महिला प्रगतिशील नारीवादी थीं। साथ ही मार्क्सवादी भी थीं। महिला व उनके पति, दोनों को प्रगतिशीलता और मार्क्सवाद के गुण विरासत में मिले थे - फैमिली हेरिडिट्री। फिर भी वो महिला लगातार बताती रहतीं कि विचारों से वह कितनी प्रगतिशील हैं। ‘कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो’ से लेकर ‘परिवार, निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति’ तक उन्होंने भलीभांति घोंट रखा है। मार्खेज और केट मिलेट को भी नहीं छोड़ा। वो चित्रकला, सूफी-क्लासिकल-जैज और उम्दा कला फिल्मों की किस कदर दीवानी हैं। मौका मिलते ही वह स्त्रियों की आजादी के पक्ष में भाषण देने लगतीं - तोड़ो कारा तोड़ो......।
वो हमेशा कुछ खास रंगों के कॉटन के कुर्ते पहनतीं, खादी टाइप झोला टांगती और पैर में फ्लैट जर्नलिस्टिक लुक वाली चप्पल पहनतीं। आंखों में काजल, खुले बाल और धूप वाला चश्मा उनकी पहचान था। शुरू में मुझे लगा कि वो कुछ नौकरी-वौकरी करती होंगी, लेकिन मैं गलत थी। वह दिल्ली यूनिवर्सिटी से मनोविज्ञान में पोस्ट-ग्रेजुएट थीं और पिछले 7 सालों से रिसर्च कर रही थीं, किए जा रही थीं।
उस पेंटिंग एक्जिबिशन के बाद फिर कई बार हमारी मुलाकात हुई। मैं उनके घर भी गई एक-दो बार। नारीवाद के कुछ लक्षण तो मुझमें भी थे, लेकिन संभवत: उन्हें लगता था कि मेरे इस संप्रदाय में दीक्षित होने में कुछ कमियां रह गई हैं। वो उन कमियों को दूर करने के लिए तत्पर थीं। मुझसे हमेशा इस लहजे में बात करतीं कि सिखाने और उपदेश देने के लिए उद्धत जान पड़तीं।
एक शाम उन्हें शॉपिंग के लिए फैब इंडिया जाना था। मेरे ऑफिस फोन करके पूछा कि मैं कब खाली हो रही हूं। शनिवार का दिन था। दो बजे ऑफिस से छूटकर 238 नं. बस पकड़कर गिरगांव चौपाटी से मैं सीधा जहांगीर आर्ट गैलरी पहुंची। जहांगीर पर ही मिलना तय हुआ था। मैंने पहली बार फैब इंडिया का नाम उन्हीं के मुंह से सुना था, क्योंकि अपने घर के बहुत सारे लकड़ी और बेंत के सामानों की ओर इशारा करते हुए उन्होंने बताया था कि ये सारे सामान उन्होंने फैब इंडिया से खरीदे हैं। मुझे अपने पिछड़ेपन पर बड़ी कोफ्त हुई। इतनी बड़ी चीज का नाम मुझे कैसे नहीं मालूम हुआ अब तक। वेस्टसाइड, ग्लोबस और शॉपर्स स्टॉप वगैरह का नाम तो मैंने सुना था, और दर्शन भी किए थे। एस.एन.डी.टी. हॉस्टल की लड़कियां वहां जाया करती थीं और इस तरह मेरे भी ज्ञान में इजाफा हुआ था। लेकिन फैब इंडिया के बारे में उन लड़कियों ने मुझे कभी कुछ नहीं बताया।
फिलहाल प्रगतिशील महिला शुरू थीं - फैब इंडिया का पर्दा, फैब इंडिया की चादर, फैब इंडिया का कुर्ता, फैब इंडिया की चप्पल। राम भज राम की तर्ज पर वो फैब इंडिया भज रही थीं और मैं भक्तिभाव से हाथ जोड़े सुन रही थी।
