Monday 19 October 2009

स्‍वेटर बुनने वाले प्रोफेसर




29 comments:

विनीत उत्पल said...

बहुत खूब. मजा आ गया.

M VERMA said...

खूबसूरत स्वेटर
आकर्षक व्यक्तित्व
बहुत सुन्दर आलेख
दिलचस्प आलेख

दीपक 'मशाल' said...

achchha sansmaran hai....

निशांत said...

२५ साल पहले पिताजी की पोस्टिंग मनेन्द्रगढ़ (छत्तीसगढ़) में एक बैंक में थी. वहां एक सज्जन खाली समय में स्वेटर बुनते थे. आपकी पोस्ट पढ़के वह याद आ गया.

L.Goswami said...

बहुत खूब, आपकी पोस्ट को आज फेसबुक में मेरे स्टेटस में लगा दिया है :-)

सागर said...

ये कहाँ आ गए हम... !!!!

कौना गाव है हो ?????

सागर said...

वैसे आपको उनका नाम बताना चाहिए था... कितने कम हैं ऐसे प्रोफेसर, है ना

PD said...

badhiya..
vaise ek bat bata dun.. sweater bunna mujhe bhi aata hai, aur silai kadhai karna bhi.. :)

Puja Upadhyay said...

बड़ा प्यारा किस्सा है...और ये टिपण्णी जो नहीं आई और भी मज़ेदार. रउआ ठीक कहत बानी...दुनिया केहर जात बा :)

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

फ़ंदे डालना भी एक कला है, जो फ़ंदे डालना जानता है वही खोलने का मंत्र भी ढुंढ लेता है, यही सायकोलाजी है,यही प्रोफ़ेसर साहब कर रहे हैं, यदि हर आदमी ये काम सीख ले तो तीन फ़ायदे होंगे।
एक किसी के फ़ंदे मे नही फ़ंसेगा,दो स्वेटर तैयार हो जायेगी,तीन बीवी भी खुश-ठीक रही ना।

Arshia Ali said...

प्रोफेसर साहब से मिलकर खुशी हुई।
( Treasurer-S. T. )

Archana said...

bbahut khub

अनिल कान्त said...

Bahut Khoob !!

Arvind Mishra said...

इस पोस्ट का एक निहितार्थ यह भी है की पुरुष सब कामों में सहज ही सहज है !

विवेक रस्तोगी said...

हमने भी ऐसे कई लोग देखे हैं जो स्वेटर भी बुनते हैं और खाना बनाने में भी मास्टरी है।

Creative Manch said...

बहुत सुन्दर आलेख
लेखन शैली बहुत आकर्षक है

शुभ कामनाएं

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अनुराग अन्वेषी said...

मनीषा जी, अर्से बाद मैं ब्लॉग देखने बैठा। अपने ब्लॉग पर आपकी नई पोस्ट की जानकारी मिली। वाकई खुशी हुई। खुशी की दो वजहें। एक तो यह पोस्ट अच्छी लगी, दूसरी वजह कि मेरे ब्लॉग पर आपके ब्लॉग का जो पंचलाइन है वह झूठा साबित हुआ। इस दूसरी बात की खुशी मुझे ज्यादा है। मैंने वहां पंचलाइन रखा था .इन दिनों डायरी से बेदखल. बहरहाल, उम्मीद है कि डायरी पर दखल बरकरार रहेगा।

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर said...

आपको बतायें कि जब हम कक्षा 6 में थे तब हमने भी अपना स्वेटर बुना था। यहाँ आपके संस्मरण में एन साहब का काम करना जानना महत्वपूर्ण नहीं है महत्वपूर्ण यह है कि हम कब और कितना अपने परिवार को सहयोग दे रहे हैं। किसके सामने हम घरेलू काम कर रहे हैं।
आपके द्वारा रखा गया यह संस्मरण उन लोगों की आँखें खोलने के लिए शायद पर्याप्त है जो बात-बेबात अपने घर की महिलाओं को मात्र काम वाली समझते रहते हैं। बधाई

शरद कोकास said...

