Monday, 9 November 2009
आ बैल मुझे मार
तो हुआ यूं साढ़े बारह किलो वजन और चांद पर साढ़े तेरस बाल वाले दो महान ब्लॉगर मेरे घर आए। उनमें से एक दिल्ली से पधारे थे। अब किसी को क्या दोष देना। मैंने खुद ही आ बैल मुझे मार किया था। एक दिन पहले भोपाली ब्लॉगर के घर खुद ही खुल्लमखुल्ला दावत का न्यौता देकर आई थी। तो मेरा दोस्त, ऑफिस में तथाकथित दूर के फूफा की तरह दूर का बॉस और वैतागवाड़ी पर सवार और दूसरा शब्दों की मोहब्बत में गिरफ्तार गीत और अनुराग आ धमके।
दोनों जैसे पहले से ही तय करके आए थे कि जी हलकान करके ही जाएंगे। दोनों ने आते ही मेरी किताबों पर हमला बोल दिया। ले दनादन किताबें निकाली और चुनी जानें लगीं कि कौन-कौन सी कहां कहां से फरार करनी हैं। कुछ चुरानी हैं, कुछ पूरी गुंडागर्दी से ऐंठ लेनी हैं और तो कुछ को इस वायदे पर ले जाना है कि पढ़कर लौटा देंगे। अब कौन लौटाता है। मुझे पता होता कि ये दोनों इतने बड़े किताब दाब हैं तो मैं पहले ही हाथ जोड़ लेती, कहती, दादा, तुम दोनों तो क्या पूरे परिवार का खाना बनाकर घर पहुंचा दूंगी, लेकिन मेरे घर की ओर नजर उठाकर भी देखना।
मैं रसोई में खाना बनाने में अपना जीवन गर्क कर रही थी और दोनों पानी और चाय और कॉफी की फरमाइशों के साथ किताबें उड़ाने में मशगूल थे। तभी अनुराग किचन में आया और पूछा, “आपको हार्डबाउंड पसंद है या पेपरबैक।”
मैंने संभावित खतरे को पहले ही सूंघ लिया और तपाक से बोली, “दोनों।”
15 मिनट इसी पर कटबहसी हुई।
बात यूं थी कि इस्मत चुगताई की आत्मकथा कागजी है पैरहन की दो प्रतियों पर अनुराग की नजर पड़ गई थी। एक हार्डबाउंड और एक पेपरबैक। बस उसी में एक को वो हथिया लेना चाहता था। मैं अपनी किताब की रक्षा में तुरंत हरकत में आ गई।
“अरे वो दूसरी मेरी नहीं किसी और की है।“”
“किसकी?”
मैंने आव देखा न ताव। एक नाम उछाल दिया, मेरे हिसाब से जिससे सब खौफ खाते हैं।
“किताब प्रमोद की है।”
मुझे यकीन था उनका नाम सुनते ही दोनों सनाका खाकर चुप बैठ जाएंगे। वैसे भी प्रमोद से मुंहजोरी करने का जोर किसी में भी नहीं है। उनकी किताब मारने की बात सपने में भी नहीं सोच सकते, भले वो आपकी पूरी लाइब्रेरी ढांपकर बैठ जाएं।
लेकिन तीर उल्टा पड़ा। गीत बोला, “अरे उनकी। तब तो तुम रख लो अनुराग।”
प्रमोद कुछ नहीं कहेंगे। वैसे भी इस्मत का नाम सुनते ही कसाइन सा मुंह बनाएंगे और दो-चार ओज, पामुक और मुराकामियों का नाम लेकर आपकी दिमागी नाकामियों पर लंबा भाषण सुनाएंगे। ससुर, मनीषा तुम्हारा कभी वास्तविक बौद्धिक संस्कार नहीं बनेगा। इस्मत और अपनी किस्मत को छाती से सटाए फुदकती रहोगी।”
गीत तो सचमुच उन्हें फोन करने पर उतारू था। मैंने किसी तरह दोनों के मोबाइल अपने कब्जे में लिए और किताब के ऊपर चढ़कर बैठ गई। “खबरदार जो अब किसी किताब को हाथ लगाया। खाना खाओ और खिसको।”
लेकिन वो मुंहजोर कहां मानने वाले थे।
