अधिकारहीन और बड़ों का गुलाम बचपन बड़ों जैसे अधिकारसंपन्न हो जाने में सुख ढूंढता था। वक्त गुजरा। लड़की बड़ी हो गई। बड़ी हो गई तो मां की बेडि़यों से निजात मिली और अपना जीवन खुद रचने-गढ़ने का मुगालता विश्वास बनकर छाती में बैठ गया। सुख तब भी नहीं था। कभी एक क्षण को प्रकट होता, लगता बस छू लेने भर की दूरी पर है, लेकिन फिर अगले ही क्षण गायब हो जाता।
Sunday, 4 October 2009
सुख कहां है ?
सुख कहां है? किसमें है सुख? जब मां ने अपनी मां और उनकी मां ने उनकी मां से विरासत में मिली बेडि़यों से लड़की के हाथ-पैर कसकर बांध रखे थे, अपने कमरे की खिड़की से दूर आसमान में उड़ते परिंदे को निहारती लड़की सोचती थी, परिंदा हो जाने में है सुख। जब अपनी तमन्नाओं के छोटे छोटे पर सिर्फ इसलिए कुतर देने पड़ते कि गांठ में चवन्नी भी नहीं होती थी और बेरोजगार पिता और टीचर मां के पास उन तमन्नाओं को उड़ने देने लायक आकाश नहीं था, तब लगता था जेब में चार पैसे हों, उसी में है सुख। चौथी-पांचवी-छठी कक्षा में इमली के दाग वाले स्कर्ट-ब्लाउज और बेतरतीब बंधी लेस वाले जूते पहने नाक बहाती लड़की, ग्यारहवीं-बारहवीं क्लास की अपने बालों और नाखूनों को करीने से संवारती स्त्रीत्व में खिल रही लड़कियों को देखकर अभिभूत होती और सोचती, उनके जैसी लड़की बन जाने में सुख है। लड़की गर्दन नीची कर अपनी सपाट छाती को देख सोचती, स्त्रीत्व के खिलने में ही है सुख।
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30 comments:
पहुँच से बाहर जो भी है सुख है…
हसने की चाह ने इतना हमे रूलाया है……
क्या कहूँ आपकी इस रचना के बारे। बहुत खुब लिखा है आपने, यतार्थ का बखूबी चित्रण किया आपने। बहुत-बहुत बधाई
क्या बात है. वाह!
कभी शब्द पढ़ता हूँ कभी चित्र देखता हूँ...
सुंदर, एक तवील नज़्म
"जब अपनी तमन्नाओं के छोटे- छोटे "पर", सिर्फ इसलिए कुतर देने पड़ते कि गांठ में चवन्नी भी नहीं होती थी |
bhutttttttttttttttttttttttt khoooooooob
जिन्दगी की चाह में निकले कि जिन्दगी से ही दूर हो बैठे। रोशन करने चले थे दुनिया को, पर खुद ही बे-नूर हो बैठे॥
इस पोस्ट को पढ़ मन में आया
सुख की बनी बनाई परिभाषाओं के पीछे तो हम सभी भागते हैं। जो नहीं मिल सका वो तो दुख का कारण है ही, पर जो थोड़ा बहुत है उनके अंदर झांक कर खुश होना भी जरूरी है व्यक्ति के लिए।
सुख कहीं मानसिक स्थिति तो नहीं ? मैंने दोनों तरह के लोग देखे हैं,एक वे जो दुखी न होने की ठान लेते हैं और हमेशा सुख की उजास में लिपटे दिखते हैं . दूसरे वे जिन्हें सदैव दुख की विलासिता में ही डूबे रहना रुचता है . यशपाल की प्रसिद्ध कहानी के महाराजा की तरह .
दुख और दुख के कारण-निवारण पर बुद्ध और न जाने कितने दार्शनिकों-विचारकों ने गहन चिन्तन किया है .बाकी सुख कहां है ? यह प्रश्न तो बहुत पेचीदा है . शायद अलग-अलग लोगों के सुख के स्रोत अलग-अलग हैं .
कुछ शाश्वत सुख भी होते होंगे क्या ?
"चाह गई चिन्ता गई मनुआ बेपरवाह
जाको कछु नहिं चाहिए सो ही शाहंशाह ।"
ये कबीर ही हैं न सुख की शहंशाही की शरीर-रचना बखानते हुए .
सुख एक छलावा मात्र है ज्यादातर मेक विलीव !
सुख सबके साथ अपनी मुक्ति के सामूहिक स्वप्न में है..
बस और कहीं नही
वक्त अच्छा भी आएगा नासिर,
ग़म न कर ज़िन्दगी पड़ी है अभी।
सुख-दुख की हर इक माला कुदरत ही पिरोती है...
हाथों की लकीरों में बस ये दौड़ती-फिरती है...
जय हिंद...
सलाम है !
"दफ्तर से थककर घर लौटते कदम सोचते, पर्स से चाबी निकालकर खुद अंधेरे कमरे का दरवाजा न खोलने में सुख है। दिन भर की टूटी देह के रात को किसी की गर्माहट में पिघल जाने में है सुख। हर रात कोई सोए मेरे बगल वाले बिस्तर में, उसी में है सुख। वक्त फिर गुजरा..............."
