Monday, 5 October 2009

एक आत्‍मस्‍वीकारोक्ति के बहाने कुछ सवाल – 3


(इस सिगरेट पुराण से अब मैं बोर हो गई हूं। मनीषा प्रगतिशील छापाखाना से सिगरेट पुराण का यह आखिरी संस्‍करण प्रकाशित हो रहा है। इसके बाद प्रगतिशील छापाखाना अन्‍य महत्‍वपूर्ण विषयों पर जोर देगा।)


कुल मिलाकर 19 महीने मेरी जिंदगी में इस बला का साया रहा। अब साथ छूट गया तो बला हो गई, पहले तो हमसफर हुआ करती थी। मेरे बड़े-बड़े सिगरेटबाज मित्र भी मुझे इस कर्म में मुब्तिला देखकर फटकार लगाते। प्रमोद कहते, ये तुम कौन काम, महान कर्म की आशा में किए जा रही हो। बहुत हो गया, बंद करो। (खुद भले कभी न बंद करें।)

अभय खुद कभी बड़े वाले सिगरेटबाज हुआ करते थे, लगातार चार के बाद पांचवी को हाथ लगाने पर डांटने से बाज नहीं आते, मनीषा बस, अब हा‍थ मत लगाना। अब मैं तुम्‍हें बिलकुल नहीं पीने दूंगा। (ठीक है। खुद छोड़ चुके हैं तो उनका हक बनता है भाषण देने का।) मेरी दोस्‍त भूमिका गाली भी देती रहती, लेकिन रात में अचानक स्‍टॉ‍क खत्‍म हो जाए तो, तू कभी सुधरना मत कहते हुए किसी भरोसेमंद साथी को बोलकर स्‍टॉक भरवाने की व्‍यवस्‍था भी करती थी।

सिगरेट खरीदने के किस्‍से भी कम दारुण नहीं हैं।

फंडा नं 1 - दुकान में जाकर गोल्‍डफ्लेक लाइट नाम की पर्ची दुकानदार को पकड़ाओ और पूछो, भईया ये है क्‍या। चेहरे पर ऐसे एक्‍सप्रेशन रखो कि किसी ने मुझे पर्ची थमा सिगरेट खरीदने भेजकर मेरा जीवन नष्‍ट कर डाला है। ऐसे सकुचाओ कि सुल्‍तानपुरिया दुबाइन भी क्‍या सकुचाती होगी भला।

फंडा नं 2 मैं सिगरेट की किसी दुकान पर जाती और भूमिका को फोन लगाती। हां, क्‍या लाना है, हां, हां, क्‍या नाम बताया। अरे यार प्‍लीज, मुझे ये सब काम मत कहा करो। हां ठीक है। इट़स ओके। आई विल डू दैट। एक्‍सप्रेशन ऐसा जैसे कसाईखाने में आ गई हूं। भारतीय लड़की सिगरेट की दुकान पर, यहीं धरती क्‍यों न फट जाए और मैं उसमें क्‍यों न समा जाऊं।

मैं 20 महीने पहले के मानसिक संसार में लौटती हूं और उन दिनों को याद करने की कोशिश करती हूं, जब ये किस्‍सा शुरू हुआ था तो बस इतना ही ध्‍यान आता है कि दिल्‍ली में कुछ प्रगतिशील साथियों की संगत में उदकते-फुदकते मैंने अनायास ही इस मुकुट को अपने माथे पे सजाया और मन ही मन सोचा, कितनी सुंदर लग रही हूं मैं। अपनी ही जिंदगी से ऐसा रोमांस पहले कभी महसूस नहीं किया था। कितना ग्‍लैमर है। अचानक मैं अपनी ही नजरों में ऊपर उठ गई हूं। अपने आसपास की तमाम लड़कियां हीन नजर आने लगीं। उफ, पति की चड्ढी धोना कब छोड़ेंगी ये औरतें। बैकवर्ड कहीं की। प्रगति मैदान में पुस्‍तक मेले में घूमते हुए मुझे अचानक ही सिगरेट की तलब होने लगती। तलब शरीर को नहीं, मन को होती थी। लेडीज बाथरुम में जाकर सिगरेट पीते हुए लगता, जाने कौन सा निषिद्ध इलाका मैं पार कर आई। मोटा मोटा सिंदूर लगाए मोटी आंटियां बाथरूम के अंदर आधुनिक पतिता को सिगरेट पीता देख अजीब से एक्‍सप्रेशन देतीं और मैं अपनी महानता के आगे उन्‍हें तुच्‍छ समझने का लोभ संवरण नहीं कर पाती थी। इन सूखी-मोटी आंटियों की जिंदगी में न रोमांस है, न ग्‍लैमर। ये क्‍या जानें। बस पुदीने की चटनी बनाया करें।