इतनी मेहनत से तमाम व्यंजन पकाए, लेकिन तारीफ के दो बोल बोलते दोनो का मुंह कटता था। गीत ने थोड़ी तारीफ की, लेकिन खाना खत्म होते ही बोला, वो तो मैंने इसलिए कहा था कि कहीं परोसी हुई थाली ही मुंह के सामने से न खिसका ली जाए। अनुराग ने थोड़ी शराफत दिखाई और जाते-जाते तारीफ के चंद बोल कहे।
लड़ते-झगड़ते, बतियाते, हंसी-ठट्टा करते काफी वक्त गुजर गया। मैंने सारी निकली हुई किताबें वापस आलमारी में सजाईं और चैन की सांस ली। लेकिन जाते-जाते मारग्रेट एटवुड की एक किताब अनुराग उड़ा ही ले गया, इस वायदे पर कि पढ़ने ले जा रहा है। दिल्ली जाऊंगी तो याद से पहले अपनी किताब वापस लूंगी।
गिरते-पड़ते फोटो खींचने की भी नौबत आ गई। मैंने सींकची और आसमानी चांद की बेहतरीन तस्वीरें खींचीं। अनुराग लाल, काली, हरी जैकेट में ऐसे फोटो खिंचाने लगा कि देखने वाले को लगे कि सूटकेस भर कपड़ा साथ लेकर आया था, चेंज कर-करके फोटो खिंचाने के लिए।
फिर जब गीत मेरी फोटो खींचने को उठा तो मैंने साफ साफ कह दिया कि बासठ किलो की देह को फोटो में बयालीस न दिखा सको, तो कैमरा वापस रख दो। मेरी इज्जत का पलीदा करने की जरूरत नहीं, लेकिन वो कहां मानने वाला है। गीत ने कैमरे के कान में ऐसा मंतर फूंका कि वो बासठ के वजन को बहत्तर बताते हुए दनादन फोटो खींचने लगा। मेरी सारी सुंदरता मिट्टी में मिल गई। अब गीत दोबारा मेरी फोटो खींचकर देखे। बताती हूं मैं उसे।
तो इस तरह मरते-मराते मैं ये पोस्ट लिखने लायक बची रह गई।
एक जरूरी बात तो रह ही गई। अनुराग चाहे जितनी जैकेट बदले और किताब ढांपे, बेचारा है अच्छा। दिल्ली से मेरे लिए ढोकर बर्गमैन की झोला भर फिल्में ले आया था। उस कमरे में किताबों को लेकर जूतमपैजार हो रही थी, दूसरे कमरे में बर्गमैन की फिल्मों की पायरेसी चल रही थी।
कुल मिलाकर अच्छा वक्त गुजरा। ऐसे बुरे वक्त रोज रोज आया करें और खुशियों की गुनगुनी महक छोड़ जाया करें। बैल ऐसे हों तो मैं बार बार, आ बैल मुझे मार करूं।
फिलहाल और तस्वीरें अपलोड नहीं हो पा रही हैं। अगली पोस्ट में अलग से तस्वीरें भी लगा दूंगी। भारी लोगों की भारी तस्वीरें। इतनी आसानी से चिपक जाएंगी क्या। फिलहाल फोटो अपनी कल्पना में देखिए और वर्णन मेरे ब्लॉग पर।
Friday, 6 November 2009
कितना कुछ होना बचा रह जाता है
इससे पहले कि मुझे घर और दफ्तर की मारामारी के बीच कुछ कलमघसीटी की फुरसत मिले, ये कविता गौर फरमाएं।जीवन में कितना कुछ होना
बचा रह जाता है
अभी तो कहना था कितना कुछ
कितना तो सुनना था
एक नदी थी
जिसके उस पार जाना था
पहाड़ी पर फिसलना था एक बार
सुदूर जंगल के एकांत में
जोर से पुकारना था तुम्हारा नाम
तुम्हारी गर्दन में अपनी बाहें फंसाए
तुम्हारी पीठ पर लटक जाना था
अचानक कहीं पीछे से आकर
तुम्हारी आंखों को मूंद देना था
अपनी उंगलियों से
रात के बीहड़ अंधेरों में चुपचाप
चट्टान पर समंदर की लहरों को टूटते देखना था
बस में मेरे बगल वाली सीट पर बैठे
मेरी खुली बांहों का झीना सा स्पर्श
