Tuesday, 13 October 2009
उम्मीद
ढ़ाई साल पहले उदासी और उम्मीद के जाने कैसे नमकीन मौसम में ये कविता लिखी गई थी। कल सफाई करते हुए पुरानी किताबों के बीच कागज के एक टुकड़े पर लिखी मिली।
उम्मीद कभी भी आती है
जब सबसे नाउम्मीद होते हैं दिन
अनगिनत अधसोई उनींदी रातों
और उन रातों में जलती आंखों में
गहरी नींद बनकर दाखिल होती है
थकन और उदासी से टूटती देह में
थिरकन बन मचलने लगती है
सन्नाटे में संगीत सी घुमड़ती है
चुप्पी के बियाबां में
आवाज बन दौड़ने लगती है
सबसे अकेली, सबसे रिक्त रातों में
देह का उन्माद बन दाखिल होती है उम्मीद
हर तार बजता है
हरेक शिरा आलोकित होती है
उम्मीद के उजास से
बेचैन समंदर की छाती में उम्मीद
धीर बनकर पैठ जाती है
मरुस्थल में मेह बन बरसती है
देवालयों में उन्मत्त प्रेम
और वेश्यालयों में पवित्र घंटे के नाद सी
गूंजती है उम्मीद
उम्मीद कभी भी आती है
जब सबसे नाउम्मीद होते हैं दिन
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12 comments:
बहुत बढिया रचना है ।बधाई।
उम्मीद आती है
सबसे नाउम्मीद दिनो में
यह अच्छी कविता है लेकिन थोड़ा शिल्प पर और काम किया जा सकता है ।
देवालयों में उन्मत्त प्रेम
और वेश्यालयों में पवित्र घंटे के नाद सी
गूंजती है उम्मीद
उम्मीद की उम्मीद हमेशा और हर जगह रहती है.
सही कहा आपने
हाँ ऐसे ही तो आती है उम्मीद
देवालयों में उन्मत्त प्रेम
और वेश्यालयों में पवित्र घंटे के नाद सी
गूंजती है उम्मीद
उम्मीद कभी भी आती है
जब सबसे नाउम्मीद होते हैं दिन
मनीषा जी, अंत की अभिव्यक्ति अच्छी लगी
वाह !!
कभी बेहद नाउम्मीदी में घर वालों को उम्मीद भरी चिठ्ठी लिखी है ? फिर इसी चिठ्ठी को साल भर बाद पढिये...
..ना उम्मीदी कंटाजीयस है.....एक से दूसरे में फैलता है ..इसलिए आसोलेशन रूम में बैठना बेहतर है ...या लॉन्ग ड्राइव पे किसी पुराने दोस्त के पास जाना .....वैसे उम्मीद के कई केंडल कई सूरतो में मिलते है ......कभी पहचान कर देखिये ......
जैसे अभी एक गाना बज रहा है .....सपने बूंद बूंद ..नैनो को मूंद मूंद .....ये भी कई लोगो के लिए केंडल का काम करेगा ......
सबसे अकेली, सबसे रिक्त रातों में
देह का उन्माद बन दाखिल होती है उम्मीद
हर तार बजता है
हरेक शिरा आलोकित होती है
उम्मीद के उजास से..
bahut acchi lines hain..
waise aap khushnaseeb hain ki raat ke akele mein aapke paas ummeed aati hain.. (hamare paas to bas yaadein aati hain.. :P)
हर तार बजता है
हरेक शिरा आलोकित होती है
उम्मीद के उजास से
बहुत सुंदर
बिल्कुल सही फरमाया आपने ......जब नाउम्मीद होते है दिन तो उम्मीद भरे होते है ख्वाब......
इस 'उम्मीद' का देवालयों और वेश्यालयों से क्या लेना देना ? यह निरपेक्ष है उनसे ! मगर एक बात विचित्र है-इन दिनों कई पुरानी डायरियां और किताबों में दबे पन्ने अचानक ही उद्घाटित हो रहे हैं ब्लागजगत में! क्या यह कोई शुभ संकेत है ? दीपावली का आगमन तो खैर है ही !
बहुत सुंदर वर्णन। वास्तव में जब व्यक्ति बिलकुल नाउम्मीद हो जाता है, तभी उम्मीद की सबसे ज्यादा जरूरत होती है।
धनतेरस की हार्दिक शुभकामनाएँ।
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