Friday, 2 October 2009

एक आत्‍मस्‍वीकारोक्ति के बहाने कुछ सवाल–2

अब जब ये आदत नहीं रही तो इस पर किसी सार्वजनिक मंच से बात करना बहुत नहीं तो थोड़ा आसान जरूर हो गया है। ये बिलकुल वैसा ही है जैसे चोरी छोड़ देने के बाद कोई दार्शनिक लहजे में यह स्‍वीकारे कि कभी वो चोर हुआ करता था। जिस आदत को मैं दुनिया से छिपाती फिरी कि कहीं मेरे ऑफिस में किसी को पता न चल जाए, आज उसी के बारे में उस तटस्‍थता से लिख रही हूं मानो वे किसी और की जिंदगी के चित्र हों।

खुद अपने अनुभव और अपने आसपास की लड़कियों (पुरुष नहीं सिर्फ स्त्रियां) के अध्‍ययन से जो सीधी-सपाट बात मेरी समझ में आती है वो यह कि सिगरेट पीने के पीछे अमूमन फैशन, अपनी बराबरी और मुक्ति का एहसास और झूठा किस्‍म का अपने बचाव के लिए बुना गया तर्क होता है कि यह क्रिएटिव होने की निशानी है। सिगरेट फैशन और हर समय प्रगतिशीलता को ओढ़ने-बिछाने वाले कुछ मित्रों की सोहबत का नतीजा होती है। हमें दुनिया से आपत्ति है, इस दुनिया के रचे हर नियम-कायदे, मूल्‍य-विचार, उसके सिर-पैर, नाक-पूंछ सबसे आपत्ति है। दुनिया मेरे ठेंगे पर। मैं वो हर काम करके दिखा दूंगी, जो दुनिया के तयशुदा पैरामीटर कहते हैं कि लड़की हो, मत करो। मां ने कहा, लज्‍जा लड़की का गहना है। मैंने कहा, ऐसे गहने पर मैं थूकने भी न जाऊं। ऐसा गहना पहनूंगी कि मां की सात पीढि़यों में किसी ने कल्‍पना नहीं की होगी। वह कर दिखाना है, जो सदियों से नहीं किया गया, जिसे सदियों से करने से रोका जाता रहा।

पापा चूंकि अपनी बात थोपने के बजाय तर्क की राह चलते थे तो मेरा तर्क होता कि मेरे शरीर को इसकी जरूरत है। जैसे मां चाय के बिना नहीं रह सकतीं, मैं धुएं के बिना नहीं रह सकती। धुएं बगैर मुझे कॉ‍न्‍सटिपेशन हो जाता है। मेरा पेट खराब हो जाता है। मेरा दिन खराब हो जाता है। मेरा काम खराब हो जाता है, नींद खराब हो जाती है, कुल मिलाकर जीवन ही खराब हो जाता है। तो भईया, जीवन काहें खराब करो। लो डंडी, सुलगाओ, सुखी रहो। तब मैंने एक भी बार नहीं सोचा कि पहले तो नहीं होता था ऐसा। सिगरेट तो अभी एक साल से पी रही हूं, उसके पहले क्‍या 27 साल कॉन्‍सटिपेशन और मेरा, कम्‍प्‍यूटर और की-बोर्ड का साथ था कि एक के बिना दूसरे का अस्तित्‍व बेमानी है। ये तो मैंने ही अपने शरीर का इतना सत्‍यानाश कर डाला है और कमर कसे बैठी हूं कि जब तक इस विनाश के चरम पर नहीं पहुंच जाती, हार नहीं मानूंगी। मम्‍मी तुरंत रसोई में से मेथी का पाउडर ढूंढ लातीं, बाबा रामदेव का कब्‍ज निवारक चूर्ण, अजवायन-जीरा-मेथी का पाउडर और ईसबगोल की भूसी कि बेटा ये सब ले ले, लेकिन धुएं से तौबा कर।