और देह से उठती नमकीन महक का एहसास
जीना था तुम्हें
नेरुदा और मारीया को पढ़ना था साथ-साथ
फेलिनी की दुनिया में चुपके से उतरना था
पैडर रोड के शोरगुल के बीच
एक दूसरे की हथेली थामे
बस यूं ही गुजर जाना था एक दिन
कुछ कहना नहीं था
बस एक दूसरे को नजर उठाकर
देख भर लेना था
मेरे तलवों को तुम्हें
अपने होंठों से छुना था
उठा लेनी थी मेरी देह
अपने हाथों में
एक बार डूबकर चूम लेना था
तिर आना था एक बार
देह में बसी संपूर्ण पृथ्वी से
घुल जाना था तुममें एक दिन ऐसे
जैसे नमक पानी में
अपने भीगे बालों के छीटों से
भिगोनी थी तुम्हारी अधखुली किताब
इस तरह अंधेरे जंगल में टांकने थे
प्रेम और सुख के सितारे
स्मृतियों के मीठे कण
प्यार की नदी में तैरना था
जिस मोड़ से अलग होती थीं हमारी राहें
उससे पहले
ठहरना था एक पल को
पूछना था तुम्हारे घर का पता
जिस ठिकाने कभी पहुंचे कोई खत
जाते हुए देर तक
विदा में हिलाना था अपना हाथ
लेकिन देखो
इस रफ्तार से गुजरा सब
कि ऐसा कुछ न हुआ
जीवन में कितना कुछ होना
बचा रह गया।
Monday, 2 November 2009
कितना जानता है एक शहर हमें और हम शहर को – 2

जिदंगी और अनुभवों की दुनिया में एक लंबा अरसा गुजार लेने के बाद अपने उस शहर को देखना, जिसने आपका बुनियादी संस्कार और मानस गढ़ा हो, जिसने दिमाग और हिम्मत के शुरुआती तेवर से लेकर बिजबिजाती हुई भावुकता तक से नवाजा हो, उस शहर को हम किस निगाह से देखेंगे? शहर को देखने की दोनों निगाहें हो सकती हैं। ब्लॉगर मीट में मैंने कहा, यह शहर बिलकुल नहीं बदला। बोधि ने तुरंत प्रतिवाद किया। बोले, यह शहर बहुत बदल गया है। क्या सही है और क्या गलत? दोनों ही नजरें सही हैं शायद। स्टेशन से बाहर निकलकर घर जाने के लिए ऑटो पकड़ा तो सिविल लाइंस की जिन सड़कों से होकर गुजरी, उनकी शक्ल मेरे बचपन की शक्ल से मामूली सा ही मेल खाती थी। शायद यही आधुनिक विकास की एकरूपता है। अब शायद हर शहर का एक पॉश इलाका ऐसा है, जो तेजी से उन्नत रहे सभी शहरों में कमोबेश एक जैसा है। बिलकुल वैसा ही मैकडोनल्डस, जैसा मुंबई में है या इंदौर में या किसी और शहर में। वैसी ही पारदर्शी कांच वाली चमचमाती हुई दुकानें, मॉल, डिपार्टमेंटल स्टोर, नए-नए रेस्टोरेंट, रिलायंस फ्रेश, शहर की हर सड़क, गली दीवारों पर पटे हुए टाटा, वोडाफोन, रिलायंस, मूड्स कंडोम और दुनिया को बदल देने वाले आइडियाज के विज्ञापन। वही चमकती शक्लें। ये मेरे पहचाने हुए शहर की शक्ल नहीं है। तो इस शहर की थकी हुई स्थिरता से बेचैन न होने के लिए यह बदली हुई रौशनीदार रंगत क्या काफी नहीं है? सच ही तो कहा था, शहर बहुत बदल गया है।
लेकिन उसी सिविल लाइंस में आज भी भैंस बीच सड़क में खड़ी होकर टै्फिक रोक देती है और लोग रोज-रोज भैंसों की आवाजाही का कोई स्थाई हल ढूंढने के बजाय भैंस को बीच सड़क में आराम फरमाता छोड़ शॉर्टकट निकालते हैं और साइड से निकल लेते हैं। टै्फिक की दिशा ही मुड़ जाती है और अब वह बीच सड़क के बजाय साइड से निकलने लगती है। कंडोम के सार्वजनिक विज्ञापनों ने भैंसों की विचार प्रक्रिया पर कोई प्रभाव नहीं डाला है। शहर वालों की प्रक्रिया पर डाला हो तो पता नहीं।
