बड़ी होती लड़की की जिंदगी में तमाम रहस्यों और सवालों की तरह आता है दुपट्टा।
छोटी थी तो दुपट्टा मेरे लिए रसगुल्ला हुआ करता था। फुफेरी-ममेरी बहनों का दुपट्टा ओढ़कर जमीन में लथराती, गंदा करती चलती और थप्पड़ खाती। लेकिन फिर भी मेरा दुपट्टा मोह कम नहीं होता था।
दुपट्टे के बड़े इस्तेमाल थे। सिर में लपेटकर बाल लंबे हो जाते, कमर में लपेटकर साड़ी बन जाती और कंधों पर फिसलते दुपट्टे का सुख नए-नवेले ब्याह से कम नहीं होता था।
बचपन की वह दुनिया पंख लगाकर उड़ गई। फिर एक दिन दुपट्टा एक दूसरी ही शक्ल में मेरे सामने आया। मां ने सफेद रंग की एक ओढ़नी दिलाई थी और हर शलवार-कुर्ते के साथ ओढ़ने की ताकीद की थी। मैं बड़ी खुश। अब दूसरों के दुपट्टे का मोहताज होने की जरूरत नहीं। ये दुपट्टा मेरा अपना है, पूरा-की-पूरा। अब मैं हर समय इसे टांगे रह सकती हूं।
शुरू-शुरू मे तो बड़ा मजा आया, लेकिन जैसे हर चीज पुरानी पड़ती है, उसका मोह खत्म होता है, दुपट्टे का मोह भी फीका पड़ने लगा। अब दुपट्टा घर में मारा-मारा फिरता। कभी पलंग पर, कभी कुर्सी पर, कभी रसोई के दरवाजे पर, कभी टाण पर तो कभी बाहर साइकिल पर। जब अपना ही है तो ओढ़ने की कौन-सी आफत आई जा रही है। लेकिन आफत आ रही थी, जिसका भान खुद मुझे भी बहुत नहीं था। एक दिन मैं चौराहे तक बिना दुपट्टे के घूम आई, दूध का पैकेट ले आई, आधा किलो भिण्डी और हरी मिर्च खरीद लाई। दुपट्टा बाहर साइकिल का घूंघट बना सुशोभित था।
लौटी तो मां दरवाजे पर ही खड़ी मिलीं। पहली बार मुझे दुपट्टा न ओढ़ने के लिए डांट पड़ी। सबकुछ बड़ा विचित्र लगता था। बड़ों की इच्छाएं, उनकी तानाशाही। पहले ओढ़ने के लिए थप्पड़ पड़ते थे और अब न ओढ़ने के लिए डांट पड़ रही थी।
मां आंखों मे अंगारे भरे चिल्ला रही थीं, तुमको कोई लिहाज, कोई तमीज नहीं है या नहीं। चौराहे तक ऐसे ही घूम आई। लोग तो यही कहेंगे न कि मां ने यही सिखाया है।
एक सफेद रंग के कपड़े के टुकड़े में लोग, मां, पड़ोस और दुनिया-जहान कहां से टपक पड़ा। ये तो मेरा मन। मैं रसगुल्ला खाऊं या न खाऊं। इससे बगल वाली आंटी को क्या। ऐसा विचित्र तो न देखा, न सुना कि रसगुल्ला न खाने के लिए डांट पड़े।
लेकिन दुपट्टा रसगुल्ला नहीं था। उसकी सामाजिकता, उसके तमाम रहस्यों ने बहुत बाद में अपना अर्थ खोला। बचपन में जो दुपट्टा मेरे लिए रसगुल्ला हुआ करता था, वह अब एक सामाजिक जरूरत था। मेरे आसपास की दुनिया ने उसे मेरे लिए तय किया था, मेरी मर्जी या मेरी रुचि-अरुचि जाने बगैर। बढ़ती हुई देह पर पर्दा जरूरी था, उसे दुनिया की नजरों से छिपाना जरूरी था, वरना समाज मुझे एक अच्छी शालीन लड़की का सर्टिफिकेट किसी कीमत पर नहीं देता। मेरी मां को भी इसी सर्टिफिकेट की चिंता थी, जिसके चलते उन्होंने मेरे दिन-रात तबाह कर दिए थे।
पापा के सामने दुपट्टा ओढ़ो, ताऊजी के सामने ओढ़ो, भाईयों के सामने ओढ़ो, जबकि वो तो हाफ पैंट पहनकर आधा शहर घूम आते थे। ताईजी तो मुझे दुपट्टाधारी सुकन्या बनाने के चक्कर में रात-दिन हलकान हुई जाती थीं। उनका बस चलता तो सोते समय भी दुपट्टा ओढ़वातीं।
