Sunday 28 March 2010

प्‍यार की भाषा कहां खो गई है

अभी कुछ दिन पहले हिंदी के कवि चंद्रकांत देवताले जी के किसी परिचित से मेरी मुलाकात हुई। उसने बताया कि देवताले जी से उसने मेरे बारे में काफी कुछ सुन रखा है और बातचीत के दौरान ही उसने एकदम से पूछ लिया, ‘जब वो वेबदुनिया में आपसे मिलने आए थे तो आपने उन्‍हें सबके सामने हग किया था न?’

‘तुम्‍हें कैसे मालूम? वेबदुनिया वालों ने तुम्‍हें ये भी बता दिया?’

‘नहीं, देवताले जी ने बताया। कह रहे थे कि ऑफिस में ढेर सारे लोग थे और सबके सामने ही आप दौड़कर आईं और उन्‍हें गले लगा लिया।’

‘हां, वो हैं ही इतने प्‍यारे। इतने अच्‍छे इंसान कि कैसे कोई उन्‍हें गले से न लगाए।’

ये तकरीबन तीन साल पुरानी बात है। तब मैं वेबदुनिया में थी। देवताले जी इंदौर आए थे। उन्‍हें पता चला कि मैं वेबदुनिया में हूं तो मिलने चले आए। मुझे उनके इस तरह आने से इतनी खुशी हुई कि मैं तेजी से उनके पास गई और खुशी से भरकर उन्‍हें गले से लगा लिया। उन्‍होंने ने भी बिटिया कैसी हो, कहते हुए ढेर सा लाड़ उड़ेला।

लेकिन चूंकि मैं हमेशा ही, जिसे भी दिल से पसंद करती हूं, गले मिलकर ही मिलने की खुशी और गर्मजोशी जताती हूं तो मुझे एहसास तक नहीं हुआ कि मैंने हिंदुस्‍तान के हिंदी प्रदेशों की स्‍नेह को अभिव्‍यक्‍त करने की सीमाओं के हिसाब से कोई बड़ा काम कर डाला है, इतना बड़ा कि लोगों ने साढ़े तीन साल गुजरने के बाद भी उसे याद रखा हुआ है।

देवताले जी की उम्र 75 के आसपास होगी। उन्‍हें जानने वाला कोई व्‍यक्ति, अगर बहुत काईयां टाइप नहीं हुआ तो उन्‍हें पसंद किए बगैर नहीं रह सकता। लेकिन क्‍या लोग आगे बढ़कर उनसे कभी कहते हैं कि वो उनसे कितना प्‍यार करते हैं। 75 साल के उस बूढ़े को क्‍या कभी भी कोई गले लगाकर ये कहता है कि मैं आपसे बहुत प्‍यार करता हूं या कि करती हूं।

क्‍या हमारे देश में कोई भी किसी को गले लगाकर अपना प्‍यार जताता है।

क्‍या हम अपने आसपास कभी भी किसी को गले लगाकर कहते हैं, ‘Listen My Friend, I love you.’

किसी की बुराई करने, पीठ पीछे टेढ़ा बोलने, मेढ़क जैसे कैरेक्‍टर का डिसेक्‍शन करने में तो हम ढाई दफे भी नहीं सोचते। ऑफिस में हमेशा देखती हूं कि दो लोग मिलकर किसी तीसरे की लानत-मलामत करते गालियों के पहाड़ खड़े करते रहते हैं। फलां ऐसा और ढंका ऐसा। अकेले वही महानता के बुर्ज पर सुशोभित हैं, बाकी तो कीचड़ में लि‍थड़े जोकर कुमार हैं।

सबकुछ कह डालते हैं पर कभी किसी से ये नहीं कहते कि तुम कितने अच्‍छे हो या कि मैं तुमसे कितना प्‍यार करता हूं।

प्‍यार शब्‍द को हमने गर्लफ्रेंड-ब्‍वॉयफ्रेंड या पति-पत्‍नी के लिए रिजर्व रखा हुआ है। (ये बात अलग है कि वो भी एक-दूसरे को I love you कहने की जरूरत कभी महसूस नहीं करते।) बाकी लोग एक-दूसरे से प्‍यार नहीं करते। इंसानों ने अपनी दुनिया में एक-दूसरे तक अपनी-अपनी बातों की आवाजाही के लिए जो खिड़कियां बनाई हैं, उसमें प्‍यार का कोई ईंटा, गारा, सरिया नहीं लगा है। हमारी भाषा भी प्रेम के शब्‍दों को जोड़कर नहीं तैयार की गई है, जबकि मनुष्‍य इस दुनिया में प्रेम की भाषा के साथ ही पैदा होता है। कोई सिखाता नहीं, लेकिन एक दिन का बच्‍चा भी प्रेम और स्‍पर्श की भाषा समझता है।

ये बात पहली बार मुझे उस दिन समझ में आई थी, जब मेरी एक कजिन की बिटिया ने अपनी नन्‍ही-नन्‍ही ह‍थेलियां बढ़ाकर मेरे स्‍नेह को थाम लिया था। वो उस समय महज दो महीने की थी और बिस्‍तर पर लेटी-लेटी पूरी ताकत से हाथ-पैर फेंक रही थी। अचानक मैं उसके ऊपर झुकी और उसके माथे को चूम लिया। फिर उसके गालों की पप्‍पी ली और फिर होंठों को बहुत लाड़ से चूमा।

‘मेरी नन्‍ही कली, मेरी शोना, मेरी चांद।’

मुझे कल्‍पना तक नहीं थी कि इस पर उस नन्‍हे से फूल की क्‍या प्रतिक्रिया हो सकती है। अचानक मैंने महसूस किया कि उसने हाथ-पैर चलाना बंद कर दिया है। वो शांत हो गई और अपने तरीके से मेरे स्‍नेह में साझीदार हो गई। मैं महसूस कर सकती थी कि वो दो महीने की बच्‍ची मेरे चूमे जाने के साथ बराबरी से शामिल थी। वो अपने होंठों से मुझे भी चूमकर मेरे प्रेम का जवाब दे रही थी। वो क्षण मेरे लिए एक नए अलौकिक संसार के दरवाजे खुलने की तरह था। अब वो तीन साल की है और अब भी प्रेम की भाषा समझती है और प्रेम की साझेदारी में पीछे नहीं हटती, बल्कि खुद आगे बढ़कर हाथ थाम लेती है। घर में सबको बहुत अच्‍छा लगता है क्‍योंकि वह सिर्फ तीन साल की है। बड़ी होकर भी इतने ही प्रेम से भरी रही तो घरवालों समेत दुनिया वालों को मियादी बुखार जकड़ लेगा। लेकिन जैसे घर में वह पैदा हुई है, बहुत मुमकिन है कि मेरी उम्र तक आते-आते वैसी रह ही न जाए, जैसी जन्‍म के दो महीने बाद थी। दुनिया उसे वैसा बना दे, जैसा दुनिया को लगता है कि लोगों को और खासकर लड़कियों को तो जरूर ही होना चाहिए।

