Sunday, 18 October 2009

प्‍यार की मनाहियां और कुछ चोर दरवाजे

कल विनीत के ब्‍लॉग पर एक पोस्‍ट और दियाबरनीसे प्यार हो जाता ‍पढ़ी और मेरे बचपन की कुछ तस्‍वीरें अचानक याद हो आईं, जो कहीं अवचेतन में पड़ी होंगी और जिदंगी पर अपना असर छोड़ गई होंगी पर अब जो दिन-रात हथौड़े सी दिमाग में दनदनाती नहीं रहती।

कुल मिलाकर इलाहाबाद, प्रतापगढ़, जौनपुर और बंबई के पचासेक घरों में मां-पापा के परिवारों को मिलाकर हमारा खानदान सिमटा हुआ था। बंबई वाले बंबई में रहकर भी खांटी जौनपुरिया थे। बाद में जब बरास्‍ता बंबई हमारे खानदान का विस्‍तार बॉस्‍टन और न्‍यूयॉर्क तक हुआ, तब भी जौनपुर और प्रतापगढ़ का कीड़ा हम अपने साथ ले गए और वहां भी उस कीड़े की शाखाओं-प्रशाखाओं का विस्‍तार किया। प्रतापगढ़ हमने कभी नहीं छोड़ा।

घर में भविष्‍य के दूल्‍हों, (यानि लड़कों) की दुल्‍हनों को लेकर घर की बड़ी औरतें, बहनें, रिश्‍ते की भा‍भियां, चाचियां और कई बार मां-बड़ी मां तक मजाक किया करती थीं। चाची तीन साल के नाक बहाते लड़के, जिसे हगकर धोने की भी तमीज तब तक नहीं आई थी, से लडि़यातीं, का बबुबा, हमसे बियाह करब। बबुबा अपनी फिसलती हुई चड्ढी संभालते हों-हों करते मम्‍मी की गोदी में दुबक जाते। मम्‍मी लाड़ करती, क्‍यों रे, चाची पसंद नहीं है तुझे।' मैं मां से पूछना चाहती थी कि मेरा ब्‍याह किससे करोगी, लेकिन पूछती नहीं थी। तब ब्‍याह बड़ी मजेदार चीज लगती थी। कितना सज-संवरकर लड़कियां मंडप में बैठती हैं। सब उन्‍हीं की पूछ-टहल में लगे रहते हैं। इतने सारे रंग बिरंगे कपड़े, गहने, गिफ्ट, रोशनी, खाने को इतने सारे पकवान, मिठाई। शादी भी क्‍या मजेदार चीज है। रोज होनी चाहिए। एक बार, जब मैं कुछ चार बरस की रही होंगी, मां-पापा के साथ एक शादी में गई। एक सुंदर सी लड़की लाल रंग की साड़ी में और खूब सजी हुई मुझे इस कदर भा गई कि घर आकर मैंने पैर पटक-पटककर घर सिर पर उठा लिया कि मेरी शादी करो। मुझे भी उस लड़की की तरह सजना है। मां ने डांट-डपटकर चुप करा दिया लेकिन वो लाल रंग की सुंदर सी लड़की मेरे दिमाग में बैठी हुई थी और कभी-कभी उसका भूत ऐसा सिर चढ़कर नाचता कि मैं शादी की रट में मां को मुझे थप्‍पड़ लगाकर शांत करने के लिए मजबूर कर देती थी। बाद में बड़े होने पर उनके हजार समझाने पर भी जब मैं किसी दुबेजी, पाणेजी का घर बसाने के लिए तैयार नहीं हुई तो मां मेरे बचपन को याद करती और कहती, बचपन में जब मेरी शादी करो, शादी करो चिल्‍लाती थी, तभी कर दी होती तो अच्‍छा था। आज ये दिन तो नहीं देखना पड़ता। मेरे लिए तब शादी का मतलब साड़ी, गहने, सजना-संवरना, मिठाई और रसगुल्‍ला होता था। शादी में एक पुरुष का आजीवन का आधिपत्‍य भी होता है, पैर छूना और घर का सारा काम करना पड़ता है, सबसे पहले उठना और सबसे बाद में सोना पड़ता है और गाहे-बगाहे पति की डांट और अगर प्रतापगढ़ में शादी हो तो बिना अपवाद के पति की लात भी खानी पड़ती है, पता नहीं था। जब जिंदगी के इन रहस्‍यों ने आंखें खोलीं तो शादी से विरक्ति हो गई।

