रूप से दुपट्टे को आए। मैं अब भी दुपट्टा ओढ़ती हूं। कहना मुश्किल है कि खुशी-खुशी या मजबूरी में। दुपट्टा ओढ़ना अब एक आदत की तरह है। जैसे रोज सुबह उठकर ब्रश करने की आदत पड़ जाती है, जूते के साथ मोजा पहनने की आदत, बेसिन का नल खोलने के बाद बंद करने की आदत। वैसे ही ये भी एक आदत है।

वैसे दुपट्टे के कुछ अच्‍छे इस्‍तेमाल भी हैं। जैसे समंदर की तेज हवाओं में दुपट्टा लहराना मुझे अच्‍छा लगता है। दुपट्टे का एक सिरा पकड़कर उसे हवा में उड़ाना। दुपट्टा थामकर रेत में दौड़ती लड़कियां मुझे अच्‍छी लगती हैं। आगे-आगे दौड़ती लड़कियां, पीछे छूटते रेत के निशान और बेतरतीब उड़ता दुपट्टा।

दुपट्टा सिर पर डालकर और कमर में बांधकर नाचना अच्‍छा लगता है। अब दुपट्टा दुख नहीं देता। न थप्‍पड़ पड़ते हैं, न डांट। यूं भी नहीं कि बचपन की तरह रसगुल्‍ला हो गया है दुपट्टा, पर उड़ाने और लहराने में थोड़ा-सा सुख ढूंढ लिया है मैंने।

Wednesday, 7 November 2007

बेदखल की डायरी


लिखना आसान नहीं होता। लिखने की बुनियादी तमीज हो, तब भी नहीं। कम-से-कम मेरे लिए तो नहीं ही है।

वैसे भी मैं हर काम झोंक में करती हूं। झोंक चढ़ी तो सही, और न चढ़ी तो सब गुड़गोबर। एक बार झोंका आता है तो फिर आता ही चला जाता है। फिर तो मैं लिख-लिखकर धरती-आसमान एक कर डालूंगी। और अगर झक्‍क नहीं चढ़ी तो लाख सिर पटको, मेरे मुंह मुंह से कुछ फूटेगा ही नहीं।

जैसे बचपन में कभी-कभी सफाई की झक्‍क सवार हुआ करती थी। फिर क्‍या था, घर का कोना-अंतरा, डिब्‍बे-विब्‍बे, आलमारी-पर्दे, कपड़े, कुर्सी-मेज, स्‍टूल-गुलदान, जूता-चप्‍पल, अंदर-बाहर सब चमक जाता है। मजाल है, मेरी सफाई से घर की कोई भी चीज बच जाए। मां कहतीं, आज भूत चढ़ा है, सब चुपचाप बैठो। और जो एक बार भूत उतरा तो फिर चाहे हफ्तों घर गंधाता रहे, मैं अपनी जगह से हिलने वाली नहीं।

मेरे बहुत सारे दोस्‍त ब्‍लॉग की दुनिया में सक्रिय हैं, और मुझे भी घसीटने के चक्‍कर में रहते थे। हमेशा जोर देते, कब शुरू कर रही हो, और मैं टालती जाती। ब्‍लॉग बनाना घर खरीदने या बिटिया की शादी करने जैसा कोई उत्‍सव हो गया था। लगता था, पता नहीं कौन-सा किला फतह करना है। आज एक चरण तो पार हुआ।

अभिव्‍यक्ति का कोई तरीका अगर थोड़ा-बहुत मुझे आता है तो वह लिखना ही है। गाने की खास तमीज नहीं, कैनवास पर ब्रश चलाना भी नहीं आता, अंतर्मुखी या मुंह चलाने में दरिद्दर नहीं हूं, फिर भी मुझे कुछ कहना हो तो शब्‍दों का ही सहारा होता है।

उन्‍हीं शब्‍दों के भरोसे इस बेदखल की डायरी को सार्वजनिक कर रही हूं।