Thursday 1 October 2009

एक आत्‍मस्‍वीकारोक्ति के बहाने कुछ सवाल

ये मेरी डायरी का बहुत अंतरंग पन्‍ना है। इतना अंतरंग कि कई बार मैं खुद भी उससे नजरें मिलाने से बचती रही हूं। कुछ बहुत अंतरंग और हमविचार मित्रों को छोड़कर मुझे दुनिया के सामने यह स्‍वीकारने में भयानक संकोच था। संकोच इसलिए नहीं था कि मैं मुझ जैसी हूं, बल्कि इसलिए कि यह दुनिया वैसी है, जैसीकि यह है। ठेठ उत्‍तर भारतीय सामंती पंडिताऊ परिवेश में पली किसी लड़की के लिए एक सार्वजनिक मंच से भी यह कहना थोड़ा विचित्र लग सकता है, लेकिन यह कहा जाना चाहिए। सिर्फ स्‍वीकारोक्ति के लिए नहीं, बल्कि उस मानस की पड़ताल के लिए भी जिसमें ऐसी निजी अंतरंग दुनिया बसती रहती है।

एक महीने से ऊपर गुजरे, मैं अपनी दुनिया को सिगरेट के धुएं से आजाद कर चुकी हूं। वह धुआं जो एक महीने पहले वैसे ही मेरे होने का हिस्‍सा था, जैसे मेरे बाल, मेरी नाक, की-बोर्ड पर फिसलती मेरी ये उंगलियां और जैसे बर्गमैन के लिए समझ की सीमाओं से परे मेरा विचित्र आकर्षण।

मैं उत्‍तर प्रदेश के एक निम्‍न मध्‍यवर्गीय परिवार में पैदा हुई, पली और एक हिंदी अखबार के घनघोर सामंती परिवेश में अपनी रोजी के लिए चाकरी करने वाली एक लड़की सारी दुनिया से छिपाकर अपने घर के एकांत में सिगरेट के साथ अपना मन और जीवन साझा करती थी। मेरे बहुत नजदीकी और जिनकी सोच में औरत और आदमी के लिए अलग-अलग खांचे नहीं हैं, वही मेरे इस राज के साझेदार थे। हालांकि जिस अखबार में मैं नौकरी करती हूं, उसी के अंग्रेजी अखबार डीएनए में काम करने वाली कई लड़कियां सार्वजनिक रूप से ऑफिस के गेट पर खड़े होकर भी इस हरकत को अंजाम देने का साहस रखती थीं, लेकिन मैं नहीं। मुझे ऑफिस के दुबे, चौबे जी, तिवारी जी और भदौरिया जी की बड़ी परवाह थी। कैरेक्‍टर सर्टिफिकेट का भय सिगरेट के लॉजिकल डिफेंस पर भारी था। मेरे मां-पापा ये बात जानते थे। वे जानते थे क्‍योंकि मेरे न चाहने के बावजूद मैं ये चाहती थी कि अब वे जान ही जाएं तो बेहतर है। मां को दुख था, पिता को चिंता। मां बिफरती, सिमोन और तसलीमा को गरियाती कि उन्‍हीं की वजह से आज उन्‍हें ये दिन देखना पड़ा है कि मेरी गहन संस्‍कारी लड़की ने जाने कौन पतित राह पकड़ी है। पापा उन्‍हें समझाते कि ऐसे डांटो मत। उनके अपने लॉजिक थे। वे मां से कहते, अगर तुम लड़की होने के कारण उसे सिगरेट छोड़ने को कहोगी तो वो दो पीती होगी तो चार पिएगी। हां, सेहत वाला तर्क वाजिब है। उसे वैसे ही समझाओ। और फिर उनके तर्क का विस्‍तार यहां तक जाता था कि सुधा, (मेरी मां) अगर डांटोगी, चिल्‍लाओगी तो सिर्फ इतना ही कर पाओगी कि वो हमारे सामने नहीं पिएगी। लेकिन पीठ पीछे तो यह काम होता रहेगा। क्‍या यह ज्‍यादा बेहतर नहीं है कि हमसे झूठ बोलने या छिपाने के बजाय वो जो कर रही है, हमारे सामने कर रही है। मां सहमत थीं या नहीं, पता नहीं। लेकिन उन्‍होंने डांटना छोड़ दिया। सिर्फ निवेदन करती थीं, बेटा छोड़ दे, ये अच्‍छा नहीं है।

