इससे पहले कि मुझे घर और दफ्तर की मारामारी के बीच कुछ कलमघसीटी की फुरसत मिले, ये कविता गौर फरमाएं।
जीवन में कितना कुछ होना
बचा रह जाता है
अभी तो कहना था कितना कुछ
कितना तो सुनना था
एक नदी थी
जिसके उस पार जाना था
पहाड़ी पर फिसलना था एक बार
सुदूर जंगल के एकांत में
जोर से पुकारना था तुम्हारा नाम
तुम्हारी गर्दन में अपनी बाहें फंसाए
तुम्हारी पीठ पर लटक जाना था
अचानक कहीं पीछे से आकर
तुम्हारी आंखों को मूंद देना था
अपनी उंगलियों से
रात के बीहड़ अंधेरों में चुपचाप
चट्टान पर समंदर की लहरों को टूटते देखना था
बस में मेरे बगल वाली सीट पर बैठे
मेरी खुली बांहों का झीना सा स्पर्श
और देह से उठती नमकीन महक का एहसास
जीना था तुम्हें
नेरुदा और मारीया को पढ़ना था साथ-साथ
फेलिनी की दुनिया में चुपके से उतरना था
पैडर रोड के शोरगुल के बीच
एक दूसरे की हथेली थामे
बस यूं ही गुजर जाना था एक दिन
कुछ कहना नहीं था
बस एक दूसरे को नजर उठाकर
देख भर लेना था
मेरे तलवों को तुम्हें
अपने होंठों से छुना था
उठा लेनी थी मेरी देह
अपने हाथों में
एक बार डूबकर चूम लेना था
तिर आना था एक बार
देह में बसी संपूर्ण पृथ्वी से
घुल जाना था तुममें एक दिन ऐसे
जैसे नमक पानी में
अपने भीगे बालों के छीटों से
भिगोनी थी तुम्हारी अधखुली किताब
इस तरह अंधेरे जंगल में टांकने थे
प्रेम और सुख के सितारे
स्मृतियों के मीठे कण
प्यार की नदी में तैरना था
जिस मोड़ से अलग होती थीं हमारी राहें
उससे पहले
ठहरना था एक पल को
पूछना था तुम्हारे घर का पता
जिस ठिकाने कभी पहुंचे कोई खत
जाते हुए देर तक
विदा में हिलाना था अपना हाथ
लेकिन देखो
इस रफ्तार से गुजरा सब
कि ऐसा कुछ न हुआ
जीवन में कितना कुछ होना
बचा रह गया।
Friday, 6 November 2009
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21 comments:
है जीवन का सत्य यह बचा रहे कुछ शेष।
करे लोग संघर्ष पर मन की चाह अशेष।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
बेहद सुन्दर एहसास रहा आपकी ये कविता पढ़ने के बाद।
लेकिन देखो
इस रफ्तार से गुजरा सब
कि ऐसा कुछ न हुआ
जीवन में कितना कुछ होना
बचा रह गया।
सुन्दर अभिव्यक्ति!
अब क्या कहा जाये? मन के अरमां समय की नदी में बह गये?
bahut sundar lagi aapki rachna mrityu ke saaz par jijivisha ki nazm
...wah!
orkut ब्लॉग की sidebar में.....सशब्द -nazm
प्यार की इस बहती नदी में डूब उतरा कर बार बार पढ़ा, बार बार जिया...कई बार पढ़ा इसे...प्यार में कितना कुछ होना बाकी रह गया...वो जगजीत सिंह की एक ग़ज़ल है न...मुझे है याद वो सब जो कभी हुआ ही नहीं...
वाह भई बहुत बढ़िया.
बेहतरीन अभिव्यक्ति....
मनीशा, आज अचानक असेZ बाद ब्लाग पर घूमते हुए तुम्हारे ब्लाग और कविता पर नजर गई, अच्छा लगा तुम्हे यहां देख कर। एक बात और, मैंने तुम्हारे ब्लाग को तब से जान रही हूं, जब तुमने अचानक लिखना बंद कर दिया था। प्लीज ऐसे ही लिखती रहो और खुश रहो
जिस घड़ी हमने हंसना था खिलखिला कर
उस घड़ी हमने अपने सांसों की आवाज को
अपनी मुठ्टी में कस कर पकड़ लिया
और देखते रहे ---सूरज का बेअवाज सफर पड़ों की बेआवाज सरसराहट
Beautiful........
अच्छी अभिव्यति अच्छी कविता .
..यदि सब हो जाए तो भी...फिर भी कुछ अधूरा छूट जायेया कहने को.....
ye sb choot gya isiliye ye sb hi jindgi ke share hai vrna to mil jane par sb shuny ho jata hai.
bahut sundar ahsas
kuch aur nahi kahne ko.. bas itna hi kahunga.. "shaandaar"
बस यूं ही गुजर जाना था एक दिन
कुछ कहना नहीं था
बस एक दूसरे को नजर उठाकर
देख भर लेना था...nazaro me bhar ke rakh liya jata to kuch adhura na chhut pata.....khoobsurat kavita....
इन वाहवाही की टिप्पणियों में मैं भी वाह-वाह कह उठूँ तो (मुझे डर है ) आप कह उठेंगीं - "यह तो मेरी कमजोर कविता है ।"
मैं क्या करूँ ! दृष्टि-भेद के कारण भेद-दृष्टि खो गयी है ।
ये कसक पूरी हो जाती तो कविता कैसे पैदा होती ? घूमते रहिये...
bahut sundar!
छोटी छोटी ख्वाहिशे , सपनो के कुछ टुकडे, चर्च का एक कन्फ़ेशन बाक्स... सब यही मिल गया है मुझे :)
मेरे तलवों को तुम्हें
अपने होंठों से छुना था
उठा लेनी थी मेरी देह
अपने हाथों में
एक बार डूबकर चूम लेना था
तिर आना था एक बार
देह में बसी संपूर्ण पृथ्वी से
घुल जाना था तुममें एक दिन ऐसे
जैसे नमक पानी में
अपने भीगे बालों के छीटों से
भिगोनी थी तुम्हारी अधखुली किताब
इस तरह अंधेरे जंगल में टांकने थे
प्रेम और सुख के सितारे........bahutsunder ,,,,,sahaj aur es ichha mein kisi prakar ka aadamber nahi .....esme nischhal naya kavya hai jo bhiter bulata bhi hai aur utni sahajta se bhiter se bahir jane bhi deta hai ...ye anmol prem hai jo alokik hai ..ye prem bandhan mein nahi bandhta aazad kerta hai ...sunder
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