उस दिन फैब इंडिया से उन्होंने 4-6 कॉटन के कुर्ते खरीदे, एक चादर और दो कुशन कवर लिए। प्रगतिशील महिला दिल्ली में पढ़ी-लिखी जरूर थीं, लेकिन मूलत: सुल्तानपुर से आती थीं। बचपन में उन्होंने भी मेरी तरह मंगलवार की हाट से टिकुली-बिंदी खरीदी होगी और मुहल्ले की दुकान से सूजी और उडद की दाल, लेकिन फैब इंडिया की हर चीज को वो ऐसे बरत रही थीं, जैसे बचपन से यही देखती बडी हुई हों। उन्हें लगा कि हिंदी प्रदेश की चिरकुट भय्यानी को उनके व्यवहार की सारी अदाएं संपट जाएंगी।
फैब इंडिया की हर नई चीज देखकर उनकी आंखें उत्साह से चमकने लगतीं। उन्हें लगता कि कितना कुछ वो अपने घर में भर लें। बीच-बीच में वो मुझे समझाती जातीं – फैब इंडिया में सब जमीन से जुड़ी चीजें हैं। लकड़ी, बेंत, सूती, खादी, गृह उद्योग का शहद, अचार और मुरब्बा। सब जमीन से जुड़ा हुआ आम लोगों का सामान। मेरे ज्ञान-चक्षु खुल रहे थे। वेस्टसाइड और पेंटालून तो अमीरों के चोंचले हैं, फैब इंडिया जमीन से जुड़े लोगों की चीज हैं। प्रगतिशील, बुद्धिजीवियों, धारा से अलग हटकर सोचने वालों का स्टोर।
फिलहाल 3200/- का बिल बनवाकर प्रगतिशील महिला बाहर आईं। बिल देखकर मेरे कान खड़े हो गए। शॉपिंग की चमक से उनका चेहरा रोशन था। हम चर्चगेट स्टेशन की ओर बढ़े। रास्ते में फुटपाथ पर पुरानी सेकेंड हैंड किताबों की दुकानें नदारद थीं। कुछ दिन पहले खबर आई थी कि नगर पालिका ने उन दुकानों को बंद करवा दिया है। रास्ता झिकता है, आने-जाने में परेशानी होती है।
प्रगतिशील महिला दुख और क्रोध से उबल पड़ी। मुंबई में लोग इतने सेल्फ सेंटर्ड हैं। यहां कोई मूवमेंट, कोई एक्टिविटी ही नहीं है। किसी सोशल इशू पर लोगों की कोई गैदरिंग नहीं होती। ये दुकानें यहां से हटा दी गईं, हम क्या कर रहे हैं। दिल्ली में ऐसा नहीं होता। वहां मूवमेंट है, काम हो रहा है। एंड व्हॉट अबाउट द लेफ्ट। व्हॉट दे आर डूइंग। अपने शॉपिंग के पैकेट संभालते हुए वो बड़बड़ाती जा रही थीं। व्हॉट्स हैपनिंग ऑव लेफ्ट मूवमेंट इन दिस कंट्री, मनीषा। तुम्हें इन चीजों के बारे में सोचना चाहिए। मैं, जो मन-ही-मन फैब इंडिया से कुर्ता खरीदने की योजना बना रही थी, अचानक हुए इस हमले से सकपका गई। लगा, वो उलाहना दे रही हों, देश में लेफ्ट मूवमेंट का ये हाल है, और तुम्हें कॉटन के कुर्ते की पड़ी है।
अपनी 3200 की खरीदारी संभालती प्रगतिशील महिला बोरीवली की ट्रेन में सवार हुईं। मैं मरीन ड्राइव से हॉस्टल जाने वाली बस पर चढ़ी, दिमाग में कॉटन के कुर्तों और हिंदुस्तान में लेफ्ट मूवमेंट की चिंताओं से लदर-बदर। दूर समंदर की लहरें पछाड़ खा रही थीं।
14 comments:
ओह यही शुद्ध और सही साम्यवादी के बारे में पढ़ना उपलब्धि रही आज की।
उनका न सही, कुर्ते और झोले का फोटो होना चाहिये था हम जैसे अल्पज्ञ/अज्ञ को मार्क्सवाद समझने के लिये! :-)
मुख में राम बगल में छूरी.