हां, वो कुछ और नहीं, रोमांस और ग्‍लैमर ही था। सिगरेट का ग्‍लैमर, जिसके साथ एक और दो शुरू हुआ सफर 5-8-10 तक होता हुआ कभी-कभी दिन में 15 तक का भी आंकड़ा पार कर जाता था।

बेशक, सिगरेट आधुनिकता और बौद्धिकता का ग्‍लैमरस प्रतीक है। होंठो के बीच सिगरेट दबाए ईजल के सामने झुकी फ्रीडा अपने रंगों से कैनवास पर ऐसा संसार रचती है कि टा्टस्‍की भी उसके मोहपाश में बंधने से खुद को रोक नहीं पाते, मेरी तो बिसात ही क्‍या। पेरिस के किसी रेस्‍त्रां में उन्‍नीसवीं सदी के बौद्धिकों का एक समूह होंठों में सिगरेट दबाए अस्तित्‍ववाद का दर्शन रच रहा है। सिगरेट पीते मुक्तिबोध की छवि अंधेरे में के साथ ऐसे एकाकार है, मानो मुक्तिबोध ने नहीं, उनकी सिगरेट की लत ने कविता लिखी थी। सिगरेट न होती तो न फ्रीडा चित्र बना पाती, न अस्तित्‍वाद का दर्शन ही धरती पर पैदा होता।

ये सिगरेट का ग्‍लैमर है, जो दिमाग में बचा रह जाता है। उस क्रिएशन के पीछे का अनथक श्रम, उर्वर दिमाग, गहन जिज्ञासाएं और दुनिया को जानने की तड़प और गहरे सवाल दिमाग में नहीं ठहरते। ठहरती है तो बस होंठों के बीच दबी सिगरेट और धुएं के छल्‍ले। उसमें ग्‍लैमर है, आकर्षण है।

अधकचरे, आधुनिक, विचारशील दिमागों को होंठों के बीच धुएं के छल्‍ले उड़ाती सिगरेट वैसे ही आकर्षित करती है जैसे सनसिल्‍क से बाल धोने के बाद ऐश्‍वर्या के बालों की चमक विवाह और पति में अपने जीवन की सार्थकता ढूंढ़ने वाली आधुनिका कुमारी के दिल में बैठ जाती है। ऐसे बाल हों तो पति क्‍यों न प्‍यार करे भला। सिगरेट हो तो क्रिएटिविटी क्‍यों न फूट-फूटकर बहे भला।

एक समय के बाद शरीर और मन को इसकी लत लग जाने के बाद क्‍या होता है पता नहीं, लेकिन सिगरेट पीने की शुरुआत के पीछे कुछ-कुछ ऐसी ही मानसिकता होती है। बाद में शरीर भी आदी हो जाता है। मन तो खैर होता ही है।

दरअसल दिक्‍कत सिगरेट नहीं है। दिक्‍कत है दिमाग का वह मैकेनिज्‍म, जो इस तरीके से काम करता है। जो अपनी बेहिसाब कमजोरियों और अधकचरेपन के बचाव के लिए तर्क बुनता है। अगर उस मैकेनिज्‍म पर ही सवाल न हो तो वह सिर्फ सिगरेट ही नहीं, असंख्‍य रूपों में बार-बार व्‍यक्‍त होगा। वो मूर्खाधीश टाइप एक कविता लिखकर खुद को महान रचनाकार समझने में, अपने औसत मंझोले ज्ञान को दुनिया की परम विद्वता आंकने में व्‍यक्‍त होगा। वो दिमाग अपने ही प्रेम में डूबा और एक झूठी काल्‍पनिक दुनिया गढ़ता मानस रचेगा। वो मूर्खों का सम्राट होगा।

दिक्‍कत सिगरेट से नहीं, मूर्खों का सम्राट होने से है। 10 रुपए का लक्‍स लगाकर किसी का दिल चुरा लेने के मीडियॉकर विचारशील संसार से है।


नोट : (सिगरेट पीने वाली लड़कियां मेरे विशेषण और विश्‍लेषण को अन्‍यथा न लें। ये खासतौर से मुझे ही संबोधित हैं।)

23 comments:

Anonymous said...