मां के तर्क से मैं भी सहमत हूं, अच्‍छा तो नहीं है। फिर क्‍यों मैंने इस आत्‍महंता विशंज को शंकर के सांप की तरह अपनी छाती से चिपटाकर रखा है। मैं मां के निवेदन और पापा के ठोस तर्कों से सहमत हूं कि ये सेहत के लिए जहर है। फिर मैं क्‍यों अपने फेफड़ों को आबनूस की लकड़ी बना देने पर तुली हूं। होंठ गुलाबी हों तो क्‍या मुझे मियादी बुखार जकड़ता है तो क्‍यों मैं सिगरेट के धुएं से उसे काला और खुरदुरा कर देना चाहती हूं।

ऐश्‍टे् और लाइटर, जो कभी अनिवार्य रूप से हमेशा मेरे पढ़ने की मेज, किताबों के कोने, कम्‍प्‍यूटर के पास और सिरहाने रखा रहता था, आज जब वह लावारिस किसी कोने में उपेक्षित सा पड़ा है तो मैं उस मन और उस चोर दरवाजे की पड़ताल करना चाहती हूं, जिससे होकर फेफड़ों को (मुंह को नहीं) काला करने वाली यह आदत मेरी दुनिया में दाखिल हुई थी। वो क्‍या मेंटल स्‍टेट है? मन और दिमाग क्‍या सोचकर ऐसा करते हैं? हम क्‍यों जानबूझकर इस तरह गुलाम होते जाते हैं किसी के। जिस प्रेम में दुनिया बेगानी नजर आती है, बुद्धि पर ताले लग जाते हैं, कोई लाख समझाए राह सूझती नहीं, उसी प्रेम की लाचारगी और बेचारगी पर एक उम्र गुजरने के बाद मन हंसता है। वो बेवकूफ मैं ही थी क्‍या। लगता तो नहीं कि मैं कभी इतनी झंडूबाम रही होऊंगी, लक्‍स साबुन के दस रुपए में ले गए उनका दिल टाइप काठ की उल्‍लू।

जारी………...

44 comments:

L.Goswami said...

ईमानदारी से लिखा है आपने ..अच्छा किया जो बुरी आदत छोड़ दी. मन को रचनात्मक चीजों में लगाइए.

निशांत मिश्र - Nishant Mishra said...

यह गुलामी, बेचारगी, लाचारगी... उससे ज्यादा नहीं जितना इसका स्वीकरण है.

हम सभी अभी भी इतने परिपक्व नहीं हुए हैं की एक महिला को स्मोकिंग करते देखकर हैरत न करें.

बरसों पहले दीप्ति नवल ने 'मोर' नामक सिगरेट का विज्ञापन किया था, हल्ला मच गया था उन दिनों.

मैं तो चाहूँगा सभी इनसे निजात पा लें, इसलिए नहीं की ये स्वास्थ्य के लिए बुरी हैं बल्कि इसलिए क्योंकि ये आपको... गुलाम बना लेती हैं.

शुभकामनाएं. अगली कड़ी का इन्तेज़ार रहेगा.

शायद ब्लॉगिंग में स्वीकारोक्तियों का दौर चल पड़े:)

pallavi trivedi said...

सबसे पहली अच्छी बात तो ये की आपने सिगरेट छोड़ दी....माँ सही कहती है सेहत के लिए अच्छी नहीं है! दूसरी उससे भी अच्छी बात की आप बहुत साहसी हैं! लडकियां आमतौर पर ये बातें शेयर करने का साहस नहीं कर पाती हैं!

शायदा said...