प्रेम की भाषा क्‍या इतनी शर्मनाक है? किसी को गले से लगाते ही क्‍या आप उदात्‍त मनुष्‍य की ऊंचाई से लुढ़ककर सीधे जमीन पर आ पड़ते हैं। क्‍या, प्रॉब्‍लम क्‍या है? प्रेम इतना अछूत है क्‍या? अपनी बनाई दुनिया के लिए क्‍या हमें कभी भी शर्म महसूस होती है। मेरे भाई के घर में जो डॉगी है, वो भी अपना प्‍यार एक्‍सप्रेस करने से पहले ढा़ई घंटे विचार नहीं करता कि हाय, कहीं ये अनैतिक तो नहीं। घर में घुसते ही मेरे ऊपर चढ़ने, चाटने लगता है। मेरी ह‍थेलियों को अपने मुंह से पकड़ेगा, आगे के दोनों पैर रखकर मेरे ऊपर चढ़ जाएगा और मुंह चाटेगा। पैरों के पास बैठकर पैर चाट-चाटकर खुश होगा और बड़े प्‍यार से मेरी ओर देखेगा कि अब तो मेरी पीठ थपथपाओ, मुझे प्‍यार करो। न करूं तो बच्‍चों जैसे नाराज भी हो जाएगा।

मुंबई के हॉस्‍टल में एक बिल्‍ली रहती थी। वो भी रोज शाम को मेरे ऑफिस से लौटने का इंतजार करती थी और आते ही गोदी में चढ़कर बैठ जाती, हाथ-पैर चाटती। उसके मन भी बड़ा प्‍यार था, जिसे जताने से पहले न वो उनके नैतिक-अनैतिक पहलुओं पर विचार करती थी और न ही संकोच से गड़ जाती थी। मेरे ऑफिस जाने से पहले और लौटने के बाद उसे लाड़ करना ही करना होता था।

बच्‍चों को भी लाड़ करना ही करना होता है। उन्‍हें प्‍यार करना आता है, लेकिन जैसे-जैसे बड़े होते जाते हैं, प्‍यार की भाषा शर्म का सबब हो जाती है। वो गाली-गुच्‍चा, मारपीट, हर भाषा के साथ कंफर्टेबल होते जाते हैं, पर प्‍यार की बात नहीं करते।

मैं संसार की भाषा को शर्मनाक और त्‍याज्‍य समझती हूं। आपने ऐसी दुनिया बनाई है कि जिसके लिए आपको शर्म से डूब जाना चाहिए। मैं अपनी भाषा खुद रच रही हूं। हर उस बंधन को गटर में झोंकते हुए, जिसे आपने मोर मुकुट की तरह मेरे माथे पर सजाने की हमेशा कोशिश की है। मैं अपनी भाषा हवा से सीखती हूं, जो मौका मिलते ही आकर मेरे गालों पर बैठ जाती है और मेरे बाल हिलाने लगती है। उन फूलों से, जो मोहब्‍बत से भरकर झुक जाते हैं। उस पहाड़ी नदी से, जो अपनी राह में आने वाले हर खुरदरी चट्टान को प्रेम के स्‍पर्शों से मुलायम कर देती है।

अब मैं पापा के पैर नहीं छूती। उन्‍हें गले लगाकर कहती हूं, Papa, I Love you। वो बड़े प्‍यार से मुझे देखकर मुस्‍कुराते हैं पर कभी भी जवाब में ये नहीं कहते, I Love you too बेटा। हालांकि वो अपने समय और समाज के हिसाब से बहुत ज्‍यादा रौशनख्‍याल हैं, लेकिन फिर भी तमाम बंधन बचे रह गए हैं। मैं साठ साल की उम्र में अब उन्‍हें बदल नहीं सकती। मां को भी गले लगाकर I Love you बोलती हूं और मां का जवाब होता है, I love you too बेटा।

मुझे याद नहीं कि कब मैं इतनी बड़ी हो गई कि पापा ने मुझे गले लगाना या लाड़ करना छोड़ दिया था, पर बड़े होने के बाद मैंने उस सीमा को तोड़ा। क्‍योंकि मुझे उनका हाथ पकड़ने की जरूरत थी और मुझे जो जरूरत होती है, मैं कर डालती हूं। ज्‍यादा सोचती नहीं।

बहुत साल पहले, जब मैं मुंबई जा रही थी, इलाहाबाद स्‍टेशन पर हावड़ा-मुंबई मेल छूटने से कुछ सेकेंड पहले, जब मैं टेन में थी और पापा प्‍लेटफॉर्म पर खड़े थे, मैंने खिड़की की सलाखों पर रखे पापा के हाथ को चूमकर कहा था, Papa I love you. पापा की वो आंखें आज भी मेरे जेहन में ताजा हैं। बिलकुल भर आई थीं और उनमें मेरे लिए ढेर सारा प्‍यार था। पापा कितने खुश होते हैं, इस बात से कि जो सीमाएं वो नही तोड़ पाए, मैं तोड़ देती हूं और इस तरह मैं खुद उनकी भी मदद कर रही होती हूं।

मैं सचमुच हर वो दुष्‍ट सीमा तोड़ देना चाहती हूं, जो मुझे कमतर इंसान बनाती है। मैं हमारे घर के डॉगी और हॉस्‍टल वाली बिल्‍ली की तरह होना चाहती हूं। बिलकुल सहज, वैसी जैसा प्रकृति ने मुझे रचा है। मैं चाहती हूं कि मेरी दीदी की बिटिया कभी न बदले और जब वो मेरी उम्र की हो और मैं 62 साल की बूढ़ी तो मुझे 32 साल पहले की तरह चूमकर कहे, मौसी, I Love you. वैसे भी 62 साल की बूढ़ी औरत को कौन प्‍यार से चूमने में इंटरेस्‍ट दिखाएगा।

