आज कोई नहीं जानता, सुधा कविताएं लिखती थी और बहुत सुंदर कविताएं। खुद सुधा भी यह भूल चुकी थी, अचानक ये डायरी हाथ न लगी होती तो......
पहले-पहल सुकुमार सुधा की कविता पर ही मोहित हुए थे। फिर विवाह के बाद एक मित्र के घर में आयोजित कविता पाठ में दोनों ने कविताएं पढ़ी। सुधा की कविताओं में सुकुमार से कहीं ज्यादा गहराई और परिपक्वता थी। वहां मौजूद एक बूढ़े कवि की आंखें भर आईं, मित्र प्रशंसा में बिछ गए। सुकुमार अलग-थलग।
सुधा उड़ी जा रही थी। उसे उम्मीद थी कि उसकी इस खुशी में, उपलब्धि में सुकुमार उसके साथ थे। रात में सुकुमार चश्मा लगाकर बिस्तर पर लेटे-लेटे एक किताब पढ़ रहे थे। सुधा सुकुमार पर झुकी और मारे लाड़ के चश्मा खींचकर उनके चेहरे को अपने लंबे-खुले बालों से ढंक दिया। सुकुमार खीझ उठे। खींचतान में कुछ बाल नुचे। शादी के बाद वो पहली ऐसी रात थी।
फिर जब भी कविता उन दोनों के बीच आई, सुकुमार कहते, कथ्य ठीक है तुम्हारी कविताओं का, लेकिन शिल्प नहीं। परिपक्व नहीं है। क्यूं सिर खपा रही हो। फिर जब भी सुकुमार के दोस्त सुधा से कविताओं की फरमाइश करते, रात को सुकुमार करवट बदलकर, दूसरी ओर मुंह करके सोते और सुधा पूरी रात जागती रहती।
फिर एक दिन उसने कविताओं की डायरी, कागज सब जला दिए और उस दिन के बाद से न कभी कविता लिखी, न पढ़ी। उस दिन के बाद से उसकी वह तेज, बेलगाम खिलखिलाहट भी कभी नहीं दिखी, न कभी उसने अपने बालों से सुकुमार का चेहरा ही ढंका। सुकुमार ने भी उन डायरियों के बारे में कभी नहीं पूछा।
ये हरी जिल्द वाली डायरी जाने कैसे बची रह गई थी। कूड़ा-कबाड़ अलग करते हुए उस डायरी को पोंछकर सुधा ने किनारे रख दिया। सुकुमार के वापस लौटने से पहले पूरा दिन कविताएं पढ़ती रही और लौट-लौटकर उस दुनिया में जाती रही, जब वो युवा और खूबसूरत थी, ढेरों सपनों और उमंगों से भरी थी।
रात हो रही थी, सुकुमार के आने का वक्त हो चला था। दरवाजे की घंटी बजी। डायरी को कबाड़ के ढेर में फेंककर सुधा ने दरवाजा खोला। सुकुमार आज बड़े प्रसन्न थे। उनकी नया कविता-संग्रह छपकर आया था। सुकुमार सुधा की कमर में हाथ डाले किताब का कवर दिखा रहे थे। हरी जिल्द वाली डायरी मन की किन्हीं गहरी पर्तों में दफन हो चुकी थी।