हर बढ़ते कस्बे या शहर में कथनी और करनी मे ऐसे फ़र्क वाले लोग मिल ही जाते हैं!!
हम तो जब भी दिल्ली बम्बई जाते हैं, रिश्तेदार हमें कुछ ऐसे देखते हैं जैसे अभी अभी जूनागढ़ के जंगल से निकल कर आ रही हूँ । हम तो फैब अनफैब सब पर ऐसे सिर हिला देते हैं जैसे कक्षा में पिछली बैन्च पर बैठे छात्र !
घुघूती बासूती
आपने इन ''कॉमरेड'' महिला मित्र का अच्छा चित्रण किया है। ऐसे कथित कम्युनिस्टों की वजह से ही, प.बंगाल के तथाकथित कम्युनिस्टों की वजह से ही लोग मार्क्सवाद के नाम से ही भागते हैं, और यह स्वाभाविक ही है। और काकेश भाई की टिप्पणी में थोड़ा संशोधन करते हुए कहूंगा...मुंह में वाम और गले में ज्वूलरी।
मेरे पास भी फैब इंडिया के कुर्ते हैं। मैं प्रगतिशील हुआ क्या?
देर से ही सही लेकिन क्या मारा है! चोट जगह पर लगी होगी?
इस हिन्दुस्तान में हिंग्लिश वोलते हुए मार्क्सवाद/चार्ल्सवाद/माओवाद/आतंकवाद पर चर्चा करना एक कथित सभ्य समाज की आदत में शुमार है। और हां ! साथ ही अपने भारत को कोसना भी। यह कथित पूंजीवादी इरादे वाले लोगों ने क्या कभी कटाक्ष के सिवाय कुछ किया,जवाव 'नहीं'। कपडे पहनने से अगर कोई प्रगतिशील होता तो अब तक देश के सारे अनाथ बच्चे प्रगतिशील हो जाते क्योंकि इन्ही लोगों के फटे कुर्ते शायद(फैब इंडिया)के भी इन अनाथों को पहने महानगरों की सड्कों पर भीख मांगते देखा जा सकता है।
आपकी बेबाक लेखन शैली को एक बार पुनः धन्यवाद।
फ़ैब इंडिया के कुर्ते-कमीज़े पसंद हैं मुझे भी.. अब इसका जो मतलब होता हो ..हो.. और हाँ झोला भी है मेरे पास.. लेकर चलता हूँ.. और दाढ़ी भी रखता है..कभी-कभी..
"प्रगतिशील महिला " मुहावरे की तौर पर इस्तेमाल हुआ ये जुमला वाकई में बड़ा चुभता है. एक शब्द में ही काफी कुछ कह जाता है उस पूरी की पूरी कॉम के बारे में जिन्हें अंग्रेजी में हम FEMINIST के नाम से जानते हैं.
मैं भी ... (दाढ़ी नहीं :-) कपड़े फैब इंडिया के
...और पिछले 7 सालों से रिसर्च कर रही थीं, किए जा रही थीं। पढ़कर मुझे अनायास रागदरबारी के रुप्पन बाबू याद आ गये। :)
बहुत अच्छा बयान किया। इसके आगे वाली हास्टल की डायरी भी बांच ली थी लेकिन टिपायाते समय न जाने कहां गायब हो गयी वह। शायद वह हमसे बोर हो गई।
बहुत मजेदार पोस्ट है। मै भी जब नौकरी करने के लिए दिल्ली गई थी पहली बार तो ऐसे ही दिलचस्प वाकए मेरे साथ भी होते रहते थे जिनसे शहरी बनने और प्रगतिशीलता को नजरिए से देखने की नई दृष्टि मिलती थी।
:) आपने इसे कनक्लूड नही किया??
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