मैं हर उस व्‍यक्ति से अपने मन की बात कहना चाहती हूं, जिससे मैं सचमुच प्‍यार करती हूं। मैं पापा को गले लगाकर कहना चाहती हूं, Papa, I love you. प्रणय दादा को बोलना चाहती हूं, Dada, I truly love you. रस्किन बॉन्‍ड से कभी मिलूं तो कहूंगी, Mr. Bond, see how much we all love you. Specially I love you. मैं निशा दीदी को कहना चाहती हूं, दीदी तुम बहुत प्‍यारी हो और मैं तुमसे बहुत प्‍यार करती हूं। अपने नानाजी को कहना चाहती हूं, नानू, आपसे मेरे विचार नहीं मिलते, लेकिन मैं आपसे बहुत प्‍यार करती हूं। रिंकू भईया को बोलना चाहती हूं, तुम्‍हारे जैसा भाई कोई नहीं। भईया, I love you. मैं शायदा, अभय, प्रमोद, अशोक, तनु दीदी, शुभ्रा दीदी, भूमिका, दादू, अवधेश, अनिल जी, ललित, मेरी बहन, अभिषेक, गोलू और अपने उन तमाम दोस्‍तों को, जितने मैं बहुत प्‍यार करती हूं, कहना चाहती हूं, 'नालायकों, Listen, I Love you.'

ये प्‍यार जताना मुझे इंसान बनाता है और मैं इंसान बनी रहना चाहती हूं।

PS : ये नालायक शब्‍द अभय, प्रमोद, अशोक, दादू और अनिल जी के लिए नहीं है। बाकी सब are truly नालायक।


54 comments:

Astrologer Sidharth said...

बहुत अच्‍छी... बहुत ही अच्‍छी पोस्‍ट


सीधे दिल से... और दिल तक पहुंचने वाली...


आप ऐसे ही लिखती रहें...

Rangnath Singh said...

'बातों से फूल झड़ना' मुहावरा देवताले जी जैसों के लिए ही बना होगा।

स्वप्नदर्शी said...

प्रेम के कई रूप है. मुखर और मौन जिसको जो भी ठीक लगता हो, उसके लिए वही सहज है. कई बार "I love you", thanks, sorry जैसे बहुत से शब्द सिवाय लिपसर्विस के कोई मायने नहीं रखते. मेरी रोमानिया की एक दोस्त बहुत अचरज में रहती थी, कि रोज सोने से पहले हिन्दुस्तानी बच्चे अपने माता-पिता को "I love you" नहीं कहते. मैंने उससे कहा कि मैंने शायद जीवन में एक बार भी नहीं कहा, फिर भी उन्हें पता है कि प्यार है. ऐसे ही कभी धन्यवाद भी कहा होगा तो सिर्फ उन्हें, जिनसे निहायत लें-दें वाले सम्बन्ध है. एक प्रोफ़ेसर जिनका मैं बहुत सम्मान आज भी करती हूँ, मुझे पिछले १५ साल से "thankless student" कहते है. मेरा टेक ये है, कि थैंक्स कहकर ऐसे ही पीछा नहीं छुडाया, लम्बे समय तक याद रखूंगी.

गले लगाना प्यार का expression हो सकता है, पर सिर्फ रिवाज़ भी हो सकता है, उतना ही सहज जैसा कि हाथ जोड़कर नमस्ते कहना. यूरोप और खासकर स्पेनिश लोग आपको मौक़ा भी नहीं देते, और फट से गले लगा देतें है, गाल चूम लेतें है. वैसे ही जैसे दाल-भात खा रहे हो. फिर हफ्ते भर बाद तुम्हारा नाम भी भूल जायेंगे. अब कुछ आदत हो गयी है, पर कई सालों तक मुझे लगता रहा कि लोग कुछ दूर रहे तो बेहतर. कभी-कभी मुझे समझ नहीं आता कि क्या करूँ, लगता है पूरा शरीर कुछ काठ का हो गया है. एक सीनीयर प्रोफ़ेसर जब भी कोरिडोर में मिलती है, चिपट कर दिन में दस बार गले लगाती है. और मुझे पता है कि वों मुझसे प्रेम नहीं करती, हो सकता है प्रोफेसनल सदभावना भी न रखती हो.

प्रेम दिखाने से ज्यादा प्रेम का होना जरूरी है. मुझे तो बेहद चिढ़ तब लगती है, जब प्रेम न हो सिर्फ प्रेम का दिखावा हो.

Arvind Mishra said...

सहज निश्छल प्रेम यही तो है न !

संजय @ मो सम कौन... said...

आपकी चिंता जायज है। हम हिप्पोक्रेट्स हैं, शुरू से ही यही सीखते रहे हैं कि प्रेम भले ही सबसे करें, पर प्रकटीकरण करते समय आयु, लिंग बहुत बड़े फ़ैक्टर बन जाते हैं। पर समय बदल रहा है, ये चीजें भी बदलेंगी।
आभार।

रविकांत पाण्डेय said...

अच्छा आलेख है। मान्यताओं से ऊपर उठने का साहस बेहद जरूरी है।

Kulwant Happy said...

मैं आपसे प्यार करता हूँ। ऐसा कहने में क्या बुराई है, जो सबसे प्यारा लगता है, उसे कहने मैं तो कोई बुराई नहीं। आपका प्रेम के प्रति नजरिया अच्छा लगा।

निशांत मिश्र - Nishant Mishra said...

आपके लिए - 'बहुत प्यारी पोस्ट.'

औरों के लिए - 'कुछ सीखो, नालायकों!'

प्रज्ञा पांडेय said...

maisha aapki bhaasha aura apke bhaw prem bhare hain aur alhadta liye hue be baak hain . sach men aaj ke samay men log pyar bhi bahut formality ke saath karate hain .. agar aap kabhi luchnow aayen toh ham seedhe gale hi milenge .. dil se .

दीपक 'मशाल' said...

auron ki nahin jaanta lekin jo mujhe dil se achchhe lagte hain main jaroor unse aise hi milta hoon aur aise dilmile doston ki ek lambi fehrist hai mere paas(log galat na samajh baithen.. :) )haan lekin uske liye pahle us vyakti ko samajh leta hoon ki wo dil milane layak hai ya nahin..
fir se rochak vishay par likha aapne
badhiya hai suneel babu

अजित गुप्ता का कोना said...