फिलहाल घर के लड़कों से प्‍यार-मुहब्‍बत को लेकर बड़े मजाक होते थे पर लड़कियों से नहीं। उन्‍हें लड़कों और प्रेम शब्‍द की परछाईं तक से दूर रखा जाता था। मुझसे कभी किसी ने नहीं पूछा कि फलाने से ब्‍याह करोगी। उतनी बड़ी लड़की हो जाने के बाद तो बिलकुल भी नहीं कि जब दुपट़टा ओढ़ना अनिवार्य हो गया, छत पर जाने की मनाही होने लगी और अड़ोस-पड़ोस के लड़कों के सामने दांत न दिखाने के अलिखित नियम तय होने लगे।

मेरे चचेरे भाई को अपने क्‍लास की कोई लड़की बड़ी पसंद थी। ताईजी कहतीं, क्‍यों रे, पिंकी टिंकी को रोज उसके घर तक छोड़कर आता है क्‍या, रोज स्‍कूल से आने में देर हो जाती है। गोलू दांत दिखाता। घर के सारे लोग दांत दिखाते। परिवार के प्रगतिशील पुरुष मुस्‍कुराते। पूछते, पिंकी से शादी करने का इरादा है क्‍या। गोलू फिर दांत दिखा देता। मुझसे किसी ने नहीं पूछा कि तुमको कोई पसंद है। शादी करोगी क्‍या।

बाद में जब बड़े होने पर मैं खुद ही बेशर्म होकर अपने दूल्‍हे की अपेक्षित खूबियां गिनाने लगी तो दादी को बड़ा गुस्‍सा आता। कहतीं, भाइयन के सामने आपन बियाहे के बात करत थिन। तनकौ लाज नाहीं लागत। यह शिकायत वो बात बात पर करती थीं कि मुझे लाज क्‍यों नहीं आती है।

प्रेम, पुरुष, जैसी चीजें कल्‍पना में भी मेरी दुनिया में न घुस जाएं, इस बात की पूरी सावधानी बरती जाती थी। मैं क्‍या पढ़ती हूं, इस पर नजर होती। इसके बावजूद मैंने लोलिता का कोई सड़कछाप रेलवे स्‍टेशनों पर बिकने वाला संस्‍करण भूगोल की किताब में छिपाकर पढ़ डाला था। जिस कमरे में पैर रखने की मनाही थी, उसमें घुसने के चोर दरवाजे भी हम निकाल ही लेते थे।


24 comments:

M VERMA said...

"जिस कमरे में पैर रखने की मनाही थी, उसमें घुसने के चोर दरवाजे भी हम निकाल ही लेते थे।"
बहुत सुन्दर तरीके से बयान किया है आपने सब कुछ. चलचित्र सा चलता गया. शायद इसलिए भी कि सारे परिवेश जाने पहचाने से लगे

siddheshwar singh said...

आत्मकथ्य के बहाने सामाजिक अनुकूलन की पड़ताल...और इसके समानांतर निज के बनावट की पहचान भी ...

कुछ ऐसा ही लग रहा है इसे पढ़कर और यह भी कि यह किसी सिलसिलेवार लेखन की एक कड़ी है शायद ?

बहुत अच्छा गद्य ।

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

घर घर की कहानी कमोवेश यही है

rajiv said...

Yahi to hai to hota hai maati se judav. Uski sondhi khushboo ke aage sab sugandh fail. Jaise main apne gaon ke ek patra ko aaj raat blog me Dalunga. Teenage ki kahani mai bhi sunaunga kabhi

परमजीत सिहँ बाली said...

यह समस्या तो अभी भी है लेकिन धीरे धीरे परिवर्तन आ ही जाएगा। बढिया पोस्ट है।

Anil Pusadkar said...

सही कह रही हैं,अधिकांश घरों की यही कहानी है।

Ambarish said...

जब दुपट़टा ओढ़ना अनिवार्य हो गया, छत पर जाने की मनाही होने लगी और अड़ोस-पड़ोस के लड़कों के सामने दांत न दिखाने के अलिखित नियम तय होने लगे।
गोलू फिर दांत दिखा देता। मुझसे किसी ने नहीं पूछा कि तुमको कोई पसंद है। शादी करोगी क्‍या
प्रेम, पुरुष, जैसी चीजें कल्‍पना में भी मेरी दुनिया में न घुस जाएं, इस बात की पूरी सावधानी बरती जाती थी। मैं क्‍या पढ़ती हूं, इस पर नजर होती..
taliban jaise pariwesh ko bakhubi dikhaya aapne atmakathatmak roop mein..
bahut acchi rachna...