मुझे याद नहीं कभी आपके ब्लॉग़ पर आया हूँ कि नहीं।

सिगरेट खरीदने के किस्से सहित रोचक लेखन शैली भी पसंद आई।

कोशिश करूँगा पिछली पोस्ट्स पढ़ने की

बी एस पाबला

Arvind Mishra said...

काश कभी आप उनके सुखों का अहसास कर पातीं जो आपकी नजर में वन्चिताये हैं और आपकी सृजन कर्म की प्रवंचना बनती हैं -रूमान के दिन जब बीत जायेगें तब क्या होगा मनीषा जी ? होश में आयें -यह बोहेमियानापन लंबा खिंच गया है -अब विराम दें ! अभी भी यह संभव है ! क्या फायदा ....जब ....का वर्षा जब कृषि सुखाने !
चुकीं लिखती जबरदस्त हैं इसलिए एक उपन्यास लिख मारके इस जिन्दगी को लात लगाईये एक जोरदार ! हम आपके दुश्मन थोड़े ही हैं .

डिम्पल मल्होत्रा said...

fanda no 2 padh ke achha laga...seriously padna shuru kiya tha par honto pe muskuraht aa gyee..aap ne sahi likha hai apne adkachrepan or kamjorio ko dhakne ke liye hum tarak dete hai...

Pooja Prasad said...

मनीषा मस्त लिखा है। और सही भी लिखा है। वैसे पहला फंडा गजब है! महा- डिरामा मय कोशिश एक ठौ सिगरेट के लिए। :) और खुशी इस बात की शरीर को नष्ट करने वाली इस बला से पीछा छूटा तुम्हारा।

RAJNISH PARIHAR said...

कल तक आप सिगरेट पीती थी तो इसके गुण गाती थी!आज छोड़ दी है तो कहानियाँ सुना रही है?आखिर आपकी मंशा क्या है?सिगरेट पीने से या छोड़ने से कोई लड़की महान नहीं होती!आपने छोड़ दी है ,यही अच्छी बात है...!आप पीती थी तब का नहीं अब का वर्णन कीजिये!आपके गुणगान से तो लगता है अभी भी आप उसे भुला नहीं पायी...

मनीषा पांडे said...

Rajneesh ji, maine kab kaha ki maine pahle mahan thi ya ki ab mahan ho gayi hun... Jaha kuchaisa arth dhvanit hota bhi hai usame mera hi uphas hai, mera gungan nahi....

Himanshu Pandey said...

"दिक्‍कत सिगरेट से नहीं, मूर्खों का सम्राट होने से है। 10 रुपए का लक्‍स लगाकर किसी का दिल चुरा लेने के मीडियॉकर विचारशील संसार से है।"

इसे ही सार संक्षेप मान लें क्या ?

रजनीश जी की बात का उत्तर ठीक लगा मुझे ।

सागर said...

सिगरेट में वाकई एक ग्लामेर है, आकर्षण है,

बॉस की डांट खा कर प्रगति मैदान मेट्रो स्टेशन से कामिनी दुनिया को देखते हुए फूंक देने का मज़ा ही और है... या फिर हिज्रो-फिराक में दो बजे रात को छत पर घूमते हुए निगोरी के बारे में सोचते हुए पीना... गोया सिगरेट जब भी पिया कुछ गंभीर सोचता हुआ ही पिया... एक वाक्य और आज शूट पर कमरे में अँधेरा था और एक लाइट सर के पीछे जल रही थी ऐसे में मेरा सिगरेट पीना ... वाह - वाह... लगा जैसे प्रकाश ज्ञान मिल गया... :)

दरअसल दिक्‍कत सिगरेट नहीं है। दिक्‍कत है दिमाग का वह मैकेनिज्‍म, जो इस तरीके से काम करता है। जो अपनी बेहिसाब कमजोरियों और अधकचरेपन के बचाव के लिए तर्क बुनता है।

सच है मगर क्या करें हौसला नहीं होता.