मनीषा, मैं तुम्‍हारी किसी बात पर भी तर्क-वितर्क में नहीं पड़ना चाहती बस तुम्‍हें पढ़ना चाहती हूँ। बहुत दिनों बाद लग रहा है कि कोई ईमानदारी से अपनी बात लिख रहा है। युवा सोच क्‍या होनी चाहिए, आज अनुभव हो रहा है। कभी-कभी अपनी युवावस्‍था भी याद आ जाती है तब शायद बहुत अधिक पहरे थे लेकिन फिर भी हम बहुत कुछ नया कर ही जाते थे, तुम्‍हारी तरह। बस ऐसे ही बिंदास लिखती रहो और हमें पुन: युवा बनाती रहो।

अजित गुप्ता का कोना said...

मनीषा, तुम्‍हारे ब्‍लाग पर यह सेंसरशिप अच्‍छी नहीं लगी। क्‍या कोई विपरीत राय रखेगा तो तुम उस टिप्‍पणी को पोस्‍ट नहीं होने दोगी? आफ्‍टर अप्रूवल वाला काम मत करो। ये तो ऐसा ही हुआ जैसे समाचारपत्र कर रहे हैं। हम जो लिखेंगे बस वो ही छपेगा। फि ब्‍लाग में अन्‍तर क्‍या रह गया? मैंने जैसे ही पहली टिप्‍पणी पोस्‍ट की वो अप्रूवल में चले गयी तो मुझे यह लिखना पड़ा। चाहो तो तुम दोनों ही टिप्‍पणी डिलिट कर देना। हम केवल तुम्‍हें पढ़ लेंगे क्‍योंकि तुम्‍हें पढ़ना अच्‍छा लगा।

मनीषा पांडे said...

अजीत जी, आपकी दोनों टिप्‍पणियां प्रकाशित हो गई हैं। अप्रूवल लगाना इसलिए जरूरी है कि हमारे देश की ही तरह ब्‍लॉग भी बहुत सारे लंठ, कुंठित, घटिया दिमागों से भरा हुआ है। लोग हमेशा बात को संवेदनशीलता से समझें ही, जरूरी नहीं है। आप तो जानती ही हैं न, स्‍नेह भले न जताएं, गालियां निकालने पहले ही चले आते हैं। किसी भी पब्लिक स्‍फीयर में लड़कियों के लिए अपनी डिग्निटी बनाए रखना आसान नहीं है। क्‍योंकि मनुष्‍य कम और भेडि़ए ज्‍यादा हैं। मैं असहमति और विरोध वाली टिप्‍पणियां भी प्रकाशित करती हूं। मॉडरेटर सिर्फ इसलिए है कि गालियों और वलगर कमेंटों को रोका जा सके।

Sandip Naik said...

Excellent we often believe in People's opinion and forget our own dreams, wishes and try to be good person for soncety. Why cant we live our own life up to own expectations. I see Maisha you are writing very critical things and expressing nicely in moods......
Lovely . Keep the spirit up and very high break all the Bondage and reach to the pinnacle.
Amin....!!!!!!!!!!!!!

sonal said...

मैंने जबसे आपको पढ़ना शुरू किया है मैंने ये जाना ये सब तो मैं भी महसूस करती हूँ , पर कहने का के सलीका नहीं था, सच में अब मुखर होने का मन करता है नैतिकता अनितिकता ये सब बंधन में डालती है
बहुत पहले एक कहानी लिखी थी ..अगर आज लिखती तो उसका कलेवर दूसरा होता धन्यवाद
http://sonal-rastogi.blogspot.com/2009/11/blog-post_19.html

शब्द यात्रा की पथिक said...

pyaar pradarshn ka koi napa tulaa farmulaa nahi hai.yah to bas man ki pratikriyaa hai.jo svt: hi prakat hoti hai.bas ham mahilaao ke lie jaraa si savdhaani ki jarurat hai. varnaa baat ka batngad banane valo ki kami nahi hai duniyaa men .

raviprakash said...

मनीषा आपकी तारीफ सभी करते है , वह करना तो कोई नयी बात नहीं होगी
पर आपके ब्लॉग पर एक शेर कहना चाहूँगा

कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले लगोगे तपाक से
ये नए मिजाज़ का शहर है जरा फासले से मिला करो
@श्रीमती अजित , मेरे विचार से कमेन्ट को moderate करना ब्लॉगर की previllage है

RAVI SRIVASTAVA

अभय तिवारी said...

तुमने नालायकों की लिस्ट से हमें बाहर रखा है यह जानकर राहत हुई है। हमें भी तुम अपने पिता जी जैसा ही समझो!

प्रवीण पाण्डेय said...

प्रेम की अभिव्यक्ति तो होनी ही चाहिये । तीसरे की क्या चिन्ता ।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

मनीषा ,
आपका ब्लॉग अभी कुछ दिन पहले से ही पढ़ना शुरू किया है....और आपका लेखन इतना ज़बरदस्त होता है की मैं आपकी नियमित पाठिका बन गयी हूँ...पुराणी पोस्ट समय निकाल कर ज़रूर पढूंगी...
इस लेख ने एक नयी उर्जा भर दी है...सच प्यार की भाषा बिलकुल ऐसी ही होती है...पर हम लोगों ने कितनी दीवारें खड़ी कर रखी हैं...इस लेख को पढ़ कर लगा जैसे ताज़ी हवा का झोंका आ गया हो.....शुभकामनायें

PD said...

देखो मनीषा, इस मामले में लड़कियां फायदे में रहती है.. मजाक में नहीं कह रहा हूँ, सीरियस होकर और अपने अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ.. लड़कियां अगर किसी को प्यार से जादू कि झप्पी दे तो कोई भी महिला बुरा नहीं मानेगी और पुरुष तो बुरा मान ही नहीं सकता है.. पुरुष या तो अपनी ओछी मानसिकता के साथ खुश हो लेता है कि कोई लड़की उसे गले लगाई है या फिर सच्चे मन से मित्र कि तरह खुश होता है.. मगर पुरुष अगर सच्चे मन से भी किसी लड़की को गले लगा कर I love you my frnd कहना चाहे तो उस पर गलत हरकत या छेड़खानी का आरोप आसानी से लगाया जा सकता है..