आज भी वहां इंसान द्वारा खींचा जाने वाला साइकिल रिक्शा चलता है। लोग वैसे ही हैं। बड़ी फुरसत में बैठे होते हैं और आने-जाने वाली हर लड़की को तब तक घूरते रहते हैं जब तक वो आंखों से ओझल न हो जाए। चलते हुए कोहनी मार जाते हैं। गाड़ी से हों तो आगे निकल चुकने के बाद भी पलट-पलटकर देखते रहते हैं। पार्किंग में खड़ी स्कूटर पर बड़े सुभीते से पान खाकर थूकते हुए आगे बढ़ जाते हैं। सफेद स्कूटर पर लाल पीक की सजावट शोभायमान होती है।
एक दिन मैं टैंपो से सिविल लाइंस से गोविंदपुर जा रही थी। दिन का समय था। शिवकुटी के पास टैंपो रुकी। उलझे बालों और कोहड़े जैसी भारी नाक वाला एक आदमी उतरा। इसलिए नहीं कि उसे वहां उतर जाना था। उतर तो दूसरे यात्री रहे थे। मिस्टर कोहड़ा उतरे, सामने एक दुकान थी, जिसका शटर बंद था। उसने दुकान की तरफ मुंह किया और पैंट खोलकर वहीं टैंपो, आती-जाती सड़क और टैंपो के अंदर बैठी दो लड़कियों के सामने प्रकृति की पुकार पर “मैं आया, मैं आया” करते हुए लघु शंकाओं से निपटने लगा। सब नजारा देख रहे थे। टैंपो वाला भी मजे से इंजन घर्र-घर्र करते हुए कोहड़ा महाशय के निपटने और लौटने का इंतजार कर रहा था। मजे की बात ये कि उसके बाद मुश्किल से सौ कदम की दूरी पर कोहड़ा ने टैंपो रुकवाया और उतरकर वहीं सड़क पर ही बने हुए एक मकान का गेट खोलकर अंदर चले गए। कमाल है। ये दो मिनट इंतजार नहीं कर सकते थे? हगने-मूतने के लिए सड़क है और गोभी का पराठा चाभने के लिए घर।
कोई तर्क दे सकता है कि हो सकता है बहुत जोर से आ रही हो। हो सकता है मिस्टर कोहड़ा को लगा हो कि अभी ही नहीं उबरे तो शायद कभी न उबर पाएं। लेकिन ये तर्क देने वालों को अपने ही तर्क पर शर्म आ सकती है, जब वो देखेंगे कि इस शहर में कितने सारे लोगों को अचानक बहुत जोर से आती रहती है। शहर में इधर-उधर लघुशंकाओं से निपटने के नजारे प्राय: देखे जा सकते हैं। इतना ही नहीं, अपने ही मुहल्ले में आपको ऐसे नजारे भी दिख सकते हैं कि कोई आदमी अपने घर से बाहर निकले, मोहल्ले की सड़क पार करे और फिर वहीं नाली में पद्मासन की मुद्रा में समस्त शंकाएं निपटाकर घर में वापस घुस जाए। रसूलाबाद में एक आदमी तब मुझे अकसर ऐसा करता दिखता था, जब मैं छठी कक्षा में पढ़ती थी। उसका घर सामने था, लेकिन मूतने के लिए उसे खुले आसमान और आते-जाते लोगों चेहरों की दरकार होती थी। फाफामऊ में एक बार एक लड़का घर से निकला, मुश्किल से पचास कदम गया और एक की पॉइंट पर जाकर, जहां से भीड़ गुजर रही थी, सड़क पर खड़ा होकर पेशाब करने लगा। तब मैं छोटी थी। आज जिस पर मैं इतने शब्द खर्च कर रही हूं, बचपन में यह छवियां मेरे मानस में वैसे ही थीं, जैसे झाडू लगाती मम्मी, सड़क पर टहलते कुत्ते और गाय। बिलकुल सामान्य। इसे देखकर मुझे कुछ विचित्र नहीं लगता था क्योंकि बचपन से मैं ऐसे मनोहारी नजारों को देखते हुए ही बड़ी हुई थी।
