कल 'जब वी मेट' देखी। बड़ी तारीफ सुनी थी, जो भी देखकर आता, तारीफों के पुल बांध देता।
मैं आमतौर पर ऐसी फिल्में देखना पसंद नहीं करती। चिरकुट लव-स्टोरी टाइप की। समय की बर्बादी। लेकिन पता नहीं क्या सोचकर 'जब वी मेट' देख ही ली।
फिल्म मुझे डिप्रेसिंग लगी। हिंदी फिल्मों की अनरीअल लव स्टोरीज मुझे वैसे भी बर्दाश्त नहीं होतीं, लेकिन उस रात मैं ज्यादा डिप्रेस महसूस कर रही थी। शायद इसलिए कि उसी शाम हॉस्टल की एक पुरानी दोस्त से फोन पर बात हुई थी। हॉस्टल के वही पुराने किस्से थे, फहमीदा अब भी अपने नेट प्रेमी के आने का इंतजार कर रही थी, प्रभा अब भी शादी की उम्मीद लगाए बैठी थी और बिंदु केरल वापस लौट गई थी, अपनी माता-पिता की मर्जी से शादी करने।
ये हिंदी फिल्मों में ही हो सकता है कि कोई वेबकूफ, दुनियादारी का ककहरा भी न जानने वाली लड़की इस तरह घर से भाग जाए और उसके साथ कोई हादसा न हो। करीना कपूर भागती हैं, तो उन्हें शाहिद कपूर मिल जाते हैं, प्रीती जिंटा पाकिस्तान से भागकर हिंदुस्तान आती हैं, तो उन्हें शाहरुख खान मिल जाते हैं। एक नजर में इतना प्यार करने लगते हैं कि अपना जीवन तक कुर्बान करने को तैयार।
अगर फहमीदा ऐसे ही भाग जाए तो? उसे कोई कमाठीपुरा की गलियों में पहुंचा देगा। बिंदु भाग जाए तो? शायद कुछ साल बाद आत्महत्या कर ले। मैं भाग जाऊं तो ? कोई शाहरुख खान आसमान से टपकने वाला नहीं, सत्यनारायण चौबे जरूर मिल जाएंगे।
ये हिंदी फिल्मों का ही संसार है। झूठा, काल्पनिक, आभासी सुख की दुनिया। असल जिंदगी में ऐसा कभी नहीं होता, फिल्मों में प्रेम और भावना की ऐसा आवेग देखकर हम अपने जीवन के अभाव पूरते हैं। एक दुखी, लतियाए हुए समाज की चोट खाई लड़कियां किताबों के पन्ने में शाहरुख खान की तस्वीर छिपाकर रखती हैं और वैसे ही किसी प्यार में जान देने वाले का सपना देखा करती हैं।
मुझे ये फिल्में डिप्रेस करती हैं। रोते हुए शाहिद कपूर की आंखों में अपनी कल्पना के प्रेमी का अक्स देखने वाली बेवकूफ लड़कियां। झूठ का संसार बुनती अपने मन में, रेतीली धरती पर दरकतीं। कैसा छल है ये जीवन। छल को सजाने के हजारों श्रृंगार।
Saturday, 10 November 2007
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13 comments:
मुझे फ़िल्म पसन्द आई थी.. पर आप की राय भी वाजिब है..
कभी कभी काल्पनिक दुनिया में जीने का भी अलग मजा है. वरना इस दुनिया में किस पर विश्वास करे और किस पर नही...कुछ भी कहना मुश्किल हैं....
मनीषाजी सच्ची की जिंदगी इत्ती मारक है कि कुछ देर तो सपने देखने दें। सच्ची की जिंदगी की चिरकुटईयां ये बच्चियां झेल ही लेंगी, लुच्चे प्रेमी,टुच्चे पति, घर की ईएमआई, सास की कुटिलाई, सच्चाई तो कदम कदम पर काटने को खड़ी है जी। थोड़ी देर के लिए अगर झूठ के सहारे ही सही, मायावी दुनिया की मौज ले लेती हैं, तो लेने दीजिये।
वैसे आजकल की बालिकाएं इत्ती भोली भाली नहीं होतीं। या शायद आपके तजुरबे कुछ अलग हों। फिलिम तो ठीक ही ठाक है जी। मतलब मैंने देखी हीं है। पर विद्वानों से तारीफ सुनी है।
आपकी डाटरी पहले भी पढ़ी है. इसलिए आपके हॉस्टल की लड़कियों को पहचानने में दिक़्क़्त नहीं हुई. फिल्म के बहाने आपने अहम सवाल उठाए हैं. आपका अपना ब्लॉग देखकर अच्छा लगा.
मुझे फिल्म अच्छी लगी थी एक मनोरंजन की दृष्टि से क्योंकि मुझे पहले से ही पता था कि ये सच्चाई से कोसों दूर होगी। फिल्में देखते समय हम भी यही बात कर रहे थे कि अगर रियल में कोई लड़की भागती, पहले तो वो ट्रैन से ऐसे उतरती नही किसी अजनबी के लिये दूसरा उस पर ना जाने कितने गिद्ध टूट पड़ते। लेकिन फिर बात वही अटक जाती है कि फिल्म है इसमें ये सब कहाँ होगा। सच्चाई के करीब फिल्में ना दर्शकों की सहानुभूति पाती हैं ना समीक्षकों की।
मनीषा , शुरुआत हुई , बहुत अच्छे । आपको पढ़ते रहेंगे ।
मैने फिल्म नहीं देखी है. लेकिन समझ में आ गया कि आप क्या कहना चाहती हैं. फिल्म सभी अच्छे संयोगो को कल्पना के माध्यम से जोड़ने का माध्यम है.जीवन की कटु सच्चाई दिखाने वाली फिल्म बॉक्स ऑफिस पर नहीं बिकती. आपकी बात से सहमत हूँ कि असल ज़िन्दगी ऎसी नहीं होती लेकिन असल जिन्दगी देखने जाता कौन है फिल्म में वहाँ तो लोग असल जिन्दगी भूलने जाते हैं ना.
आपकी पीछे की रचनाऎ पढीं! धरती से अपदस्थ आधी आबादी का सच उकेरने के इस पारदर्शी प्रयास को जारी रखिए!और..धरती पर काबिज बाकी की आधी आबादी को नींद से जगाने का वक्त आ पहुंचा है,...
इसी चिरकुटाई का नाम कमर्शियल सिनेमा है। लोग इसे जानते-बूझते हुए ही चिरकुटाई का आनन्द लेने जाते हैं।
आते ही छा गईं बिल्कुल!
अच्छा है। सिनेमा यहीं देख लिया। :)
जो फिल्मों में होता है वह आम जिन्दगी में नहीं होता है। मगर न जाने क्यों ये दुनिया "सपनो की सौदागर" है। यहां हर कोई अपने आप को "खोने" के लिये पैसा,शोहरत,शराब,शबाब,शान की मायावी दुनिया में जीता है,और अपने चेहरों पर "नकाब" लगाकर घूमता है।
हम्म... जब वी मेट मे लडकी बाम्बे मे थी काफ़ी साल..यहा कि आज़ाद हवा लग गयी थी उसे..हम भी एक दो भागे हुए लोगो की शादिया यहा देख चुके है... कभी कभार हम नावेल के पात्रो मे ऐसे खो जाते है कि अहसास ही नही होता की ऐसे पात्र वास्तविकता मे नही होते...फ़िर कोई ऐसा मिल जाता है..फ़िर वो चला जाता है..हमे फ़िर से नावेल की दुनिया मे छोडकर..और नये पात्रो को ढूढने के लिये..
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