मुबारक हो भई, बढि़या काम हो गया ये तो, हैल्‍थ पॉइंट ऑफ व्‍यू से ही सही। रही कैरेक्‍टर सर्टिफिकेट की बात तो वो कई लोगों के पास अब भी तैयार धरे होंगे, सो उन्‍हें बांटने ही हैं, किसी न किसी को चेप देंगे।
मज़ा आया पढ़कर....
वो बेवकूफ मैं ही थी क्‍या। लगता तो नहीं कि मैं कभी इतनी झंडूबाम रही होऊंगी, लक्‍स साबुन के दस रुपए में ले गए उनका दिल टाइप काठ की उल्‍लू।

स्वप्नदर्शी said...

Its good that you have left it and more so that you are open about it.

Just because, it is norm for men and smoking was not accepted for women, makes one rebellious and angered. I thought many times myself to revolt against this stereotype but I get nausea and revulsion from the tobacco smell.

As a rule, I do not allow people in my home or surroundings to smoke. Eventually, we do not have to look at men as a standard for every code of behavior and freedom.
I consider freedom also being free from drugs, bad smell, and from health hazards.

We have to decide things on their real value and on logical ground, in term of our personal health and social health as well.
Have a happy and healthy life.

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

yeh sansmaran kaafi achcha laga................ bahut hi saaf goyi se likha hai isko........ aapne....... yeh achcha kiya cigarrette chhod ke......


thanx for sharing........


Regards........

Mahfooz

www.lekhnee.blogspot.com

ss said...

अच्छा लिखा है आपने। सच के बेहद करीब। शायद मैं भी कुछ सीख सकूं।

अविनाश वाचस्पति said...

सीखना नहीं छोड़ना है शाश्‍वत जी।

बहुत अच्‍छा किया जो दास्‍तां लिख दी
बहुत से संभल जाएंगे इसे पढ़ते पढ़ते।

Udan Tashtari said...

साहसी आत्मस्वीकारोक्ति!!

हमने अपने समय में सिर्फ बड़े हो गये हैं, दिखाने के लिए सिगरेट पीना शुरु किया था, फिर इसके गुलाम हो गये. बमुश्किल ५ साल पहले जो छूटी तो फिर उस राह नहीं गये, बड़ी राहत लगती है.

तब सोचा करता था कि इसके बिना जीने का मजा ही नहीं है और अब..मजे से जिये जा रहे हैं.


बहुत अच्छा किया इसकी गिरफ्त से मुक्त होकर, बधाई!!

विवेक रस्तोगी said...

आपको धूम्रपान से मुक्ति के लिये बधाई। और आप जैसी ही नारियाँ ही तो आधुनिक नारी को पतन पर जाने से रोक सकती हैं, आधुनिक होना मतलब अपने संस्कार छोड़ देना नहीं होता है। आपके संस्मरण से आधुनिक नारी बहुत कुछ सीखेगी।

अपूर्व said...

वो बेवकूफ मैं ही थी क्‍या। लगता तो नहीं कि मैं कभी इतनी झंडूबाम रही होऊंगी, लक्‍स साबुन के दस रुपए में ले गए उनका दिल टाइप काठ की उल्‍लू।

क्या बात है भई..मस्त लगा!!

शरद कोकास said...

आप तो यह बताईये कि यह आपने छोड़ी किस तरह ? उसके लिये क्या किया ? क्या सोचा ? विचार को कार्यरू मे कैसे परिणत किया ?अगर मन दोबारा कमज़ोर हुआ तो क्या करेंगी ? इस पर विस्तार से एक पोस्ट लिखिये ।

Sanjay Karere said...

कैसे किया... मुझे 20 साल हुए यह सोचते हुए कि छोड़ दूं.. नहीं छोड़ पाया या शायद कहूं कि छोड़ना नहीं चाहा। अब फिर सोच रहा हूं कि छोड़ दूं। शायद आपसे प्रेरणा लेकर ही ऐसा कर सकूंगा। सो बताएं जरूर...

वाणी गीत said...

स्वीकारोक्ति के साहस के लिए बधाई ...ऐसी आदतें छुट जाने में ही भलाई है ...
बहुत बढ़िया कदम ...!!
अगली कड़ी का इंतजार रहेगा ..!!

सतीश पंचम said...