बात सिर्फ तर्क और समझदारी की होती तो मैं मम्‍मी की बात मान लेती। लेकिन मेरे अंदर तो काठ का उल्‍लू और मॉडर्न, फैशनेबुल, अत्‍या‍धुनिक प्रगतिशीलता का दुपट्टा वाली लड़की बैठी थी। उसकी आधुनिकता अगर रामदेव के कब्‍ज निवारक चूर्ण के सामने झुक जाए तो लानत है ऐसी आधुनिकता पर। मैंने मां को साफ साफ कहा, देखो, अपने पुरातनपंथी तर्कों से मेरी प्रगतिशीलता को आहत मत करो। जो लड़कियां इस धरती पर पति का अंडरवियर धोने के लिए नहीं पैदा हुईं, जिन्‍हें कुछ महान रचकर दुनिया को दिखा देना है, वो सिगरेट भी न पिएं तो क्‍या भजन गाएं। रामदेव का चूरण और ईसबगोल की भूसी पति चरणों में सेवारत स्त्रियों का भोज्‍य होती थी, आधुनिक विचारशीलता तो कॉन्‍सटिपेशन और सिगरेट के साथ ही परवान चढ़ती है। मैं सिगरेट नहीं छोड़ सकती। मां अपना सिर पीटतीं, कहतीं, ऐसी नामुराद को कौन ब्‍याहेगा। पापा कहते, सुधा शांत हो जाओ। बड़े बच्‍चों को हैंडल करने का ये कोई तरीका नहीं है।
आगे जारी............

19 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

अपने बहाने अच्छा व्यंग्य है।

roushan said...

दिलचस्प !

आगे की बात का इंतज़ार रहेगा

M VERMA said...

"मेरे अंदर तो काठ का उल्‍लू और मॉडर्न, फैशनेबुल, अत्‍या‍धुनिक प्रगतिशीलता का दुपट्टा वाली लड़की बैठी थी। उसकी आधुनिकता अगर रामदेव के कब्‍ज निवारक चूर्ण के सामने झुक जाए तो लानत है ऐसी आधुनिकता पर।"
आत्मस्वीकारोक्ति के ये अल्फ़ाज आधुनिकता के मापदण्डो पर अनेक सवाल खडे कर रहे है.

निशांत मिश्र - Nishant Mishra said...

अब जब इतना बता ही दिए हैं तो आदत की शुरुआत और इसके लत में बदलने का किस्सा भी बताइए न. ये न कहियेगा कि पाठक रस लेने लगे हैं. हर फ़िक्र को धुएँ में (न) उड़ाकर लिखती रहें.

"जो लड़कियां इस धरती पर पति का अंडरवियर धोने के लिए नहीं पैदा हुईं, जिन्‍हें कुछ महान रचकर दुनिया को दिखा देना है, वो सिगरेट भी न पिएं तो क्‍या भजन गाएं।"

ह्म्म्म... कुछ सोच रहा हूँ!:)

श्यामल सुमन said...

खुद के गढ़े तर्क के आधार अपनी बुरी आदतों का समर्थन और फिर उसकी सच्ची आत्म-स्वीकृति - सचमुच सराहनीय है। नित्य अच्छाई की ओर बढ़ते कदम का स्वागत होना ही चाहिए। शुभकामना।

सादर
श्यामल सुमन
www.manoramsuman.blogspot.com

अनूप शुक्ल said...

रोचक है यह पढ़ना। सुन्दर,कसा लेख। आगे की कड़ी का इंतजार है।

विनीत कुमार said...

सिगरेट पीना छोड़ दिया,ओह..अच्छी भली लड़की प्रगतिशील होती जा रही थी,विकासक्रम ही रुक गया। अब ढूंढ़ो जरा कोई दूसरा उपाय जिससे प्रगतिशील होना बना रहे। रात में खुद की आंखों में लाल डोरे देखने का शौक है या नहीं।..

Prakash Badal said...

मनीषा जी,

एक आग्रह मेरा है! आपकी लेखनी और समझ-बूझ की तारीफ करना कोई नई बात नहीं होगी लेकिन मेरा आग्रह ये कि अब आप इस आदत पर कुछ भी न लिखें और ऐसा कुछ लिखें जिससे फूल खिलें। आग्रह करने का हक तो मुझे होगा ही !

Arvind Mishra said...

ओह !

डॉ .अनुराग said...