14 साल से ऊपर हुए मेरे जिंदगी में स्थाई रूप से दुपट्टे को आए। मैं अब भी दुपट्टा ओढ़ती हूं। कहना मुश्किल है कि खुशी-खुशी या मजबूरी में। दुपट्टा ओढ़ना अब एक आदत की तरह है। जैसे रोज सुबह उठकर ब्रश करने की आदत पड़ जाती है, जूते के साथ मोजा पहनने की आदत, बेसिन का नल खोलने के बाद बंद करने की आदत। वैसे ही ये भी एक आदत है।
वैसे दुपट्टे के कुछ अच्छे इस्तेमाल भी हैं। जैसे समंदर की तेज हवाओं में दुपट्टा लहराना मुझे अच्छा लगता है। दुपट्टे का एक सिरा पकड़कर उसे हवा में उड़ाना। दुपट्टा थामकर रेत में दौड़ती लड़कियां मुझे अच्छी लगती हैं। आगे-आगे दौड़ती लड़कियां, पीछे छूटते रेत के निशान और बेतरतीब उड़ता दुपट्टा।
दुपट्टा सिर पर डालकर और कमर में बांधकर नाचना अच्छा लगता है। अब दुपट्टा दुख नहीं देता। न थप्पड़ पड़ते हैं, न डांट। यूं भी नहीं कि बचपन की तरह रसगुल्ला हो गया है दुपट्टा, पर उड़ाने और लहराने में थोड़ा-सा सुख ढूंढ लिया है मैंने।
छोटी थी तो दुपट्टा मेरे लिए रसगुल्ला हुआ करता था। फुफेरी-ममेरी बहनों का दुपट्टा ओढ़कर जमीन में लथराती, गंदा करती चलती और थप्पड़ खाती। लेकिन फिर भी मेरा दुपट्टा मोह कम नहीं होता था।
दुपट्टे के बड़े इस्तेमाल थे। सिर में लपेटकर बाल लंबे हो जाते, कमर में लपेटकर साड़ी बन जाती और कंधों पर फिसलते दुपट्टे का सुख नए-नवेले ब्याह से कम नहीं होता था।
बचपन की वह दुनिया पंख लगाकर उड़ गई। फिर एक दिन दुपट्टा एक दूसरी ही शक्ल में मेरे सामने आया। मां ने सफेद रंग की एक ओढ़नी दिलाई थी और हर शलवार-कुर्ते के साथ ओढ़ने की ताकीद की थी। मैं बड़ी खुश। अब दूसरों के दुपट्टे का मोहताज होने की जरूरत नहीं। ये दुपट्टा मेरा अपना है, पूरा-की-पूरा। अब मैं हर समय इसे टांगे रह सकती हूं।
शुरू-शुरू मे तो बड़ा मजा आया, लेकिन जैसे हर चीज पुरानी पड़ती है, उसका मोह खत्म होता है, दुपट्टे का मोह भी फीका पड़ने लगा। अब दुपट्टा घर में मारा-मारा फिरता। कभी पलंग पर, कभी कुर्सी पर, कभी रसोई के दरवाजे पर, कभी टाण पर तो कभी बाहर साइकिल पर। जब अपना ही है तो ओढ़ने की कौन-सी आफत आई जा रही है। लेकिन आफत आ रही थी, जिसका भान खुद मुझे भी बहुत नहीं था। एक दिन मैं चौराहे तक बिना दुपट्टे के घूम आई, दूध का पैकेट ले आई, आधा किलो भिण्डी और हरी मिर्च खरीद लाई। दुपट्टा बाहर साइकिल का घूंघट बना सुशोभित था।
लौटी तो मां दरवाजे पर ही खड़ी मिलीं। पहली बार मुझे दुपट्टा न ओढ़ने के लिए डांट पड़ी। सबकुछ बड़ा विचित्र लगता था। बड़ों की इच्छाएं, उनकी तानाशाही। पहले ओढ़ने के लिए थप्पड़ पड़ते थे और अब न ओढ़ने के लिए डांट पड़ रही थी।
मां आंखों मे अंगारे भरे चिल्ला रही थीं, तुमको कोई लिहाज, कोई तमीज नहीं है या नहीं। चौराहे तक ऐसे ही घूम आई। लोग तो यही कहेंगे न कि मां ने यही सिखाया है।
एक सफेद रंग के कपड़े के टुकड़े में लोग, मां, पड़ोस और दुनिया-जहान कहां से टपक पड़ा। ये तो मेरा मन। मैं रसगुल्ला खाऊं या न खाऊं। इससे बगल वाली आंटी को क्या। ऐसा विचित्र तो न देखा, न सुना कि रसगुल्ला न खाने के लिए डांट पड़े।