मुंबई में रोज ही जब मेरी ऑफिस बस accenture के बाहर से गुजरती है तो अक्सर एक महिला को देखता हूं जो accenture के गेट के बाहर सिगरेट फूंक रही होती है। उसे देख न जाने मन में कैसे कैसे सवाल उठते हैं -

क्या उसे यह सब करना अच्छा लगता है या केवल मॉडर्न होने का दिखावा करती है।

या फिर, बॉस का या ऑफिस कल्चर का लिहाज करती है और सिगरेट बाहर ही पी कर तब अंदर जाती है....

या

सिर्फ अपने मन की मस्त मौला है :)


आपने तो उसी महिला की याद दिला दी। कल को जब ऑफिस जाउंगा तो रास्ते में जब एन वक्त पर वह महिला सिगरेट पीते हुए दिखेगी तो आपकी यह पोस्ट तो जरूर याद आएगी :)

स्वप्न मञ्जूषा said...

सबसे पहले आपको बधाई दे दूँ की आपने एक बहुत ही बेकार सी चीज़ को त्याग दिया....और विश्वास कीजिये वो आपके काबिल थी ही नहीं....क्यूंकि आप इनसब बातों से बहुत ऊपर हैं...
मैं आपके इस संस्मरण को पढ़ कर प्रभावित ही प्रभावित हूँ...अपने सिगरेट छोडा ये बड़ी बात नहीं है ..बहुत सी लडकियां पीती हैं....लोगों को आर्श्चय होता है लेकिन अगर गौर से देखा जाए तो हमारी नानी-दादियाँ भी हुका पीती थी, कुछ बीडी पीती थी ..ये सब आज से नहीं बहुत पहले से चला आरहा है... मुझे याद मैं श्री अमीन सायानी की पत्नी से मिली थी उनको मैंने एक सेकंड के लिए भी सिगरेट से जुदा नहीं देखा था कभी....लेकिन मैं जो कहना चाहती हूँ वो है 'आपका स्वीकार करना' , यह एक बहुत ही उच्च चरित्र वाला इंसान ही कर सकता है ...और उसे सबके सामने स्वीकार करना तो आपके चरित्र और मनोबल को ऐसा स्थान देता है जहाँ तक बिरले ही कोई पहुँचता है...मैं ह्रदय से आपको बधाई देती हूँ, आपकी इस बात के लिए....ईश्वर आपको ऐसी ही दृढ़ता प्रदान करता रहे...

अनूप शुक्ल said...

....कभी इतनी झंडूबाम रही होऊंगी, लक्‍स साबुन के दस रुपए में ले गए उनका दिल टाइप काठ की उल्‍लू। बांचकर आनन्दित हुये। सिगरेट छोड़ने के लिये शाबासी और बधाई! आगे के संस्मरण का इंतजार कर रहे हैं।

Arvind Mishra said...

सिगरेट छोड़कर तो अपने अच्छा ही किया नहीं तो आगे चल कर आपके बोहेमियन जिन्दगी से उपजी कठिनाईयों में इसके प्रभाव भी आनुषगिक बनते -अब तो काफी जगत व्यवहार भी अपने देख ही लिया होगा -ज्यादा परिपक्व और समझदार हैं -किमाधिकम !

Ashok Kumar pandey said...

are manisha ji
choad diya ye achchha kiy
par ise lekar kisii aatmglani kii zaroorat nahi hai

Anonymous said...

Great courage! WAH!
May NLP helps in supporting you

सुशील छौक्कर said...

कहते है सिगरेट... आदि पीने साहस का काम नही बल्कि उसे छोडना साहस का काम है और आपने वो कर दिखाया। और यह स्वीकार कर लिखना भी बहुत ही सहास का काम है। उसके के लिए आप बधाई की पात्र है। और सच पूछिए तो आज के दिन ये पढकर भी अच्छा लगा।

मसिजीवी said...