पता नहीं लज्जा जैसे कितने गहने हिन्दुस्तानी लड़की के लिए रिज़र्व है ...जैसे वक़्त के साथ कुछ टारगेट फिक्स होते है .. होते है ...ओर सबसे बड़ा टारगेट होता है "विदाई "....किबला पान मसाला मुंह में ठूसे मियां जी .मंजूर है पर सिगरेट फूंकती बाला .....हाय राम...हमारे कॉलेज में एक सरदारनी हुआ करती थी ..कभी कभी हमारे से एक कश मार लिया करती थी .बोलते हुए "या रब मेरे गुनाहों को माफ़ करना ....पर इस धुंए में बड़ी अजीब सी कशिश है .....इमरजेंसी की रातो में कभी बाहर चाय की लारी पे मिल जाती .तो बोलता सुट्टा सुलगा...कुछ धुंया अन्दर खीच लूं फेफडो में ...पर उसे ज्यादा कर्मठ ओर लगन वाली बंदी मैंने आज तक नहीं देखी.....पेशेंट अगर सीरियस है तो मजाल जो वहां से हिल जाये .दूसरे डिपार्टमेंट से पंगा ले लेती गलत बात पे ......ओर मंगल के व्रत रखने वाली मोह्तारमाये इमरजेंसी में ऊँघ रही होती अब तो खैर हम भी सिगरेट रेलिश नहीं करते ..गाहे बगाहे पुराने यारो में आधी आधी बाँट लेते है ..पर आपको कल पढ़ा तो वो याद आयी...अब तो वो ऑस्ट्रेलिया में है ....

Priyankar said...

’सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिये हानिकरक है’यह संदेश सिर्फ़ पुरुषों के लिये नहीं है . तब भी लोग पीते तो हैं ही . सो तुमने भी वर्जना की एक रेखा लांघी . शायद वर्जना थी इसीलिए लांघी .

सिगरेट पीना शुरू किया तो कोई बड़ा पाप नहीं हो गया सो ऐसा कोई अपराधबोध भी नहीं होना चाहिए . पर छोड़ दिया तो यह हुई साहस की बात . अपने स्वास्थ्य के प्रति और अपने मित्र-परिजनों के प्रति एक किस्म की जिम्मेदारी के भाव का उदय . एक खास किस्म की समझदारी का भी जन्म जिसमें प्रगतिशीलता और नारी-मुक्ति के ये दृश्य बिम्ब अपनी चमक ,अपना महत्व खो देते हैं और नर-नारी समता का वैचारिक आधार ही असली कसौटी रह जाता है .

स्त्री-पुरुष समता का सपना हम सब सच होते देखना चाहते हैं . उस तरफ़ आगे बढे भी हैं . पर बहुत कुछ होना बाकी है . लेकिन अगर स्त्री पुरुष होने की ओर -- उतनी ही असंवेदनशील, ढोंगी, चालबाज और दुनियादार होने की ओर (और नशेड़ी भी)-- तो इसे दुर्भाग्य ही मानना चाहिये .

बोहेमियन जिंदगी जीकर पुरुष ने ही क्या पा लिया ? अनेक नष्ट प्रतिभाओं के उदाहरण सामने हैं. सामान्य अनुशासन के सहारे भी कितने सामान्य लोग क्या कुछ नहीं कर गये . इसलिये कभी-कभी बोहेमियन प्रवृत्ति को थोड़ी ढील देने के बावजूद बोहेमियन होना एक किस्म का दुस्साहस ही है,स्त्री के लिये तो और भी . यह एक किस्म आत्मघात है जो हम किस्तों में करते हैं .

बिना किसी विशेषज्ञता का दावा किये,अपने सामान्य प्रेक्षण से मेरा अनुभव यह रहा है कि किशोरावस्था में सिगरेट-शराब के पीछे मित्र समूह में स्वीकरण-अस्वीकरण का भाव और थोड़ा एडवेंचर की ओर सहज झुकाव काम करता है .

परिपक्व अवस्था में इसके दो रूप दिखते हैं : एक तो अकेलेपन का अवसाद -- एक किस्म के खालीपन को भरने की इच्छा -- जिसके लिये कई-कई तर्क गढ़े जाते हैं,कन्सन्ट्रेशन,क्रिएटिवनेस से लेकर कब्ज तक .

दूसरा अभिन्न-प्रगाढ़ मित्रों के मिलने-इकट्ठा होने पर छठे-छमासे छोटे-मोटे मिलनोत्सव जो एक स्तर पर छोटी-मोटी नेटवर्किंग का भी अवसर प्रदान करते हैं . सिर्फ़ नेटवर्किंग के ही लिये ही की गई व्यावसायिक पार्टियों की तो बात ही और है .