एक घटना याद आ रही है, कालेज में मेरे एक सीनियर थे, कैम्पस सेलेक्शन के तहत नौकरी मिलने पर नौकरी मिलने से अधिक खुश इस बात से थे कि चलो बधाई देने के बहाने ही सही लड़कियों का हाथ छूने का मौका तो मिला..

वैसे जमाना बदल भी रहा है, भले ही धीरे-धीरे कछुवाचाल से.. मेरी एक बेहद खास मित्र है, उससे जब भी मिलता हूँ वह गले लग कर ही स्वागत करती है और उस समय समय या जगह का ख्याल नहीं करती है.. अब उसकी शादी हो चुकी है, मगर अपने पति के सामने भी उसका यह व्यवहार नहीं बदला है... और उसके पति को भी इससे कोई समस्या नहीं है, वो हमारी मित्रता को अच्छे से जानता है और उसकी इज्जत भी करता है..

घर जाने पर मम्मी को प्रणाम करने के बाद सीधा गले लगाता हूँ.. गले लगाने के लिए घुटने पर आना पड़ता है बेचारी बहुत नाटी है ना.. :) और गले लगाने के बाद जब गाल पर किस करता हूँ तो बेचारी शर्मा जाती है.. छोटा होने का पूरा फर्ज अदा करता हूँ, जम कर "लाड़ छिरियाता" हूँ.. :) पापा तो पांव भी नहीं छूने देते हैं, उससे पहले ही गले लगा लेते हैं.. कोई अजीज मित्र मिला और गले नहीं लगा तो उसे उसी वक्त गरिया देता हूँ, "साले बड़ा आदमी बन गया है, दोस्तों से गले मिलने में शरम आती है बे?" पता नहीं क्यों पर भैया या दीदी के गले पड़ने पर वे बहुत embrace फील करते हैं..

वैसे सोचता हूँ कि तुम्हारे "बेदखल कि डायरी" कि तर्ज पर "नालायक कि डायरी" नाम का एक ब्लॉग बना लूं.. क्या कहती हो!! :P

Priyankar said...

प्रेम बेहद सूक्ष्म एहसास है . बहुत सार्वभौमिक किस्म का एहसास . पर इसकी अभिव्यक्ति के तरीके भिन्न-भिन्न और कल्चर-स्पेसिफ़िक हैं . जैसा कि अपने व्यापक अनुभवों के जरिये स्वप्नदर्शी ने स्पष्ट किया है . सच का एक छोर मनीषा के पास है और दूसरा स्वप्नदर्शी के .

प्रेम को अभिव्यक्त करने का कोई ’मैनुअल’ नहीं हो सकता. इस संबंध में दिशा-निर्देश हेतु कोई ’गाइडलाइन्स’ नहीं हो सकतीं . और अगर होंगी भी तो देश-काल-संस्कृति के हिसाब से ही होंगी .

भारत में परम्परागत रूप से स्पर्शी किस्म का प्रेम-प्रदर्शन प्रेम-पात्र की उम्र के सुनिश्चित अंतराल के मध्य ही संभव-स्वाभाविक रहा है. बॉलीवुड को छोड़ दें तो दूसरे के पति या पत्नी या किसी अन्य समवयस्क के गले-गाल को चूम कर स्वागत करने का तरीका भी तमाम आधुनिकता और बदलाव के बावजूद अभी तक आमफ़हम नहीं हो पाया है .

पर अगर प्रेम हो तो उसे दर्शाया जाना चाहिए . और प्रेम को दर्शाने के -- सूक्ष्म से लेकर क्रूड तक -- हज़ारों-हज़ार तरीके हैं . प्रेम-प्रदर्शन के भी और कृतज्ञ स्वीकार्य के भी . फिर वह चाहे मनीषा की तरह हो या स्वप्नजीवी की तरह . पर जो भी हो सच्चा हो . और उसमें ’इमोशनल स्टेबिलिटी’ -- संवेगात्मक स्थिरता -- का तत्व भी हो . यह नहीं कि आज किया ’हग’ और कल कहा भग . प्रेम में सिर्फ़ भावना ही नहीं , उसका ’पैटर्न’ भी देखा जाता है कि वह स्थायी है या सामयिक उफ़ान है या ’साइक्लिसिटी’ जैसा मामला है. तभी तो कबीर को लिखना पड़ा :
अगिन आंच सहना सुगम, सुगम खड्ग की धार। नेह-निभावन एक रस, महा कठिन व्यवहार।

अतः प्रेम-प्रदर्शन की पद्धति से भी महत्वपूर्ण है ’नेह-निभावन’ . कबीरी अर्थ में यह एकमात्र एकरसता है जो अच्छी कही जा सकती है . अब प्रेम कोई प्रोडक्ट तो है नहीं कि एक्सपायरी डेट की पूर्व-चेतावनी के साथ आए . पर, हां ! जब जीवन ही ’अनप्रेडिक्टेबल’ है तो प्रेम में भी इस तत्व की गुंजाइश तो बनती है .

प्रेम की उपस्थिति में प्रेम-प्रदर्शन एक किस्म की ’हीलिंग’ है और प्रेम की अनुपस्थिति में प्रेम-प्रदर्शन एक किस्म का शारीरिक व्यायाम .

mukti said...

मैं भी किसी को प्यार करती हूँ, तो जता देती हूँ, न सही गले लगकर, न सही i love you कहकर. पर मुझे लगता है कि प्यार को सिर्फ़ प्रेमी-प्रेमिका या पति-पत्नी के बीच की चीज़ बनाकर नहीं रख देना चाहिये.
वैसे तो तुम खुद इतनी प्यारी हो कि कोई भी तुम्हें प्यार करने लगेगा. एकदम सच्ची.

Shekhar Kumawat said...

आपकी चिंता जायज है।

shekhar kumawat

kavyawani.blogspot.com/

Anonymous said...

"वैसे भी 62 साल की बूढ़ी औरत को कौन प्‍यार से चूमने में इंटरेस्‍ट दिखाएगा। "- वापस लो ! वापस लो !

विनीत कुमार said...