Sunday, 1 November 2009
कितना जानता है एक शहर हमें और हम शहर को
इस बार कुछ चार बरस बाद मेरा इलाहाबाद जाना हुआ। इलाहाबाद – वह शहर जहां मैं पैदा हुई, जहां मैंने जिंदगी के बीस बरस गुजारे। वह शहर, जहां से मेरे सुख-दुख की, हंसी और विषाद की, निजी और सामाजिक करुणा और अपमान की और पहले प्यार की सादगी और बेचारगियों की ढेरों स्मृतियां गुंथी हुई हैं। नौ साल हुए, इलाहाबाद से रोजमर्रा का वह नाता टूट गया। इधर-उधर भटकती, अपनी पहचान और जमीन तलाशती जिंदगी में फुरसत नहीं थी अपने शहर तक लौटकर जाने की। लेकिन कई बार अवसाद और अकेलेपन के बेहद निजी क्षणों में मैंने बहुत भावना से भरकर अपने शहर को याद किया था। पर इस बार बचपन की जानी-पहचानी गलियों को देखना, उनसे गुजरना बड़ा विचित्र अनुभव था। किसी भावुक आवेग और उछाल से भर देने वाला नहीं, अपने अकेलेपन में और ज्यादा धंसा देने वाला। अवसाद को और-और गाढ़ा करके मन की भीतरी पर्तों में जमा देने वाला।भीड़ के बीच भी अकेलेपन के इतने बिखरे और सघन तार हैं कि बांधते भी हैं और नहीं भी बांधते। जितना ज्यादा बांधते हैं, उतना ही मन अकेला होता जाता है। शहर ने दौड़कर मुझे गले से नहीं लगाया। मैं भी शहर की बाहों में लिपट जाने को बेताब नहीं थी। शहर और मैं अपरिचितों की तरह एक-दूसरे से मिले, नि:संगता से हाथ मिलाया और फिर मैंने कहा, अब मुझे चलना होगा। शहर को भी पड़ी नहीं थी कि मेरा हाथ पकड़कर रोक लेता।
मैं जितनी जल्दी हो सके, उस शहर से भाग जाना चाहती थी। जितनी जल्दी हो सका, मैं उस शहर से भाग आई। जिस शहर में अब मैं शहर रहती हूं या जिन भी शहरों में अपना शहर छोड़ने के बाद मैं रही, ऐसा नहीं कि वे शहर सुख और स्वाधीनता का स्वप्नलोक थे। सुख और स्वाधीनता जैसा शब्द भी कीचड़ में लिथड़ी किसी गाली जैसा है। कैसा सुख और कैसी स्वाधीनता? इस मुल्क या कि संसार के किसी भी मुल्क में होगी क्या? पता नहीं। लेकिन इलाहाबाद मुझे दुखी और उदास करता है। एक ठहरा, रुका हुआ सा शहर, जिसने कुछ किलोमीटर के दायरे में लंबी-लंबी फसीलें खड़ी कर ली हैं और मानता है कि यही संसार है। उसकी स्मृतियों और स्वप्नों का आकाश नए पैदा हुए बछड़े की दौड़ जितना है। जहां आकर गंगा भी स्थिर हो जाती है। जिस शहर को हिंदी संसार और मेरी पहचानी हुई दुनिया के साथी बहुत बार इतनी मोहब्बत और बिछोह की पीड़ा से याद करते रहे हैं, वह शहर मुझे तकलीफ के ऐसे अंधेरे कोनों में लेकर जाता है कि लगता है शहर को लात मारकर भाग जाऊं। क्या शहर हमेशा से इतना अकेला और उदास था? क्या वहां कभी कुछ भी सुंदर नहीं था? या अकेली और उदास थी मैं? पता नहीं। लेकिन कुछ तो था, जो रह-रहकर बेचैन करता था।
सचमुच प्यार को दिल में छिपा लेना आसान नहीं है