मनीषा पांडे said...

अंबरीश जी, आपका ये समूचा मुल्‍क और खासतौर से हिंदी प्रदेश तालिबान ही हैं। तालिबान सिर्फ वहां नहीं है जहां चौबीस घंटिया खबरिया चैनल दिन-रात गला फाड़-फाड़कर दिखाते रहते हैं।

Ambarish said...

मनीषा पांडे said...
अंबरीश जी, आपका ये समूचा मुल्‍क और खासतौर से हिंदी प्रदेश तालिबान ही हैं। तालिबान सिर्फ वहां नहीं है जहां चौबीस घंटिया खबरिया चैनल दिन-रात गला फाड़-फाड़कर दिखाते रहते हैं।
han manisha ji.. main ye baat manta hun.. tabhi maine "taliban" nahi, "taliban jaisa" likha...
par conditions badal rahi hain.. shiksha ka prasaar ho raha hai aur ekdam se, ek pal mein change to aap expect kar bhi nahi sakte naa..
aur iske liye dosh dein bhi to kise? kya ham sab khud doshi nahi is tarah ke vyavhaar ke? aapne apni taai ki baat ki rachna mein, wo bhi to naari hi hain..
ummeed karte hain ki bahut jaldi paristhitiyan badlengi.. par ummeed se jyada hamein khud ko badalne ki jarurat hai.. hamein yah dekhna hoga ki hamne kya kiya..
aaj sab kahte hain ki desh politicians bhrasht hain aur desh ko barbaad kar rahe hain, par ham kya kar rahe hain, hamne desh ke liye kya kiya...
maaf kijiyega agar jyada bol gaya..

शरद कोकास said...

बचापन की बातों को इस तरह से याद करना दो वज़ह से होता है कभी कभी हम उन बातों से कोई राह निकालने की कोशिश करते है और कभी कोई ताकत पाना चाहते हैं ,विद्रोह की मानसिकता भी यहीं से बनती है । वैसे नोस्टेल्जिक सुख भी कभी कभी ही अच्छा लगता है । हमारे मन की गुत्थियाँ इसी तरह धीरे धीरे सुलझती हैं । यह अच्छा लगा ..कुछ अपने बचपन के चित्र भी याद आ गये , लोलिता तो खैर पोस्ट ग्रेजुएशन के दौरान उज्जैन में पढ़ी लेकिन ऐसे ही हिन्दी की किताब में स्कूल में गुलशन नन्दा की " प्यासा सावन पढ़ी थी जो किसीने दी थी मुझे छुपकर पढने के लिये । यह बचपन आज लिखने मे बहुत काम आता है ।

Udan Tashtari said...

कितनों की कहानी कह गईं आप...वाह!

Anonymous said...

घर घर की कहानी का बिंदास विवरण

बी एस पाबला

Dr. Shreesh K. Pathak said...

यादों से यादों की बरात निकल रही है..बहुत कुछ याद आ रहा है....शुक्रिया ..मनीषा जी...

डॉ .अनुराग said...

हर उम्र के अपने चोर दरवाजे होते है .ओर उनकी चाभिया...कुछ लड़के वक़्त से पहले उन दरवाजो में एंट्री मार जाते है ..कुछ अनजाने में खुली खिड़कियों के रास्ते दाखिल हो जाते है....हां कुछ बोर्डर लाइन जरूर जुदा जुदा होती है ...लड़के लड़कियों के वास्ते

eSwami said...

अपने अनुभव से कहूंगा कि, इमानदार आत्मकथ्य कई बार अन्य चिट्ठाकारों को असहज कर देते हैं या आपको ’जज’ किये जाने की असीम संभावनाएं पैदा कर देते हैं - और भी बुरा तब हो सकता है जब, अपनी "डर्टी लॉंड्री" खुल्ले मे ना धोने की इनडाईरेक्ट नसीहतें आने लग सकती हैं. दर-असल समाज अपनी सच्चाई देख कर डर जाता है!

इसलिये इमानदार आत्मकथ्य बहुत कीमती चीज है क्योंकि उसके लिये निश्चिंतता और साहस चाहिए. एक बहुत संतुलित, सहज और सुंदर लेख के लिए बधाई स्वीकारें और ऐसे ही लिखती रहें.