एक साल बाद जब वो मुझसे मिली तो एकदम से मुझ पर कूद गयी. पटेल चेस्ट का इलाका जहां लौंडो़ं की सौंकड़ों में जमात होती है- सबने देखा,एक ने कमेंट मारा-देखो कैसे गले लगेने के लिए खखुआयी हुई है। मैं भी हैरान रह गया था कि इस लड़की को हो क्या? लेकिन उसका कहना था कि विनीत एक साल बाद मिलने पर मैं अपने को रोक नहीं पायी।..
फिल्म सीटी नोएडा जब भी जाना होता है- कई अपने साथ काम करने वाली लड़कियों से मिलता हूं। लड़कों से भी मिलता हूं। लड़को को तो बेधड़क गले मिलता हूं क्योंकि कुछ लोगों के मिलने पर उससे कम में काम ही नहीं चलता लेकिन लड़कियों के साथ करने में थोड़ी तो झिझक तो जरुर होती है। लेकिन जब वो मुझ पर इसी तरह कूदती है- अरे प्रोफेसर यहां कहां तो याकीन मानिए दिनभर खुले दिन और दुनियाभर की आजाद ख्याली की स्टोरी करनेवाले प्रोड्यूसर भी कुम्हला जाते हैं- ऑफिस में तो ऐसे गले नहीं मिलती हो।.

Ambarish said...

swapndarshi ka comment post se bhi jyada kah gaya....

कृष्ण मुरारी प्रसाद said...

भाव विह्वल कर देने बाला पोस्ट...पढते पढते आँखें भर आयीं...
..मैंने अभी अभी नारी पर एक पोस्ट डाला है....लिंक दे रहा हूँ....आशा है आप जरूर पढ़ेंगी...
....
..
भविष्य में नारियाँ शक्तिशाली होती जायेंगी ......पुरुष कमजोर होते जायेंगे....
http://laddoospeaks.blogspot.com/

वीरेन्द्र जैन said...

आपके पोस्ट अहसासों को सहलाने के साथ साथ विचारोत्तेजक भी होते हैं जो दिल और दिमाग दोनों को एक साथ मथते हैं

pallavi trivedi said...

कई बार झिझक और संकोच हमारे मुंह पर ताला मार देता है....जिससे लाख चाहते हुए भी हम अपना प्यार नहीं जाता पाते हैं! पर सचमुच किसी को अपने दिल की बात बताना और उससे भी सुनना की वो भी हमें प्यार करते हैं....दिल को ख़ुशी से भर देता है!

डॉ .अनुराग said...

मनुष्य की प्रकति उसका स्वभाव .....उसके एक्सपोज़र ...उसके आस पास के वातावरण पर निर्भर करता है ..यही कारण है के गुजरात ओर मुंबई की लड़की ओर यू पी की लड़की के अपने आप को एक्सप्रेस करने के तरीके में फर्क होता है......कई चीजों में लडको में भी ...
हाँ" आई लव यू "कहकर प्यार करने का रिवाज अभी चलन में है.....धीरे धीरे इसका इन्फेक्शन फैलेगा ....शायद अपनी फीलिंग्स को दबाना पुरानी पीढ़ी के संस्कारों में है .तभी तो पिता भी कहाँ बेटो को आई लव यू कहते है .....
प्रियंकर जी की टिप्पणी ..... इस पोस्ट को नया अर्थ देती है ..खुद हमारी यू पी की झिझक को गुजरात के उन्मुक्त स्वतन्त्र माहौल ने तोडा था ....

Unknown said...

मणि,

प्रेम की कोई भाषा अब तक विकसित नहीं हो पाई है और यह अच्‍छा भी है। कोई कैसे अपने प्रेम को अभिव्‍यक्‍त करता, करती है यह उस पर ही निर्भर होता है। तुम या मेरे जैसे लोगों के लिए शरीर प्रेम की अभिव्‍यक्ति का माध्‍यम है इसलिए हमें किसी बेहद अपने को गले लगाते हुए कभी कोई संकोच नहीं होता। लेकिन कई हैं जो बिना कुछ कहे, सब कुछ कह जाते हैं। कहते हैं- 'होता है राज-ए-इश्‍क-ओ-मोहब्‍बत इन्‍हीं से फाश, आंखें जुबां नहीं हैं मगर बे-जुबां नहीं।'
अपनी 'भाषा' के जरिए प्रेम की अभिव्‍यक्ति अपने लिए ठीक है, लेकिन सब इसी तरह से बोलने लगेंगे तो प्रेम भी मशीनी होता जाएगा। उन्‍हें अपने-अपने तरीकों से कहने और सबसे जरूरी, सुनने दिया जाए।
अलबत्‍ता, इस प्रेम को पाने के लिए खुद को तिरोहित करना ही पडता है। कबीर कहते हैं-'जो मैं हूं तो तू नहीं, जो तू है, मैं नाहिं, प्रेम गली अति सांकरी जामें दोउ न समाहिं।' और इकबाल भी-'मंजिले-गम से गुजरना तो था आसां 'इकबाल', इश्‍क तो नाम है खुद ही से गुजर जाने का।' यह 'खुद ही से गुजरना' सरल नहीं होता और इसलिए प्रेम भी 'खाला का घर' ही बना रह जाता है। हिसाबी-किताबी लोग इसीलिए प्रेम में होते हुए भी समाज और संसार की परवाह करने में लगे रहते हैं और कई बार जीवन-भर अपने प्रेम को अभिव्‍यक्‍त तक नहीं कर पाते।
भील आदिवासियों में गाया जाने वाला गायणा नर्मदा के समुद्र प्रेम की कहानी भी कहता है। इसमें प्रेम में डूबी नर्मदा का, समुद्र यानि डूडा हामद से मिलने जाने का वर्णन है। यह उद़दात्‍त प्रेम का अद़भुद नमूना है। 'मोहब्‍बत में खयाल-ए-मंजिलो-साहिल है नादानी, जो इन राहों में लुट जाए वही तकदीर वाला है।'
इस सब में कबीर को भी सुनें-'अकथ कहानी प्रेम की कछु कही न जाए, गूंगे केरी सर्करा, खाए और मुस्‍काए।'

तुमने मेरे बेहद प्रिय विषय को छेडा तो इतनी लंबी कहानी हो गई।

अब बस।

राकेश।

डिम्पल मल्होत्रा said...

यह सब का प्रिय विषय है,सब ने सब कुछ कह दिया है.बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी..

अजय कुमार झा said...