प्रमोद और स्वप्नदर्शी जी की बात को आगे बढ़ाते हुए
मेरी पिछली पोस्ट छिपा लो यूं दिल में प्यार मेरा पर प्रमोद और स्वप्नदर्शी जी ने जो कहा, उस बात को समझते और पूरा-पूरा स्वीकार करते हुए मैं अपनी बात को थोड़ा आगे बढ़ा रही हूं। यह उनकी और मेरी बातों का खंडन नहीं, विस्तार है। उस लेख में 12 साल पुरानी एक घटना को याद करते हुए शायद मैं सिर्फ अपने आप से ही संवाद कर रही थी। सच के और भी जटिल कोण हैं, उस पर निगाह डालने से चूक गई। अच्छा किया प्रमोद और स्वप्नदर्शी जी ने ये बात कही, वरना शायद मैं भी समझ नहीं पाती कि सिक्के के दूसरे पहलू को अनदेखा कर मेरी बात भी उसी पाले में जा गिरती, जहां से बाहर निकलने के लिए मैं हाथ मार रही थी।
प्रमोद ने कहा, आपसी समर्पण के समन्वयन को भी ऊंचाई तभी मिलेगी, ऐसा मुझे लगता है, जब समर्पित होनेवाले में स्वयं की सशक्त पहचान हो, स्वयं की पहचान के रेशे खुद जब बहुत सुलझे न हों, तो वहां समर्पण और कुछ नहीं शुद्ध ग़ुलामी होगी।
- मेरे पड़ोस में एक सुखी-सुखी नजर आने वाला एक जोड़ा रहता है। औरत चकरघिन्नी सी पति और बच्चों के चारों ओर घूमती रहती है। बड़ी समर्पित नजर आती है और खुश भी। लेकिन क्या सच सिर्फ इतना ही है ?
- मेरी मां ने पिछले 30 सालों से पति और दो बेटियों के बाहर कोई संसार नहीं देखा। हमेशा हमारे ही इर्द-गिर्द घूमती रहीं। लगता है बड़ी समर्पित हैं, दुनिया को ही नहीं, मां को खुद भी लगता है कि वो समर्पित हैं। लेकिन मैं जानती हूं और शायद अपने दिल के किसी बेहद निजी कोने में वह भी कि अगर मां के पास बाहरी दुनिया की रोशनी को उन तक पहुंचाने का कोई एक छेद भी होता तो यह समर्पण कितना टिका रहता।
- फिजिक्स की लेक्चरर मेरी एक बहन को पूरे खानदान में त्याग और चरणों में समर्पण की मिसाल माना जाता है। लेकिन उसके दिल के अंधेरे कोने में मैं घुसी हूं कई बार, जहां वह दुखी और अकेली है, लेकिन बाहरी दुनिया के सामने अपनी समर्पिता वाली इमेज को बचाए रखने के लिए वह अपने प्राण भी दे सकती है।
प्रेम में अपने अस्तित्व को बिलाकर समर्पित हो जाने की बात एक दार्शनिक अवधारणा है। यह विचार जीवन पर लागू हो, औरत और मर्द दोनों उसे अपनी जिंदगियों में उतार सकें, इसके लिए हमारे गरीब, दुखी, चोट खाए मुल्क को पता नहीं कितने सैकड़ा वर्ष का सफर तय करना होगा। मेरे आसपास सचमुच ऐसा कोई रिश्ता नहीं है, जिसमें ऐसा समर्पण नजर आता हो। जो इस समर्पण गीत से अभिभूत हैं, खुद उनकी जिंदगियों में भी यह नहीं है। मेरी जिंदगी में भी नहीं है। मैं किसी निजी प्रेम गीत में नहाई हुई यह बात नहीं कह रही हूं। मैं कल को किसी संबंध में जाऊं तो कौन जानता है और मैं खुद भी नहीं जानती कि उसके पीछे कितनी सारी सामाजिक, भावनात्मक असुरक्षाएं, मन, देह से लेकर आर्थिक जरूरतों तक के कितने तुच्छ और उदात्त समीकरण होंगे। ऐसे में ऐसा अमूल्य समर्पिता भाव कहीं आसमान से तो नहीं टपक सकता। सीधी सी बात है कि जिस समाज में अभाव और असुरक्षा की जड़ें इतनी गहरी हों, लगभग सभी रिश्तों के पीछे बहुत घटिया नहीं तो भी एक किस्म का जीवन को थोड़ी सुरक्षा, थोड़ा सुभीता मिल जाए, वाला कैलकुलेशन सक्रिय हो, वहां ऐसे उदात्त रिश्ते संभव नहीं हैं।
