उन तमाम लड़कियों के लिए जिनके सपनों में इतने अनंत रंग थे जितने धरती पर समाना मुश्किल है, लेकिन जिनके सपनों पर इतने ताले जड़े थे, जो संसार की सारी अमानवीयताओं से भारी थे।
तुम जो भटकती थी
बदहवास
अपने ही भीतर
दीवारों से टकराकर
बार-बार लहूलुहान होती
अपने ही भीतर कैद
सदियों से बंद थे खिड़की-दरवाजे
तुम्हारे भीतर का हरेक रौशनदान
दीवार के हर सुराख को
सील कर दिया था
किसने ?
मूर्ख लड़की
अब नहीं
इन्हें खोलो
खुद को अपनी ही कैद से आजाद करो
आज पांवों में कैसी तो थिरकन है
सूरज उग रहा है नदी के उस पार
जहां रहता है तुम्हारा प्रेमी
उसे सदियों से था इंतजार
तुम्हारे आने का
और तुम कैद थी
अपनी ही कैद में
अंजान कि झींगुर और जाले से भरे
इस कमरे के बाहर भी है एक संसार
जहां हर रोज सूरज उगता है,
अस्त होता है
जहां हवा है, अनंत आकाश
बर्फ पर चमकते सूरज के रंग हैं
एक नदी
जिसमें पैर डालकर घंटों बैठा जा सकता है
और नदी के उस पार है प्रेमी
जाओ
उसे तुम्हारे नर्म बालों का इंतजार है
तुम्हारी उंगलियों और होंठों का
जिसे कब से नहीं संवारा है तुमने
वो तुम्हारी देह को
अपनी हथेलियों में भरकर चूमेगा
प्यार से उठा लेगा समूचा आसमान
युगों के बंध टूट जाएंगे
नदियां प्रवाहित होंगी तुम्हारी देह में
झरने बहेंगे
दिशाओं में गूंजेगा सितार
तुम्हारे भीतर जो बैठे तक अब तक
जिन्होंने खड़ी की दीवारें
सील किए रोशनदान
जो युद्ध लड़ते, साम्राज्य खड़े करते रहे
दनदनाते रहे हथौड़े
उनके हथौड़े
उन्हीं के मुंह पर पड़ें
रक्तरंजित हों उनकी छातियां
उसी नदी के तट पर दफनाई जाएं उनकी लाशें
तुमने तोड़ दी ये कारा
देखो, वो सुदरू तट पर खड़ा प्रेमी
हाथ हिला रहा है.....
15 comments:
अच्छी रचना है, पहले अपने ही भीतर की जैल से आजाद होना जरूरी है। आजादी के लिए।
कविता अच्छी है लेकिन मुझे लगता है कि आप लड़कियों के इलावा भी समाज के और कोनों पर नज़र डालें तो आप अपने लेखन शिल्प से दूसरे विषयों पर भी बहुत अच्छी कविताएँ लिख सकती हैं। मेरी शुभकामनाएँ।
शिल्प और कथ्य की एक सुन्दर ,प्रभावपूर्ण प्रस्तुति !
"तीर पर कैसे रुकूं मैं आज लहरों में निमंत्रण"
की याद दिला गई सहसा ये पंक्तियाँ !
मनीषा जी आपकी काव्यात्मक प्रतिभा
प्रणम्य हैं -शुभाशीष !
"जो युद्ध लड़ते, साम्राज्य खड़े करते रहे" इसलिये कि उन्होने जाना ही नहीं प्रेम का साम्राज्य सबसे बड़ा है ,इसकी कहीं कोई हद नहीं , इसे चारदीवारों में कैद नही किया जा सकता , इस पर पहरे नहीं बिठाये जा सकते ,ज़्यादा से ज़्यादा इसे तोप के मुँह पर बान्ध कर उड़ाया जा सकता है, गोलियों से छलनी किया जा सकता है, गला घोंट कर इसे मारा जा सकता है ..लेकिन यह प्रेम है ,इसे इच्छामृत्यु का वरदान मिला है .. यह अपने अंतिम लक्ष्य तक पहुंच कर ही रहता है । अरे मै यह क्या लिखने लगा मनीषा .. मै तो तुम्हारी कविता की तारीफ करना चाहता था ।
Excellent..!!
जो युद्ध लड़ते, साम्राज्य खड़े करते रहे
दनदनाते रहे हथौड़े
उनके हथौड़े
उन्हीं के मुंह पर पड़ें
रक्तरंजित हों उनकी छातियां
उसी नदी के तट पर दफनाई जाएं .nice
naनरी की अन्तरमन की वेदना और उन्मुक्त उडान की चाह को सुन्दर उपमाओं से उभारा है सुन्दर कविता शुभकामनायें
कमल की कविता है ... शुरू में खास लगी ... बीच में नोर्मल अलबत्ता बरसों पुरानी समर्पण और मासूमियत लिए हुए है किन्तु अंत को अत्यंत प्रभावशाली... बिम्बों को आपने ऐसे जोड़ा है की कविता मुकम्मल लग रही है...
आजाद ख्यालों से निकली
ये भावनाओं की तितली
सुंदर..अद्भुत है
kavita sundar hai.. par aap hamesha aadhi aabadi ka yahi swarup kyon prastut karti hain.. uttar ka intazar rahega..
जब रचना इतनी बेह्तरीन पढने को मिले तो शब्द भी नही मिलते कुछ कहने को। अद्भुत......
अपनी ही कैद में
अंजान कि झींगुर और जाले से भरे
इस कमरे के बाहर भी है एक संसार
शायद सबसे कठिन है स्वय से मुक्त हो पाना.
अपने रचे दायरे हमे बाहर नही निकलने देते.
बहुत सुन्दर रचना
वाह !!
क्या लिखा है
एहसास और भावनाओं का संगम
कविता लिखी गयी है हर लड़की के लिए...पर इस कविता को जीना कितना मुश्किल होता है...लगभग नामुमकिन.
पिछले २ सालों की तरह इस साल भी ब्लॉग बुलेटिन पर रश्मि प्रभा जी प्रस्तुत कर रही है अवलोकन २०१३ !!
कई भागो में छपने वाली इस ख़ास बुलेटिन के अंतर्गत आपको सन २०१३ की कुछ चुनिन्दा पोस्टो को दोबारा पढने का मौका मिलेगा !
ब्लॉग बुलेटिन के इस खास संस्करण के अंतर्गत आज की बुलेटिन प्रतिभाओं की कमी नहीं 2013 (12) मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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