बचपन से सुनता आया हूं कि संगति का असर होता है देर सवेर ही सही ....रोज आकर पढता हूं ..जाने कब हमारी कलम के भी दांत निकल आएं एकदम धारदान नोक वाले ....आप अच्छा करती हैं कि नेट पर लिखती हैं ..कागजों पर तो लेखनी सब खुरच डालती होगी ...लिखिए लिखिए किसी दिन हम भी ............बहुत बहुत शुभकामनाएं ..आप जैसे ब्लोग्गर्स की सक्रियता ..हिंदी ब्लोग्गिंग में आ रहे भटकाव को बचा ले जाते हैं
अजय कुमार झा

Anita kumar said...

अपुन चले नालायक से लायक बनने और आई लव यू का अलख जगाने।

तुमने 65 साल की उमर फ़िक्स कर दी है जिसके बाद सूखा पड़ने वाला है तो मुझे थोड़ी रेन हार्वेस्टिंग करनी पड़ेगी, चलो सब भाई लोग मुझे बोलो 'आई लव यू' टेम बहुत कम है, फ़िर मौका नहीं मिलेगा…।:)

Satish Saxena said...

आपकी शैली से अभिव्यक्ति की ईमानदारी झलकती है मनीषा जी ! प्रभावित हूँ ! शुभकामनायें !

Anil Pusadkar said...

सहमत हूं आपसे।

Anil Pusadkar said...

सहमत हूं आपसे।

अजित वडनेरकर said...

यही सहज है।
पर सहज होना कठिन है।

फिर भी बहुत कर
हम लोग किन्ही जकड़नों को तोड़ते हैं।
हर जकड़न टूटे
यह ज़रूरी भी नहीं।

तुम ऐसी ही रहो
या दुनिया चाहे वैसी
रहोगी अच्छी ही।
यही हमें पसंद है।

...और इसके बाद मनीषा के नाम का जयकारा देर तक सन्नाटे में गूंजता रहा।

VICHAAR SHOONYA said...

manisha ji tippani karna chahta tha par meri tippani thoda lambi ho gayee aur yanha par paste nahin kar paya pata nahin kya technical problem hai. majburan apne blog par prakashit kar di hai. padh len.

anjule shyam said...

नहीं कह सकता मैं कुछ कभी अपनी मम्मी और पापा को बाबा को नानी नाना को,और भी बहुत से दोस्तों को कभी उनके प्यार करने के लिए thanxs नहीं सका,कहने कि हिम्मत भी नहीं है,उस दोस्त को एक बार कहने कि कोशी कि थी तुम मेरे सबसे अच्छे दोस्त हो पलट के एक चटा मरा और बोला ये चीज कहने कि नहीं होती दोस्त...हर किसी का प्यार करने और जताने का अलग अंदाज़ है कोई किसी भी तरह प्यार करे या जताए उसपे कमेंट्स करने का कम से कम मैं तो हक नहीं रखता...आपकी पोस्ट अच्छी है बेहतरीन है,आपका ब्लॉग उन कुछ ब्लॉगों में से है जिन्हें माने अपने reder से जोड़ रखा है आपकी पिछली दो पोस्टें भी बेहतरीन थी...शुक्रिया इतने अच्छे पोस्ट के लिए..

ghughutibasuti said...

मनीषा, इतना अच्छा लेख लिखकर अन्त में प्रेम को आयु सीमा में क्यों बाँध दिया? प्रेम को नहीं तो उसकी अभिव्यक्ति को तो बाँध ही दिया। लगता है कि कोई फाँसी की सजा सुना गया हो। वह भी कोई जाति या खाप पंचायत वाला नहीं, प्यार करने वाली मनीषा। एसा अन्याय तो मत करो।
घुघूती बासूती

ghughutibasuti said...

मनीषा, इतना अच्छा लेख लिखकर अन्त में प्रेम को आयु सीमा में क्यों बाँध दिया? प्रेम को नहीं तो उसकी अभिव्यक्ति को तो बाँध ही दिया। लगता है कि कोई फाँसी की सजा सुना गया हो। वह भी कोई जाति या खाप पंचायत वाला नहीं प्यार करने वाली मनीषा। ऐसा अन्याय तो मत करो।
घुघूती बासूती

Unknown said...

और हां, तुम मुझे अब तक 'नालायक' नहीं मानती, शायद यह भी प्रेम की ही एक अभिव्‍यक्ति है।

अविनाश वाचस्पति said...

पढ़कर समझ आया

कि मुन्‍नाभाई एमबीबीएस क्‍यों हिट हुई

और संजय दत्‍त

या उनक निर्माता/निर्देशक को

यह आइडिया कहां से आया

जरूर आपने ही बतलाया होगा।

sudesh said...

मनीषा जी. बिल्कुल दिल तक पहुंचने वाला आलेख है यह. आंखें भर आईं. पापा की याद आ गई. उनके जीतेजी मैं कभी भी उनसे नहीं कह सका.कि Papa, I love you". जब उन्हें लकवे क अटैक पड़ा, और मैं क़रीब एक हफ़्ते बाद बनारस पहुंच पाया. तो मैं उन्हें देख कर आंखें भर रहा था, और वे मुझे देख कर रो रहे थे. मैंने उनसे लिपटना चाहा, पर अनजाने संकोचवश बस पास बैठा रहा. फिर अचानक ही उनकी पीठ पर हाथ फेरने लगा, कहा, ’पापा मत रोइये, ठीक हो जाएंगे, सब कुछ ठीक हो जाएगा’. उन्होंने बच्चों की तरह सिर हिलाया और मेरे सीने से लग गए. मैं तब भी नहीं कह पाया 'Papa, I love you".

sudesh said...

मनीषा जी. बिल्कुल दिल तक पहुंचने वाला आलेख है यह. आंखें भर आईं. पापा की याद आ गई. उनके जीतेजी मैं कभी भी उनसे नहीं कह सका.कि Papa, I love you". जब उन्हें लकवे क अटैक पड़ा, और मैं क़रीब एक हफ़्ते बाद बनारस पहुंच पाया. तो मैं उन्हें देख कर आंखें भर रहा था, और वे मुझे देख कर रो रहे थे. मैंने उनसे लिपटना चाहा, पर अनजाने संकोचवश बस पास बैठा रहा. फिर अचानक ही उनकी पीठ पर हाथ फेरने लगा, कहा, ’पापा मत रोइये, ठीक हो जाएंगे, सब कुछ ठीक हो जाएगा’. उन्होंने बच्चों की तरह सिर हिलाया और मेरे सीने से लग गए. मैं तब भी नहीं कह पाया 'Papa, I love you".

divya pandey said...