विशाल श्रीवास्तव said...

मैं बर्गमैन वाली पोस्ट पर कमेंट लिखना चाहता था पर फिर मैंने कहा पुरानी पोस्ट के कमेंट आप पढोगी नही इसलिए मैं इधर चला आया -- लिखती आप बडा धांसू हैं --- और हाँ महिला के सिगरेट पीने के प्रसंग पर भाई लोगों ने तुरंत ४२ कमेंट ठोंक डाले --- उनको भी साधुवाद-- ऐसे ही लिखती रहिए ---

डॉ .अनुराग said...

अपनी यायावरी के दिनों में से कुछ वैसे ही परोसना जैसा असल है ....यही तो ब्लोगिंग है न....दिमाग के खलल को कागज़ पर न सही कंप्यूटर पर सही ...कमोबेश ऐसा कई बार होता है की अधिक बुद्धिमान दिखने की चाह में कई बार लिखने वाला का शब्द कौशल अभिव्यक्ति पर इतना हावी हो जाता है की ..असल बात कही दब जाती है ...शुक्र है आपके साथ ऐसा नहीं है ....इस भाषा की रवानगी में एक अजीब सी ताजगी है ...जो भली सी लगती है .....
पर यहां कुछ समाज के इंडिकेटर जलते हुए देखे .हैरानी हुई.....क्यूंकि सब व्यस्क है .पढना जानते है के सिगरेट पे लिखा होता है स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है .....नीचे आपकी लिखी रेड लाइन देखकर लगा आपने काफी गंभीरता से इन्हें लिया है ....

प्रमोद ताम्बट said...

किसी भी बहाने सही, अपना उपहास उड़ाना, अपनी आलोचना करना हर किसी के बस की बात नही, आपने वह साहस दिखाया है जो काबिल-ए-तारीफ है। यह साहस, यकीन मानिए, आपसे कोई बहुत बड़ा रचनात्मक काम करवाकर छोड़गा। हमारी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं।

प्रमोद ताम्बट
भोपाल
www.vyangya.blog.co.in

अनिल कान्त said...

अब समाज के इंडिकेटर तो जलेंगे ही...जलना लाजमी है उनका :)
पोस्ट वाकई अच्छी लगी मुझे तो

राजकिशोर said...

अब शराब के अनुभवों पर भी कुछ हो जाए !

अनूप शुक्ल said...

डा.अनुराग के शब्द दोहरा रहे हैं- भली सी लगी पोस्ट। सुन्दर!

डा० अमर कुमार said...


वैसे यह अब तक राज ही रहा जा रहा था
अब चूँकि लेडीज़ फ़र्स्ट हो ही गया है, तो मैं भी बता दूँ कि,
शुरुआती दौर में दुकानें बदल बदल कर मैंनें भी फँडा नम्बर एक और दो का उपयोग धड़ल्ले से किया है ।

मनीषा पांडे said...

राजकिशोर जी,ये दूसरी वाली आदत मुझे अभी तक लगी नहीं है। ऐसा नहीं कि कभी छुआ नहीं, लेकिन मुझे उसके होने न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। उस बारे में आदत के संबंध में लिखने को कुछ नहीं है क्‍योंकि वह आदत नहीं है। आदत क्‍या, किसी भी रूप में नहीं है।

Unknown said...

twenties की revolutions thirties की realism में तब्दील हो रही हैं. उम्र के नए पड़ाव में स्वागत है. अगले पांच सात सालों में आपको exercise / dieting करते देखकर आश्चर्य नहीं होगा :). लगता है आपसे कुछ ५-६ वर्ष बड़ा हूँ. आपका ब्लॉग पढ़कर लगता है अपनी twenties को देख रहा हूँ. एक ज़माना था जब दुनिया की हर चीज़ अजीब नज़र आती थी. लगता था यह जीना भी कोई जीना है लल्लू. अब समझौता हो गया है. शायद अगले ५-७ सालों में उसी ढर्रे पर चल पड़ें जिस पर कभी हंसा करते थे.
एक वादा कीजिये: जिस दिन रामदेव बाबा का चूर्ण लेंगी, इस ब्लॉग पर announce kijiyega

Unknown said...