प्रोफेसर साहब के बारे में यह जानकर अच्छा लगा लेकिन यह सच है कि नानी दादी ही नहीं हमारे यहाँ के पुरुष भी यही कमेंट करेंगे इसलिये कि वे भी उन्ही नानी दादियो और नाना दादाओं के पोते हैं । सायास यदि कोई चाहे तो इन परम्पराओं से मुक्ति पा सकता है अन्यथा यह दुनिया ऐसे ही चलती रहेगी । फिर भी इस कोंचने वाले संस्मरण के लिये धन्यवाद ।
@निशांत बैंक मे स्वेटर बुनने वाले उन सज्जन के बारे मे मैने भी सुना है । ऐसे ही लोगों के कारण आज काम का यह आलम है कि बैंक से घर लौटकर थकावट के कारण पुरुष अपने हाथ से पानी भी लेकर पी नहीं सकते लेकिन वहीं बैंक मे काम करने वाली स्त्रियाँ सुबह पूरा खाना बनाकर जाती हैं और घर लौटकर पूरा खाना बनाती हैं ।धन्य है वे ।

ghughutibasuti said...

मनीषा, प्रोफ़ैसर साहब से मिलवाने के लिए आभार। शायद वे मनोविज्ञान को सही समझ गए। जो आंतरिक शांति हाथ का काम करने से मिलती है वह किसी अन्य काम से नहीं। गाँधी जी का चरखा चलाना हो, स्त्रियों द्वारा कढ़ाई, बुनाई, सिलाई, ये सब काम मन को बहुत शान्त कर देते हैं। शान्ति की आवश्यकता पुरुषों को स्त्रियों से कम नहीं है।
घुघूती बासूती

अर्कजेश said...

पॉवर की प्रॉब्लम !

डॉ .अनुराग said...

..यूं भी कहा जाता है १४४ आई क्यू वाले दुनिया की बंधी बंधाई परिपाटी पे नहीं चलते .....हमारा वास्ता एक दो से पड़ा है .स्वेटर तो नहीं बुनते थे ...पर हां एक दो अजब काम जरूर करते थे

Abhishek Ojha said...

वाह ! अच्छा लगा इनसे मिलकर. ये फिरंगी प्रोफेसर होते ही ऐसे हैं :)

Udan Tashtari said...

स्वेटर वाली बात छोड़ दो तो हमारे लिए भी यही कहना: आदमी के मेहरा बनाए देई औरत...हा हा!! कनाडा भी लागू है हम पर.. :)

शोभना चौरे said...

hamne kam ke vargikarn kar diye hai jisse ham apne aap ko alg nhi kar pate \
badhiya post

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ said...

Sweater bun na to nahin, haan khana banana main bhi janta hu. Bahut khoobsoorti se likha gaya hai!
Ashish
www.myexperimentswithloveandlife.blogspot.com

Manish Kumar said...

पाक कला में सिद्धस्त तो कई महानुभावों को देखा पर स्वेटर बुनने की बात तो यहीं सुनी। बाकी आपकी काल्पनिक टिप्पणी ने हँसने पर मजबूर कर दिया।

इलाहाबादी अडडा said...

मनीषा जी, आपके ब्‍लाग में पहली बार आया लेकिन पहली बार में ही तबियत खुश हो गयी। इसमें भी प्रोफेसर साहब वाला किस्‍सा तो सचमुच लाजवाब है। आप तो इलाहाबाद में पढी हैं इसलिए आपको शायद मालूम हो कि खुद आपके इसी विश्‍वविद्यालय के एक नहीं बल्कि तीन प्रोफसर इन्‍हीं प्रोफसर साहब के अंदाज के हैं लेकिन उनकी लोकप्रियता के बारे में मैं कुछ नहीं कह सकता । अगर आपको न मालूम हो तो अपने साथियों से पूछिये शायद वे बता सकें।
लेकिन आपकी पोस्‍ट सुन्‍दर रही।

के सी said...

किस्सा भी कहें इसे तो ये रोचक होने के साथ कई बारीक प्रश्न उठाता है, आपने जिस सादगी से बात कही है वह मुझे उतनी ही जटिलता से अपने भंवर में खींच ले गयी है. ज़िन्दगी के प्रति अपने बर्ताव के सारे कारण हम अक्सर बाहर से उठा लाते हैं. हमारी अपनी निर्धारित की हुई चीजें ज़िन्दगी में कम ही होती है. प्रोफेसर ने अपनी ज़िन्दगी को खुद के लिए बिताने का निश्चय किया हुआ लग रहा है जैसा कि एक आम आदमी नहीं कर सकता वह हमेशा लीक पर चलता है और परिपाटी का पोषण करता है. आपको फिर से आभार कहने का मन है मैंने कल पूरा काम किया है घर का, मुश्किल तो बहुत है पर आनंद उससे भी अधिक है.