Koi haath bhi na milayega jo gale miloge tapak se
Ye naye mijaj ki duniya hai...jara fasle se mila karo.
Achha Lekh Manish ji....aap ko koi bana dekhe ...bina jane bhi pyaar kar sakta hai.

शरद कोकास said...

"मैं संसार की भाषा को शर्मनाक और त्‍याज्‍य समझती हूं। आपने ऐसी दुनिया बनाई है कि जिसके लिए आपको शर्म से डूब जाना चाहिए। मैं अपनी भाषा खुद रच रही हूं। हर उस बंधन को गटर में झोंकते हुए, जिसे आपने मोर मुकुट की तरह मेरे माथे पर सजाने की हमेशा कोशिश की है। मैं अपनी भाषा हवा से सीखती हूं, जो मौका मिलते ही आकर मेरे गालों पर बैठ जाती है और मेरे बाल हिलाने लगती है। उन फूलों से, जो मोहब्‍बत से भरकर झुक जाते हैं। उस पहाड़ी नदी से, जो अपनी राह में आने वाले हर खुरदरी चट्टान को प्रेम के स्‍पर्शों से मुलायम कर देती है।"

इन वाक्यों को कॉपी-पेस्ट करने का उद्देशय सिर्फ यह बताना है कि इतनी सुन्दर कविता लिखने वाली लड़की को यह बताने की ज़रूरत नहीं कि वह इस दुनिया से क्यों प्यार करती है ।इसे पढ़कर मुझे नेरूदा की प्रेम कवितायें याद आईं ।
मैं भी देवताले जी से बहुत प्यार करता हूँ उनसे बात करता हूँ उन्हे एस एम एस भेजता हूँ और गले मिलता हूँ । विगत दिनो जब वे रेल से दुर्ग होते हुए गुजरे तो मैं स्टेशन पर उनसे मिलने गया उन्होने 10 मिनट में 3 बार मुझे गले लगाया । यह मेरा और देवताले जी का रेकॉर्ड है अभी तक किसीने इसे तोड़ा नहीं है । (वैसे भी "मेरा और देवताले जी" का है तो कौन तोड़ेगा । )
अपनो के प्यार के प्रति आपका यह विश्वास बना रहे यह दुआ ।

मीनाक्षी said...

प्यार से लबालब पोस्ट पढ़कर हमें लगा कि प्रेम जताने में देर नहीं करनी चाहिए..तुम्हे पढ़ना ऐसे लगता है जैसे नसों में खून तेज़ी से दौडने लगता हो.अब से सोच लिया है कि प्रेम जताने में कोताही न बरतेगे...खूब प्यार और आशीर्वाद

Unknown said...

aaj hi aapke blog tak pahucha.... aakhe bhig gayi ......shaandar aur majboot bhasha....

महेश शर्मा MAHESH SHARMA said...

मनीषाजी, मैं समझ रहा हूँ कि देवतालेजी के सम्बन्ध में आपकी चर्चा किससे हुई होगी..बहुत भोला लड़का है...बहुत संवेदनशील, अपने सरोकारों के प्रति बेहद ईमानदार,..वैसे आपने बहुत ईमानदारी से, दिल से पोस्ट लिखी है लेकिन आपसे एक पुस्तक की चर्चा करना चाहूँगा जो मूल रूप से अंग्रेजी में है, उसका हिंदी अनुवाद प्रेम की पांच भाषाएँ के नाम से उपलब्ध है..पांच भाषाओँ में एक है स्पर्श...एक है सकारात्मक टिप्पणी ..जिसकी प्राथमिक भाषा स्पर्श होती है वह अन्य से भी उसी भाषा की अपेक्षा करता है जो स्वाभाविक है और जो सकारात्मक शब्दों को बहुत महत्व देते हैं वे शब्दों से अभिव्यक्ति को ज्यादा पसंद करते हैं बजाय स्पर्श के...जरुरत है एक - दूसरे की भाषा समझाने की..न कि कोई पूर्वाग्रह पालने की ..वैसे एक sms आया था जो लिख रहा हूँ what is love..love is when mom comes and say "Beta,I love you...love is when we come back from work and papa says "Beta ,लेट होने वाला था तो कॉल कर देता"love is when Bhabhi says "ओये हीरो ,कोई लड़की-वडकी पटी कि नहीं "love is when sister says"भाई मेरी शादी के बाद मुझसे झगडा कौन करेगा" love is when we are moodless and brother says "चल कहीं घूम के आते हैं.."

Puja Upadhyay said...

Love you for writing this post.
किसी बहुत अज़ीज़ से मिले तो दिल वाकई सोचता बाद में है और भाग कर गले पहले लगती हूँ...फिर अक्सर अचकचा भी जाती हूँ जब देखती हूँ कि आसपास के लोग घूर रहे हैं.
कल्चर का मामला है, हमारे यहाँ प्यार को हमेशा छुपाने की चीज़ बताई गयी है. तुम्हारी ये पोस्ट जैसे एकदम दिल की बात कह गयी. बहुत अच्छा लगा पढ़ के. पिछली बार पढ़ी थी तो कमेन्ट नहीं किया था...आज बिना किये रह नहीं पायी.

Shehnaz said...

बहुत ही अच्छी पोस्ट मनीषा जी, आपके लेख हाल में ही पढ़ने शुरू किए हैं। बहुत ज्वलंत मुद्दों पर लिखती हैं आप। मुझे भी ये सवाल बहुत परेशान करता है की आख़िर हम इंसान प्रेम-प्रदर्शन में इतना हिचकते क्यूँ हैं। मुझे भी अभी तक जाने कितने लोगों से प्रेम हुआ, कभी- कभी बिना शब्दों का सहारा लिए अपने हाव-भाव से प्रदर्शित भी कर दिया। पर हालिया कुछ ऐसा हुआ कि मन उदास हो गया। मैंने एक शादीशुदा युवक से ये कह दिया कि “आप मुझे बहुत अच्छे लगते हैं” बस जनाब ने तो मुझसे नाता ही तोड़ लिया। जनाब न मुझे तुरंत फुरत में बहन का टाइटल दे डाला।
लेकिन इस घटना के अतिरिक्त कुछ ऐसे लोग भी मिले जिन्होंने मेरे सहज प्रेम को उतनी ही सहजता से लिया और वैसा ही प्रेम बदले में मुझे दिया जैसे प्रेम मैं उन्हें करती हूँ।