Cigerrate chudane ki bekar aur bevajah koshish karne vale shaheedo me hamara naam bhi shamil kar le.. Aap par akhir kisi ko nazar bhi to rakhani hogi na???

शरद कोकास said...

पढते-पढते आखिर मैने भी पढ लिया आपका यह सिगरेट पुराण । बहुत साल पहले इस तरह की चीजें बहुत प्रेरित करती थीं । जैसे एक बार लेखनकला और रचनाकौशल पर तोलस्तॉय की एक रचना पढ़ी उसमे लिखा था " अल्कोहल की एक बून्द भी काम की क्षमता खत्म कर देती है ,पाइप पीना बेहतर है -आप पीते कम सुलगाते ज़्यादा हैं ( अभी आपका लेख पढ़कर रैक से वह किताब निकाली और यह पृष्ठ फिर पढा ) तो यह पढने के बाद लगा सिगरेट पीकर हम भी ऐसा ही लिख सकते है । सो सिगरेट का शौक लगा । फिर शरद बिल्लोरे की कविता ..वो बोहेमियम अन्दाज़ सब कितना अच्छा लगता था । ज़िन्दगी मे ऐसा ही कुछ चलता रहता है । आप बेबाकी से यह लिख रही हैं वो मोटी मोटी आंटियाँ और अंकल तो अभी भी नाक-भौं सिकोड़ेंगे लेकिन कलम आपकी अनवरत चलती रहे यह कामना ।

travel30 said...

" अपने आसपास की तमाम लड़कियां हीन नजर आने लगीं। उफ, पति की चड्ढी धोना कब छोड़ेंगी ये औरतें। बैकवर्ड कहीं की" itne samay baad aap likhte hue dekh kar bahut acha laga, aur shanddar likha hai aapne Manisha ji

PD said...

मैंने कभी लड़कियों द्वारा सिगरेट खरीदने को लेकर हुई परेशानी को इस नजरीये से नहीं देखा था.. मैं तो हमेशा यही देखता था कि मेरे ऑफिस के बाहर बाईक पार्किंग एरिया में जिस तरह मैं किसी बाईक पर आसीन होकर सिगरेट के कश लगाता था(अब मैंने भी छोड़ दिया है तो 'था' कहना ही बेहतर होगा) वहीं बगल में कुछ और लड़कियां भी वैसे ही किसी दूसरे बाईक पर बैठ धुवें उड़ाती थी.. बिलकुल उसी फुटपाथ पर बने दुकान से खरीदे हुये और वहीं सुलगाये हुये भी जहां से मैं सुलगाता था.. अक्सर ये जरूर देखता था कि दिन की आखिरी सिगरेट के साथ वो पूरा डब्बा खरिदती थी.. अभी सोचने बैठा हूं तो लग रहा है कि किसी साफ्टवेयर या कॉल सेंटर के बाहर लड़कियों को सिगरेट पीते देखना लोगों को शायद अब अखड़ता नहीं है जितना कहीं और.. तभी तो वे भी बिना किसी से डरे और संकोच किये वहां सिगरेट पीती हैं..

Ashok Kumar pandey said...

बाप रे एक बिचारी सिगरेट पर इतने इल्ज़ाम!!

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

बाम्बे मे तो ये बहुत अज़ूबा नही है..अब जब मैने छोड दी है तो ओफ़िस कि लड्किया मस्त कश पर कश लगाया करती है..मुझे याद है मेरे गाव मे एक बूढी दादी रहती थी..क्या मस्त बीडी फ़ूकती थी.. :)
वैसे आपके सिगरेट खरीदने के किस्से हमे पसन्द आये..हमने वाईन के तो ऐसे किस्से सुने है लड्कियो से लेकिन सिगरेट के बारे मे कभी इतने गौर से सोचा नही था..