सिगरेट को मिली सामाजिक स्वीकृति की लैंगिक निर्मिति मेरे लिए भी एक बौद्धिक दिक्‍कत रही है। मन ही मन सिगरेटिया लड़कियों के लिए सम्‍मान ही रहा है पर उसका विशेष औचित्‍य समझ नहंी आया। शायद खुद कभी शुरू न कर पाने की वजह से। एक बार क्‍लासिक की डिब्‍बी लाकर सोचा भी कि पति पत्‍नी दोनों एक साथ शुरू करें पर समारोही एकाध कश से ही दोनों बेहाल हो गए और डिब्‍बी सालों तक अगली सिगरेट निकाले जाने का इंतजार करती रही।
सिगरेट बुरी चीज है पर दोनों के लिए बस बराबर ही बुरी है न कम न ज्‍यादा।

वीरेन्द्र जैन said...

मनीषाजी
आपकी पोस्ट पहली बार पढी . अभी हम लोग भारत ज्ञान विज्ञानं समिति की कार्यशाला वूमेन एंड मीडिया में मिले थे मेनें तो आपको सुना था पर आपने मुझे नहीं सुना आपकी व्यस्तता अधिक रही.
सिगरेट छोड़ देने पर आप जो इतना महत्व दे रही हैं वह समझ नहीं आया . पता नहीं आप कैसे अपने आप को सिमोन और तसलीमा द्बारा बिगडा हुआ बता रही हैं. लगता है कि अभी भी जेंडर भेद ने आपका पीछा नहीं छोडा. स्वास्थ के लिए जो चीज़ नुकसान दायक हो सकती है वही ज़िन्दगी के लिए ज़रूरी भी . नुकसान क्या नहीं करता नमक नुकसान करता है शक्कर नुकसान करती है मसाले नुकसान करते हैं शराब नुकसान करती है सेक्स नुकसान करता है इत्यादि . में सिगरेट के पक्ष में नहीं हूँ और न ही स्वयं पीता हूँ किन्तु इसके छोड़ने और पकड़ने को बहुत गंभीर सी चीज़ नहीं मानता क्योंकि जिन्दगी में और भी बहुत कुछ गंभीर है .....और ये जितने भी लोग तुम्हें साधुवाद दे रहे हैं विश्वास करो कि वे तुम्हारे सिगरेट पीना शुरू करने के फैसले पर भी देते. समय मिले तो मेरे ब्लॉग http://nepathyaleela.blogspot.com पर समाज शीर्षक से लिखे गए कुछ लेख पढ़ कर संवाद करें

Unknown said...

The very first thing that came to my mind after reading your `Cig Mukti` is how can anyone leave something which has been a `Hamsafar` for such a long time??? Either one finds more interesting `Hamsafar` as an alternative or suddenly `Atma` awakens. I know you and the reason behind this decision. I appreciate your initiative no matter how it has come. Keep it up Mani.
Who knows, I also leave it seeing you out of it. If possible, Help me!!!

सुजाता said...

:)
बहती सी भाषा ...
आगे पढने को हम बेताब हैं ....

श्यामल सुमन said...

साहसिक आत्मस्वीकृति के लिए बधाई।

अजय कुमार झा said...

मनीषा जी..आपने लिखा कि
पिताजी कहा करते थे कि सिर्फ़ इस वजह से मना नहीं करो..कि लडकी है..बल्कि इस लिये मना करो क्योंकि ये बुरी आदत है...सच कहूं तो सिर्फ़ इन पंक्तियों ने ही सारी बात सामने रख दी..आपने जिस बेबाकी से सब कुछ सामने रखा..वो अद्वितीय है...और हां अब ये दोबारा न हावी हो इसका विशेष ध्यान रखियेगा.....शुभकामनायें

विनोद कुमार पांडेय said...

आदमी जीवन में अनेक रास्तों से गुज़रता है उसमें अच्छे और बुरे दोनों पल होते है पर सबसे अच्छी बात यह होती है की हम अपने जीवन में गुज़ारे उन लम्हो को हमेशा याद रखते है और सच्चाई से स्वीकार करते है की हमने क्या खोया और क्या पाया एवम् हमारे खोने का वजह क्या था और पाने के लिए हमने क्या किया...

आपने अपने जीवन की इन बातों को इतने ईमानदारी के साथ प्रस्तुत किया यह अपने में बहुत बड़ी बात है..
आपकी ईमानदारी सराहनीय है..गुण और अवगुण जीवन में आते है और चले जाते है..

धन्यवाद!!!

Unknown said...