स्वप्नदर्शी ने कहा कि Is it so simple. मैं दुख और निराशा से भरकर कहती हूं, नहीं बिलकुल नहीं। कम से कम मेरे समय में तो यह असंभव की हद तक मुश्किल है।
जिस समाज का लात खाते रहने का लंबा औपनिवेशिक इतिहास न हो या जो कम से कम चेतना और कर्म के स्तर पर अभाव और गुलामी के उस मानस से बाहर आया हो, जहां कम से कम इतना तो हो लोगों का सामान्य स्वस्थ मनोविज्ञान बन सके, उनका थोड़ा स्वस्थ विकास हो सके, जहां इतनी गरीबी न हो कि एक अदद नौकरी और इकोनॉमिक सिक्योरिटी जिंदगी के सबसे बड़े सवाल हों क्योंकि आपका देश इस बात की कोई गारंटी ही नहीं करता कि आपको अच्छा, सम्मानजनक काम मिलेगा ही, अच्छी शिक्षा मिलेगी ही, आप बीमारी से इसलिए नहीं मरेंगे कि आपके पास पैसे नहीं या डॉक्टर को आपके इलाज से ज्यादा इस बात की चिंता हो कि वह मारुति बेच हॉन्डा सिटी कैसे खरीदे या अपने बच्चे को लॉस एंजिलिस कैसे भेजे। तो एक ऐसे समाज में जहां बड़ी मामूली इंसानी इज्जत भी मुहैया न हो, जहां हम सिर्फ इस संघर्ष में ही पूरी जिंदगी निकाल दें कि प्लीज, हमें कुत्ता नहीं, आदमी समझो तो ऐसे समाज में कुछ उदात्त समर्पित प्रेम और बहुत ऊंचा मानवीय धरातल कैसे संभव होगा?
लेकिन इन सबके बावजूद जो मैं कहना चाह रही थी और जो अब भी कह रही हूं, वह बस ये एक अन्याय और क्रूरता के प्रतिकार में हम कुछ कोमल, सुंदर विचारों का भी प्रतिकार कर देते हैं। मेरा समय इस बात की इजाजत नहीं देता कि ऐसा उदात्त समर्पण मुमकिन हो, लेकिन मुझे यह विश्वास करना चाहिए कि ऐसा होता है और ऐसा होगा। अगर बेहतर दुनिया की बातें मुगालता नहीं हैं तो यह प्रेम भी मुगालता नहीं है। औरताना बताए जाने वाले गुण सड़े हुए नहीं हैं। आप ये पॉलिटिकल स्टैंड ले सकते हैं कि उन गुणों को अपनी जिंदगी में उतार लेने को एक खास देश-काल में मुल्तवी कर दें लेकिन गुणों को ही सुपुर्द-ए-डस्टबिन न करें।
इस थोड़ा और साफ करने के लिए सिमोन द बोवुआर ने एक जर्मन पत्रकार से एक इंटरव्यू के दौरान जो कहा था, वो यहां कोट कर रही हूं –
औरतों में प्रतिद्वंद्विता और एक दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति नहीं होती है। सहनशीलता और धैर्य, जो एक सीमा तक तो खूबी होते हैं, लेकिन उसके बाद कमजोरी में तब्दील हो जाते हैं, भी औरतों का एक खास गुण है। औरतों में अपनी विडंबनाओं की समझ भी होती है, एक खास किस्म की सरलता और सीधापन। ये स्त्रियोचित गुण हमारे लैंगिक अनुकूलन और उत्पीड़न की उपज हैं, लेकिन यह गुण अपने आप में बुरे नहीं हैं। ये हमारी मुक्ति के बाद भी बरकरार रहने चाहिए और पुरुषों को ये गुण अर्जित करने के प्रयास करने होंगे।