लेकिन दुपट्टा रसगुल्ला नहीं था। उसकी सामाजिकता, उसके तमाम रहस्यों ने बहुत बाद में अपना अर्थ खोला। बचपन में जो दुपट्टा मेरे लिए रसगुल्ला हुआ करता था, वह अब एक सामाजिक जरूरत था। मेरे आसपास की दुनिया ने उसे मेरे लिए तय किया था, मेरी मर्जी या मेरी रुचि-अरुचि जाने बगैर। बढ़ती हुई देह पर पर्दा जरूरी था, उसे दुनिया की नजरों से छिपाना जरूरी था, वरना समाज मुझे एक अच्छी शालीन लड़की का सर्टिफिकेट किसी कीमत पर नहीं देता। मेरी मां को भी इसी सर्टिफिकेट की चिंता थी, जिसके चलते उन्होंने मेरे दिन-रात तबाह कर दिए थे।
पापा के सामने दुपट्टा ओढ़ो, ताऊजी के सामने ओढ़ो, भाईयों के सामने ओढ़ो, जबकि वो तो हाफ पैंट पहनकर आधा शहर घूम आते थे। ताईजी तो मुझे दुपट्टाधारी सुकन्या बनाने के चक्कर में रात-दिन हलकान हुई जाती थीं। उनका बस चलता तो सोते समय भी दुपट्टा ओढ़वातीं।
14 साल से ऊपर हुए मेरे जिंदगी में स्थाई रूप से दुपट्टे को आए। मैं अब भी दुपट्टा ओढ़ती हूं। कहना मुश्किल है कि खुशी-खुशी या मजबूरी में। दुपट्टा ओढ़ना अब एक आदत की तरह है। जैसे रोज सुबह उठकर ब्रश करने की आदत पड़ जाती है, जूते के साथ मोजा पहनने की आदत, बेसिन का नल खोलने के बाद बंद करने की आदत। वैसे ही ये भी एक आदत है।
वैसे दुपट्टे के कुछ अच्छे इस्तेमाल भी हैं। जैसे समंदर की तेज हवाओं में दुपट्टा लहराना मुझे अच्छा लगता है। दुपट्टे का एक सिरा पकड़कर उसे हवा में उड़ाना। दुपट्टा थामकर रेत में दौड़ती लड़कियां मुझे अच्छी लगती हैं। आगे-आगे दौड़ती लड़कियां, पीछे छूटते रेत के निशान और बेतरतीब उड़ता दुपट्टा।
दुपट्टा सिर पर डालकर और कमर में बांधकर नाचना अच्छा लगता है। अब दुपट्टा दुख नहीं देता। न थप्पड़ पड़ते हैं, न डांट। यूं भी नहीं कि बचपन की तरह रसगुल्ला हो गया है दुपट्टा, पर उड़ाने और लहराने में थोड़ा-सा सुख ढूंढ लिया है मैंने।
19 comments:
दुपट्टे पर यह दर्शनशास्त्र पसन्द आया। लिखती चलिये।
मनीषा जी, आपका लिखा काफी समय से पढ़ती रही हूं। मोहल्ले पर भी आपकी डायरी पढ़ी थी। आपकी लेखनी में कुछ तो बात है। आप अपनी कलम से पढ़ने वाले को बिल्कुल बांध लेती हैं। अपना ब्लॉग शुरू करने की बधाइयां। आशा करती हूं अब आप लगातार लिखती रहेंगी।
अंतरा
बहुत सरलता के साथ कही गयी गम्भीर बात मनीषा जी!''सब्जु़गेशन बाई कन्सेण्ट' इसी को कहते है। अपनी पराधीनता को पहले आदत और फिर आनन्द मे बदलना। ग्रामीण लोकगीतो मे आपको इस तरह के बहुतेरे स्त्री-गीत मिलेन्गे जहा 'भऊजी ल दरोगा भगाय लिहिस रे' की विडम्बना उत्पीडन की नही' हन्सने-गाने के उत्सव मे बदल जाती है। ब्लोग पर लौटने के लिये बधाई!
अजी दुपट्टे होते ही कहां हैं जी। संग्रहालय के आइटम हैं वो तो।
दुपट्टे के इस्तेमाल की विविधता। उसमें पट्टे जैसी और कई जगह आनंद देता दुपट्टा। बढ़िया है। ऐसे विषयों पर ज्ञान बढ़ाने के लिए आपके ब्लॉग पर आता रहूंगा।
दुपट्टा एक जकड़न है. लेकिन यह जो संस्कृति जैसी लिजलिजी चीज है ना यह कहती है दुपट्टा एक संस्कार है..क्या है यह तो खुदा जाने.
मोहल्ले पर आपकी डायरी के कुछ पन्ने पढ़े थे, फ़िर लगा कि एक आकर्षण लिए हुए यह डायरी न जाने कहां गुम हो गई!!
आज रवि रतलामी जी की पोस्ट के सहारे यहां तक पहुंचा!!