आपका ये लेख तो मुझे एक परिचिता की आपबीती याद दिलवा गया जिसे ब्लाग किया था [ http://hindini.com/eswami/archives/211 ] :)

अनूप शुक्ल said...

जय हो। बिंदास अनुभव पढ़ने को मिल रहे हैं।

rashmi ravija said...

छोटे शहरों में पली बढ़ी लड़कियों की कहानी बखूबी कह डाली आपने....'प्रेम' शब्द एक वर्जना के सामान था उनके लिए....और लडकियां भी बड़े बूढों को खुश रखने के लिए ऐसा दर्शाने को मजबूर हो जाती थीं कि उन्हें तो पता भी नहीं 'प्रेम' किस चिडिया का नाम है..

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...

इस ब्लाग के कई चोर दरवाजे तो हमने भी ढूंढ रखे थे, पर चोरी करने के लिए एक साल से कोई नया माल मिला ही नहीं। बहुत अच्छा लगा आपकी खामोशी देरी से टूटी पर टूटी तो सही, इन दिनों लगातारआपको पढ़ रही हूं पर कमेंट नहीं करती,आखिरकार आज खुद को रोक नहीं पाई

ताऊ रामपुरिया said...

सारे दुनियां जहांन का यही हाल है.

रामराम.

Puja Upadhyay said...

आपकी बात से पूरा इत्तिफाक रखती हूँ...प्यार की परछाई तक लड़की पर न पड़े इसका ख्याल रखा जाता था, इसलिए तो प्रेम विवाह की कहानियां दबा दी जाती thin...इसलिए ऐसी ladkiyon से milna mana कर दिया जाता था जो प्यार की बातें करती थी...यही नहीं कविता करना भी bura mana जाता था क्योंकि कविता का तात्पर्य था की कहीं न कहीं प्यार अंकुरित हो रहा है.
आपकी पोस्ट कई सारी बातें याद दिला गयी बचपन की...

गिरिजेश.. said...

मनीषा,
आप भाषा की धनी हैं लेकिन कभी कभी लगता है कि आपको अपने अनुभवों और मान्यताओं के सॉफ्टवेयर में live update जैसा कुछ लगाना चाहिए...। हमारे आस-पास सबकुछ बहुत तेज़ी से नहीं, तो धीरे-धीरे ही सही, लेकिन लगातार बदल रहा है। चीजें थमी हुई नहीं हैं। आपके संस्मरणों, टिप्पणियों में उस गति, उस बदलाव की भी झलक मिले तो बातें ज्यादा कनविंसिंग लगेगी। आप तो वैसे भी 'प्रगतिशील' हैं:-)
यहां आपकी दो टिप्पणियां हैं जो मुझे एकतरफा और आउटडेटेड सी दिखाई दीं, जहां लंबी बहस की गुंजाइश है।
- आपका ये समूचा मुल्‍क और खासतौर से हिंदी प्रदेश तालिबान ही हैं।
- शादी में एक पुरुष का आजीवन का आधिपत्‍य भी होता है, पैर छूना और घर का सारा काम करना पड़ता है, सबसे पहले उठना और सबसे बाद में सोना पड़ता है और गाहे-बगाहे पति की डांट और अगर प्रतापगढ़ में शादी हो तो बिना अपवाद के पति की लात भी खानी पड़ती है, पता नहीं था। जब जिंदगी के इन रहस्‍यों ने आंखें खोलीं तो शादी से विरक्ति हो गई।

सादर,
गिरिजेश

शोभना चौरे said...

har ladki ki dasta
bahut sundar sahili

डॉ.भूपेन्द्र कुमार सिंह said...

Aapki kafi posts padhi aur muttasir hua,you have a natural talent for kissagoi styla ,I muat appriciate.
Pratapgarh se aap ka judaw kaise hai pata nahi par kafi galatfahmiyan bhi hai ,koi roj pitata ho aisa kaha dekhliya aapne?
ye baat is liye kah raha hoon kyonki Pratapgarh mera bhi ghar ahi.
Bura na maniyega .Aapko padha bahut accha laga .Aap ki jagah karyarat hain?
I am posted at govt .t.r.s.college Rewa as A.P in Hindi.
Pl keep writing,I have subscribed yr blogs for new posts .
With best wishes and regards,
dr.bhoopendra singh

adya said...

true