सच कहू मनी मै तुझे इसलिए ही इतना प्यार करती हु की तेरी हिम्मत का जवाब नहीं....
कोई कुछ कहता रहे पर हमारे वो झगडे और तेरे लिए लाइ सिगरेट याद आती है
मै तब भी जानती थी की तू ये कर सकती है

डा. अमर कुमार said...

.
टिप्पणी करने से पहले इस पोस्ट का उपसँहार भी देख लेने का मन है ।
भाषा की रवानगी मस्तम-मस्त है ।

Vinashaay sharma said...

आज तो लगता है,सच का असली सामना तो यह है

sandeep sharma said...

जिस कुवे से आप निकल चुकी हैं, निकलना मुश्किल था, सब जानते हैं... फिर भी आपने हिम्मत से इस विष को दूर कर दिया कबीले तारीफ है... और उससे भी ज्यादा यह स्वीकारोक्ति हिम्मत वाली है... बहुत बहुत बधाई...

डॉ .अनुराग said...

अजीब बात है न जिसे हम छाती ठोक कर लिखते है आप ग्लानि सा महसूस करके लिखती है ..जैसे मुई सिगरेट भी लिंग भेद में यकीन करती हो.....भाषा की रवानगी तो माशाल्लाह है ही.... पर स्वीकारोक्ति के बहाने इस दुनियादारी के कई रंग परोक्ष में दिख जाते है ......यूं भी ...हम सबके भीतर एक ऐसा कमरा छिपा है ,जिसमे हमारी कमजोरियों ,झूठो ओर इंसानी दुर्बलतायो के पलो के ढेर को सावधानी से सकेर कर रखा गया है जिसकी चाभी हम किसी से नही बांटते ,उसकी खिड़की कभी नही खुलती ......अलबता गुजरते वक़्त के साथ वो ढेर जरूर बढ़ा हो रहा है.....
आपने अभी पहली खिड़की खोली है .....अगली का इंतज़ार रहेगा

Smart Indian said...

छिपाकर या दिखाकर, सिगरेट पीने में कौन सी बहादुरी है| अलबत्ता, बुरी आदत को छोड़ पाना और स्वीकार करना दोनों ही कर्म बधाई के पात्र हैं| शुभकामनाएं!

Anonymous said...

दिक़्क़त ये है कि हम किसी लत को छोड़ने के बारे में सोचते बहुत है...मतलब सिर्फ़ सोचते हैं, उस पर अमल की हिम्मत नहीं होती। आपने ये हिम्मत दिखाई, बधाई!!

Anil Pusadkar said...

पीते थे बुरा नही किया और छोड दिया तो उससे भी अच्छा किया और सबसे अच्छा किया सबको बता भी दिया।इतना साहस तो शायद मुझमे नही है,सलाम करता हूं आपके साहस को,आपकी सच्चाई को।

Prakash Badal said...

मनीषा जी,

मैं आप से मिला हूँ। आपको दो-चार दिनों में मैंने अपनी कल्पनाओं और अपनी समझबूझ से आपको टटोलने की कोशिश भे बहुत की! और उसमें कामयाब भी हुआ। आपकी इस आदत पर मेरे परिवार के अधिकतर सदस्य इसीलिए ऐतराज़ करते थे कि एक लड़की होने के नाते ये ग़लत है। लेकिन मैंने संभवतयः ऐसा नही सोचा बल्कि मेरे मन में ये सवाल ज़रूर थे कि एक जागरूक और संवेदनशील लड़की ऐसे कोहरे में आखिर है तो क्यों, हमारे साथ एक मित्र और भी थे, उनसे आपकी इस बुरी आदत के बारे बहुत लम्बी बात हुई और पता चला कि किसी सदमे या संगत का असर भी हो सकता है ये। लेकिन मनीषा जी जीवन में भविष्य चाहे जो भी रंग दिखाए आप ऐसी किसी आदत को अंजाम न दें जिससे हमारा स्वास्थ्य और सेहत किसी नर्क की ओर अग्रसर हो और हमें भी किसी स्तर पर सुविधाजनक महसूस न हो। मुझे आपके इस निर्णय पर बेहद खुशी तो है ही साथ ही आपके लेखन की कला पर भी गर्व है कि आप जीवन के अनुभवों को भाषा और शिल्प से जिस प्रकार अभिव्यक्त करने का हुनर रखती हैं उससे मुझ जैसा अदना व्यक्ति आपकी लेखनी को सलाम ठोकने के सिवा और कर भी क्या सकता है। इधर बर्फ गिरने की तैयारियाँ है और मेरा घर आपका इंतज़ार कर रहा है। और घर के सभी लोग भी !