दुपट्टे पर आपने जो लिखा वह तो बहुत सही है पर एक लड़के के दृष्टिकोण से मैं अपनी बात कहूं तो , आज जींस और टॉप या जींस और कुर्ता के दौर में दुपट्टे की कमी खलती सी है, जो आकर्षण दुपट्टे में है वो इनमें नही!!
आकर्षण का अपना एक अलग मनोविज्ञान है शायद जो कहता है कि हम ढंकाव-छिपाव के प्रति ज्यादा आकर्षित होते है न कि खुले के प्रति!!
खैर!!
आपके लेखन का अंदाज़ मुझे पसंद आया है मोहल्ले पर मौजूद डायरी के कुछेक पन्ने के समय से ही!!
अगर इज़ाज़त हो तो आपके ब्लॉग का लिंक मैं अपने ब्लॉग में देना चाहूंगा!!
शुभकामनाएं
बहुत् अच्छा लगा ये लेख। दुपट्टा-कथा। लिखती रहें।
दिल को छू गये भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति हैं आपकी ड़ायरी। बाल मन की टीस से शुरू होकर यौवन की दहलीज और उससे भी आगे तक जाती आपकी कल्पना की उड़ान के जरिये सामाजिक ढ़ांचे का वर्णन काबिल-ए-तारीफ है।
http://kantila.blogsot.com/
बहुत खूब
पहली बार सोचा
दुपट़टे के पीछे की कहानी इतनी जटिल भी हो सकती है।
पहली बार आपके ब्लॉग पर आया और सारे के सारे ब्लॉग पढकर ही दम लिया।
बहुत अच्छा लिखती हैं आप।
बहुत पहले इलाहाबाद में आपकी आपसे ही कुछ कविताऐं सुनी थीं। आज पहली बार आपका ब्लाग देखा, बहुत अच्छा लगा।
वैसे में हफ्ते में एक बार ही ब्लाग देखती हूं क्यों कि मुझे लगता है यहां स्वतःसुखाय के विचार के साथ ज्यादा लेखन होता है,पर आपके अब तक के कुछ प्रयास सराहनीय है। अच्छे लेखन के लिए बधाई औऱ भविष्य में आप और अच्छा करें इसकी ढेरों शुभकामनाऐं।
SACH KANHOO, AUR PURI IMANDAARI SE KANHOO TO SHAYAD AAPKI MAA AUR TAI JI KO AHSAAS THA KI BINA DUPPATTE KE LADKIYAN PLATE MAIN RAKHI DISH SI LAGATI HAIN, HO SAKTA HAI MERA YE COMMENT BAHUTON KO NAGWAAR GUJRE PAR IN DINO TIGHT TSHIRT MAIN GHUMATI LADKIYON KO DEKH KAR TO AISA HI LAGATA HAI..........
beutiful writing, congrats
pratibha katiyar
"पहले ओढ़ने के लिए थप्पड़ पड़ते थे और अब न ओढ़ने के लिए डांट"
Aakhir ye kaisi vidambana hai...
Bahut sundar....manisha ji.
samaaj ki drishti mein umr ke saath stri ke badalte manobhaav ko Aapne jis khoobsurti ke saath likha hai...wo kabile tarif hai.
दुपट्टा... घर में तो कभी मुझे दुपट्टा ओढने को नहीं कहा गया मगर जिस कन्या शाला में पढ़ते थे वह दुपट्टा अनिवार्य था! बाकायदा चार घडी किया हुआ..सेफ्टी पिन से दोनों कंधो पर चिपका हुआ! दुपट्टे का शौक मुझे भी था बचपन में सभी लड़कियों की तरह! पर एक बात तो है... एक लड़की की देह को ढाका जाना समाज को इतना ज़रूरी क्यों लगता है? ये तो उसकी मर्जी होनी चाहिए की वो रसगुल्ला खाए या नहीं? खैर मैं अपनी मर्जी से रसगुल्ला खाती हूँ! पर उन लड़कियों पर मुझे वाकई में तरस आता है जिन्हें ये रसगुल्ला जबरदस्ती खाना पड़ता है! पराधीनता का प्रतीक ये रसगुल्ला..
yaha tou bilkul sach aur mast likha hai aapne...aanand aa gaya...
SAR KI LAAJ HAIN YE, KYA AAPSE KAHU,, MERA TAAJ HAIN YE.
Dupataa Kuch ki shan hain, Kuch ko na pasnadagi ka Saaman hain ye..
Aapne khub likha.. par meri soch ke mutabik, ye sabhi ko shobha deta hain... anil
बेहतरीन पोस्ट! इसे पढ़कर एक लोकगीत याद आ गया – ‘ओढ़नी है ज़िंदगी, ज़िंदगी है ओढ़नी, तीन गज की ओढ़नी, ओढ़नी के कोने चार….’
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