Saturday 17 November 2007

पुरानी यादें

कविता से अलगाव के 7 सालों बाद उस दुनिया में मेरी वापसी प्‍यार में डूबी हुई लड़कियों’ के मार्फत नहीं हुई। ब्‍लॉग लिखने के नए-नए जोश में मैं इस कविता को भूल ही गई थी, जो अभी दो-ढाई महीने पहले लिखी गई है और सही मायनों में कविता के देश में मेरी वापसी का पुल यही कविता है - पुरानी यादें।



पुरानी यादें

1
कहां जाती हैं
पुरानी यादें
प्‍लास्‍टर झड़ी दीवार की तरह
रहती हैं हर घड़ी आँखों के सामने
छत पर पुराने सीलिंग फैन की तरह
लटकी होती हैं
और घरघराती हैं पूरी रात

2
कभी कोई नर्म हथेली बनकर
तो कभी सूजे हुए फफोलों का दर्द
जिंदा रहती हैं यादें
कहीं नहीं जातीं
जमकर बैठ जाती हैं छाती में
पूरी रात दुखता है सीना
आँखें सूजकर पहाड़ हो जाती हैं

3
पुराना घाव बनकर यादें
रिसती रहती हैं दिन-रात
हलक में अटकी पड़ी रहती हैं सालों-साल
न उगली जाती हैं, न निगली

4
पुरानी यादें
ठहरे हुए पानी की तरह
सड़ती हैं
अटकती हैं सांस रात भर
रातें गुजरती हैं मुश्किल से

5
पुराने छोटे पड़ गए कपड़ों की तरह
बंद कर किसी जंग खाए संदूक में
पुरानी यादों को
कहीं दूर छोड़ आऊं
इतनी दूर
कि पहचानकर मेरा संदूक
कोई वापस न छोड़ जाए मेरे दरवाजे

6
घर के गर्दो-गुबार की तरह
सूरज उगने से पहले
बुहारकर निकाल दूं
सारे बीते दिन
गुजरी हुई यादें
इतनी दूर
कि हवा के साथ उड़कर वापस न आ सके

18 comments:

पूर्णिमा वर्मन said...

अच्छी उपमाएँ, साफ़ बिंब, सही भावनाएँ, सुंदर कविता :)

Princess said...

hi,
MANISHA...i really liked this poem..we all at some point of time just want to start our life all over again with out any baggage of past memories..but its true it is extremely difficult to get rid of past memories its keep haunting us...i find content of your poem is such that any common man will find it easy to connect.some wonderful comparison you have made...overall its a fabulous work...keep it up..

Anonymous said...

नये उपमान!

अमिताभ मीत said...

अच्छा है मनीषा जी, सोच की नज़र, या नज़रों की सोच .............. बहुत अच्छी उपमाएँ और उतना ही अच्छा उनका treatment कविताओं में. कुछ अजीब लकीरें बनती हैं कभी कभी ज़हन में ..... बहरहाल. अच्छी रचनाओं के लिए बधाई. लिखती रहें ......

Bhupen said...

माना कि अतीत से मुक्त होना आसान नहीं. लेकिन अब ज़िंदगी पीछे नहीं, आगे है. कुछ किया जाए.

गौरव सोलंकी said...

वापसी कहीं से भी हुई हो मनीषा जी, वापसी अच्छी है।
'प्यार में डूबी हुई लड़कियाँ' भी अच्छी थी और 'पुरानी यादें' भी मुझे पसन्द आई।
छत पर पुराने सीलिंग फैन की तरह
लटकी होती हैं
और घरघराती हैं पूरी रात

कि पहचानकर मेरा संदूक
कोई वापस न छोड़ जाए मेरे दरवाजे

लिखती रहिए।

मीनाक्षी said...

पुरानी यादों को रात रात भर रोते नन्हे शिशु सा सीने से लगा लो... धीरे धीरे वही रोता शिशु अपना सा लगेगा....दर्द कम होगा और जीने को मकसद मिलेगा... शुभकामनाएँ

Sanjeet Tripathi said...

बहुत सुंदर!! बढ़िया लिखा है !!

अनूप शुक्ल said...

बहुत अच्छी कवितायें।

चंद्रभूषण said...