ईमानदारी और आधुनिकता बड़े मूल्य हैं,अत्यंत वरेण्य मूल्य . पर इनका दम्भ इन मूल्यों के गुरुत्व-केन्द्र को हिला देता है . ईमानदार दिखने वाले वक्तव्य अक्सर अपना अर्थ खो देते हैं . बिल्कुल ठीक बात है कि ’लज्जा (हमेशा)स्त्री का गहना नहीं है’ पर निर्लज्जता भी उसका कंठहार नहीं हो सकता . ईमानदार और स्पष्टवादी होना निर्लज्ज होना नहीं है . ’लड़कियां इस धरती पर पति का अंडरवियर धोने के लिए नहीं पैदा हुईं’हैं और न ही पति से पैंटीज़ धुलवाने के लिये . दोनों ही छोटे-बड़े सार्थक काम करने के लिये बने हैं . बशर्ते एक-दूसरे के सहयोग से कर पाएं तो . सहयोगिता और सम्पूरकता के अलावा और कोई रास्ता है हमारे पास ?

कुछ दिन सिगरेट पी,कोई बात नहीं . छोड़ दी !बहुत अच्छी बात . यह विल पावर अब अन्य जगह भी दिखनी चाहिये -- लिखने-पढने में . मस्त रहो,मित्र बनाओ और खूब आनन्द करो . आनन्द यानी ’बिनाइन प्लैज़र’, न कि ’बेसर प्लैज़र’.

और अन्त में अयाचित;कदाचित अनुचित सलाह कि अच्छा-सा लड़का देख कर शादी कर लो . तुम्हारे जैसी अच्छी-ईमानदार लड़की को जीवन सम्पूर्णता में जीना चाहिये .

क्या यह मेरा पुनर्मूषिकत्व को प्राप्त होना है ? अब हो तो हो .

Arshia Ali said...

महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर गम्भीर चिंतन।
Think Scientific Act Scientific

Astrologer Sidharth said...

हुम्‍म,



मैं सोच रहा हं।


अंडरवियर तो पतियों को खुद ही धोनी चाहिए :)

Udan Tashtari said...

अच्छा है, पूरा लिख ही डालिये मन का..इन्तजार करते हैं अगली कड़ी का.

अनिल जनविजय said...

ओह! प्रियंकर ने ठीक ही कहा। शादी कर लो और ये नकली प्रगतिशीलता छोड़ो। भोपाल छोड़कर कुछ बाल-गोपाल में मन लगाओ। भजन गाओ। पति के नहीं तो बाल-गोपालों के अंडरवियर तो धोने ही पड़ेंगे।

Pooja Prasad said...

मनीषा, अचानक तुम्हारा ब्लॉग क्लिक किया और देखा कि लंबे अरसे बाद तुम ब्लॉग की दुनिया में फिर हो। अच्छा लगा. और तीनों ही पोस्ट्स धड़ाधड़ पढ़ गई, ठीक उसी लय में जैसे तुम लिखती हो, सुजाता ने सही लिखा है, बहता सा लेखन..गुड.

मनीषा पांडे said...

शुक्रिया पूजा। आप सभी की हौसलाअफजाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया। प्रियंकर जी और अनिल जी, आपके सुझाव पर गौर करूंगी। और बाल-गोपालों की अंडरवियर मैं क्‍यों धोऊंगी भला
, मेरा पति धोएगा ना। अब वो इतना भी न कर सके तो इस धरती पर उसका अस्तित्‍व बेकार है।

Ashok Kumar pandey said...

भाई अब सिगरेट को प्रगतिशीलता को गरियाने का बहाना मत बनाईये प्लीज़.
मैने जितना प्रगतिशीलों के साथ पीया है उससे कई गुना दूसरों के साथ.
गाँवों में तमाम बूढी महिलाओं के साथ बीडी सुलगायी है, बाबा लोग के साथ चिलम और आम दोस्तों के पूरे परिवार के साथ शराब.
आप ने ही लिखा की दफ्तर में सिगरेट सुलगाते शर्म आती थी तो फिर यह प्रगतिशीलता के प्रदर्शन का आधार कैसे बन गया. अगर सिर्फ प्रगतिशीलों के भरोषे बिक रही होती सिगरेट तो अब तक तमाम पत्रिकाओं की तरह यह भी बंद हो गयी होती.. तो तमाम दूसरी चीजों की तरह यह भी आदत है...और छूट गयी तो अच्छा. हद से हद यह व्यक्तिगत स्तर पर अतार्किकता का प्रमाण है...उतना जितना अपने पर्सनल स्पेस के भीतर ही है.

Ambarish said...

bahut hi rochak hai.. abhi tak soch raha hun vyangya hai ya sweekarokti.. agli kadi ka intazaar hai...