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

लत कोई भी हो, हद से गुजर जाए तो बुरी होती है.

Unknown said...

Congrates to me. I have also not been able to finish even my one pack of cig. during the whole day after reading your blog.
What you are saying about fashion and revolt etc. are not entirely right. You dont know the romance of smoking. When I started about 35 years ago, it was like creating a new world. In the university hostel we used to discuss everything under the sun with black tea, mostly bidi and cigarrates and ofcourse with commitment. Lots of my friends later joined political group or academics. They are doing great jobs even now but they dont remember those days as fashion or some childish revolt.
I think you have a great quality to laugh cruelly at yourself. Many people can not do it but what your parents, and that includs close friends like me, have done wrong by telling you not to smoke or atleast reduce it??? Why do you have to make fool of themselves? All of them tried in their own affectionate way to help you to come out of it.
I think the problem with many of us is to believe blindly on what we are doing at that particular moment. We dont open ourselves for citisism and never listen to what other wellwishers are saying. That is what is called arrogance and we all are victim of it. We believe the world around us is a bunch of clowns who is un-necessaryly poking its nose in other`s affairs.
What you have written on your blog, still has that air.
Will you try to change it, Mani??? As you have bravely changed your habit of smoking???
Waiting desperately for your next episode but I think it wont be possible to read it. I am leaving Bhopal tomorrow enening or late night.
But its great to see you creating something even if it is on the blog after such a long time. Keep it up and dont stop just on cigarrets. Its a pleasure to read you and there are many things to be written about.
Rakesh.

Unknown said...

I am a new person to the world of blogs. In fact these are my very first comments on anything published on blogs.
But it amazes me to see why blogers mostly scratch each others back??? Why cant they really read and then seriously comment???
I dont know but perhaps this is blogers trend to always say good things about the post.
Manisha is an experieced and senior writer in her own right. She can take critisism or atleast reviews on her writings.

Satish Saxena said...

बहुत बहादुर हो , अब सिगरेट लायटर और एश ट्रे को भी बाहर फ़ेंक दो, रख इसलिए रखा है कि महंगा है ? महिला हो या पुरुष, हर हालत में, ख़राब आदत ख़राब ही है और हमारे पतन का ही प्रतीक हैं फिर चाहें हम कितना ही पढ़े लिखें क्यों न हों ,
मगर आपकी इस ईमानदारी को सम्मानित करने का दिल करता है , आदर स्वीकार करें !!

आशा है , समाज को बहुत कुछ सिखाओगी, शुभकामनायें !

अभय तिवारी said...

बुरी चीज़ से पीछा छूटा.. भला हुआ..! लौट कर फिर दरवाज़ा खटखटाएगी.. खोलना मत!

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

सिर्फ़ एक कोइन्सिडेन्स है कि हमने अभी नये साल के शुभागमन पर सिगरेट छोडी है...२ महीना तो सम्भाल लिये है..देखते है इस बार अपनी विल पावर को..अच्छा याद दिलाया इस पर भी एक पोस्ट बनती है.. :)

Unknown said...

मुझे खुशी है कि आपने धूम्रपान की लत या शौक को विदा कह दिया. लिन्ग भेद से ऊपर ऊठकर मै आपको एक जागरूक और प्रखर पत्रकार के रूप मे देखता हू.

मैने कभी कोई नशा नही किया लेकिन इसके लिये कभी कोई वाहवाही भी नही चाही.

अपने एक करीबी मित्र से पिछले दिनो ये वादा लिया था कि जल्दी सिगरेट पेना छोद दे. अशा है जल्दी ही वो भी ऐसा कर सकेन्गी.