क्या बात है मनीषा, बड़ी सेंटी-सेंटी कविताएं लिख रही हो! इनकी रचना प्रक्रिया और तुम्हारी तटस्थ, धारदार, लठमार चिंतन प्रक्रिया के बीच बहुत बड़ा फांक नजर आता है। हो सकता है यह फांक धीरे-धीरे चला जाए, या यह भी हो सकता है कि कभी दो बिल्कुल अलग-अलग तरह के लेखनों से ही तुम पहचानी जाओ। गरज यह कि अभी तो कुछ भी हो सकता है। बहरहाल, क्या उस इंटरव्यू वाली फोटो की जरूरत अब भी है?

Srijan Shilpi said...

आपकी तारीफ काफी सुन रखी थी। आज आपके ब्लॉग पर आया तो अब तक का लिखा पढ़ लिया।

अभिव्यक्ति की कला में, शब्दों में अपने मन को उतार देने में आपको महारत हासिल है। आपके गद्य में जितना प्रवाह है, कविता में उतना ही ठहराव। यह एक बड़ी खासियत है।

आपको नियमित रूप से पढ़ना होता रहेगा। आप भी लिखते रहिएगा, बराबर।

शेष said...


चमचमाते और वाशेबल डिस्टेंपर के पीछे गुम हो चुकी हैं प्लास्टर झड़ी दीवारें। एयरपैक्ड शीशे के महलों में कहीं छिपी हुए स्प्लिट एयरकंडीशन की सड़ती, मगर सुहाती हवाओं के बीच खारिज कर दी गई हैं छत में लटकी पुराने सीलिंग फैन की तड़फड़ाती हवाएं।

सूजे हुए फफोलों के दर्द को अब कोई अपनी नर्म हथेलियों से नहीं सहलाता। कई मुंह वाली सूइयां चुभा कर बहा दी जाती हैं वे पनीली, पसीली टीसती हुई यादें।

अब बिसलेरी का पानी सेहत के लिए फायदेमंद घोषित कर दिया गया है। ऑक्सीजन के सिलेंडर घर के लिए जरूरी माने जाने लगे हैं ताकि सांस सुबह की तरह ताजी रहें।

इस चकाचौंध शहर में कोई नहीं पहचानता कि ये किसका संदूक है। और कि किस कपड़े पर किसकी छाती से निकले लहू के धब्बे महज पेंटिंग बन चुके हैं।

अब सूरज उगने से पहले घर से सारे गर्दो-गुबार को चुपचाप खींच ले जाता है कोई वैक्यूम क्लीनर। उस गर्द को आखिरकार डाल दिया जाता है पांच-छह-सात-आठ-नौ-दस या न जाने कितनी मंजिल की बनने वाली इमारतों की बुनियाद में जहां न हवा से उनका कोई वास्ता होता है, न वे उड़ कर वापस आ सकने लायक होती हैं।

अब वन वे ट्राफिक से गुजरती मर्सिडीजों को तेज, और तेज, और और तेज होते हुए सिर्फ आगे जाना होता है। वे कभी नहीं थकती हैं। उन्होंने थकने वालो को, रोने वालों को, और यादों को सहेजने वालों को बैलगाड़ी घोषित कर दिया है, जिन्हें सिर्फ कच्ची सड़कों पर चलना चाहिए। फिर जब वह कच्ची सड़कें पक्की हो जाएं तो अपनी यादों को, आंसुओं को और सफर की थकान को साथ लेकर सो जाना चाहिए लंबी नींद। कभी नहीं जगने के लिए।

लेकिन मुश्किल रातों के बावजूद, अटकती सांसों के बावजूद, आंखों के सूज कर पहाड़ हो जाने के बावजूद कहां दफ्न की जा सकी हैं यादें। कि फिर कभी कब्र से निकल कर तड़पने नहीं लगें आंखों के सामने। और आखें सूज कर पहाड़ नहीं हो जाएं।

Vijay said...

No doubt i remeber those touching words but somehow those were burried in the bottom of my heart again i felt same thing fabulous fantastic peerless or you can say out of my dictionary

अनिल कान्त said...

मनीषा जी सचमुच आप बहुत अच्छा लिखती हैं ........मैं तो आपकी कविताओं आपकी लेखनी का .......... हो गया

अनिल कान्त said...

आप बेस्ट हैं जी ...आपकी कविता भी बेस्ट है

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

याद आ गया--

काश यादे रेत होती,
मुट्ठी से निकल जाती,
मै पैरो से उडा देता..

कालीपद "प्रसाद" said...


पुराने लक्लिफ देह यादें भूलकर आगे बढ़ना ही जिंदगी है
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Vaanbhatt said...

कुछ के लिए यादों के सहारे जीना मुश्किल होता है... कुछ यादों के सहारे जीवन बिता लेते हैं...