Bahut sundar !
सुख.... मतलब सामने लटकती वो गाजर जिसे पाने के लिए इन्सान ज़िन्दगी भर भागता रहता है...
सुख.... मतलब वो खुशबू जिसकी तलाश में कोई पूरे जंगल की खाक छानता रहे...!!!
लेकिन उसे क्या पता की विधाता ने उसे सुखी बनने के लिए नहीं सिर्फ भागने के लिए बनाया है.....
या ये भी हो सकता है की कभी तो उसे पता चल ही जाये की सुख की कस्तूरी तो दरअसल खुद उसके अन्दर ही है....!!!
पता नहीं शायद इसीलिए इन्सान करम करते जाओ वाली थ्योरी पर पहुँच जाता है... और मेरे जैसे नास्तिक भी गुनगुना उठता है....
हारिये न हिम्मत, बिसारिये न हरी नाम...
जाहे विधि राखे राम, तहे विधि रहिये...!!!
सुख कहाँ है ? आहा जिंदगी ! इसकी पड़ताल ४-५ सालों से कर रहा है?
बड़ा जटिल है कम्बखत ये सुख....जब लगता है हां यही है सुख..फिर कोई खवाहिश अपना सर उठा देती है .यूं भी सबके हिस्से का सुख जुदा है ......गुलज़ार साहब ने अपनी त्रिवेणी में कहा है ......
रोज उठके चाँद टांगा है फलक पे रात को
रोज दिन की रौशनी में रात तक आया किये ....
हाथ भर के फासले को उम्र भर चलना पड़ा
आप बहुत अच्छा लिखती है, दोहराता हूँ. आप बहुत अच्छा लिखती हैं...
सुख महसूस कर सकने की क्षमता में है . धन में सुख होता तो सारे धनी सुखी होते ! देह में होता तो आदमी ऊबता नहीं और नए की खोज में न निकल पड़ता! कुछ कुछ वैसा ही जैसा की "जब आवे संतोष धन सब धन धूलि समान."
दरअसल आपकी जो रागहीन दृष्टा की भूमिका बनती जा रही है वह चीजों में जीने की जगह उसको दूर बैठ कर देखने से बनती है.
यह आपको एक अच्छा लेखक बना सकती है क्योंकि भोक्ता सृष्टा नहीं होता अपितु दृष्टा ही सृष्टा होता है .
सुख सबके लिए अलग अलग होगा और यह उसकी मानसिक दशा और समझ पर निर्भर करेगा
सुख कहां है?..swaal to wahi ka wahi rah jata hai..sukh kaha hai?
सुख अपने भीतर ही होता है, पर लोग उसे अन्यान्य वस्तुओं में खोजते फिरते हैं।
Think Scientific Act Scientific
बेचैन कर देने वाला चिन्तन ! और अभिव्यक्ति - हैरत में डालती है ।
मैं पढ़कर सोचता हुआ जा रहा हूँ - कहाँ है सुख ?
जीवन बिना आवाज के तो सोच भी नही सकते ......संवादहीनता की इस भयावह दुनिया में रह पाना बहुत मुश्किल है ......हम मनुष्य मौन रह कर जी नही सकते ,हमे अपनी आवाजों को सहेजना ही पडेगा
और उसकी चाभियों के लिए ऐसी जगह खोजनी पड़ेगी जहाँ से जब चाहें तब खोल सके सन्नाटों के ताले .
सभी के सुख के अपने अपने पैमाने हैं
और सुख को पा लेने की अपनी अपनी चाहतें
हाँ फर्क चाहतों का भी है शायद
शायद सुख इस जानकारी में है की सुख कहीं नहीं है :) हर खिलौना कुछ समय के बाद पुराना लगने लगता है. मन की खदबदाहट तब तक चलेगी जब तक सुख की उम्मीदें रहेंगी.
sukh ki chah mei nari jiwan ki jis atripti ko bayan krte krte shayad aap ye bhul gaye in adhuri khusio mei hi jiwan ka sar chupa hai...kya wakai sukh paane ka koi suljha hua tarika ho sakta hai.jiwan ke is sanghars mmei, adhurepan mei hi to jiwan ka prawah hai..halanki naari jiwan ki wedana ka aapka waran nishay hi utkrist hai...
इतनी टिप्पणियों के बाद थोड़ा-बहुत तो प्राप्त हो ही गया होगा। वापसी मुबारक।
कई बार सोचती हूँ की सुख को पाने की ये चाह भी क्यों किसी लड़की के दिल में पैदा होती है...उम्र के हर पड़ाव पर एक बंधन होता है, एक और सीमा होती है...धीरे धीरे मन को बहला कर लड़की मुस्कुराना सीख जाती है...पर रात के किसी खामोश अँधेरे में सब छोड़ कर भाग जाने की चाह होती है...पर क्या अगले पड़ाव पर सुख होगा? मालूम नहीं.
’फ़्रेन्च लवर’ का एक सीन सामने नाच गया..जिसमे ’नीला’ एक अन्तरन्ग मोमेन्ट मे होने के बावजूद सोचती है कि ’इज़ दिस प्लेज़र?’...उस लाइने ने छू लिया था... और अभी तुम्हारे किस्से ने भी..
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